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________________ ढाल ? तप भावना की अनुमति दीधो माए रोवती... ए देशी... १ रयणावली २ कनकावली, ३ मुत्तावली ४ गुणरयण ५वज्जमध्य ने ६जवमध्य ए,तप करि ने होजीपोरिपु मयण ।। भवियण तप गुण आदरो, तप तेजे रे छीजे सहु कर विषय विकार सहु टले,मन गंजे रे भंजे भव भर्म । भवि० २। भावार्थ...श्रुत भावना के पश्चात् तप भावना का स्थान है। क्योंकि शानी पुरुषों को भी पुरातन कर्मो को तोड़ने के लिए तप का सहारा लेना पड़ता है । हे भव्यजनो ! तपस्या के गुण अपनाओ ! इस तपके तेज से सारे कर्म छीज बाते हैं और विषय विकार टल जाते हैं । मन वश में आ जाता है। जन्म-मरण का भ्रम दूर हट जाता है । आगमों में तप करने की अनेक विधियाँ बतलायी हुई है, उनमें से रलावली, कनकावली, मुक्तावली, गुणरल सम्वत्सर, वज्रमध्य,जवमध्य, जैसी कठिन तपस्याओं से अन्तरङ्ग शत्रु मदन ( काम वासना ) को अवश्य जीतो। शरीर एवं इन्द्रियों की कमजोरी से वासना भी निर्बल बन जाती हैं। १-२ । जोगे जय इन्द्रिय जय तदा, तप जाणो हो कर्म सूडण सार । उवहाणे योग वहा करी, शिव साधेरे सूधा अणगार । ३भ० । . भावार्थ...तपस्या से योगों ( मन-वचन-काया ) तथा इन्द्रियों पर विजय पायी जाती है, इसलिए कर्मों को तोड़ने में तप सारभूत है । उपधान तथा योगोदबहन करके सरल व शुद्धाचारी मुनि मोक्ष को साधे...! ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003824
Book TitlePanch Bhavnadi Sazzaya Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherBhanvarlal Nahta
Publication Year1964
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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