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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
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डॉ० नेमिचन्द्र जैन ज्योतिषाचार्य, पी-एच० डी०, डी० लिट्०
APSE. GEHEP
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
F
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1
ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला हिन्दी ग्रन्थाक-६
1
ग्रन्थमाला सम्पादक
डॉ० आ० ने० उपाध्ये, डॉ० हीरालाल जैन, लक्ष्मीचन्द्र जैन
Murtidevi Series Title No 6
MANGAL MANTRA NAMOKAR
EK ANUCHINTAN
Dr NEMICHANDRA JAIN
Bharatiya Jnanpith Publication
Fourth Edition 1967
Price Rs. 3 00
©
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
प्रधान कार्यालय
६, अलीपुर पाक प्लेस, कलकत्ता २७
३६२०१२१,
रतीय
प्रकाशन कार्यालय
दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-५
विक्रय केन्द्र
मार्ग, दिल्ली-६
सुभाष
तुर्थ सस्करण १९६७
मूल्य ...
1237
नेताजी
शान
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
मन्त्रका आशातीत फल देखकर आश्चर्यान्वित था । यो तो जीवन देहलीपर कदम रखते ही णमोकार मन्त्र कण्ठ कर लिया था, पर यह पहला दिन था, जिस दिन इस महामन्त्रका चमत्कार प्रत्यक्ष गोचर हुआ । अत इस सत्यसे कोई भी आस्तिक व्यक्ति इनकार नही कर सकता है कि णमोकार मन्त्रमे अपूर्व प्रभाव है । इसी कारण कवि दौलतने कहा है :
भाई ।
धराई ॥
" प्रातःकाल मन्त्र जपो णमोकार अक्षर पैंतीस शुद्ध हृदय में नर भव तेरो सुफल होत पातक दर जाई । विघन जासों दूर होत सकटमें महाई ॥१॥ कल्पवृक्ष कामधेनु चिन्तामणि जाई | ऋद्धि सिद्धि पारस मन्त्र जन्त्र तन्त्र सब सम्पति भण्डार मरे अक्षय निधि आई || ३ || तीन लोक माहिं, सार वेदनमें गाई । जगमें प्रसिद्ध धन्य मगलीक भाई ||४॥"
तेथे प्रकटाई ||२|| जाहीले वनाई |
मन्त्र शब्द 'मन्' धातु ( दिवादि ज्ञाने) सेप्ट्रन् (त्र) प्रत्यय लगाकर बनाया जाता है, इसका व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ होता है, 'मन्यते ज्ञायते आत्मादेशोऽनेन इति मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्माका आदेशनिजानुभव जाना जाये, वह मन्त्र है । दूसरी तरह से तनादिगणीय मन् धातुसे ( तनादि अवबोधे to Consider ) ष्ट्रन प्रत्यय लगाकर मन्त्र शब्द बनता है, इसकी व्युत्पत्तिके अनुसार- मन्यते विचार्यते आत्मादेशो येन स मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मादेशपर विचार किया जाये, वह मन्त्र है । तीसरे प्रकारसे सम्मानार्थक मन घातुमे 'ष्ट्रन' प्रत्यय करनेपर मन्त्र शब्द बनता है । इसका व्युत्पत्ति- अर्थ है- 'मन्यन्ते सक्रियन्ते परमपदे स्थिताः आत्मानः वा यक्षादिशासन देवता भनेन इति मन्त्रः' अर्थात् जिसके
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मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
द्वारा परमपदमे स्थित पच उच्च आत्माओका अथवा यक्षादि शासन देवोका सत्कार किया जाये, वह मन्त्र है । इन तीनो व्युत्पत्तियोके द्वारा मन्त्र शब्दका अर्थ अवगत किया जा सकता है । णमोकार मन्त्र - यह नमस्कार मन्त्र है, इसमे समस्त पाप, मल और दुष्कर्मोंको भस्म करनेकी शक्ति है । वात यह है कि णमोकार मन्त्रमें उच्चरित ध्वनियोसे आत्मामे धन और ऋणात्मक दोनो प्रकारकी विद्युत् शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं, जिससे कर्मकलक भस्म हो जाता है । यही कारण है कि तीर्थंकर भगवान् भी विरक्त होते समय सर्वप्रथम इसी महामन्त्रका उच्चारण करते हैं तथा वैराग्यभावकी वृद्धिके लिए आये हुए लोकान्तिक देव भी इसी महामन्त्रका उच्चारण करते हैं । यह अनादि मन्त्र है, प्रत्येक तीर्थंकर के कल्पकाल मे इसका अस्तित्व रहता है । कालदोष से लुप्त हो जानेपर अन्य . लोगोको तीर्थंकरकी दिव्यध्वनि-द्वारा यह अवगत हो जाता है ।
इस अनुचिन्तनमे यह सिद्ध करनेका प्रयास किया गया है कि " णमोकार मन्त्र ही समस्त द्वादशाग जिनवाणीका सार है, इसमे समस्त श्रुतज्ञानकी अक्षर सस्या निहित है। जैन दर्शनके तत्त्व, पदार्थ, द्रव्य, गुण, पर्याय, नय, निक्षेप, आस्रव, बन्घ आदि इस मन्त्रमे विद्यमान है । समस्त मन्त्रशास्त्रकी उत्पत्ति इसी महामन्त्रसे हुई है । समस्त मन्त्रोकी मूलभूत मातृकाएँ इस महामन्त्र मे निम्नप्रकार वर्तमान हैं ।
मन्त्र पाठ •
" णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो सव्व साहूण ॥
लोए
विश्लेषरण
ण + अ + म् + ओ + अ + र् + इ + ह् + अ + त् + आ + ण् + अ + ग् + अ + म् + ओ + स् + इ + द् + घ् + आ + ण् + अ + ण् + अ +
म् + ओ + आ + इ + र् + इ + य् + आ + ण् + अ + अ + म् + ओ + उ + व् + अ + ज् + क् + आ + य् +
ण् +
आ +
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मंगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन
ण् + अं+ ण् + अ + म् + ओ + ल् + ओ + ए + स् + अ + व् + + अ+स् + आ + ह + ऊ + ए + अं। इस विश्लेषणमे-से स्वरोको पृथक् किया तो - अ+ ओ + अ + इ + अ + आ + अ + अ +ओ+ इ + अ+अ+म + ओ+मा+ + +म+अ+अ+ ओ+ उ +अ+ आ+आ+
अ+अ+
ओ+
ओ+ए+अ+अ+
आ+ऊ+ अ ।
-
पुनरुक्त स्वरोको निकाल देनेके पश्चात् रेखाकित स्वरोको ग्रहण किया तो - अ आ इ ई उ ऊ [२] ऋ ऋ [ल ] ल ल ए ऐ ओ औ अ अ । व्यजन - म् + म् + र् + ह् + त् + ए + ण् + म् + स् + इ +ध् + ण + रण+म् + य + ण् + ण् + म्+व् + ज् + अ + य् +ए+
+ ण+म् + ल् + स् +
+
+ स्+ह + ण् ।
।
पुनरुक्त व्यजनोके निकाल देनेके पश्चात् - ण+म् + + ह + + स् + य+र+ल+व+ज+घ+ ह ।
ध्वनिसिद्धान्तके आधारपर वर्गाक्षर वर्गका प्रतिनिधित्व करता है। अत घ् = कवर्ग, झ् = चवर्ण, ण् = टवर्ग, -तवर्ग, म् = पवग, य र लव, स् = श प स, ह ।
मत इस महामन्त्रकी समस्त मातृका ध्वनियाँ निम्न प्रकार हुई .
म मा इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ् इच छ ज झ न द ड् ढ् ण् त् थ् द् ध न प फ ब भ म य र ल व श् प स ह ।
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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन
उपर्युक्त ध्वनियाँ ही मातृका कहलाती है । जयसेन प्रतिष्ठापाठ में बतलाया गया है :
"अकारादिक्षकारान्ता वर्णा प्रोक्तास्तु मातृकाः ।
सृष्टिन्यास-स्थितिन्यास - संहृतिन्यासत स्त्रिधा ॥ ३७६ ॥ | " —अकारसे लेकर क्षकार [ क् + ष् + अ ] पर्यन्त मातृकावणं कहलाते है । इनका तीन प्रकारका क्रम है - सृष्टिक्रम, स्थितिक्रम और सहारक्रम । णमोकार मन्त्रमे मातृका ध्वनियोका तीनो प्रकारका क्रम सन्निविष्ट है । इसी कारण यह मन्त्र आत्मकल्याणके साथ लौकिक अभ्युदयोको देनेवाला है । अष्टकमोंके विनाश करनेकी भूमिका इसी मन्त्रके द्वारा उत्पन्न की जा सकती है । संहारक्रम कर्मविनाशको प्रकट करता है तथा सृष्टिक्रम और स्थितिक्रम आत्मानुभूति के साथ लौकिक अभ्युदयोंकी प्राप्तिमे भी सहायक है । इस मन्त्रकी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इनमें मातृका - ध्वनियोका तीनो प्रकारका क्रम सन्निहित है, इसलिए इस मन्त्रसे मारण, मोहन और उच्चाटन तीनो प्रकारके मन्त्रोकी उत्पत्ति हुई है वीजाक्षरोकी निष्पत्तिके सम्बन्धमे बताया गया है .
"हलो वीजानि चकानि स्वरा शक्य ईरिता " ॥३७॥
2
कारसे लेकर हकार पर्यन्त व्यजन वीजसज्ञक हैं और अकारादि स्वर शक्तिरूप हैं । मन्त्रवीजोकी निष्पत्ति वीज और शक्तिके सयोगसे होती है ।
सारस्वत बीज, माया वीज, शुभनेश्वरी वीज, पृथिवी वीज, अग्निवीज, प्रणवबीज, मारुतवीज, जलबीज, आकाशवीज आदिकी उत्पत्ति उक्त हल् और अचोके सयोगसे हुई है । यो तो वीजाक्षरोका अर्थ बीजकोश एवं बीज व्याकरण-द्वारा ही ज्ञात किया जाता है, परन्तु यहाँ पर सामान्य जानकारी के लिए ध्वनियोकी शक्तिपर प्रकाश डालना आवश्यक है ।
१. जयसेन प्रतिष्ठापाठ, श्लोक ३७७ ।
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मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
अ = अव्यय, व्यापक, आत्माके एकत्वका सूचक, शुद्ध-बुद्ध ज्ञानरूप, शक्तिद्योतक, प्रणव बीजका जनक । ___ आ = अव्यय, शक्ति और बुद्धिका परिचायक, सारस्वतबीजका जनक, मायावीजके साथ कीत्ति, धन और आशाका पूरक ।
इ= गत्यर्थक, लक्ष्मी-प्राप्तिका साधक, कोमल कार्यसाधक, कठोर कर्मोंका बाधक, वह्निबीजका जनक ।
ई = अमृतवीजका मूल, कार्यसाधक, अल्पशक्तिद्योतक, ज्ञानवर्द्धक, स्तम्भक, मोहक, जृम्भक ।।
उ = उच्चाटन वीजोका मूल, अद्भुत शक्तिशाली, श्वासनलिकाद्वारा जोरका धक्का देनेपर मारक । ___ ऊ = उच्चाटक और मोहक वीजोका मूल, विशेप शक्तिका परिचायक, कार्यध्वसके लिए शक्तिदायक । ___ऋ = ऋद्धिबीज, सिद्धिदायक, शुभ कार्यसम्बन्धी बीजोका मूल, कार्यसिद्धिका सूचक ।
ल = सत्यका सचारक, वाणीका ध्वसक, लक्ष्मीबीजकी उत्पत्तिका कारण, आत्मसिद्धिमे कारण ।
ए = निश्चल, पूर्ण, गतिसूचक, अरिष्ट निवारण वीजोका जनक, पोषक और सवर्द्धक । - ऐ = उदात्त, उच्चस्वरका प्रयोग करनेपर वशीकरणवीजोका जनक, पोषक और सवर्द्धक । जलवीजकी उत्पत्तिका कारण, सिद्धिप्रद कार्योंका उत्पादकबीज, शासन देवताओका आह्वानन करनेमे सहायक, क्लिष्ट और कठोर कार्योंके लिए प्रयुक्त बीजोका मूल, ऋण विद्युत्का उत्पादक । ___ ओ= अनुदात्त, निम्न स्वरकी अवस्थामे माया बीजका उत्पादक, लक्ष्मी और श्रीका पोपक; उदात्त, उच्च स्वरकी अवस्थामे कठोर कार्योंका उत्पादक बीज, कार्यसाधक, निर्जराका हेतु, रमणीय पदार्योंकी प्राप्तिके लिए प्रयुक्त होनेवाले बीजोमे अग्रणी, अनुस्वारान्त बोजोका सहयोगी ।
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
भौ = मारण और उच्चाटनसम्बन्धी बीजोंमे प्रधान, शीघ्र कार्यसाधक, निरपेक्षी, अनेक बीजोका मूल ।
अं = स्वतन्त्र शक्तिरहित, कर्माभाव के लिए प्रयुक्त व्यानमन्त्रोंमें प्रमुख, शून्य या अभावका सूचक, आकाश बीजोका जनक, अनेक मृदुल शक्तियोका उद्घाटक, लक्ष्मी वीजोका मूल ।
भ. =
शान्तिवीजोमे प्रधान, निरपेक्षावस्था मे कार्य असाधक, सहयोगीका अपेक्षक ।
१०
क = शक्तिवीज, प्रभावशाली, सुखोत्पादक, सन्तानप्राप्ति की कामनाका पूरक, कामबीजका जनक ।
ख = आकाशवीज, अभाव कार्योंकी सिद्धिके लिए कल्पवृक्ष, उच्चाटन वीजोका जनक |
ग =
पृथक् करनेवाले कार्योंका साधक, प्रणव और माया बीजके साथ कार्य सहायक |
घ = स्तम्भक बीज, स्तम्भन कार्योंका साधक, विघ्नविघातक, भारण और मोहक वीजोका जनक |
८ = शत्रुका विध्वंसक, स्वर मातृका बीजोके सहयोगानुसार फलोत्पादक, विध्वसक वीज जनक ।
च = अगहीन, खण्डशक्ति द्योतक, स्वरमातृकावीजोंके अनुसार फलोत्पादक, उच्चाटन बीजका जनक |
छ =
- छाया सूचक, माया बीजका सहयोगी, वन्धनकारक, आपबीजका जनक, शक्तिका विध्वसक, पर मृदु कार्योंका साधक ।
ज = नूतन कार्योंका साधक, शक्तिका वर्द्धक, आधि-व्याधिका शामक, आकर्षक वीजोका जनक |
झ = रेफयुक्त होनेपर कार्यसाधक, आधि-व्याधि विनाशक, शक्तिका संचारक, श्रीवीजोका जनक |
C
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन म= स्तम्भक और मोहक बीजोका जनक, कार्यसाधक, साधनाका अवरोधक, माया बीजका जनक । ____ट= वह्निवीज, आग्नेय कार्योंका प्रसारक और निस्तारक, अग्नितत्त्व युक्त, विध्वंसक कार्योंका साधक ।
= अशुभ सूचक बीजोका जनक, क्लिष्ट और कठोर कार्योका साधक, मृदुल कार्योंका विनाशक, रोदन-कर्ता, अशान्तिका जनक, सापेक्ष होनेपर द्विगुणित शक्तिका विकासक, वह्निवीज ।
3 = शासन देवताओकी शक्तिका प्रस्फोटक, निकृष्ट कार्योंकी सिद्धिके लिए अमोघ, सयोगसे पचतत्त्वरूप वीजोका जनक, निकृष्ट आचार-विचारद्वारा साफल्योत्पादक, अचेतन क्रिया साधक ।
ढ%3D निश्चल, मायावीजका जनक, मारण बीजोमे प्रधान, शान्तिका विरोधी, शक्तिवर्धक ।
ण = शान्ति सूचक, आकाश वीजोमे प्रधान, ध्वसक बीजोका जनक, शक्तिका स्फोटक ।
त = आकर्षकवीज, शक्तिका आविष्कारक, कार्यसाधक, सारस्वत: बीजके साथ सर्वसिद्धिदायक ।
थ= मगलसाधक, लक्ष्मीबीजका सहयोगी, स्वरमातृकाओंके साथ मिलनेपर मोहक ।
द= कर्मनाशके लिए प्रधान बोज, यात्मशक्तिका प्रस्फोटक, वशीकरण वीजोका जनक ।
ध = श्री और क्ली बीजोका सहायक, सहयोगीके समान फलदाता, माया बीजोका जनक ।
न = आत्मसिद्धिका सूचक, जलतत्त्वका स्रष्टा, मृदुतर कार्योंका साधक, हितैषी, आत्मनियन्ता।
प = परमात्माका दर्शक, जलतत्त्वके प्राधान्यसे युक्त, समस्त कार्योंकी सिद्धिके लिए ग्राह्य।
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मगलमन्त्र णमोकर एक अनुचिन्तन
फ = वायु और जलतत्त्व युक्त, महत्त्वपूर्ण कार्योंकी सिद्धिके लिए ग्राह्य, स्वर और रेफ युक्त होनेपर विध्वंसक, विघ्नविघातक, 'फट्' की ध्वनि से युक्त होनेपर उच्चाटक, कठोरकार्य साधक |
१२
ब = अनुस्वार युक्त होनेपर समस्त प्रकार के विघ्नोका विघातक और निरोधक, सिद्धिका सूचक ।
म = साधक, विशेषतः मारण और उच्चाटन के लिए उपयोगी, सात्त्विक कार्योका निरोधक, परिणत कार्योंका तत्काल साधक, साधना में नाना प्रकार से विघ्नोत्पादक, कल्याणसे दूर, कटु मधु वर्णोंसे मिश्रित होनेपर अनेक प्रकारके कार्योंका साधक, लक्ष्मी बीजोका विरोवी ।
