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शान्त सुधारस
होकर, तपादि के प्रतिदान में संसार वृद्धि करनेवाले, महा दुख के कारणरूप, संकल्प विकल्प करना । इस प्रकार के निदान करने से जीव प्रतिपल दुख दावानल में जलता ही रहता है।
हे जीव ! बिना पुण्य किसी के भी मनोरथ सिद्ध नहीं होते, तू मिथ्या विकल्प मत कर ।
अपथ्य सेवन से जैसे रोग उग्र हो जाता है, वैसे ही निदान करने से सुकृत नष्ट हो कर, जन्म-मरण रूप व्याधि बढ़ जाती है। ... इस आत्त ध्यान रूप व्याधि की उपस्थिति की सम्भावना, मिथ्यात्व से लेकर पंचम देशविरतीय गुणस्थान तक रहती है। आगे कृष्ण, नील, कापोत लेश्या के कारण, छठे गुणस्थान में भी आतध्यान मुनि को उपसर्ग कर सकता है। आत ध्यान में यदि आयुबंध हो जाय तो गुणस्थानों से पतित होकर तिर्यश्चगति में आता है।
___ यदि अन्तर्मुहूर्त मात्र जीव को अत्त ध्यान हो तो उसकी दशा सशंक सी हो जाती है। शोक, पीड़ा, भय, प्रमाद, कलह, भ्रम, उन्माद, अतिनिद्रा, कषाय, कामपीड़ा, ऐसे
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