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पंच भावना सज्झाय
अपने नाम की तरह ही मुनि को सारा श्रुत कण्ठस्थ है। फिर भी कालपरिमाण के लिये श्रुताभ्यास करे। श्रुत-परावर्तन के आधार पर उछ्वास का काल मान जाना जाता है । फिर उछ्वाससे निःश्वास, निःश्वाससे प्राण,प्राणसे स्तोक, स्तोक से महत, मुहूर्त से पौरुषी, पौरुषी से दिवस और निशा का परिज्ञान होता है।
काल मान की आवश्यकता--जब कभी आकाश मेघाच्छन्न हो, तब मुनि को उभय काल की क्रियाओं के प्रारम्भ और परिसमाप्ति का शान श्रुत परावर्तन से करना पड़ता है । श्रुत परावर्तन से कालमान निकालने की महत्ता इसलिये है कि जब आकाश निर्मल हो तब धूप और छाया से काल-माप निकालने से श्रुताभ्यास में विघ्न आता हैं । श्रुताभ्यास में इतना सूक्ष्म साक्षात भी क्यों होने दिया जाय, जब कि काल मापने का साधन स्वयं अत परावर्तन है।
सबसे बड़ा तप-श्रत---भाष्य की ११६६ वीं गाथा में श्रुत-स्वाघ्याय को सब से बड़ा तप कहा है. (नवि अस्थि नवि होही सभाय समं तवोकम्म ) इसलिए सूत्र भावना का विशेष महत्व है। - चौथी एकत्त्व-भावना में कहा है कि दीक्षित होने से स्वजनों का स्नेह तो छूट जाता है। किंतु सम्प्रदाय, आचार्य, गुरु श्राता, तथा शिष्यों के साथ स्निग्ध अवलोकन, आहार उपधि आदि का लेन देन, सूत्र, तथा अर्थ की प्रतिपृच्छा, समवयस्कों से किंचित हास्य तथा बातें करते रहने से एक विशेष प्रकार का ममत्व हो जाता है। इस राग का निवारण के लिये एकलविहारी बनना उचित है, संघ, आचार्य, शिष्य आदि का स्नेह छूट जाने के पश्चात् आहार और उपधि का ममत्व क्षीण होने लगता है। तत्पश्चात् शरीर का ममत्व छोड़ने का समय आ
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