म = सिद्धिदायक, लौकिक और पारलौकिक सिद्धियोका प्रदाता, सन्तानकी प्राप्तिमे सहायक ।
य = शान्तिका साधक, सात्त्विक साधनाकी सिद्धिका कारण, महत्त्वपूर्ण कार्यों की सिद्धिके लिए उपयोगी, मित्रप्राप्ति या किसी अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति के लिए अत्यन्त उपयोगी, ध्यानका साधक ।
र = अग्निबीज, कार्यसाधक, समस्त प्रधान वीजोका जनक, शक्तिका प्रस्फोटक और वर्द्धक
| = लक्ष्मीप्राप्ति मे सहायक, श्रीवीजका निकटतम सहयोगी और सगोत्री, कल्याणसूचक ।
व = सिद्धिदायक, आकर्षक, ह, र्, और अनुस्वारके सयोगसे चमत्कारोका उत्पादक, सारस्वतवीज, भूत-पिशाच - शाकिनी - डाकिनी मादिकी वाघाका विनाशक, रोगहर्त्ता, लौकिक कामनाओकी पूर्ति के लिए अनुस्वार मातृकाका सहयोगापेक्षी, मगलसाधक, विपत्तियोका रोधक और
स्तम्भक ।
श = निरर्थक, सामान्यबीजोका जनक या हेतु, उपेक्षावर्मयुक्त, शान्तिका पोषक
प = आह्वान बीजोका जनक, सिद्धिदायक, अग्निस्तम्भक, जलस्तम्भक
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मगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन १३ सापेक्षध्वनि ग्राहक, सहयोग या सयोग-द्वारा विलक्षण कार्यसाधक, आत्मोन्नतिसे शून्य, रुद्रबीजोका जनक, भयकर और वीभत्स कार्योके लिए प्रयुक्त होनेपर कार्यसाधक।
स= सर्व समीहित साधक, सभी प्रकारके बीजोमे प्रयोग योग्य, शान्तिके लिए परम आवश्यक, पौष्टिक कार्योंके लिए परम उपयोगी, ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय आदि कोका विनाशक, क्लींबीजका सहयोगी, कामवीजका उत्पादक, आत्मसूचक और दर्शक ।
ह - शान्ति, पौष्टिक और मागलिक कार्योका उत्पादक, साधनाके लिए परमोपयोगी, स्वतन्त्र और सहयोगापेक्षी, लक्ष्मीकी उत्पत्तिमे साधक, सन्तान प्राप्तिके लिए अनुस्वार युक्त होनेपर जाप्यमे सहायक, आकाशतत्त्व युक्त, कर्मनाशक, सभी प्रकारके बीजोका जनक । ____उपर्युक्त ध्वनियोके विश्लेषणसे स्पष्ट है कि मातृका मन्त्र ध्वनियोके स्वर और व्यजनोके सयोगसे ही समस्त वीजाक्षरोकी उत्पत्ति हुई है तथा इन मातृका ध्वनियोकी शक्ति ही मन्त्रोमे आती है । णमोकार मन्त्रसे ही मातृका ध्वनियां नि सृन हैं। अतः समस्त मन्त्रशास्त्र इसी महामन्त्रसे प्रादुर्भूत है। इस विषयपर अनुचिन्तनमे विस्तारपूर्वक विचार किया गया है । यतः यह युग विचार और तर्कका है, मात्र भावनासे किसी भी वातकी सिद्धि नही मानी जा सकती है। भावनाका प्रादुर्भाव भी तर्क और विचार-द्वारा श्रद्धा उत्पन्न होनेपर होता है। अत णमोकार महामन्त्रपर श्रद्धा उत्पन्न करनेके लिए उक्त विचार आवश्यक है।
दार्शनिक दृष्टिसे इस मन्त्र की गौरव-गरिमाका विवेचन भी अनुचिन्तनमे किया जा चका है। चिन्तनकी अपनी दिशा है, वह कहांतक सही है, यह तो विचारशील पाठक ही अवगत कर सकेंगे। इस अनुचिन्तनके लिखनेमे कई प्राचीन और नवीन आचार्योकी रचनाओका मैंने उपयोग किया है, अत मैं उन सभी आचार्यों मोर लेखकोका आभारी हूँ। श्री जैनसिद्धान्तभवन आराके विशाल ग्रन्थागारका उपयोग भी बिना किसी
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१४ मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन प्रकारकी रुकावट और वाघाके किया है, अतः उस पावन संस्थाके प्रति आभार प्रकट करना भी मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। इसे प्रकाशमे लानेका श्रेय भारतीय ज्ञानपीठ काशीके मन्त्री श्री अयोध्याप्रसादजी गोयलीयको है, मैं आपका भी हृदयसे कृतज्ञ हूँ। प्रूफ संशोधक श्री महादेव चतुर्वेदीजीको भी धन्यवाद है ।
मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा
वि० स० २०१३
।
- नेमिचन्द्र शास्त्री
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द्वितीय संस्करण की प्रस्तावना
णमोकार मन्त्रका अचिन्त्य और अद्भुत प्रभाव है । इस मन्त्रकी साधना द्वारा सभी प्रकारकी ऋद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं । यह मन्त्र आत्मिक शक्तिका विकास करता है । परन्तु इसकी साधनाके लिए श्रद्धा या दृढ विश्वासका होना परम आवश्यक है । आज - कलके वैज्ञानिक भी इस वातको स्वीकार करते हैं कि बिना आस्तिक्य भावके किसी लौकिक कार्यमे भी सफलता प्राप्त करना सम्भव नही है । अमेरिकन डॉक्टर होवार्ड रस्क (Howard Rusk) ने बताया है कि रोगी तवतक स्वास्थ्य लाभ नही कर सकता है, जबतक वह अपने आराध्यमे विश्वास नही करता है | आस्तिकता ही समस्त रोगोको दूर करनेवाली है । जब रोगीको चारो ओरसे निराशा घेर लेती है, उस समय आराध्य के प्रति की गयी प्रार्थना प्रकाशका कार्य करती है । प्रार्थनाका फल अचिन्त्य होता है । दृढ आत्मविश्वास एव आराध्य के प्रति की गयी प्रार्थना सभी प्रकारके मगलोको देती है । हृदयके कोनेसे सशक्त भावोमे निकली हुई अन्तरध्वनि वडेसे वडा कार्य सिद्ध करनेमें सफल होती है ।
अमेरिका के जज हेरोल्ड मेडिना ( Harold Medina ) का अभिमत है कि आत्मशक्तिका विकास तभी होता है, जब मनुष्य यह अनुभव करता है कि मानवकी शक्तिसे परे भी कोई वस्तु है । अत श्रद्धापूर्वक की गयी प्रार्थना बहुत चत्मकार उत्पन्न करती है । प्रार्थना में एक विचित्र प्रकारकी शक्ति देखी जाती है । जीवन-शोधनके लिए आराध्य के प्रति की गयी विनीत प्रार्थना बहुत फलदायक होती है ।
१. Reader's Digest, February 1960
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
डॉ० एलफेड टोरी भूतपूर्व मेडिकल डायरेक्टर नेशनल एसोसियेशन: फॉर मेण्टल होस्पिटल ऑफ अमेरिकाका अभिमत है कि सभी बीमारियां शारीरिक, मानसिक एव आध्यात्मिक क्रियामोंसे सम्बद्ध हैं, अत: जीवनमे जबतक धार्मिक प्रवृत्तिका उदय नही होगा, रोगीका स्वास्थ्य लाभ करना कठिन है । प्रार्थना उक्त प्रवृत्तिको उत्पन्न करती है । आराध्यके प्रति की गयी भक्तिमे वहुत बडा आत्मसवल है । अदृश्य वातोकी रहस्यपूर्ण शक्तिका पता लगाना मानवको अभी नहीं आता है। जितने भी मानसिक रोगी देखे जाते हैं, अन्तरतमकी किसी अज्ञात वेदनासे पीडित हैं। इस वेदनाका प्रतिकार आस्तिक्य भाव ही है। उच्च या पवित्र आत्माओकी आराधना जादूका कार्य करती है ।
णमोकार मन्त्रकी निष्काम साधनासे लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकारके कार्य सिद्ध हो जाते हैं। पर इस सम्बन्धमें एक बात आवश्यक यह है कि जाप करनेवाला साधक, जाप करनेकी विधि, जाप करनेके स्थानकी भिन्नतासे फलमे भिन्नता हो जाती है। यदि जाप करनेवाला सदाचारी, शुद्धात्मा, सत्यवक्ता, अहिंसक एव ईमानदार है, तो उसको इस मन्त्रकी आराधनाका फल तत्काल मिलता है । जाप करनेकी विधिपर भी फलकी हीनाधिकता निर्भर करती है। जिस प्रकार अच्छी औषध भी उपयुक्त अनुपान विधिके अभावमे फलप्रद नहीं होती अथवा अल्प फल देती है, उमी प्रकार यह मन्त्र भी दृढ आस्थापूर्वक निष्काम भावसे उपयुक्त विधिसहित जाप करनेसे पूर्णफल प्रदान करता है । स्थानकी शुद्धता भी अपेक्षित है। समय और स्थान भी कार्यसिद्धिमे निमित्त हैं । कुसमय या अशुद्ध स्थानपर किया गया कार्य अभीष्ट फलदायक नही होता है। अत• इस मन्त्रका जाप मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक विधिसहित करना चाहिए । यो तो जिस प्रकार मिश्रीकी डली कोई भी व्यक्ति किसी
१ Reader's Digest, February 1958.
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
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भी अवस्था मे खाये, उसका मुँह मीठा ही होगा । इसी तरह इस मन्त्रका जाप कोई भी व्यक्ति किसी भी स्थितिमे करे, उसे आत्मशुद्धिकी प्राप्ति होगी ।
इस मन्त्रको प्रमुख विशेषता यह है कि इसमे सभी मातृकाव्वनियाँ विद्यमान हैं । अत समस्त बीजाक्षरोवाला यह मन्त्र, जिसमे मूल ध्वनिरूप वीजाक्षरोका सयोजन भी शक्ति के क्रमानुसार किया गया है, सर्वाधिक शक्तिशाली है । इम मन्त्रका किसी भी अवस्था मे आस्था और लगन के साथ चिन्तन करने से फलकी प्राप्ति होती है ।
मेरे पास जो जन्मपत्री दिखाने आते हैं, मैं ग्रह शान्तिके लिए उन्हे प्रायः णमोकार मन्त्र का जाप करनेको कहता हूँ । प्राप्त विवरणोंके आधारपर में यह जोरदार शब्दो मे कह सकता हूँ कि जिसने भी भक्तिभावपूर्वक इस मन्त्रकी आराधना की है, उसे अवश्य फल प्राप्त हुआ है । कितने ही बेकार व्यक्ति इस मन्त्रके जापसे अच्छा कार्य प्राप्त कर चुके हैं । असाध्य रोगोंको दूर करनेका उपाय प्रात काल पद्मासन या वज्रासन लगाकर इस अद्भुत सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ।
यह
मन्त्र ही है । प्रतिदिन मन्त्रका जाप करनेसे
•
यद्यपि इस मन्त्रका यथायें लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है, तो भी लौकिक दृष्टि से यह समस्त कामनाओको पूर्ण करता है । अत प्रत्येक व्यक्तिको प्रतिदिन णमोकार मन्त्रका जाप करना चाहिए। बताया गया है :
"ननु उवसग्गे पीड़ा, कूरग्गह-दसणं भभो संका । जइ विन हवति एए, तह वि सगुज्झं भणिज्जासु ॥ ३२ ॥ | "
-नवकार-सार-थवणं - उपसर्ग, पीडा, क्रूर ग्रह दर्शन, भय, शका आदि यदि न भी हो तो भी शुभ ध्यानपूर्वक णमोकार मन्त्र का जाप या पाठ करनेसे परम शान्ति प्राप्त होती है । यह सभी प्रकारके सुखोंको देनेवाला है ।
अत. संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि यह मन्त्र आत्म
२
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
कल्याणके साथ सभी प्रकारके अरिष्टोको दूर करता है, और सभी सिद्धियोको प्रदान करता है । यह कल्पवृक्ष है, जो जिस प्रकारकी भावना रखकर इसकी साधना करता है, उसे उसी प्रकारका फल प्राप्त हो जाता है | पर श्रद्धा और विश्वासका रहना परम आवश्यक है ।
'मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन' का द्वितीय संस्करण पाठकोंके हाथमें समर्पित करते हुए हमे परम प्रसन्नता हो रही है। इस संशोधित और परिवर्द्धित सस्करणमे पूर्व संस्करणकी अपेक्षा कई नवीनताएँ दृष्टिगोचर होगी । इस संस्करणमे तीन परिशिष्ट भी दिये जा रहे हैं । प्रथम परिशिष्टमे वीस करणसूत्र दिये गये हैं । इस णमोकार मन्त्रके अक्षर, स्वर, व्यंजन, मात्रा, सामान्य पद और विशेष पदकी सख्या-द्वारा गणित क्रिया करने से सभी पारिभाषिक जैन संख्याएँ निकल आती हैं। हमारा तो यह विश्वास है कि ग्यारह अंग मौर चौदह पूर्वकी पदसख्या तथा अक्षर संख्याका आनयन भी इस णमोकार मन्त्रके गणित के आधार - पर किया जा सकता है ।
•
द्वितीय परिशिष्टमें पारिभाषिक शब्दकोष दिया गया है । इसमे धार्मिक शब्दोंके अतिरिक्त मनोवैज्ञानिक शब्दोकी परिभाषाएँ अकित की गयी हैं । तृतीय परिशिष्टमे पंचपरमेष्ठी नमस्कार स्तोत्र दिया गया है । इस स्तोत्रमे पचपरमेष्ठी चक्र भी आया है । इस स्तोत्रके नित्य • प्रति पाठ करनेसे सभी प्रकारकी मनोकामनाएँ पूर्ण होती है तथा सभी प्रकारकी बाधाएँ दूर होकर शान्तिलाभ होता है । इस स्तोत्रका अचिन्त्म प्रभाव बतलाया गया है । अत पाठकोंके लाभार्थं इसे भी दिया गया है । में ज्ञानपीठके अधिकारियोका आभारी हूँ जिन्होंने संशोधन और परिवर्द्धन करने की स्वीकृति प्रदान की ।
ह० दा० जैन कालेज, भारा १ जून, १९६०
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- नेमिचन्द्र शास्त्री
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अनुक्रम महामन्त्रका चमत्कार ३ | णमो लोए सव्वसाहूणंकी मन्त्र शब्दका व्युत्पत्त्यर्थ ५ व्याख्या
४८ महामन्त्रसे मातृकाओकी उत्पत्ति ६ / पचपरमेष्ठीका देवत्व सारस्वत, माया, पृथ्वी आदि णमोकार मन्त्र के पाठान्तर
बीजोकी उत्पत्ति ८ णमोकार मन्त्र का पदक्रम अ- ओ मातृकाओका स्वरूप ९ णमोकार मन्त्रका अनादिऔ- म मातृकाओका स्वरूप १० सादित्व विमर्श न - प मातृकाओका स्वरूप ११ / णमोकार मन्त्रका माहात्म्य ५८ फ-प , , १२ | णमोकार मन्त्रके जाप करनेकी । स - है , , १३ |
७१ आभार-प्रदर्शन
कमलजाप-विधि द्वितीय संस्करणकी प्रस्तावना १५ हस्तागुलिजाप-विधि विकार और तज्जन्य अशान्ति २५ मालाजाप मगलवाक्योकी आवश्यकता २८ द्वादशागरूप-णमोकर मन्त्र ७४ अशान्तिको दूर करनेका अमोघ । मनोविज्ञान और णमोकार मन्त्र ७८ साधन
मन्त्रशास्त्र और णमोकार मन्त्र ८५ आत्माके भेद और मगलवाक्य ३१ वीजाक्षरोका विश्लेषण णमोकार मन्त्रका अर्थ ३७ । मन्त्रोंके प्रधान नौ भेद ८८ णमो अरिहतारणका अर्थ ३७ बीजोका स्वरूप
८९ मोहका शत्रुत्व-शका-समाधान ३८ मन्त्रमिद्धिके लिए आवश्यक पीठ ९० णमो सिद्धारणकी व्याख्या ४३ षोडश अक्षरादि मन्त्र ९२ णमो आइरियाणकी व्याख्या ४५ णमोकार मन्त्रसे उत्पन्न विभिन्न णमो उवज्झायाएकी व्याख्या ४६ ! मन्त्र और उनका प्रभाव ९३-९७
७३
७४
लपण
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२०
मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
अक्षरपंक्ति विद्या
अचिन्त्य फलदायक मन्त्र पापभक्षिणी विद्या
रक्षा मन्त्र
रोग निवारण मन्त्र
सिर-दर्द विनाशक मन्त्र
ज्वरविनाशक मन्त्र
अग्निस्तम्भक मन्त्र
लक्ष्मीप्राप्ति मन्त्र
९४ | योग शब्दका व्युत्पत्त्यर्थं
९४
यम नियम
९४
आसन
९४
९५
९५
९५
९५
९६
९६
९६
९६
