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कान्त सुधारस
कल्पना करता है, चाप से बाण से वैरियों के हृदय वेध डालू, ग्राम नगर जलाकर लूटकर, सारी सम्पदा अपने अधिकार में करलू ? अपने पराक्रम से अनेक कुल संहार कर, गढ़ किले ढाह कर, समुद्र खाइयां पार कर, जहां भी मेरे शत्रु हैं, उन्हें जीतकर ना प्रताप फैलाऊ, राजा बन जाऊ । परिग्रह प्राप्ति लिए अनेक विकल्प करता है ।
एक अंग को पीडित करता है, किन्तु यह लालसा तो सर्वांग वेदना करती है । धन के लिए अपने परिणामों का, भावनाओं का, अन्तरध्वनि का गला घोंटता है । कृष्ण लेश्या वाले जीव को रौद्रध्यान होता है । परिणाम में नरक प्राप्त होता है । यह ध्यान पंचम गुणस्थान पर्यन्त रह सकता है ।
रौद्रध्यानी का वचन उग्र, तीक्ष्ण, कठोर, भयोत्पदाक होता है । हत्या उसके बांए हाथ का खेल है। आंखें क्रोध के अंगारे उछालती रहती हैं। शरीर कांपता ही रहता है ।
हे चिदानन्द ? आर्त्त रौद्रध्यानानि से धर्म कल्पतरू झुलस जाता है । इन्द्र; चक्रवर्ती, तीर्थकर पद देनेवाले धर्म ध्यान का आलम्बन लेना चाहिए ।
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