________________
अवस्था में जाने की कोई
जीवन में
किसी का बुरा
कभी हाथ
खराब किया ।
भाई जी ! मेरे मन में ऐसे भाव आते हैं कि मुझे भवभव में जैन धर्म मिले, प्रभुकी पूजा - भक्ति करूं। मुझे आप लोगों जैसे बाबा, भाई आदि मिले हैं, मैं अपने को धन्य मानता हूं। मुझे २२ वर्ष को तरुण चिन्ता नहीं है । मुझे इतना सन्तोष है कि मैंने अपने नहीं किया । अपनी नजर खराब नहीं की और न भाईजो ! मैने तो कोई पाप नहीं किया फिर यह दशा क्यों ? मैने कहा भाई ! सात कर्मों की प्रकृतियों का बन्ध तो सदैव होता ही रहता है पर आयुष्य-कर्म तो एक भव में एक ही वार भावी भव का बन्ध करता है अतः पूर्व जन्म के बंधे हुए युष्य बंध को न्यूनाधिक करने में तीर्थंकर चक्रवर्ती भी असमर्थ है तो फिर दूसरों की बात ही क्या ? यह शरीर तो नाशवाने है । एक जाने से फिर दूसरा वस्त्र पहनते हैं, इसी प्रकार यह चोला छोडकर नयी देह धारण करनी होती है । इस विनाशी देह पर मोहन करके - आत्मभावना में लीन रहने से ही मृत्यु पर विजय प्राप्त की जासकता है । मनोहर ने कहा- आपका कथन यथार्थ है, मुझे मृत्यु से लेशमात्र भी भय नहीं। मैं अजर अमर अविनाशी हूँ, आप लोग कोई भी मेरे लिए चिन्ता न करें । देखिये ! मेरे सुसराजी सामने खड़े हैं, उनकी आंखों में आंसू न आने पावे ।
वस्त्र जीर्ण हो
-
फिर मनोहर से कहा : " सुसराजी ! मैंने आयु थोड़ी पाई। आपकी पुत्रो से. १९ ॥ वर्ष का हो संबंध था । इस अवधि में मैंने जो कुछ अनुचित व्यवहार किया हो उसके लिए मन, वचन, काया से क्षमा प्रार्थी हूं।" भाईजो ! मेरी माँ को किसी प्रकार का कष्ट न हो । आप लोग इस बात का ख्याल रखें और संसार को प्रत्यक्ष अनित्यता देख कर यदि उसका दीक्षा का परिणाम हो जाय तो आप लोग उसे अवश्य ही संयम मार्ग की पथिक बनादें । मेरी स्त्री चाहे पिता
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org