SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तप भावना आचार सूयगडांग मां, तिम कहयो हो भगवई अंग। उत्तराध्ययन गुणतीशमें, तर संगे हो सहु कर्म नो भंग भि. भावार्थ-आचोरांग, सूयगडांग, भगवती, तथा उत्तराध्ययनसूत्र के उनतीसबै अध्ययन में कहा है कि, तपस्या से सारे कर्मों का नाश हो जाता है ॥७॥ ते दुविध दुक्कर तप तपे, भव पास आश विरत्त । धन्यसाधमुनि ढढण समा,२ऋषिखंधकहोतीलग कुरूदत्ताभ. ___ भावार्थ-वे मुनि बाह्य आम्यंतर इन दोनों प्रकार का दुष्कर कठोर तप करते हैं और सांसारिक बंधन स्वरूप किसी वस्तु के प्रति अभिलाषा नहीं रखते, सांसारिक आशाओं से विरक्त रहते हैं ऐसे निष्काम भावों से तपस्या करने वाले १ ढंढण २खंधक, ३तीलग, तथा ४कुरुदत्त जैसे मुनियों को धन्य है ॥८॥ निज आतम कंचन भणी, तप अग्नि करी शोधंत । नव नवी लब्धि-बल छतै, उपसर्ग हो ते सहंत महंत हाम० __ भावार्थ अपनी आत्मा रूपी सोने को तपस्या रूपी आग द्वारा तपाकर कर्मोंका मैल निकाल डाले, ऐसे उन्नतपस्वियों को नई नई लन्धियाँ और सिद्धियां प्राप्त हो जाती है किंतु सिद्धियों के होते हुए भी उनका योग वे.स्व कष्ट-निवारण के लिए नहीं करते हैं अपितु कष्टों को समता से सहन करते रहते हैं ~~ धन्य ! तेह ज धन गृह तजी, तन स्नेह नो करी छेह । निःसंग वनवासे वसे, तपधारी हो ते अभिग्रह गेह ।१०म० *१-२-४ इनकी जीवनियां परिशिष्ट में पढ़िये । तीलप का वृतांत बात नहीं हो सका। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy