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________________ प्रभजना नी सज्झाय नाम उद्योत नाम १० स्थावर नाम ११ सूक्ष्म नाम १२ साधारण नाम१३ निद्रानिद्रा १४ प्रचलाप्रचला १५ और स्त्यानर्द्धि १६ इन सोलह कर्म प्रकृतियों को खपाते हैं। फिर अधबीच में छोड़ी हुई कषाय अर्थात द्वितीय तृतीय चौकड़ी ( अप्रत्या ख्यानो चतुष्क और प्रत्याख्यानी चतुष्क का नाश किया है। उसके बाद युगल वेद अर्थात अपने चालू वेद को छोड़ कर शेष दो वेदों को खपा कर हास्य-रतिअरति-भय-शोक- दुगु छा की सता को मिटा करके अपने वेद ( अर्थात् स्त्रीवेद ) को खपाया ) ॥ ४-५ ।। थइ अवेदी ने अविकारी, हण्यो संजलनो कषायो । ८६ मारयो मोह चरण खायक करी, पूरण समता समायो रे । अ०६ । भावार्थ तत्पश्चात् अवेदी और अविकारी होकर के संज्वलन क्रोधमान माया लोभ खपा करके चारित्र - मोहनीय कर्म को सर्वथा खपादिया । अर्थात् यथाख्यात चारित्र को पालिया । इससे पूरण समता में समा गई ॥ ६ ॥ घनघाती त्रिक योद्धा लडिया, ध्यान एकत्व ने ध्यायो । ज्ञानावरणादिक भट पडिया, जीत निशान घुरायो रे । अनु७ । भावार्थ-अब क्षीण मोहनीय के अंतिम दो समयों में से पहले समय में निद्रा प्रचला को खपाकरके अंतिम समय में एकता रूपी ध्यान से तीन घन घाती अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अंतराय कर्म रूपी योद्धाओं को मार कर जीत का निशान घुरा दिया ॥७॥ केवल ज्ञान दरसन गुण प्रगट्या, महाराज पद पायो । शेष अघाती कर्मक्षीण दल, उदय अबंध दिखायो रे । अनु ८ । भावार्थ — तत्पश्चात् केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रगट होने से वीतराग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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