सर्वसिद्धि मन्त्र पुत्र और सम्पदा प्राप्ति मन्त्र त्रिभुवन स्वामिनी विद्या
राज्याधिकारीको वश करनेका
मन्त्र
महामृत्युजय मन्त्र
सिर अक्षि-कणं श्वास पादरोग
विनाशक मन्त्र
विवेक - प्राप्ति मन्त्र
विविध रोगनाशक मन्त्र प्रतिवादीकी शक्तिको स्तम्भन
करनेका मन्त्र
९८
विद्या और कवित्व - प्राप्ति के मन्त्र ९८
९८
९८
९८
९७
९७
९७
९८
९८
सर्वकार्यं साधक मन्त्र
सर्वशान्तिदायक मन्त्र
व्यन्तरबाधा विनाशक मन्त्र
योगशास्त्र और णमोकार मन्त्र १००
प्राणायाम
प्रत्याहार
धारणा
ध्यान और समाधि
पार्थिवी धारणा
आग्नेयी धारणा
वायु-धारणा
जलधारणा
तत्त्वरूपवती धारणा
पदस्थध्यान
रूपस्थध्यान
रुपातीत ध्यान
शुक्लध्यान
ध्याताका स्वरूप ध्येयका स्वरूप
ध्यान करनेका विपय
जपके भेद
आगमसाहित्य और णमोकार
मन्त्र
१००
१०३
१०५
१०५
१०७
१०८
१०८
१०९
१०९
११०
११०
११०
१११
१११
१११
१११
११२
११२
पदद्वार
पदार्थद्वार
११३
११३
११९
नयोकी अपेक्षा णमोकार मन्त्रका वर्णन ११९ निक्षेपापेक्षया णमोकार मन्त्र १२२
१२२
१२३
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प्ररूपणाद्वार
वस्तुद्वार
आक्षेपद्वार
प्रसिद्धिद्वार
क्रमद्वार
•
मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
स्वरूपाभिव्यक्ति मे सहायक णमोकार मन्त्र
कर्मसिद्धिके अनेक तत्त्वोका
१२४ आकाश
१२६ कालद्रव्य
१२७
सम्यग्दर्शन की उत्पत्तिका प्रधान
साधन और उसकी प्रक्रिया १४५
गणितशास्त्र और णमोकार मन्त्र १४६
प्रयोजनफलद्वार
१२९
भगसख्यानयन
१४८
प्रस्तारानयन
१५१
कर्मसाहित्य और महामन्त्र १२९ कर्मास्रवहेतु अविरति प्रमादादि १३२ | गणितागत णमोकार मन्त्र के दस
वर्ग
दस वर्गोंका विवेचन
१२७
१२८
पुद्गल धर्म और अधर्म
१३३
उत्पत्तिस्थान णमोकार मन्त्र १३७ | णमोकार मन्त्रका नष्ट और
गुणस्थान और मार्गणाकी सख्या
निकालने के नियम द्रव्य और कायकी सख्या निका
लेने के लिए करण सूत्र १३९ महामन्त्रसे एकसी अडतालीस
कर्म प्रकृतियोका आनयन १३९ महामन्त्रसे वन्ध, उदय और सत्त्वको १४० महामन्त्रसे प्रमारण, नय और आस्रव
प्रकृतियोका आनयन
हेतुओका आनयन
१४१
द्रव्यानुयोग और णमोकार मन्त्र १४२ जीवद्रव्य
२१
१४३
१४३
१५३
१५४
परिवर्तन और परिवर्तनांकचक्र १६०
१६०
उद्दिष्ट १३८ | आचारशास्त्र और णमोकार मन्त्र १६२ मुनिका आचार ओर णमोकार
मन्त्र
१६५ श्रावकाचार और णमोकार मन्त्र १७० व्रतविधान और णमोकार मन्त्र १७५ कथासाहित्य और णमोकार मन्त्र १७६ णमोकार मन्त्रकी आराधनासे वसु
भूतिके उद्धारकी कथा १७९ ललिता देवकी कथा अनन्तमतीकी कथा
१८०
१८२
१८५
१८७
१८९
१४२ | प्रभावती की कथा
१४२ | जिनपालितकी कथा
१४३ | चन्द्रलेखाकी कथा
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१६४
मंगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन सुग्रीवके पूर्वभवकी कथा १९१ । इष्ट साधक और अरिष्ट निवारक चित्रागददेवकी कथा १९३ णमोकारमन्त्र २०६ सुलोचनाकी कथा १९३ विश्व और णमोकारमन्त्र २१२ मरणासन्न संन्यासी और बकरेकी । जैन-सस्कृति और णमोकारमन्त्र२१४ कथा
उपसंहार हथिनीकी कथा १९४ | परिशिष्ट नं०१ धरणेन्द्र-पद्मावतीकी कथा १९५ णमोकार मन्त्र सम्बन्धी गणित । दृढसूर्य चोरकी कथा १९६ । सूत्र
२२३ महदासके अनुजकी कथा १९६ / परिशिष्ट नं० २ सुभौम चक्रवर्तीकी कथा
अनुचिन्तन गत पारिभाषिक भील-भीलनीकी कथा १९८ शब्दकोप २२७ फल प्राप्तिके आधुनिक उदा- परिशिष्ट नं०३ हरण
१९९ । पचपरमेष्ठी नमस्कार स्तोत्र २५२
१९७
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মালুময় Uমাহ:
কে অন্তৱিকনল
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"णमो अरिहंताण णमो सिद्धाण णमो आइरियाणं ।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ।" समारावस्थामे सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा बद्ध है, इसी कारण इसके ज्ञान और सुख पराधीन हैं। राग, द्वेष, मोह और कषाय ही इसकी पराकिन घीनताके कारण हैं, इन्हे आत्माके विकार कहा | সহানি
— गया है। विकारग्रस्त आत्मा सर्वदा अशान्त
रहती है, कभी भी निराकुल नही हो सकती। इन विकारोके कारण ही व्यक्तिके सुखका केन्द्र बदलता रहता है, कभी व्यक्ति ऐन्द्रियिक विषयोके प्रति आकृष्ट होता है तो कभी विकृष्ट । कभी इसे कचन सुखदायी प्रतीत होता है, तो कभी कामिनी ।
राग और द्वेषकी भावनाओके संश्लेषणके कारण ही मानवहृदयमे अगणित भावोकी उत्पत्ति होती है। आश्रय और आलम्बनके भेदसे ये दोनो भाव नाना प्रकारके विकारोके रूपमे परिवर्तित हो जाते हैं । जीवनके व्यवहारक्षेत्रमे व्यक्तिकी विशिष्टता, समानता एव हीनताके अनुसार इन दोनो भावोमे मौलिक परिवर्तन होता है । साधु या गुणवान्के प्रति राग सम्मान हो जाता है, समानके प्रति प्रेम तथा पीडितके प्रति करुणा । इस प्रकार द्वेष-भाव भी दुर्दान्तके प्रति भय, समानके प्रति क्रोध एव दीनके प्रति दर्दका रूप धारण कर लेता है ।
मनुष्य रागभावके कारण ही अपनी अभीष्ट इच्छा मोकी पूर्ति न होनेपर क्रोध करता है, अपनेको उच्च और बडा समझकर दूसरोका तिरस्कार करता है, दूसरोकी धन-सम्पदा एव ऐश्वयं देखकर ईयाभाव उत्पन्न करता है, सुन्दर रमणियोके अवलोकनसे उनके हृदयमे कामतृष्णा जागृत हो उठती है। नाना प्रकारके सुन्दर वस्त्राभूषण, अलकार और पुष्पमालामो आदिसे अपनेको सजाता है, शरीरको सुन्दर बनानेकी चेष्टा
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२६
मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
करता है, तैलमर्दन, उबटन, साबुन आदि विभिन्न प्रकारके पदार्थों द्वारा अपने शरीरको स्वच्छ करता है । इस प्रकार अहर्निश राग द्वेषकी अनात्मिक वैभाविक भावनाओके कारण मानव अशान्तिका अनुभव करता रहता है।
जिस प्रकार रोगी अवस्था और उसके निदान के मालूम हो जानेपर रोगी रोगसे निवृत्ति प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है, उसी प्रकार साधक ससाररूपी रोगका निदान और उसकी अवस्थाको जानकर उससे छूटने का प्रयत्न करता है । सासारिक दुखोका मूल कारण प्रगाढ़ राग-द्वेष है, जिन्हें शास्त्रीय परिभाषामे मिथ्यात्व कहा जा सकता है । आत्माके अस्तित्व और स्वरूपमे विश्वास न कर अतत्त्वरूप - राग-द्वेषरूप श्रद्धा करनेसे मनुष्यको स्वपरका विवेक नही रहता है, जड शरीरको आत्मा समझ लेता है तथा स्त्री, पुत्र, धन, धान्य, ऐश्वर्यमे रागके कारण लिप्त हो जाता है, इन्हे अपना समझकर इनके सद्भाव और अभावमे हर्ष - विषाद उत्पन्न करता है | आत्माके स्वाभाविक सुखको भूलकर संसारके पदार्थों द्वारा सुख प्राप्त करनेकी चेष्टा करता है। शरीरसे भिन्न ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोगमय अखण्ड अविनाशी जरा मरणरहित समस्त पदार्थोंके ज्ञाता द्रष्टा आत्माको विषय कषाययुक्त शरीरमल समझने लगता है । मिथ्यात्व के कारण मनुष्यकी बुद्धि भ्रममय रहती है । अत इन्द्रियोको प्रिय लगनेवाले पुद्गल पदार्थों के निमित्तसे उत्पन्न सुखको जो कि परपदार्थ के संयोगकाल तक - क्षण-भर पर्यन्त रहनेवाला होता है, वास्तविक समझता है। मिथ्यात्व के कारण यह जीव शरीर के जन्मको अपना जन्म और शरीर के नाशको अपना मरण मानता है । राग-द्वेषादि जो स्पष्टरूपसे दुख देनेवाले हैं, उनका ही सेवन करता हुआ मिथ्यादृष्टि आनन्दका अनुभव करता है। अपने शुद्ध स्वरूपको भूलकर शुभ कर्मोंके बन्धके फलकी प्राप्तिमे हर्प और अशुभ कर्मोंके बन्धकी फल प्राप्तिके समय दुःख मानता है । आत्माके हित के कारण जो वैराग्य और ज्ञान हैं, उन्हें मिथ्यादृष्टि कष्टदायक मानता है । आत्मशक्तिको भूलकर दिन-रात विषयेच्छा की पूर्ति में सुखानुभव करना तथा
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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन २७ इच्छाओको बढाते जाना मिथ्यात्वका ही फल है। इससे स्पष्ट है कि समस्त दुःखोका कारण मिथ्यादर्शन है।
मिथ्यादर्शनके सद्भाव- आत्मविश्वासके अभाव - मे ज्ञान भी मिथ्या ही रहता है। मिथ्यात्व-रूपी मोहनिद्रासे अभिभूत होनेके कारण ज्ञान वस्तु-तत्त्वको यथार्थता तक पहुंच नहीं पाता। अत मिथ्यादृष्टिका ज्ञान आत्मकल्याणसे सदा दूर रहता है। ज्ञानके मिथ्या रहनेसे चारित्र भी मिथ्या होता है। यत कपाय और असयमके कारण ससारमे परिभ्रमण करनेवाला आचरण ही व्यक्ति करता है, जो मिथ्या चारित्रकी कोटिमे परिगणित है। मोहनिद्रासे अभिभूत होने के कारण विषय ग्रहण करनेकी इच्छा उत्पन्न होती है, इच्छाएँ अनन्त हैं । इनकी तृप्नि न होनेसे जीवको अशान्ति होती है । मोहाभिभूत होनेके कारण इच्छा-तृप्तिको ही मिथ्यादृष्टि सुख समझता है, पर वास्तवमे इच्छाएं कभी तृप्त नहीं होती। एक इच्छा तृप्त होती है, दूसरी उत्पन्न हो जाती है, दूसरीके तृप्त होनेपर तीसरी उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार मोहके निमित्तसे पचेन्द्रिय-सम्बन्धी इच्छाएं निरन्तर उत्पन्न होती रहती हैं, जिससे मनुष्यको आकुलता सदा बनी रहती है।
चारित्र-मोहके उदयसे क्रोवादि कपाय रूप अथवा हास्यादि नोकपाय रूप जीवके भाव होते हैं, जिससे दुष्कृत्योमे प्रवृत्ति होती है। क्रोध उत्पन्न होनेपर अपनी और परकी शान्ति भग होती है, मान उत्पन्न होनेपर अपनेको उच्च और परको नीच समझता है, माया उत्पन्न होनेपर अपने तथा परको धोखा देता है एव लोभके उत्पन्न होनेपर अपने तथा परको लुब्धक बनाता है। अतएव सक्षेपमे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र आत्माके विकार हैं, ये आत्माके स्वभाव नही विभाव हैं । उक्त मिथ्यात्वकी उत्पत्तिका कारण राग और द्वेप ही हैं। इन्ही विभावोके कारण आत्मा स्वभाव धर्मसे च्युत है, जिससे क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शोच, सयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्य रूप अथवा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप आत्माकी प्रवृत्ति नहीं हो रही है। ससारका प्रत्येक
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन प्राणी विकारोके अधीन होनेके कारण ही व्याकुल है, एक क्षणको भी शान्ति नहीं है । आशा, तृष्णा सतत वेचैन किये रहती हैं।
विचारक महापुरुषोने विषय-कपायजन्य अशान्ति और वेचैनीको दूर करनेके लिए अनेक प्रकारके विधानोका प्रतिपादन किया है। नाना
प्रकारके मगल-वाक्योकी प्रतिष्ठा की है तथा मगल-वाक्योंकी
जीवनमे शान्ति और सुख प्राप्त करनेके लिए आवश्यकता
ज्ञान, भक्ति, कर्म और योग आदि मार्गोंका निरूपण किया है। कुछ ऐसे सूत्र, वाक्य, गाथा और श्लोकमे भी बतलाये गये हैं, जिनके स्मरण, मनन, चिन्तन और उच्चारणसे शान्ति मिलती है। मन पवित्र होता है, आत्मस्वरूपका श्रद्धान होता है तथा विषय-क्षायोकी आमक्तिको व्यक्ति छोडनेके लिए बाध्य हो जाता है । विकारोपर विजय प्राप्त करनेमे ये मगलवाक्य दृढ आलम्बन बन जाते हैं तथा आत्मकल्याणकी भावनाका परिस्फुरण होता है। विश्वके सभी मत-प्रवर्तकोने विकारोको - जीतने एव साधनाके मार्गमे अग्रसर होनेके लिए अपनी-अपनी मान्यतानुसार कुछ मगलवाक्योका प्रणयन किया है। अन्य मतप्रवर्तको-द्वारा प्रतिपादित मंगलवाक्य कहाँतक जीवनमे प्रकाश प्रदान कर सकते हैं, यह विचार करना प्रस्तुत रचनाका ध्येय नही है । यहाँ केवल यही बतलानेका प्रयल किया जायेगा कि जैनाम्नायमे प्रचलित मंगलवाक्य णमोकार मन्त्र किस प्रकार जीवनमे शान्ति प्रदान कर सकता है तथा दार्शनिक, मान्त्रिक एव लौकिक कल्याण-प्राप्तिकी दृष्टिसे उक्त वाक्यका क्या महत्त्व है, जिससे विकारोको शमन करनेमे सहायता मिल सके । आत्मकल्याणका मूल साधन सम्यग्दर्शन भी उक्त मगलवाक्यके स्मरणसे किस प्रकार उत्पन्न हो सकता है, द्वादशांग जिनवाणीका परिज्ञान उक्त वाक्य-द्वारा किस प्रकार किया जा सकता है तथा जीवनकी आशा-तृष्णाजन्य अशान्ति किस प्रकार दूर हो जाती है, आदि बातोपर विचार किया जायेगा।
साधकको सर्वप्रथम अपनी छान-बीनकर अपने सच्चिदानन्द स्वरूपका
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन २९ निश्चय करना अत्यावश्यक है । आत्मस्वरूपके निश्चय करनेपर भी जबतक
अनुकरणीय आदर्श निश्चित नही, तबतक अपने भशान्तिको दूर करनेका
स्वरूपको प्राप्त करनेका मार्ग अन्वेषण करना अमोघ साधन
असम्भव है। आदर्श शुद्ध सच्चिदानन्दरूप आत्मा ___णमोकार-मन्त्र
ही हो सकता है । कोई भी विकारग्रस्त प्राणी विकाररहित आदर्शको सामने पाकर अपने भीतर उत्साह, दृढसकल्प और स्फूर्ति उत्पन्न कर सकता है। चिदानन्द शान्तमुद्राका चित्र अपने हृदयमे स्थापित करनेसे विकारोका शमन होता है । वीतरागी, शान्त, अलौकिक, दिव्यज्ञानवारी, अनुपम दिव्य आनन्द और अनन्त सामर्थ्यवान् आत्माओका आदर्श सामने रखनेसे मिथ्याबुद्धि दूर हो जाती है, दृष्टिकोणमें परिवर्तन हो जाता है, राग-द्वेषकी भावनाएं निकल जाती हैं और आध्यात्मिक विकास होने लगता है । णमोकार मन्त्र ऐसा मगलवाक्य है, जिसमे द्वादशाग वाणीका सारभूत दिव्यात्मा पचपरमेष्ठीका पावन नाम निरूपित है । इस नामके श्रवण, मनन, चिन्तन और स्मरणसे कोई भी व्यक्ति अपने रागद्वेषरूप विकारोको सहजमे पृथक कर सकता है। विकारोका परिष्कार करने के लिए पचपरमेष्ठी के आदर्शसे उत्तम अन्य कोई आदर्श नही हो सकता।
साधारण व्यक्तिका भी इधर-उधर वासनाओके लिए भटकनेवाला मन इस मन्त्रके उच्चारण और चिन्तन-द्वारा स्वास्थ्य लाभ कर सकता है। इस मन्त्रमे प्रतिपादित भावना प्रारम्भिक साधक से लेकर उच्चश्रेणीके साधक तकको शान्ति और श्रेयोमार्ग प्रदान करनेवाली है । भारतीय दार्शनिकोका ही नहीं, विश्वके सभी दार्शनिकोका मत है कि जबतक व्यक्तिमे आस्तिक्य भाव नही, विशेष मगल-वाक्योके प्रति श्रद्धा नहीं; तबतक उसका मन स्थिर नहीं हो सकता है । आस्तिक व्यक्ति अपने आराध्य महापुरुपकी आराधना कर शान्ति लाभ करता है। घढ आस्था रखकर निर्दोप आत्माओका आदर्श सामने रखना तथा उन वीतरागी आत्माओके समान अपनेको बनानेका प्रयत्न करना प्रत्येक मनुष्यका परम कर्तव्य है । जो शान्ति
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
चाहता है, राग-द्वेषसे छुटकारा प्राप्त करना चाहता है एव अपने हृदयको शुद्ध, सवल और सरस बनाना चाहता है, उसे अपने सामने कोई आदर्श अवश्य रखना होगा तथा इस आदर्शको प्रतिपादित करनेवाले किसी मगलवाक्यका मनन भी करना पडेगा । यहाँ आदर्श रखनेका यह अर्थ कदापि नही है कि अपनेको हीन तथा आदर्शको उच्च समझकर दास्यदासक भाव स्थापित किया जाये अथवा अन्य किसी रागात्मक सम्बन्धकी स्थापना कर अपनेको रागी-द्वेषी वनाया जाये, बल्कि तात्पर्य यह है कि शुद्ध और उच्च आदर्शको स्थापित कर अपने को भी उन्ही के समान बनाया जाये । राग द्वेष, काम-क्रोध आदि दुर्बलताओपर मगलवाक्यमे वरिगत शुद्ध आत्माओके समान विजय प्राप्त की जाये। आत्मोन्नति के लिए आवश्यक है आराधना योग्य परमशान्त, सौम्य, भव्य और वीतरागी आत्माओं का चिन्तन एव मनन करना तथा इन आत्माओके नाम मोर गुणोको बतलानेवाले वाक्योका स्मरण, पठन एव चिन्तन करना । ससारके विकारोसे ग्रस्त व्यक्ति आदर्श आत्माओं के गुणोंके स्तवन, चिन्तन और मनन-द्वारा अपने जीवनपर विचार करता है । जिस प्रकार उन शुद्ध और निर्मल आत्माओंने राग, द्वेष आदि प्रवृत्तियोपर विजय प्राप्त कर लिया है तथा नवीन कर्मोंके आसत्रको अवरुद्ध कर सचित कर्मोंका क्षय - विनाश कर शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर लिया है, उसी प्रकार आदर्श शुद्ध आत्माओके स्मरण, ध्यान और मननसे साधक भी निर्मल बन सकता है ।
णमोकार मन्त्रमे प्रतिपादित आत्माओकी शरण जानेसे तात्पर्य उन्ही के समान शुद्ध स्वरूपकी प्राप्तिसे है । साधक किसी आलम्बनको पाकर ऊँचा घट जाना साधना की उन्नत अवस्थाको प्राप्त कर लेना चाहता है । यह आलम्बन कमजोर नही है, बल्कि विश्वको समस्त आत्माओोसे उन्नत परमात्मारूप है । इनके निकट पहुँचकर साधक उसी प्रकार शुद्ध हो जाता है, जिस प्रकार पारसमणिका सयोग पाकर लोहा स्वर्ण बन जाता है । लोहेको स्वर्ण बननेके लिए कुछ विशेष प्रयास नही करना पडता, बल्कि
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
•
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पारसमणिका सान्निध्य प्राप्त कर लेनेमात्र मे ही उसके लौह- परमाणु स्वर्ण - परमाणुओमे परिवर्तित हो जाते हैं । अथवा जिस प्रकार दीपकको प्रज्वलित करने के लिए अन्य जलते हुए दीपको के पास रख देनेके पश्चात् नही जलनेवाले दीपककी बत्ती जलते हुए दीपककी लोसे लगा देने मात्रसे वह नही जलनेवाला दीपक प्रज्वलित हो उठता है, उसी प्रकार ससारी विषयकषाय सलग्न आत्मा उत्कृष्ट मंगलवाक्यमे निरूपित आत्माओ, जो कि सामान्य सग्रह नयकी अपेक्षा एक परमात्मारूप है, का सान्निध्य शरण भाव प्राप्त कर तत्तुल्य वन जाता है । अतएव मानव जीवनके उत्थानमे मगलमूत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
जैन आगममे भावोकी अपेक्षासे आत्माके तीन भेद बताये गये हैं - वहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । राग-द्वेषको अपना स्वरूप सम झना, पर पर्यायमे लीन शरीरादि पर वस्तुओआत्मा के भेद और को अपना मानना एव वीतराग निर्विकल्प भगळ-वाक्य समाधिसे उत्पन्न हुए परमानन्द सुखामृतसे वचित रहना आत्माकी वहिरात्म अवस्था है । बताया गया है-' देह जीवको एक गिनै बहिरात तत्व मुधा है।" अर्थात् शरीर और आत्माको एक समझना, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभसे युक्त होना और मिथ्याबुद्धिके कारण शारीरिक सम्बन्धोको आत्मा के सम्बन्ध मानना बहिरात्मा है | इस बहिरात्म अवस्थामे रागभाव उत्कट रूपसे वर्तमान रहता है, अतः स्वसवेदन ज्ञान - स्वानुभवरूप सम्यग्ज्ञान इस अवस्थामे नही रहता । हरात्मा मंगलवाक्य के स्मरण और चिन्तनसे दूर भागता है, उसे णमोकार मन्त्र- जैसे पावन भगलवाक्योपर श्रद्धा नही होती; क्योंकि राग वुद्धि उसे आस्तिक बनाने से रोकती है । जवतक आस्तिक्य वृत्ति नही, तबतक उन्नत आदर्श सामने नही आ सकेगा । कर्मोंका क्षयोपशम होनेपर ही णमोकार मन्त्रके ऊपर श्रद्धा उत्पन्न होती है तथा इसके स्मरण, मनन, और चिन्तनसे अन्तरात्मा बननेकी ओर प्राणी अग्रसर
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३२ मगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन होता है । अभिप्राय यह है कि जबतक प्राणीकी इस परम मांगलिक महामन्त्रके प्रति श्रद्धा भावना जाग्रत नहीं होती है, तबतक वह बहिरा. त्मा ही बना रहता है और विकारभावोको अपना स्वरूप समझकर अनिश व्याकुलताका अनुभव करता रहता है।
भेदविज्ञान और निर्विकल्प समाघिसे आत्मामे लीन, शरीरादि परवस्तुओसे ममत्ववुद्धि-रहित एव चिदानन्दस्वरूप आत्माको ही अपना समझनेवाला स्वात्मज्ञ चैतन्यस्वरूप आत्मा अन्तरात्मा है। इसके तीन भेद हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य । समस्त परिग्रहके त्यागी; नि स्पृही, शुद्धोपयोगी और आत्मध्यानी मुनीश्वर उत्तम अन्तरात्मा हैं, देशव्रती गृहस्थ और छठे गुणस्थानवर्ती निर्ग्रन्थ मुनि मध्यम अन्नरात्मा हैं तथा राग-द्वेषको अपनेसे भिन्न समझ स्वरूपका दृढ श्रद्धान करनेवाले व्रतरहित श्रावक जघन्य अन्तरात्मा हैं।
उपर्युक्त तीनो ही प्रकारके अन्तरात्मा णमोकार मन्त्र-जैसे मंगलवाक्योंकी आराधना द्वारा अपनी प्रवृत्तियोको शुद्ध करते हैं तथा निवृत्ति मार्गकी ओर अग्रसर होते हैं । णमोकार मन्त्रका उच्चारण ही शुभोपयोगका साधन । है। इसके प्रति जव भीतरी आस्था जाग्रत हो जाती है और इस मन्त्रमे कथित । उच्चात्माओके गुणोंके स्मरण, चिन्तन और मनन द्वारा स्वपरिणतिकी ओर झुकाव आरम्भ हो जाता है, तो शुद्धोपयोगकी ओर व्यक्ति बढता है । अत' यह मगलवाक्य उक्त तीनो प्रकारको अन्तरात्माओको प्रगति प्रदान करता है । वास्तविकता यह है कि महामन्त्र विकारभावोंको दूर कर आत्माको अपने शुद्ध स्वरूपकी ओर प्रेरित करता है। सासारिक पदार्थोके प्रति आसक्ति तथा आसक्ति मे होनेवाली अशान्ति आत्माको वेचैन नहीं करती। यद्यपि कर्मोके उदयके कारण विकार उत्पन्न होते हैं, किन्तु उनका प्रभाव अन्तः । रात्मापर नही पडता। णमोकार-मन्त्र अन्तरात्माओंके साधना मार्गमे मीलके पत्थरोका कार्य करता है, जिस प्रकार पथिकको मीलका पत्थर मार्गका परिज्ञान कराता है, उसे मार्गके तय करनेका विश्वास दिलाता है, उसी
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मगलमन्त्र णमोकार - एक चिन्तन ३५ प्रकार यह मन्त्र अन्तरात्माको साघु, उपाध्याय, आचक्षीण कषायवाले सिद्धि रूप गन्तव्य स्थानपर पहुंचनेके लिए मार्ग परिज्ञानका कर सकते हैं। अर्थात् अन्तरात्मा इस मन्त्रके सहारे पचपरमेष्ठी पदको प्राप्त होतारणोके
परमात्माके दो भेद हैं-सकल और निकल । घातिया कर्मोंको नाशकरनेवाले और सम्पूर्ण पदार्थोके ज्ञाता, द्रष्टा मरिहन्त सकल परमात्मा है। समस्त प्रकारके कर्मोमे रहित अशरीरी सिद्ध निकल परमात्मा कहे जाते हैं। कोई भी अन्तरात्मा णमोकार मन्त्रके भाव-स्मरणसे परमात्मा बनता है तथा सकल परमात्मा भी योग निरोध कर अघातिया कर्मोका नाश करते समय णमोकार मन्त्रका भाव चिन्तन करते हैं । निर्वाण प्राप्त होनेके पहले तक णमोकार मन्त्रके स्मरण, चिन्तन, मनन और उच्चारणकी सभीको आवश्यकता होती है, क्योंकि इस मन्त्रके स्मरणमे मात्मामे निरन्तर विशुद्धि उत्पन्न होती है। श्रद्धा-भावना, जो कि मोक्ष महलपर चढने के लिए प्रथम सीढी है, इसी मन्त्रमे भाव स्मरण-द्वारा उत्पन्न होती है। सरल शब्दोंमे यो कहा जा सकता है कि इस मन्त्रमें प्रतिपादित पचपरमेष्ठीके स्मरण और मननसे आत्मविश्वासकी भावना उत्पन्न होती है, जिससे रागद्वेप प्रभृति विकारोका नाश होता है, साथ ही अपना इष्ट भी सिद्ध होता है। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वमाधुको परमेष्ठी इसीलिए कहा जाता है कि इनके स्मरण, चिन्तन और मनन-द्वारा सुखकी प्राप्ति और दुखके विनाशरूप इष्ट प्रयोजनकी सिद्धि होती है। विश्वके प्रत्येक प्राणीको सुख इष्ट है, क्योकि यह आत्माका प्रमुख गुरण है तथा इससे उत्पन्न होनेपर ही वेचैनी दूर होती है। ये परमेष्ठी स्वय परमादमे स्थित हैं तथा इनके अवलम्बनसे अन्य व्यक्ति भी परमपदमे स्थित हो सकते हैं। है, स्पष्ट करनेके लिए यो समझना चाहिए कि आत्माके तीन प्रकारके परिनुशाम होते हैं-अशुभ, शुभ और शुद्ध । तीब कपायरूप परिणाम
यशुभ,थमन्द कपायरूप परिणाम शुभ और कपायरहित परिणाम शुद्ध होते __ हैं। राग हैं पिरूप सक्लेश परिणामोसे ज्ञानावरणादि घातिया कर्मोका, जो
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३२ मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन . होता है। अभिभावके घातक हैं, तीव्रबन्ध होता है और शुभ परिणामोंसे महामन्त्रके ता है । जब विशुद्ध परिणाम प्रबल होते हैं तो पहलेके तीन त्मा भी मन्द कर देते हैं, क्योकि विशुद्ध परिणामोसे बन्ध नही होता, वल निर्जरा होती है। णमोकार मन्त्रमे प्रतिपादित पंचपरमेष्ठीके स्मरणसे जो भावनाएं उत्पन्न होती हैं, उनसे कषायोकी मन्दता होती है तथा वे परिणाम समस्त कषायोको मिटानेके साधन बनते हैं। ये ही परिणाम आगे शुद्ध परिणामोकी उत्पत्तिमे भी साधनाका कार्य करते हैं। अतएव भावसहित णमोकार मन्त्रके स्मरणसे उत्पन्न परिणामो द्वारा जब अपने स्वभावघातक घातिया कर्म क्षीण हो जाते हैं, तब सहजमे वीतरागता प्रकट होने लगती है। जितने अंशोमे घातिया कर्म क्षीण होते हैं, उतने ही अंशोमे वीतराग-भाव उत्पन्न होते हैं । इन्द्रियासक्ति एवं असयमकी प्रवृत्ति णमोकार मन्त्रके मननसे दूर होती है, आत्मामें मन्द कषायजन्य भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। असाता आदि पाप प्रवृत्तियां मन्द पड़ जाती हैं और पुण्यका उदय होनेसे स्वतः सुख-सामग्री उपलब्ध होने लगती है।
उपर्युक्त विवेचनमें हम इस निष्कर्षपर पहुंचते हैं कि आत्माको शुद्ध करनेकी तथा अपने सत् चित् और आनन्दमय स्वरूपमे अवस्थित होनेकी प्रेरणा इस णमोकार मन्त्रसे प्राप्त होती है । विकारजन्य अशान्तिको दूर करनेका एकमात्र साधन यह णमोकार मन्त्र है। इस मन्त्रके स्मरण, चिन्तन और मनन विना अन्य किसी भी प्रकारकी साधना सम्भव नहीं है। यह सभी प्रकारको साधनाओका प्रारम्भिक स्थान है तथा समस्त साधनोंका मन्त भी इसीमे निहित है । अत राग-द्वेष, मोह आदिकी प्रवृत्ति तभीतक । जीवमें वर्तमान रहती है, जबतक जीव आत्माके वास्तविक स्वरूपकी उपलन्धिसे वंचित रहता है । आत्मस्वरूप पंचपरमेष्ठीकी आराधनासे अपनेआप अवगत हो जाता है। जिस प्रकार एक जलते दीपकसे अनेक मोलहुए दीपकोको जलाया जा सकता है, उसी प्रकार पंचपरमेष्ठीकी मार्गका मात्मामोंसे अपनी ज्ञान-ज्योतिको प्रज्वलित किया जा सकता है है, उसी ।
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन ३५ जिन संसारी जीवोकी आत्मामे कषायें वर्तमान हैं, वे भी क्षीण कषायवाले व्यक्तियोंके अनुकरणसे अपनी कपाय भावनाओको दूर कर सकते हैं। साधारण मनुष्यकी प्रवृत्ति शुभ या अशुभ रूपमे सामनेके उदाहरणोके अनुसार ही होती है। मनोविज्ञान बतलाता है कि मनुष्य अनुकरणशील प्राणी है, यह अन्य व्यक्तियोंका अनुकरण कर अपने ज्ञानके क्षेत्रको विस्तृत और समृद्ध करता रहता है । अतएव स्पष्ट है कि णमोकार मन्त्रमे प्रतिपादित अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुकी आत्मा शुद्ध चिद्रूप है, इनके स्मरण और चिन्तनसे शुद्ध चिद्रूपकी प्राप्ति होती है।
दर्शनशास्त्र के वेत्ता मनीषियोने अनुभव तीन प्रकारका बतलाया है - सहज, इन्द्रियगोचर और अलौकिक । इन तीनो प्रकारके अनुभवोसे ही मनुष्य आनन्दकी प्राप्ति करता है तथा अपने मन और अन्तःकरणका विकास करता है । सहज अनुभव उन व्यक्तियोको होता है, जो भौतिकवादी हैं तथा जिनका आत्मा विकसित नही है। ये क्षुधा, तृषा, मैथुन, मलमूत्रोत्सर्जन आदि प्राकृतिक शरीरसम्बन्धी मांगोकी पूर्तिमें ही सुख और पूनिके अभावमे दुखका अनुभव करते रहते हैं। ऐसे व्यक्तियोमे आत्मविश्वासको मात्रा प्रायः नही होती है, इनकी समस्त क्रियाएँ शरीराधीन हुआ करती हैं । णमोकार मन्त्रकी साधना इस सहज अनुभवको आध्यात्मिक अनुभवके रूपमे परिवर्तित कर देती है तथा शरोरकी वास्तविक उपयोगिता और उसके स्वरूपका बोध करा देती है।
दूसरे प्रकारका अनुभव प्राकृतिक रमणीय दृश्योके दर्शन, स्पर्शन
आदिके द्वारा इन्द्रियोको होता है, यह प्रथम प्रकारके अनुभवकी अपेक्षा .. सूक्ष्म है, किन्तु इस अनुभवसे उत्पन्न होनेवाला आनन्द भी ऐन्द्रियिक आनन्द
र है, जिसमे आकुलता दूर नहीं हो सकती है । मानसिक वेचैनी इस प्रकारके पोर अनुभवसे और बढ जाती है । विकारोकी उत्पत्ति इससे अधिक होने लगती वन है तथा ये विकार नाना प्रकारके रूप धारण कर मोहक रूपमे प्रस्तुत है। राहोते हैं जिससे अहकार और ममकारकी वृद्धि होती है। अतएव इस
.... Animunremain
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
अनुभवजन्य ज्ञानका परिमार्जन भी णमोकार मन्त्रके द्वारा ही सम्भव है। इस मन्त्रमे निरूपित आदर्श अहकार और ममकारका निरोध करनेमे सहायक होता है । अत आत्मोत्थानके लिए यह अनुभव मगलवाक्योके रसायन-द्वारा ही उपयोगी हो सकता है। मंगलवाक्य ही इसका परिष्कार करते हैं। जिस प्रकार गन्दा पानी छाननेसे निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार णमोकार मन्त्रकी साधनासे सासारिक अनुभव शुद्ध होकर आत्मिक बन जाता है ।
'तीसरे प्रकारका अनुभव आत्मिक या आध्यात्मिक होता है। इस अनुभवसे उत्पन्न आनन्द अलोकिक कहलाता है । इस प्रकारके अनुभवकी उत्पत्ति सत्संगति, तीर्थाटन समीचीन ग्रन्थोके स्वाध्याय, प्रार्थना एव मगलवाक्योके स्मरण, मनन और पठनसे होती है। यही अनुभव आत्माकी अनन्त शक्तियोकी विकास-भूमि है और इसपर चलनेसे आकुलता दूर हो जाती है । णमोकार मन्त्रकी साधना मनुष्यकी विवेक बुद्धिकी वृद्धि और इच्छाओंको संयमित करती है, जिससे मानवकी भावनाएं परिमार्जित हो जाती हैं। अतएव विकारोसे उत्पन्न होनेवाली अशान्तिको रोकने तथा आत्मिक शान्तिको विकसित करनेका एकमात्र साधन णमोकार महामन्त्र ही है। यह प्रत्येक व्यक्तिको बहिरात्मा अवस्थासे दूर कर अन्तरात्मा और परमात्मा अवस्थाकी ओर ले जाता है । आत्मबलका आविर्भाव इस मन्त्रकी साधनासे होता है । जो व्यक्ति आत्मबली हैं, उनके लिए ससारमे कोई कार्य असम्भव नही । आत्मबल और आत्मविश्वासकी उत्पत्ति प्रधान रूपमे आराध्यके प्रति भावसहित उच्चार किये गये प्रार्थनामय मगल. वाक्यो द्वारा ही होती है। जिन व्यक्तियोमे उक्त दोनो गुण नहीं हैं, वे मनुष्य धर्मके उच्चतम शिखरपर चढनेके अधिकारी नहीं । जिस प्रकार , प्रचण्ड सूर्यके समक्ष घटाटोप मेघ देखते-देखते विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार पचपरमेष्ठीकी शरण जानेसे ~ उनके गुणोके स्मरणसे, उनकी प्रार्थनासे आत्माका स्वकीय विज्ञान धन एवं निराकुलतारूप सुख अनुभवमे आने लगता है तथा शक्ति इतनी प्रवल हो जाती है कि अन्तर्मुहुर्तमे कम
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन ३७ भस्म हो जाते हैं । मोहका अभाव होते ही यह आत्मा ज्ञानाग्नि द्वारा अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तवीर्य और अनन्तसुखको प्राप्त कर लेता है।
वैदिक धर्मानुयायियोमे जो ख्याति और प्रचार गायत्री मन्त्रका है, बौद्धोमे त्रिसरण - त्रिशरण मन्त्रका है, जैनोमे वही ख्याति और प्रचार
_ णमोकार मन्त्रका है । समस्त धार्मिक और सामाणमोकार-मन्त्रका
जिक कृत्योके आरम्भमे इस महामन्त्रका उच्चारण अर्थ
किया जाता है। जैन-सम्प्रदायका यह दैनिक जाप-मन्त्र है । इस मन्त्रका प्रचार तीनो सम्प्रदायो - दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकवासियोमे समान रूपसे पाया जाता है। तीनो सम्प्रदायके प्राचीनतम साहित्यमे भी इसका उल्लेख मिलता है। इस मन्त्रमे पांच पद अट्ठावन मात्रा और पैतीस अक्षर हैं । मन्त्र निम्न प्रकार है -
णमो अरिहताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । ___णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व-साहूणं ॥
अर्थ - अरिहन्तो या अर्हन्तोको नमस्कार हो, सिद्धोको नमस्कार हो, आचार्योंको नमस्कार हो, उपाध्यायोको नमस्कार हो और लोकके सर्वसाधुओंको नमस्कार हो। __ 'णमो अरिहताण' भरिहननादरिहन्ता नरकतिर्यक्कुमानुष्यप्रेतवासगताशेषदु स्वप्राप्तिनिमित्तत्वादरिोह । तथा च शेषकर्मव्यापारो वैफल्यमुपेयादिति चेन्न, शेषकर्मणा मोहतन्त्रत्वात् । न हि मोहमन्तरेण शेषकर्माणि स्वकार्यनिष्पत्ती व्यापृतान्युपलभ्यन्ते येन तेषा स्वातन्त्र्य जायते । मोहे विनष्टेऽपि कियन्तमपि काल शेषकर्मणां सचोपलम्मान तेषां तत्तन्त्रत्वमिति चेन, विनष्टेरौ जन्ममरणप्रबन्धलक्षणसंसारोत्पादनसामर्थ्यमन्तरेण तत्सत्वस्यासत्वसमानत्वात् केवलज्ञानाद्यशेषात्मगुणाविर्भावप्रतिबन्धनप्रत्ययसमर्थस्वाच्च । तस्यारेहननादरिहन्ता।
रजोहननाहा अरिहन्ता । ज्ञानहगावरणानि रजांसीव बहिरङ्गान्तरगाशेपत्रिकालगोचरानन्तार्थव्यञ्जनपरिणामात्मकवस्तुविषयबोधानुभव
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मगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन प्रतिवन्धकत्वाद्रजांसि । मोहोऽपि रजामस्मरजसा पूरिताननानामिव भूयो मोहावरुद्धात्मनां जिह्मभावोपलम्भात् । किमिति त्रितयस्यैव विनाश उपदिश्यत इति चेन्न, एतद्विनाशस्य शेषकर्मविनाशाविनामावित्वात् तेषां हननादरिहन्ता।
रहस्यामावाद्वा अरिहन्ता। रहस्यमन्तरायः तस्य शेषघातित्रितय. विनाशाविनामाविनो भ्रष्टबीजवनिःशक्तीकृतावातिकर्मणो हननादरिहन्ता।
अतिशयपूजाहत्वाद्वार्हन्त । स्वर्गावतरणजन्मामिपेकपरिनिष्क्रमणकेवलज्ञानोत्पत्तिपरिनिर्वाणेषु देवकृतानां पूजानां देवासुरमानवप्राप्तपूजाभ्योऽधिकत्वादतिशयानामहत्वाधोग्यत्वादर्हन्तः ।। ___णमो भरिहताणं - णमो - नमस्कारः । केभ्यः ? अहस्यः शक्रादिकृतां पूजां सिद्धिगतिं चाहन्तस्तेभ्य । अरीन् - रागद्वेषादीन् घ्नन्तीति अरिहन्तारः तेभ्योऽरिहन्तृभ्यः, न रोहन्ति - नोत्पद्यन्ते दग्धकर्मवीजत्वात् - पुनः संसारे न जायन्ते इत्यरुहन्तः तेभ्योऽरुहद्भ्यो नमो नमस्कारोऽस्तु ।
भरिहननाद् रजोहनन [स्या भावाच्च परिप्राप्तानन्तचतुष्टयस्वरूप सन् इन्द्रनिर्मितामतिशयवती पूजामहतीति अर्हन् । घातिक्षयजमनन्तज्ञानादिचटुष्टयं विभूत्याद्य यस्येति वाऽहन् । ___अर्थात्-'णमो अरिहंताणं' इस पदमे अरिहन्तोको नमस्कार किया गया है । मरि - शत्रुओंके नाश करनेसे 'अरिहन्त' यह सज्ञा प्राप्त होती है । नरक, तिर्यंच, कुमानुप और प्रेन इन पर्यायोंमे निवास करनेसे होनेवाले समस्त दु खोकी प्राप्तिका निमित्त कारण होनेसे मोहको अरि-शत्रु कहा गया है।
१. धवलाटीका प्रथम पुस्तक, पृ० ४२-४४ । २, सप्तस्मरणानि, पृ० २। ३. भमरकीरि विरचित नाममालाका भाष्य, पृ० ५८-५६ ।
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन ३९ शंका-केवल मोहको ही अरि मान लेनेपर शेष कर्मोका व्यापार - कार्य निष्फल हो जायेगा ?
समाधान-यह शका ठीक नही, क्योकि अवशेष सभी कर्म मोहके अधीन हैं। मोहके अभावमे अवशेष कर्म अपना कार्य उत्पन्न करनेमे असमर्थ हैं । अत. मोहकी ही प्रधानता है।
शंकाकार-मोहके नष्ट हो जानेपर भी कितने ही काल तक शेष कर्मोंकी सत्ता रहती है, इसलिए उनको मोहके अधीन मानना उचित नही ?
समाधान-ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योकि मोहरूप अरिके नष्ट हो जानेपर जन्म, मरणकी परम्परारूप ससारके उत्पादनकी शक्ति शेष कर्मोमे नही रहनेसे उन कर्मोका सत्त्व असत्त्वके समान हो जाता है। तथा केवलज्ञानादि समस्त आत्मगुणोके आविर्भावके रोकनेमे समर्थ कारण होनेसे भी मोहको प्रधान शत्रु कहा जाता है। अत उसके नाश फरनेसे 'अरिहन्त' सज्ञा प्राप्त होती है।
अथवा रज-आवरण कर्मोके नाश करनेसे 'मरिहन्त' यह सज्ञा प्राप्त होती है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मलिकी तरह बाह्य और अन्तरंग समस्त त्रिकालके विषयभूत अनन्त अर्थपर्याय और व्यजनपर्यायरूप वस्तुओको विषय करनेवाले बोध और अनुभवके प्रतिबन्धक होनेसे रज कहलाते हैं । मोहको भी रज कहा जाता है, क्योकि जिस प्रकार जिनका मुख भस्मसे व्याप्त होता है, उनमे कार्यकी मन्दता देखी जाती है, उसी प्रकार मोहसे जिनकी आत्मा व्याप्त रहती है, उनकी स्वानुभूतिमे फालुण्य, मन्दता पायी जाती है।
अथवा 'रहस्य के अभावसे भी अरिहन्त संज्ञा प्राप्त होती है । रहस्य अन्तराय कर्मको कहते हैं। अन्तरायका नाश शेष तीन घातिया कर्मोके नाशका अविनाभावी है और अन्तराय कर्मके नाश होनेपर अघातिया कर्म भ्रष्ट वीजके समान नि.शक्त हो जाते हैं। इस प्रकार अन्तराय कर्मके नाशसे अरिहन्त सज्ञा प्राप्त होती है ।
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मंगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
अथवा सातिशय पूजा के योग्य होने से अर्हन् सज्ञा प्राप्त होती है, क्योकि गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण इन पाँचो कल्याणकोमे देवों द्वारा की गयी पूजाएँ, देव, असुर, मनुष्योकी प्राप्त पूजाओसे अधिक हैं । अतः इन अतिशयोके योग्य होनेसे अर्हन सज्ञा प्राप्त होती है ।
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इन्द्रादिके द्वारा पूज्य, सिद्धगतिको प्राप्त होनेवाले अर्हन्त या रागद्वेप रूप शत्रुओको नाश करनेवाले अरिहन्त अथवा जिस प्रकार जला हुआ बीज उत्पन्न नही होता उसी प्रकार कर्म नष्ट हो जानेके कारण पुनर्जन्म से रहित अर्हन्तोंको नमस्कार किया है ।
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कर्मरूपी शत्रुओके नाश करनेसे तथा कर्मरूपी रज न होने से अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप अनन्तचतुष्टय के प्राप्त होनेपर इन्द्रादिके द्वारा निर्मित पूजाको प्राप्त होनेवाले अर्हन् अथवा घातिया - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चारो कर्मोके नाश होनेसे अनन्तचतुष्टय विभूति जिनको प्राप्त हो गयी है, उन अर्हन्तोको नमस्कार किया गया है ।
जो ससारसे विरक्त होकर घर छोड़ मुनिधर्म स्वीकार कर लेते हैं तथा अपनी आत्माका स्वभाव साधन कर चार घातिया कर्मोक नाश द्वारा अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य इस अनन्त चतुष्टयको प्राप्त कर लेते हैं, वे अरहन्त है । ये अरहन्त अपने दिव्य ज्ञान -द्वारा संसारके समस्त पदार्थों की समस्त अवस्थाओको प्रत्येक रूपसे जानते हैं, अपने दिव्यदर्शन द्वारा समस्त पदार्थोंका सामान्य अवलोकन करते हैं । ये आकुलतारहित परम आनन्दका अनुभव करते है । क्षुवा, तृपा, भय, राग, द्वेप, मोह, चिन्ता, बुढापा, रोग, मरण, पसीना, खेद, अभिमान, रति, आश्चर्य, जन्म, नीद और शोक इन अठारह दोपोंसे रहित होने के कारण परम शान्त होते हैं, अतः वे देव कहलाते हैं इनका परमोदारिक शरीर उन सभी शास्त्र, वस्त्रादि अथवा अगविकारादिसे रहित होता है, जो काम, क्रोधादि निन्द्य भावोंके चिह्न हैं । इनके वचनोसे लोकमे धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
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होती है, जिसने समस्त प्रारणी इनके उपदेशका अनुसरण कर अपना कल्याण करते हैं । अरहन्त परमेष्ठी मे ४६ मूल गुण होते हैं - दस अतिशय जन्म समयके, दस अतिशय केवलज्ञानके, चौदह अतिशय देवोके द्वारा निर्मित, आठ प्रातिहार्य और चार अनन्तचतुष्टय | इनमे प्रभुताके अनेक चिह्न वर्तमान रहते हैं तथा ऐसे अनेक अतिशय और नाना प्रकार के वैभवका सयोग पाया जाता है, जिनसे लौकिक जीव आश्चर्यान्वित हो जाते हैं । अर्हन्तोके मूल दो भेद हैं - सामान्य अर्हन्त और तीर्थंकर अर्हन्त | अतिशय और धर्म तीर्थका प्रवर्तन तीर्थंकर अर्हन्तमे ही पाया जाता है । अन्य विशेषताएँ दोनोकी समान होती है । कोई भी मात्मा तपश्चरण द्वारा घातिया कर्मोंको नष्ट करनेपर अर्हन्तपदको प्राप्त कर सकता है
प्रत्येक अर्हन्त भगवान्मे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, क्षायिक सम्यवत्व, क्षायिकदान, क्षायिक लाभ, क्षायिकभोग और क्षायिक उपभोग आदि गुणोके प्रकट हो जाने से सिद्ध स्वरूपकी झलक आ जाती है, राग, द्वेष और मोहरूप त्रिपुरको नष्ट करनेके कारण त्रिपुरारी, ससारमे शान्ति करनेके कारण शकर, तीनो नेत्रो - नेत्रद्वय और केवलज्ञानसे ससारके समस्त पदार्थों को देखनेके कारण त्रिनेत्र एव कामविकारको जीतने के कारण कामारि कहलाते हैं ।'
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आविर्भूतानन्तज्ञानदर्शन सुखवीर्य विरतिक्षायिकसम्यक्त्वदानलाभभोगोपभोगाधनन्तगुणत्वादि हे वात्मसात्कृ] सिद्धस्वरूपाऽस्फटिकर्माणमहोधरगर्भोद्भूतादित्यवि - भ्ववदेदीप्यमानाः स्वशरीरपरिमाया अपि ज्ञानेन विश्वरूपाः स्वास्थिताशेष प्रमेयत्वतः प्राप्तविश्वरूपाः निर्गताशेषामयत्वतो निरामयाः विगता शेषपापालनपुअत्वेन निरञ्जनाः दोपकलातीतत्वतो निष्कलाः । तेभ्योऽर्हद्द्भ्यो नम इति यावत् ।
गिद्ध - मोहतरुणो
वित्थिण्या पाण- सायरुत्तिया । णिहय-णिय- विग्ध-वग्गा बहु-वार - विणिग्गया अयला ॥
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मंगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन
अर्हन्त भगवान् दिव्य औदारिक शरीरके धारी होते हैं, घातिया - कर्ममलसे रहित होनेके कारण उनका आत्मा महान् पवित्र होता है, अनन्त चतुष्टयरूपी लक्ष्मी उनको प्राप्त हो जाती है, अत वे परमात्मा, स्वयम्भू, जगत्पति, धर्मचको, दयाध्वज, त्रिकालदर्शी, लोकेश, लोकघाता, दृढव्रत, पुराणपुरुष, युगमुख्य, कलाधर, जगन्नाथ, जगद्विभु, सर्वज्ञ, प्रशास्ता, वृहस्पति, ज्ञानगर्भ, दयागर्भ, हेमगर्भ, सुदर्शन, शंकर, पुण्डरीकाक्ष, स्वयवेद्य, पितामह, ब्रह्मनिष्ठ, यज्ञपति, सुयज्वा, वृषभध्वज, हिरण्यगर्भ, स्वयंप्रभु, भूतनाथ, सर्वलोकेश, निरजन, प्रजापति, श्रीगर्भ आदि नामोंसे पुकारे जाते हैं ।
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दलिय - मयण - प्यावा तिकाल- विसरहि तीहि ययेदि । दिट्ठ सयलट्ठ- सारा सुदद्ध-तिउरा मुणि-व्वणो ॥ ति रयण-तिसूलधारिय मोहधासुर - कबंध - बिंद- हरा | सिद्ध-सयलप्प-रूवा अरहंता दुरणय-कयता ॥
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धवला टीका, प्रथम पुस्तक, पृ० ४५
१ दिव्यौदारिकदेहस्थो धोतघा तिचतुष्टय. । शानदृग्वीर्यसौख्याच. सोऽर्द्दन् धर्मोपदेशक' |
पञ्चाध्यायी, अ० २, पृ० १५८
अरहति णमोक्कारं श्ररिहा पूजा सुरुत्तमा लोए । रनहता अरिहति य भरता वेण उच्चदे ॥
- मूत्राराधना, गा० ५०५
अरिहति वंदणणमसाई धरछति पृयसकारं । सिद्धिगमणं च अरहा अरिहंता तेण वुञ्चति ॥ देवासुरमनुयाण अरिहा पूया सुसत्तमा जम्दा | अरिणो हंता रयं हंता अरिहंता तेण वुच्चति ॥
- विशेषावश्यकभाष्य ३५८४- ३५८५
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
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'णमो सिद्धाणं - सिद्धा निष्टिताः कृतकृत्याः सिद्धसाध्या. नष्टाष्ट
कर्माणः ।
नमो-नमस्कारः । केभ्यः ? सिद्धेभ्यः, सितं प्रभूतकालेन बद्धं अष्टप्रकार कर्म शुक्लध्यानाग्निना ध्यात- ममीकृत यैस्ते निरुक्तिवशात् सिद्धास्तेभ्यः इति । यद्वा सिद्धगतिनामधेय स्थान प्राप्ता सिद्धाः । यद्वा सिद्धाः सुनिष्ठितार्था मोक्षप्राप्त्या अपुनर्भवत्वेन सम्पूर्णार्थस्तेभ्यः
सिद्धेभ्य नमः ।
अर्थ-जो पूर्णरूपसे अपने स्वरूपमे स्थित हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होने अपने साध्यको सिद्ध कर लिया है और जिनके ज्ञानावरणादि आठ कर्म नष्ट हो चुके हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं । इन सिद्धोको नमस्कार है ।
जिन्होने सुदूर भूतकाल से बाँधे हुए आठ प्रकारके कर्मों को शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा नष्ट कर दिया है, उन सिद्धोको, अथवा सिद्ध नामकी गति जिन्होने प्राप्त कर ली है और पुनर्जन्म से छूटकर जिन्होंने अपने पूर्ण स्वरूपको प्राप्त कर लिया है, उन सिद्धोको नमस्कार है ।
तात्पर्य यह है कि जो गृहस्थावस्थाको त्यागकर मुनि हो चारघातिया कर्मोंका नाश कर अनन्तचतुष्टय भावको प्राप्त कर लेते हैं । पश्चात् योग निरोध कर अवशेष चार अघातिया कर्मोंको भी नष्ट कर एव परम ओदारिक शरीरको छोड अपने ऊर्ध्वगमन स्वभावसे लोकके अग्रभावमे जाकर विराजमान हो जाते हैं, वे सिद्ध हैं । समस्त परतन्त्रताओंसे छूट जानेके कारण उनको मुक्त कहा जाता है ।
आत्मा मे सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुदर्शनावरण, लघुत्व और अव्यावाघत्व ये आठ गुण होते हैं । ज्ञानावरण, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये कर्म इन गुणोके गुण आच्छादित बाधक हैं | आत्मापर इन कर्मोंका आवरण पड जानेसे ये
१. धवला टीका, प्रथम पुस्तक, पृ० ४६ ।
२. सप्तस्मरणानि,
पृ० ३ ।
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
हो जाते हैं, किन्तु जब आत्मा अपने पुरुषार्थसे इन कर्मो को क्षय कर देता है, तव सिद्ध अवस्थाको प्राप्त कर लेता है और उपर्युक्त आठो गुरणोंका मावि - र्भाव हो जाता है । ज्ञानावरगीय कर्मके क्षयसे अनन्तज्ञान, दर्शनावरणीय कर्मके क्षयसे अनन्तदर्शन, वेदनीयके क्षयसे अव्यावाघत्व, मोहनीयके क्षय से सम्यक्त्व, आयुके क्षयसे अवगाहनत्व, नामकर्मके क्षयसे सूक्ष्मत्व, गोत्र- कर्मके क्षयसे अगुरुलघुत्व और अन्तरायके क्षयसे वीर्यगुणका आविर्भाव होता है ।) २. जिन्होने नाना भेदरूप आठ कर्मोका नाश कर दिया है, जो तीन लोकके मस्तकके शेखर-स्वरूप हैं, दु.खोसे रहित हैं, सुखरूपी सागरमे निमग्न हैं, निरजन हैं, नित्य हैं, आठ गुणोसे युक्त हैं, निर्दोष हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होने समस्त पर्यायो - सहित सम्पूर्ण पदार्थोंको जान लिया है,
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८१. कृत्स्नकर्मक्षयाज्ज्ञान क्षायिक दर्शन पुन: । / प्रत्यक्षं सुखमात्मोत्थ वीर्य चेति चतुष्टयम् ॥ 1 सम्यक्त्व चैव सूक्ष्मत्वमव्याबाधगुणः स्वतः । - अस्त्यगुरुलघुत्व च सिद्धे चाष्टगुणाः स्मृताः ॥
- पचाध्यायी, अ० २, श्लो० ६७६८
२. हिय- विविहट्ठ-कम्मा - तिहुवण- सिर सेहरा विहुव- दुक्खा । सुहसार- मज्झगया गिरनया पिच अट्ठगुणा ॥ अणवज्जा कय-कज्जा सन्वावयवेद्दि दिट्ठ-सम्बट्ठा । वज - सिलत्थ भग्गय-पडम वामेब्ज सठाणा ॥ माम संठारणा विहु सव्वावयवेदि यो गुणेहि समा । सन्विदियाण विसयं जमेग - देसे विजायति ॥
1
धवला टीका, प्रथम पुस्तक, पृ० ४८८
विह कम्मवियला सीदीभूदा गिरजया शिचा । अट्टगुणा किदकिच्चा लोयग्गशिवासियो सिद्धा ॥
- गोम्मटसार जीवकाण्ड, गा० ६६
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वज्रशिला निर्मित अभग्न प्रतिमाके समान अभेद्य आकारसे युक्त है, जो पुरुषाकार होनेपर भी गुणोंसे पुरुषके समान नही है, क्योकि पुरुष सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोको भिन्न भिन्न देशोमे जानता है, परन्तु जो प्रत्येक देशमे सब विषयो को जानते हैं वे सिद्ध हैं' । आत्माका वास्तविक स्वरूप इस सिद्ध पर्याय हो प्रकट होता है, सिद्ध ही पूर्ण स्वतन्त्र और शुद्ध हैं । इस प्रकार पूर्ण शुद्ध कृतकृत्य, अचल, अनन्त सुख - ज्ञानमय और स्वतन्त्र सिद्ध आत्माओको 'णमो सिद्धाण' पदमे नमस्कार किया गया है ।
'णमो आइरियाणं' - णमो' नमस्कारः पञ्चविधमाचारं चरन्ति चारयन्तीत्याचार्याः । चतुर्दशविद्यास्थानपारगा. एकादशाङ्गधरा । भाचाराङ्गधरो वा तात्कालिकस्वसम्यपरसमयपारगो वा मेरुरिव निश्वल. क्षितिरिव सहिष्णुः सागर इव बहिः क्षिप्त मलः सप्तमय विप्रमुक्त आचार्यः ।
णमो नमस्कार.", केभ्यः ? भाचार्यैभ्यः, स्वयं पन्वविधाचारवन्तोऽन्येषामपि तत्प्रकाशकत्वात् भाचारे साधवः आचार्यास्तेभ्य इति ।
अर्थ — आचार्य परमेष्ठीको नमस्कार है । जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारोका स्वयं आचरण करते हैं और दूसरे साधुओंसे आचरण कराते हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं। जो चौदह विद्यास्थानोंके पारंगत हों, ग्यारह अगके धारी हो अथवा आचारागमाश्रके घारी हो अथवा तत्कालीन स्वसमय और परसमयमे पारगत हो, मेरुके ममान निश्चल हो, पृथ्वीके समान सहनशील हो, जिन्होने समुद्रके समान मल अर्थात् दोषों को बाहर फेंक दिया हो और जो सात प्रकारके भयसे रहित हों, उन्हें आचार्य कहते हैं ।
५
आचार्य परमेष्ठीके ३६ मूल गुण होते हैं - १२ तप, १० धर्म, आचार, ६ आवश्यक और ३ गुप्ति । इन ३६ मूल गुणोका आचार्यं परमेष्ठी सावधानीपूर्वक पालन करते हैं ।
१ धवना टोका, प्रथम पुस्तक, पृ० ४८ । २. सप्तस्मरणानि, पृ० ३ ।
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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन तात्पर्य यह है कि जो मुनि सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी अधिकताके कारण प्रधानपदको प्राप्त कर सघके नायक बनते हैं तथा मुख्यरूपसे तो निर्विकल्पस्वरूपाचरण चारित्रमे ही मगन रहते हैं; किन्तु कभी-कभी धर्मपिपासु जीवोको रागाशका उदय होनेके कारण करुणावुद्धिमे उपदेश भी देते हैं । दीक्षा लेनेवालोको दीक्षा देते हैं तथा अपने दोष निवेदन करने, वालोको प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करते हैं, वे आचार्य कहलाते हैं ।
"परमागमके परिपूर्ण अभ्यास और अनुभवसे जिनकी बुद्धि निर्मल हो गयी है, जो निर्दोष रीतिसे छह आवश्यकोका पालन करते हैं, जो मेरु पर्वतके समान निष्कम्प हैं, शूरवीर हैं, सिंहके समान निर्भीक हैं, श्रेष्ठ हैं, देश, कुल और जातिसे शुद्ध हैं, सौम्य मूर्ति हैं, अन्तरग और बहिरग परिग्रहसे रहित हैं, आकाशके समान निर्लेप है, ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं । ये दीक्षा और प्रायश्चित्त देते है, परमागम अर्थके पूर्ण-ज्ञाता और अपने मूल. गुणोमे निष्ठ रहते हैं इस रत्नत्रयके धारी आचार्य परमेष्ठीको नमस्कार किया है।
'णमो उवज्झायाण'-चतुर्दशविद्यास्थानव्याख्यातारः उपाध्यायाः
१ श्रा मर्यादया तद्विषयविनयरूपया चर्यन्ते सेन्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशकतया तदाकाडक्षिभिः श्त्याचार्या. । उक्त च-"सुत्तविक लख्याजुतो गच्छस्स मेढिभूलो य। गणतत्तिविप्पमुक्को अत्थ वाएइ आइरिश्रो ।' अथवा आचारो शानाचारादिः पन्चधा। आमर्यादया वा चारो विहारः आचारस्तत्र साधवः स्वयं करणात् प्रभापणत् प्रदर्शनाच्चेत्याचार्याः। श्राह् च पचविहं पायार आयरमाणा तहा पयासता । आयार दमता आयरिया तेण वुच्चति ॥ अथवा मा ईपद् अपरिपूर्णा इत्यर्थः। चारा हेरिका ये ते आचारा चारकल्पा इत्यर्थः। युक्तायुक्तविमागनिरूपणनिपुणा विनेयाः अतस्तेषु साधवो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतया इत्याचार्या.। नमस्यता चैपामाचारोपदेशकतयोपकारित्वात् । भग० १, १, १ टोका। १२. धवला टीका, प्र० पु०, पृ० ४६, मूलाचार आवश्यक अ० श्लोक 11)
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन ४७ तात्कालिकप्रवचनव्याख्यातारो वा भाचार्यस्योक्ताशेषलक्षणसमन्विताः सग्रहानुग्रहादिहीनाः । ___ नमो-नमस्कार । केभ्यः ? उपाध्यायेभ्य उप एस्य समीपमागत्य येभ्यः सकाशादधीयन्त इत्युपाध्यायास्तेभ्यः, इति । अथवा उर-समीपे अध्यायो-द्वादशाङ्गया पठनं सूत्रतोऽर्धतश्च येषां ते उपाध्यायाः तेभ्यः उपाध्यायेभ्य नम।
इक स्मरणे इति वचनात् वा स्मर्यते सूत्रतो जिनप्रवचनं येभ्यस्ते उपाध्याया । अथवा उपाधानसुपाधि -संनिधिस्तेनोपाधिना उपाधौ वा आयो-लाम श्रुतस्य येषाम् उपाधीनां वा विशेषणानां प्रक्रमाच्छोमनानामायो-लामो येभ्य अथवा उपाधिरेव-संनिधिरेव आयम् -हष्टफल दैवजनितत्वेन आयानाम्-इष्टफलानां समूहस्तदेकहेतुत्वात् येपाम , अथवा भाधीनां~मन.पीडानामायो-लाम आध्याय. अधियां वा 'नम कुत्सार्थत्वात्' कुबुद्धिनामायोऽध्याय , 'ध्ये चिन्तायाम्' इत्यस्य धातोः प्रयोगानन कुत्सार्थवादेव च दुर्थानं वाध्यायः । उपहत आध्याय अध्यायो वा यैस्ते उपाध्यायाः। नमस्यता चैषां सुसंप्रदायायातजिनवचनाध्यापनतो विनयेन भव्यानामुपकारकत्वादिति । ____ अर्थात् चौदह विद्यास्थानके व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय परमेष्ठीको नमस्कार है। अथवा तत्कालीन परमागमके व्याख्यान करनेवाले उपाध्याय होते हैं। ये सग्रह, मनुग्रह आदि गुणोको छोडकर पूर्वोक्त आचार्यके सभी गुणोसे युक्त होते हैं।
उन उपाध्याय परमेष्ठीके लिए नमस्कार है, जिनके पास अन्य मुनिगण अध्ययन करते हैं, अथवा जिनके निकट द्वादशागके सूत्र और मर्योंका मुनिगण अध्ययन करते हैं ।
१. धवला टीका, प्र. पु०, पृ० ५० । २ सप्तस्मरणानि, पृ० ४। ३. भग० १, १, १ टीका ।
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
इक् धातुका अर्थ स्मरण करना होता है, अत. जो सूत्रो के क्रमानुसार जिनागमका स्मरण करते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं । अथवा उपाध्याय इस उपाधिसे जो विभूषित हो, वे उपाध्याय कहलाते हैं ।
जो मुनि परमागमका अभ्यास करके मोक्षमार्गमे स्थित हैं तथा मोक्षके इच्छुक मुनियोको उपदेश देते हैं, उन मुनीश्वरोको उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं । उपाध्याय ही जैनागमके ज्ञात होनेके कारण मुनिसघमे पठन-पाठन के अधिकारी होते हैं । शास्त्रोके समस्त शब्दार्थको ज्ञात कर आत्मध्यानमे लीन रहते हैं । मुनियोके अतिरिक्त श्रावकोको भी अव्ययन कराते हैं । उपाध्याय पदपर वे ही मुनिराज आसीन होते हैं, जो जैनागमके अपूर्व ज्ञाता होते हैं । ग्यारह अग और चौदह पूर्वके पाठी, ज्ञान-ध्यानमे लीन, परम निर्ग्रन्थ श्री उपाध्याय परमेष्ठीको हमारा नमस्कार हो । यहाँ ' णमो उवज्झायाण' पदमे उक्त स्वरूपवाले उपाध्यायको नमस्कार किया गया है ।
४८
' णमो लोए सव्वसाहूणं' - अनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः । पञ्च महाव्रतधरास्त्रिगुप्तिगुप्ताः भष्टादशशीलसहस्रधराचतुरशीतिशतसहस्र गुणधराश्च साधवः २ ।
नमो-नमस्कार. | केभ्य ? लोके सर्वसाधुभ्य | लोकं - मनुष्यलोके सम्यग्ज्ञानादिमिर्मोक्षसाधका सर्वसत्त्वेषु समाइचेति साधव, सर्वे च ते स्थविरकल्पिक विभेदभिन्नाः साधवश्चेति सर्वसाधवस्तेभ्य इति । अथवा सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्रादिभि साधयन्तीति मोक्षमार्गमिति साधव । लोकं - सार्धद्वयद्वीपलक्षणे पञ्चचत्वारिंशलक्षयोजन प्रमाणे मनुष्यलोके सर्वे च ते साधवश्च । यद्वा -- अर्हत. साधव. सर्वसाधव तेभ्यो नमो-नमस्कारोऽस्तु ।
१ विशेषके लिए देखें —मूलाचार, अनगारधर्मामृत ।
२ धवला टी० प्र० पु०, पृ० ५१ । ३. सप्तस्मरणानि, पृ० ४ ।
