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पंच भावना सज्झाय
जिम-जिम प्रतिज्ञा दृढ थको, वैरागीयो तपसी मुनिराय। तिम-तिम अशुभ-दल छीजवे, रवितेज रे मशीतविलाय.४ाम.
___ भावार्थ...तपस्या भी वैराग्य एवं दृढ़ मनोबल के बिना नहीं हो सकती; देहासक्ति का त्याग तो तप के लिये अत्यावश्यक है । इसलिये कहा गया है कि पैरागी और तपस्वी मु नि ज्यों-ज्यों अपनी की हुई ( व्रत व तप की) प्रतिज्ञा पर दृढ़ होते जाते हैं, कष्ट उठा कर भी दृढ़ निश्चय पर डटे रहते हैं; त्यों-त्यों अशुभ कर्मों का समूह छीजता जाता है। जैसे कि शरदियों में ज्यों-ज्यों सूर्य का प्रकाश फैलता है त्यों-त्यों शीत का विनाश होता जाता है । ४ ॥ जे भिक्ष पडिमा आदरे, आसन अकंप सुधीर । अतिलीन समता भाव मां, तृण परे हो जाणंत शरीर शाम
भावार्थ...जो मुनि भिक्षु-पडिमा ( साधु के लिए बारह प्रकार की विशेष प्रतिज्ञाएं ) आदरता है, वह धैर्यवान मुनि अपने आसन को अकम्प ( अचल ) रखता है अर्थात उपसर्ग आने पर भी डोलता नहीं । तथा समता में इतना लीन हो जाता है कि अपने शरीर को भी तृण तुल्य समझता है अर्थात शरीर की भी परवाह या सार सम्भाल नहीं करता ॥ ५॥ जिण साहु तप तलवार थी, सूडयो छै हो अरि मोह गयंद तिण साधु नो हूँदास छ, नित्य वंदु रेतसपय अरविन्द।६।भ. ___ भावार्थ-जिस साधु ने तप रूपी तलवार लेकर शत्रु के समान मोहरूपी हाथी को मार डाला है,उस साधु का मैं दास हूँ। और उसके चरणकमों को नित्य वंदना करता हूं-६
टिप्पणी...१ से ६ तप का विवरण परिशिष्ट में देखो।
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