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प्रभंजना नी सज्झाय
भीग संग कारमा कहा, जिनराज सदाई लो । अहो जिन। राग द्वष संगे वधे, भवभ्रमण सदाई लो। अहो भव०। ८ ___ भावार्थ-श्रीजिनेश्वर देवने भोगों के संग को अस्थिर कहा है। इनके संग से राग और द्वेष को बृद्धि होती है जिससे सदा भव भ्रमण होता है ॥८॥ राजसुता कहै साच ए, जे भाखो वाणी लो । अहो जे०। पण ए भूल अनादिनी, किम जाये छंडाणी लो ।अहो किमाई
भावार्थ-भोगों की अस्थिरता तथा विषयों की विष तुल्यता सुनकर प्रभंजना बोली जो आप फर्मा रही हैं वह वास्तव में सत्य है ! परंतु इस जीवात्मा का अनादि काल, से पड़ी हुई यह टेव अब एकदम कैसे छोड़ी जा सकती है ? ॥६॥ जेह तजे ते धन्य छ, सेवक जिनजी ना लो । अहो सेवक। हमे जड़ पद्गल रस रम्या, मोहेयललीना लो । अहो मोहे०१० ___ भावार्थ-जो कोई श्री जिनेश्वर देव का भक्त व्यक्ति इन भोगों को ठुकराता है, उसे वार-वार धन्य है। हम सब तो मोहाशक्त होकर उन पुद्गलों के रंगरस में रमने वाली हैं ॥१०॥ अध्यातम रस पान थी, भीना मुनिरायालो । अहो भीना। ते पर परिणितरति तजी, निज तत्वे समाया लो । अहो निजा११
भावार्थ-अध्यात्म रस के पान से जिनका अंतर भीग गया है, ऐसे त्यागी मुनि पुद्गल परिणति को छोड़कर आत्मतत्व में समाये हुये रहते हैं ॥११॥ अमने पिण करवो घटे, कारण संयोगे लो। अहोकारण । पण चेतनता परिणमे-जड़ पुदगल नाभोगेलो । अहोजड़ ॥१२॥
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