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन ४९ अर्थात्-ढाई द्वीपवर्ती सभी साधुओको नमस्कार हो । जो मनन्त ज्ञानादिरूप शुद्ध आत्माके स्वरूपकी साधना करते हैं, तीन गुप्तियोसे सुरक्षित हैं, अठारह हजार शीलके भेदोको धारण करते हैं और चौरासी लाख उत्तरगुणोका पालन करते हैं, वे साधु परमेष्ठी होते हैं।
मनुष्य लोकके समस्त साधुओंको नमस्कार है। जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रके द्वारा मोक्षमार्गकी साधना करते हैं तथा सभी प्राणियोमे समान बुद्धि रखते हैं, वे स्थविरकल्पि और जिनकल्पि
आदि भेदोसे युक्त साधु हैं । अथवा ढाई द्वीप - पंतालीस-लाख योजनके विस्तारवाले मनुष्यलोकमे रत्नत्रयधारी, पञ्चमहाव्रतोसे युक्त, दिगम्बर, वीतरागी साधु परमेष्ठीको नमस्कार किया गया है।
मिहके समान पराक्रमी, गजके समान स्वाभिमानी या उन्मत्त, वैलके समान भद्र प्रकृति, मृगके समान सरल, पशुके समान निरीह, गोचरी वृत्ति करनेवाले, पवनके समान निस्संग या सर्वत्र बिना रुकावटके विचरण करनेवाले, सूर्यके समान तेजस्वी या समस्त तत्त्वोके प्रकाशक, समुद्रके समान गम्भीर, सुमेरुके समान परीषह और उपसर्गोके आनेपर अकम्प और अडोल रहनेवाले, चन्द्रमाके समान शान्तिदायक, मणिके समान प्रभापुजयुक्त, पृथ्वी के समान सभी प्रकारकी बाधाओको सहनेवाले, सर्पके समान दूसरेके बनाये हुए अनियत आश्रयमे रहनेवाले, आकाशके समान निरालम्बी या निर्भीक एवं सर्वदा मोक्षका अन्वेषण करनेवाले साधु परमेष्ठी होते हैं।"
अभिप्राय यह है कि जो विरक्त होकर समस्त परिग्रहको त्याग शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्मको स्वीकार करते हैं तथा शुद्धोपयोगके द्वारा अपनी
१ सीइ गय वमह-मिय-पसु मारुद-सूरुवहि-मदरिदु-मणी। खिदि-उरगयर-सरिसा परम-पय विमग्गया साहू ।।
-धवला टीका, प्र० पु०, १० ५२
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
I
आत्माका अनुभव करते हैं, पर पदार्थोंमे ममत्वबुद्धि नही करते तथा ज्ञानादिस्वभावको अपना मानते हैं, वे मुनि हैं । यद्यपि ज्ञानका स्वभाव जाननेवाला होनेसे अपने क्षयोपशम-द्वारा प्राभृत पदार्थोंको जानते हैं, पर उनसे राग बुद्धि नही करते । शरीरमे रोग, बुढापा आदिके होनेपर तथा बाह्य निमित्तोका सयोग होनेपर सुख-दुख नही करते हैं | अपने योग्य समस्त क्रियाओको करते हैं, पर रागभाव नही करते । यद्यपि इनका प्रयास सर्वदा शुद्धोपयोगको प्राप्त करने का ही रहता है, पर कदाचित् प्रबल रागाशका उदय आनेसे शुभोपयोगी ओर भी प्रवृत्ति करनी पडती है । शरीर को सजाना, शृंगार करना आदि से सर्वदा पृथक् रहते हैं । इनके मूल गुरण २८ हैं । इनके अन्तरगमे अहिंसा भावना सदा वर्तमान रहती है तथा बहिरगमे सौम्य दिगम्वर मुद्रा । ये ज्ञान, व्यान और स्वाध्यायमे सर्वदा लीन रहते हैं । बाईम परीषहोको निश्चल हो सहन करते हैं । शरीरकी स्थिति के लिए आवश्यक आहार-विहारकी क्रियाएं सावधानीपूर्वक करते हैं । इम प्रकारके साधुओ को ' णमो लोए सव्वसाहूण' पद द्वारा नमस्कार किया गया है ।
1
५०
पचपरमेष्ठीके उपर्युक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि आत्मिक विकासकी अपेक्षा मे हो अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुको देव माना गया है । ये पाँचो ही वीतरागी हैं, अतः स्तुति के योग्य हैं । तत्त्वदृष्टिसे सभी जीव ममान हैं, किन्तु रागादि विकारोकी अधिकता और ज्ञानकी हीनतासे जीव निन्दायोग्य, तथा रागादिकी होनता और ज्ञानवी अधिकतासे स्तुतियोग्य होते हैं। अरिहन्त और सिद्धों में रागभावको पूर्ण हीनता और जानकी विशेषता होने के कारण वीतराग विज्ञानभाव वर्तमान है तथा आचार्य, उपाव्याय और साधुओमे एकदेश रागादिकी हीनता और क्षयोपशमजन्य ज्ञानकी विशेषता होनेसे एकदेश वीतराग विज्ञान भाव है, यतएव पाँचो ही परमेष्ठी वीतराग होने के कारण वन्दनीय हैं । धवला टीकामे पचपरमेष्ठी के देवत्वका समर्थन निम्नप्रकार किया गया है
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
१
शका-आत्म-स्वरूपको प्राप्त अरिहन्त और सिद्धोको देव मानकर नमस्कार करना ठीक है, किन्तु जिन्होने आत्मस्वरूपको प्राप्त नहीं किया है,, ऐसे आचार्य, उपाध्याय और साधुको देव मानकर कैसे नमस्कार किया जाये? ___समाधान-यह शका ठीक नहीं है, क्योकि अपने अनन्त भेदोसहित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रका नाम देव है, अतः इन तीनो गुणोंसे विशिष्ट जो जीव है, वह भी देव कहलाता है । यदि रत्नत्रयको देव नही माना जायेगा तो सभी जीव देव हो जायेंगे। अतएव आचार्य, उपाध्याय और मुनियोको भी देव मानना चाहिए, क्योकि रत्नत्रयका मस्तित्व अरहन्तोकी तरह इनमे भी पाया जाता है। ___ सिद्ध परमेष्ठीके रत्नत्रयकी अपेक्षा आचार्य आदि परमेष्ठियोका रत्नत्रय भिन्न नही है। यदि इनके रत्नत्रयमे भेद मान लिया जाये, तो आचार्यादिमे रत्नत्रयका अभाव हो जायेगा।
शका-जिन्होने रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी पूर्णताको प्राप्त कर लिया है, उन्हीको देव मानना चाहिए, रत्नमयकी अपूर्णता जिनमें रहती है, उनको देव मानना असगत है ।
समाधान-यह शका ठीक नहीं है। यदि एकदेश रत्नत्रयमे देवत्व नही माना जायेगा तो सम्पूर्ण रत्नत्रयमे देवत्व नही बन सकेगा, अत आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु भी देव हैं । जैनाम्नायमे अलौकिक सत्ताघारी किसी परोक्षशक्तिको सच्चा देव नही माना है, पर रत्नत्रयको विकासफी अपेक्षा वीतरागी, ज्ञानी और शुद्धोपयोगी आत्माओको देव कहा है।
इम णमोकारमन्त्रमे सन्व-सर्व और लोए-लोक पद अन्त्य दीपक हैं। जिस प्रकार दीपक भीतर रख देनेसे भीतरके समस्त पदार्थोका प्रकाशन करता है, उसी प्रकार उक्त दोनो पद भी अन्य समस्त पदोके ऊपर प्रकाश डालते हैं । अत' सम्पूर्ण क्षेत्रमे रहनेवाले त्रिकालवर्ती अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओको नमस्कार समझना चाहिए ।
१. धवला, प्रथम पुस्तक, पृ० ५२-५२
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
णमोकार मन्त्रके पाठान्तर
प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकोंमे णमोकार मन्त्र के पाठान्तर भी उपलब्ध होते हैं । श्वेताम्वर आम्नायमे मोके स्थानपर नमो पाठ प्रचलित है । अतएव सक्षेप मे इस मन्त्रके पाठान्तरोपर विचार कर लेना भी आवश्यक है । दिगम्बर परम्परामे इस मन्त्रका मूलपाठ तो पट् खण्डागमके प्रारम्भमे लिखित ही है । इस पुस्तकमे भी इसी पाठको मूलपाठ माना गया है । पाठान्तर दिगम्बर परम्पराके अनुसार निम्न प्रकार हैं
•
'अरिहताण के स्थानपर मुद्रित ग्रन्थोमे अरहताण, प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थोमे अहंताण' तथा अरुहंताण' पाठ भी मिलते हैं । इसी प्रकार 'आइरियाण' के स्थानपर आयरियाण, आइरीयाण ४ आइरिआण पाठ भी
3
५
1
पाये जाते हैं | अन्य पदोके पाठमे कुछ भी अन्तर नहीं है, ज्योंके त्यो हैं । यदि अरिहाण के स्थानपर अरहताण और अरुहनाग या अहंताण पाठ रखे जाते हैं, तो प्राकृत व्याकररणकी दृष्टिसे अरुनाण और अरहताण दोनो पदोसे अर्हत् शब्द निष्पन्न होता है । अत दोनो शुद्ध हैं, पर अर्थ में
-
१ यह पाठान्तर - गुटके में – जैन सिद्धान्त भवन आराम मिलता है।
न १२
त
२. गुटके में आरम्भमें भरहताण लिखा हे पश्चात् काटकर अरुहताणं लिखा गया है । प्राकृत पंचमहागुरु मार्ग में अहंताणके स्थानपर अरुहा पाठ आया है ।
३ मुद्रित और हस्तलिखित पूजापाठ सम्बन्धी अधिकाश प्रतियों में ।
४ मुद्रित अधिकांश प्रतियों में ।
५ हस्तलिखित
ส
१२
गुटके में ।
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'
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1
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4
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
५३
अन्तर है | अरुहतका अर्थ है कि जिनका पुनर्जन्म अब न हो अर्थात् कर्म वोजके जल जानेके कारण जिनका पुनर्जन्मका अभाव हो गया है, वे अरुहन कहलाते हैं । देवोके द्वारा अतिशय पूजनीय होनेके कारण महंत कहे जाते हैं । इसी अरहतको लेखकोने अहंत लिखा है, अर्थात् प्राकृत शब्दको संस्कृत मानकर महंत पाठ भी लिखा जाने लगा ।
षट्खण्डागमकी घवला टीकाके देखनेसे अवगत होता है कि आचार्य वीरसेन के समयमे भी इस महामन्त्र के अरहत और अरुहंत पाठान्तर थे । उनके इस मन्त्रकी व्याख्या में प्रयुक्त 'अतिशयपूजार्हत्वाद्वार्हन्तः' तथा 'भ्रष्टवीजवन्निशक्ती कृताघातिकर्मणो हननात्' वाक्योसे स्पष्ट सिद्ध है कि यह व्यास्या उक्त पाठान्तरोको दृष्टिमे रखकर ही की गयी होगी । यद्यपि स्वय वीरसेनाचार्यको मूलपाठ ही अभिप्रेत था, इसी कारण व्याख्या के अन्तमे उन्होने अरिहन पद ही प्रयुक्त किया है, फिर भी व्याख्या की शैलीसे यह स्पष्ट प्रकट हो जाता है कि उनके सामने पाठान्तर थे । व्याकरण और अर्थ की दृष्टिसे उक्त पाठान्तरोंमे कोई मौलिक अन्तर न होने के कारण उन्होने उनकी समीक्षा करना उचित न समझा होगा ।
इसी प्रकार आइरियाण, आयरियाण पाठोके अर्थमे कोई भी अन्तर नही है । प्राकृत व्याकरणके अनुसार तथा उच्चारणादिके कारण इनमे अन्तर पड गया है । रकारोत्तरवर्ती इकारको दीर्घ करना केवल उच्चारणकी सरलता तथा लयको गति देनेके लिए हो सकता है । इसी प्रकार इकारके स्थानपर यकारका पाठ भी उच्चारणके सौकर्यके लिए ही किया गया प्रतीत होता है । अत णमोकार मन्त्रका शुद्ध और आगमसम्मत पाठ निम्न हैणमो अरिहताण णमो सिद्धाणं णमो आइरियाण | णमो उवज्झायाण णमो कोए सव्व साहूणं ॥
'श्वेताम्बर परम्परामे इस मन्त्रका पाठ निम्न प्रकार उपलब्ध होता हैनमो अरिहताण नमो सिद्वाण नमो आयरियाण | नमो उवज्झायाण नमो नमो लोए सव्व साहूणं ॥
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५४ मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन ___ सप्तस्मरणानिमे 'अरिहनाण के तीन पाठ बतलाये गये हैं-'भत्र पाठत्रयम् -अरहताण, अरिहंताणं, अरुहताणं' । अर्थात् अरहत, अरिहंत और अरुहत इन तीनो पदोका अर्थ पूर्वके समान इन्द्रादिके द्वारा पूज्य, धातिया कर्मोके नाशक, कर्मवीजके विनाशक रूपमे किया गया है । उच्चारण-सरलताके लिए आइरियाणके स्थानपर आयरियाण पाठ है । इसमे अर्थकी कोई विशेपता नहीं है।
इस प्रकार श्वेताम्बर आम्नायके पाठोमे दिगम्बर आम्नायके पाठोकी अपेक्षा कोई मौलिक भेद नहीं है । जो कुछ भी अन्तर है वह 'नमो' पाठमै है। इस सम्प्रदायके आगमिक ग्रन्थोमे भी 'रण' के स्थानपर 'न' पाया जाता है । इसका कारण यह है कि अर्धमागधी प्राकृतमे विकल्पसे 'ण' के स्थानपर 'न' होता है। दिगम्बर आम्नायके साहित्यकी प्राकृत प्रायः जैन शोरसेनी है जो महाराष्ट्रीके नकारके स्थानपर णकार होनेमे समता रखती है। किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायके साहित्यकी प्राकृत भाषा मर्धमागधी है, इसमे णकारके स्थानपर णकार और नकार दोनो प्रयोग पाये जाते हैं । बताया गया है कि "महाराष्ट्र या नकारस्य सर्वदा णकारी जायतेऽर्द्धमागध्या तु नकारणकारी द्वावपि ।" यथा "छणं छण परिणाय लोगसद्धं च सम्बसो।"-भाचा० १-२-३-१०३ ।
परन्तु इस सम्बन्धमे एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भापाके परिवर्तनसे शब्दोको शक्तिमे कमी आती है, जिससे मन्त्रशास्त्र के रूप और मण्डलमे विकृति हो जाती है और साधकको फल-पाप्ति नहीं हो पाती है । अतः णमो पाठ ही समीचीन है, इस पाठके उच्चारण मनन और चिन्तनमे आत्माकी शक्ति अधिक लगती है तथा फलप्राप्ति शीघ्र होती है। मन्त्रोच्चारणसे जिस प्राण-विद्युत्का सचार किया जाता है, वह 'णमो' के धर्पणसे ही उत्पन्न की जा सकती है। अतएव शुद्ध पाठ ही काममे लेना चाहिए।
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मंगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
इस महामन्त्रमे शुद्धात्माओको क्रमश नमस्कार किया गया प्रतीत नहीं होता है। रत्नत्रयकी पूर्णता तथा पूर्ण कर्म कलकका विनाश तो णमोकार मन्त्रका
सिद्ध परमेष्ठीमे देखा जाता है, अत: इस महामन्त्र
के पहले पदमे सिद्धोको नमस्कार होना चाहिए पदक्रम
था; किन्तु ऐसा नहीं किया गया है। धवला टीकामें आचार्य वीरसेन स्वामीने इस आशकाको उठाकर निम्नप्रकार समाधान किया है
विगताशेपलेपेपु सिद्धपु सरस्वतां सलेपानामादौ किमिति नमस्कार क्रियत इति चेन्नेष दोषः, गुणाधिकसिद्धषु श्रद्धाधिक्यनिबन्धनत्वात् । असत्यहत्याप्तागमपदार्थावगमो न भवेदस्मदादीनाम्, संजातश्चैतत्प्रसादावित्युपकारापेक्षया वादावहन्नमस्कारः क्रियते । न पक्षपाती दोपाय शुभपक्षवृत्तं श्रेयोहेतुत्वात् । भद्वैतप्रधाने गुणाभूनद्वैते द्वैतनियन्धनस्य पक्षपातस्यानुपपत्तश्च । आश्रद्धाया आप्तागमपदार्थविपयश्रद्धाधिक्यनिवन्धनत्वख्यापनार्थ वाईतामादौ नमस्कारः।
अर्थात्-~सभी प्रकारके कर्म लेपसे रहित सिद्धपरमेष्ठीके विद्यमान रहते हुए अघातिया कर्मोके लेपसे युक्त अरिहन्तोको आदिमे नमस्कार क्यों किया है ? इस आशकाका उत्तर देते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि यह कोई दोष नहीं है । क्योकि सबसे अधिक गुणवाले सिद्धोंमे श्रद्धाकी अधिकताके कारण अरिहत परमेष्ठी ही है -- अरिहन्त परमेष्ठीके निमित्तसे ही अधिक गुणवाले सिद्धोमे सबसे अधिक श्रद्धा उत्पन्न होती है अथवा यदि अरिहन्त परमेष्ठी न होते तो हम लोगोको आप्त आगम
