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परिशिष्ट (ख)
= पांच अप्रशस्त-भ त-भावनायें=
पूर्वोक्त पांचों भावनायें प्रशस्त होने से मुनि के लिये आदरणीय हैं । और निम्नोक्त पांचों - भावनायें अप्रशस्त होने से सर्वथा त्याज्य हैं । अपनी आत्मा का उत्तरोत्तर विकास चाहने वाले को चाहिये, कि इन अप्रशस्त भवनाओं से परे रहे । संक्षेप में इनका स्वरूप तथा भेद इस प्रकार है ।
(१) कांदर्पी भवना=अट्टहास्य करना, गुरुजनों के साथ निष्ठुर तथा वक्र बोलना, काम की कथा - काम की प्रशंसा तथा काम का उपदेश करना, भांड की तरह कायिक तथा वाचिक कुचेष्टाओंसे गौरोंको हँसाना कांदर्पी भावना कहलाती है । ऐसा करनेवाला मुनि संयमका विरोधक होकर बिङ्ग प्राय ( कंदर्प - विट प्राय ) देवता में जन्म लेता है – (१)
(२) देवकिल्विषी भावना) = ज्ञान की, केवलज्ञानी की, धर्माचार्य की, साधुओं की निंदा करना " दैवकिल्विषी" भावना कही जाती है। इस भावना वाला मुनि किल्विष ( अत्यज स्थानीय ) देवता का आयुष्य बाँधता है .।... (२)
(३) आभियोगी भावना = भूतिकर्म, ( डोरा बांधना ) प्रश्न, ( रमल प्रश्नावली प्रश्नाप्रश्न, ( विद्याधिष्ठित देवी का कहा हुआ उत्तर प्रश्नकर्त्ता को बतलाना ) निमित्त, ( अष्टांग निमित्त ) आदि से आजीविका करनेवाला मुनि आयुष्य पूर्ण करके आभियोगिक ( भृत्य स्थानीय ) देवयोनि में उत्पन्न होता है ... (३) (४) आसुरी - भावना - कलह करना, पूजा प्रतिष्ठा के लिये तपस्या करना,
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