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शान्त सुहास निर्विकारी संयमी को जो सुख उपशम भाव में शाम होस है, वह सुख इन्द्र को भी दुर्लभ है।
जिस समय विकारमुक्त होकर निजत्व के अज्ञान का विलय करता है उस समय मिथ्यात्व मुक्त होकर निर्वाण पथ पर अग्रसर होता है जब तक निजत्व का अज्ञान मौजूद है तबतक जप, तप, संयमसाधनाएँ परमपद की हेतु नहीं बल्कि संसार परिभ्रमण का कारण मात्र है।
हे पथिक ! जब तक तू अपने आप को भूलकर चौरासी में भटक रहा है, तब तक चाहे जितना धीर-वीर पराक्रमी मुनि बन कर व्यवहार संयम का पालन कर, किन्तु मुक्ति नहीं मिलने की। द्रव्यलिंगी भावलिंग के अभाव में सर्वथा निष्परिग्रही होकर एकान्त हिमालय कन्दग में अथवा निर्जन तटिनी तट पर चाहे जितना तप करे फिर भी कर्म पास तोड़ने
असफल ही रहेमा । उसका सारा का सारा साधन संसार भ्रमण का कारण होगा। अतः हे चेतन अपनी लन्धि की रक्षा कर शान्त रस चख । ताकि परमपद प्राप्त हो ।
हे चेतन ! भले, सुन्दर शुभ शरीर, मनोहर रूप, अच्छे ये-अच्छा संयोग मिल जाय, किन्तु जिसे अपने आप के
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