और पदार्थका परिज्ञान नहीं हो सकता था। यत अरिहन्तकी कृपासे हो हमे वोधकी प्राप्ति हुई है, इमलिए उपकारकी अपेक्षा भी आदिमें अरिहन्तोको नमस्कार करना युक्ति-सगत है । जो मार्गदर्शक उपकारी होता है उसीका सबसे पहले स्मरण किया जाता है।
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५६ मगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन
यदि कोई यह कहे कि इस प्रकार मादिमे अरिहन्तोको नमस्क करना तो पक्षपात है ? इसपर आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा पक्षप दोषोत्पादक नही है। किन्तु शुभ पक्षमे रहनेसे वह कल्याणका ही कार है। तथा द्वैतको गौण करके अद्वैतकी प्रधानतासे किये गये नमस्का द्वैतमूलक पक्षपात वन भी तो नहीं सकता है। अत. उपकारीके खा अरिहन्त भगवान्को सबसे पहले नमस्कार किया है, पश्चात् सि परमेष्ठीको ।
अरिहन्त और सिद्धमे नमस्कारका उक्त क्रम मान लेनेपर, आचा उपाध्याय और सर्वसाधुके नमस्कारमे उस क्रमका निर्वाह क्यो नही कि गया है ? यहाँ भी सबसे पहले साधु परमेष्ठीको नमस्कार किया जा पश्चात् उपाध्याय और आचार्य परमेष्ठीको नमस्कार होना चाहिए। पर ऐसा पदक्रम नहीं रखा गया है।
उपर्युक्त आशकापर विचार करनेसे ऐमा प्रतीत होता है कि महामन्त्रमे परमेष्ठियोको रत्नप्रय गुणकी पूर्णता और अपूर्णताके कान दो भागोमे विभक्त किया है। प्रथम विभागमे अर्हन्त और सिद्ध द्वितीय विभागमे आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं। प्रथम विभाग परमेष्ठियोमे रत्नत्रयगुणकी न्यूनतावाले परमेष्ठीको पहले और रत्नत्र गुणको पूर्णतावाले परमेष्ठीको पश्चात् रखा गया है। इस क्रमानुस अरिहन्तको पहले और सिद्धको बादमे पठित किया है। दूसरे विभाग परमेष्ठियोंमे भी यही क्रम है। आचार्य और उपाध्यायको अपेक्षा मुनि स्थान ऊँचा है, क्योकि गुणस्थान-आरोहण मुनिपदसे ही होता है, आच और उपाध्याय पदसे नही। और यही कारण है कि अन्तिम समय आचार्य और उपाध्यायोको अपना-अपना पद छोडकर मुनिपद धार करना पडता है। मुक्ति भी मुनिपदसे ही होती है तथा रत्नत्रयको पूर्ण इसो पदमे सम्भव है। अतः दोनो विभागोमे उन्नत मात्माओको पश्च पठित किया गया है।
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
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एक अन्य समाधान यह भी है कि जिस प्रकार प्रथम विभागके परमेष्ठियोमे उपकारी परमेष्ठी को पहले रखा गया है, उसी प्रकार द्वितीय विभागके परमेष्ठियोमे भी उपकारी परमेष्ठीको प्रथम स्थान दिया गया है। आत्मकल्याणकी दृष्टिसे साधुपद उन्नत है, पर लोकोपकारकी दृष्टिसे आचार्यपद श्रेष्ठ है। आचार्य सघका व्यवस्थापक ही नहीं होता, बल्कि अपने समयके चतुर्विध सघके रक्षणके साथ धर्म-प्रसार और धर्म-प्रचारका कार्य भी करता है । धार्मिक दृष्टिसे चतुर्विध सघकी सारी व्यवस्था उसीके ऊपर रहती है। उसे लोक व्यवहारज्ञ भी होना चाहिए जिससे लोकमे तीर्थंकर द्वारा प्रवर्तित धर्मका भलीभांति संरक्षण कर सके । अतः जनताके उत्थानके साथ आचार्यका सम्बन्ध है, यह अपने धर्मोपदेश-द्वारा जनताको तीर्थकरो-द्वारा उपदिष्ट मार्गका अवलोकन कराता है। भूलेभटकोको धर्मपन्थ सुझाता है। अतएव जनताका धार्मिक नेता होनेके कारण आचार्य अधिक उपकारी है। इसलिए द्वितीय विभागके परमेष्ठियोमे आचार्यपदको प्रथम स्थान दिया गया है। ___आचार्यसे कम उपकारी उपाध्याय हैं। आचार्य सर्वसाधारणको अपने उपदेशसे धर्ममार्गमे लगाते हैं, किन्तु उपाध्याय उन जिज्ञासुओको अध्ययन कराते हैं, जिनके हृदयमे ज्ञानपिपासा है । उनका सम्बन्ध सर्वमाधारणसे नहीं, बल्कि सीमित अध्ययनाथियोसे है । उदाहरणके लिए यो कहा जा सकता है कि एक वह नेता है जो अगणित प्राणियोकी सभामे अपना मोहक उपदेश देकर उन्हें हितकी ओर ले जाना है और दूसरा वह प्रोफेसर है, जो एक सीमित कमरेमे बैठे हुए छात्रवृन्दको गम्भीर तत्त्व ममझाता है । हैं दोनो ही उपकारी, पर उनके उपकारके परिमाण और गुणोमे अन्तर है। अत आचार्यके अनन्तर उपाध्याय पदका पाठ भी उपकार गुणकी न्यूनताके कारण ही रखा गया है ।
अन्तमें मुनिपद या साधुपदका पाठ आता है । साधु दो प्रकारके हैद्रव्यलिंगी और भावलिंगी। आत्मकल्याण करनेवाले भावलिंगी साधु हैं।
AA AA
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मंगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन
ये अन्तरग काम, क्रोध, मान, माया, लोभ रूप परिग्रहसे तथा वहिरंग - धन, धान्य, वस्त्र आदि सभी प्रकारके परिग्रहसे रहित होकर आत्म-चिन्तनमे लीन रहते हैं। ये सर्वदा लोकोपकारसे पृथक् रहकर आत्मसाधनामे रत रहते हैं। यद्यपि इनकी सौम्य मुद्रा तथा इनके अहिंसक आचरणका प्रभाव भी समाजपर अमिट पडता है, पर ये आचार्य या उपाध्यायके समान लोक-कल्याणमे सलग्न नही रहते हैं । अत 'सव्वसाधु' पदका पाठ सवसे अन्तमे रखा गया है ।
णमोकार महामन्त्र अनादि है । प्रत्येक कल्पकाल मे होनेवाले तीर्थंकरोंके द्वारा इसके अर्थका और उनके गणधरोके द्वारा इसके शब्दोका निरूपण किया जाता है। पूजन पाठके आरम्भमे इस महामन्त्रको अनादि कहकर स्मरण किया गया है । पूजनका आरम्भ हो इस महामन्त्रसे होता है । पाँचो परमेष्ठियोको एक साथ नमस्कार होने से यह मन्त्र पच परमेष्ठी मन्त्र भी कहलाता है । पच परमेष्ठी अनादि होनेके कारण यह मन्त्र अनादि माना जाता है । इस महामन्त्रमे नमस्कार किये गये पात्र आदि नही, प्रवाहरूपसे अनादि हैं और इनको स्मरण करनेवाला जीव भी अनादि है | वास्तविकता यह है कि णमोकार मन्त्र आत्माका स्वरूप है, आत्मा अनादि है, अतः यह मन्त्र भी अनादिकालसे गुरुपरम्परा द्वारा प्रतिपादित होता चला आ रहा है । अध्यात्ममजरीमे बताया गया है कि "इदम् अर्थमन्त्र परमार्थतीर्थपरंपरागुरुपरंपराप्रसिद्ध विशुद्धोपदेशदम् ।" अर्थात् अभीष्ट सिद्धिकारक यह मन्त्र तीर्थंकरोकी परम्परा तथा गुरुपरम्परा से अनादिकाल से चला आ रहा है । आत्माके समान यह अनादि और अविनश्वर है । प्रत्येक कल्पकालमे होनेवाले तीर्थंकरोंके द्वारा इसका प्रवचन होता है । द्वितीय छेदसूत्र महानिशीथके पांचवें अध्यायमे बताया गया है कि एय तुज पचमगलमहासुयक्रूधस्स वक्खाण तं महया पवंघेण भणत गयपज्जवेहि सुत्तस्स य पियभूयाहि णिजुत्तिमास चुन्नाहिं जद्देव
णमोकार महामन्त्रका अनादि- साहित्य विमर्श
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मगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन ५९ अणत-नाण वसणधरेहि तित्थयरेहि वक्खाणिय तहेव समासओ वक्सागिज्ज त भासि । अहन्नया कालपरिहाणिढोसेण ताओ णिज्जुत्तिभास-चुन्नीओ वुच्छिन्नाओ । इभो य वच्च तेण कालेण समपुण महिड्ढिपत्ते पयाणुमारी वहरसामी नाम दुवालसगसुभहरे समुप्पन्ने । तेण य प वमंगल-महासुयक्खधस्स उद्धारो मूल सुत्तस्स मज्झे लिहिओ। मूलसुत्तं पुण सुत्तत्ताएगणहरेहि अत्यताए अरिहंनेहि भगवतेहिं धम्मतित्थयरेहि तिलोगमहिएहिं वारजिणिदेहि पन्नविय त्ति एस वुड्ढसंपयाओ।"
अर्थात्-इस पचमंगल महाश्रुतस्कन्धका व्याख्यान महान् प्रवन्धसे अनन्त गुण और पर्यायोसहित, सूत्रकी प्रियभूत नियुक्ति, भाष्य और चूणियो-द्वारा जैसा अनन्त ज्ञान-दर्शनके धारक तीर्थंकरोने किया, उसी प्रकार सक्षेपमे व्याख्यान करने योग्य था। परन्तु आगे काल-परिहाणिके दोपसे वे नियुक्ति, भाष्य और चूणियां विच्छिन्न हो गयी। फिर कुछ काल जानेपर यथा समय महाऋद्धिको प्राप्त पदानुमारी वनस्वामी नामक द्वादशाग श्रुतज्ञानके घारक उत्पन्न हुए। उन्होने पचमगल महाश्रुतस्कन्धका उद्धार मूल सूत्रके मध्य लिखा । यह मूलसूत्र सूत्रत्वकी अपेक्षा गणधरोद्वारा तथा अर्थकी अपेक्षा अरिहन्त भगवान्, धर्मतीर्थकर त्रिलोक-महित वीर जिनेन्द्रके द्वारा प्रज्ञापित है, ऐसा वृद्ध सम्प्रदाय है ।
श्वेताम्बर आगमके उक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि श्वेताम्बर सम्प्रदायमे णमोकार मन्त्र के अर्थका विवेचन तीर्थंकरो-द्वारा तथा शब्दोका विवेचन गणधरो द्वारा किया गया माना गया है। इस कल्पकालके अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरने इस महामन्त्रके अर्थका निरूपण तथा गौतम स्वामीने शब्दोका कथन किया है। कालदोपके कारण तीर्थकरतारा कथित व्याख्यानके विच्छिन्न हो जानेसे द्वादशाग ज्ञानके धारी श्री वचस्वामीने इसका उद्धार किया। अतएव यह मन्त्र अनादि है, गुरू परम्परासे अनादिकालसे प्रवाहरूपमे चला आ रहा है। हाँ, इतनी बात
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
अवश्य है कि प्रत्येक कल्पकालमे इस मन्त्रका व्याख्यान एव शब्दो द्वारा प्रणयन अवश्य होता है।
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जैसा कि आरम्भमे कहा गया है कि दिगम्बर-परम्परा इस ' महामन्त्रको अनादि मानती है। जैसे वस्तुएँ अनादि हैं, उनका कोई कर्ता-धर्ता नही है, उसी प्रकार यह मन्त्र भी अनादि है, इसका भी कोई रचयिता नही है । मात्र व्याख्याता ही पाये जाते हैं । षट्खण्डागमके प्रथम खण्ड जीवद्वाणके प्रारम्भमे यह मात्र मंगलाचरण रूपसे अक्ति किया गया है | धवला टीकाके रचयिता श्री वीरसेनाचार्यने टीका में ग्रन्थ-रचना के क्रमका निरूपण करते हुए कहा है
मंगळ- निमित्त हेऊ परिमाण णाम तह य कत्तार । वागरिय छप्पि पच्छा वक्खाणउ सत्थमाइरियो || इदि णायमाइरिय परपरागयं मणेणावहारिय पुत्रारियायारागुसरणं तिरयण हेउ ति पुप्फदंता इरियो मगलादीणं छष्णं सकारणाण परूवणटुं सुत्तमाह - " णमो अरिहताण" इत्यादि ।
अर्थात् - मगल, निमित्त, हेतु, परिणाम, नाम और कर्त्ता इन छह अधिकारोका व्याख्यान करनेके पश्चात् शास्त्रका व्याख्यान आचार्य करते हैं । इस आचार्य-परम्पराको मनमे धारण करना तथा पूर्वाचार्यों की व्यवहार- परम्पराका अनुसरण करना रत्नत्रयका कारण है, ऐसा समझकर पुष्पदन्ताचार्य मगलादि छहोके सकारण प्ररूपणके लिए णमो अरिहताण' आदि मगल सूत्र को कहते हैं । श्री वीरसेनाचार्यने इस मंगलसूत्रको 'तालपलब' - तालप्रलम्ब सूत्र के समान देशा मर्पक कहकर मंगल, निमित्त हेतु आदि छहो अधिकारवाला सिद्ध किया है
"
आगे चलकर वीरसेनाचार्यने मगल शब्दको व्युत्पत्ति एव अनेक दृष्टियोसे भेद-प्रभेदोका निरूपण करते हुए मंगलके दो भेद बताये हैं
१. धवला टीका, प्र० पु०, पृ० ७ ।
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
"तच्च मगल दुविहं णिबद्धमणिबद्धमिदि । तत्थ णिबद्ध णाम जो सुत्तस्मादीए सुत्तकत्तारेग णिवद्ध-देवदा-णमोक्कारो तं णिबद्ध मगलं । जो सुत्तस्सादीए सुत्तकतारेण कय देवदा णमोकारो तमणिबद्ध-मगल । इदं पुण जीवट्ठाण णियद्ध-मंगलं । यत्तो 'इमेसि चोहमण्हं जीवसमासाण' इदि एहस्स सुत्तस्सादीए णिबद - णमो अरिहंताणं' इच्चादिदेवदा-णमोकार-दसणाटो।" __ अर्थात् -मगल दो प्रकारका है-निबद्ध और अनिवद्ध । सूत्रके आदिमें सूत्रकर्ता द्वारा जो देवता-नमस्कार अन्यके द्वारा किया गया लिखा जाये अर्थात् पूर्व परम्परासे चले आये किसी मगलसूत्र या श्लोकको अथवा परम्परा-द्वारा निरूपित अर्थके आधारपर स्वरचित सूत्र या श्लोकको अंकित करना निबद्ध मगल है। रचनाके आदिमे मनसा या वचसा यो ही सूत्र या मगल वाक्य विना लिखे जो नमस्कार किया जाता है, वह अनिबद्ध कहलाता है । यहाँ 'जीवस्यान' नामक प्रयमखण्डागममे 'इमेसिं चोइसण्ह जीपसमासाण' इत्यादि जीवस्यानक इस सूत्रके पहले 'णमो अरिहन्ताण' इत्यादि मगलसूत्र, जो देवता नमस्कार रूपमें विद्यमान है, परम्पराप्राप्त निबद्ध मगल है।
उपर्युक्त विवेचनका निष्कर्ष यह है कि वीरसेन स्वामीके मान्यतानुसार यह मगलसूत्र परम्परासे प्राप्त चला आ रहा है, पुष्पदन्तने इसे यहाँ अकित कर दिया है । इमसे इस महामन्त्रका अनादित्व सिद्ध होता है ।
अलकारचिन्तामणिमे निवद्ध और अनिबद्ध मगलकी परिभाषा निम्न प्रकार की गयी है। जिनसेनाचार्यने निवद्धका अर्थ लिखित और अनिवद्धका अर्थ अलिखित या अनकित नहीं लिया है । वह लिखते हैं -
स्वकाव्यमुखे स्वकृतं पद्य निबद्धम्, परकृतमनिवदम् ।
१. धवला टोका, प्रथम पु०, पृ० ४१ ।
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
अर्थात् — स्वरचित मगल अपने ग्रन्थंमे निवद्ध और अन्यरचित मंगलसूत्रको अपने ग्रन्थमे लिखना अनिबद्ध कहा जाता है ।
उक्त परिभाषा के आधारपर णमोकार मन्त्रको अनिवद्ध मगल कहा जायेगा । क्योकि आचार्य पुष्पदन्त इसके रचयिता नही है । उन्हें तो यह मन्त्र परम्परासे प्राप्त था, अत उन्होंने इस मगलवाक्यको ग्रन्थ के आदिमे अकित कर दिया । इसी आशयको लेकर वीरसेन स्वामीने घवला टीका ( ११४१ ) मे इसे अनिवद्ध मंगल कहा है ।
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वैशाली प्रतिष्ठानके निर्देशक श्री डॉ० हीरालालजीने वेदनाखण्डके ' णमो जिणाण' इस मंगलसूत्र की घवला टीकाके' आधारपर णमोकार मन्त्र के आदिकर्ता श्रीपुष्पदन्ताचार्यको सिद्ध करनेका प्रयास किया है किन्तु अन्य आर्प ग्रन्थोंके साथ तथा जीवट्ठाणखण्डके मंगलसूत्रकी धवला टीकाके साथ डॉक्टर साहबके मन्तव्यकी तुलना करनेपर प्रतीत होता है कि यह मन्त्र अनादि है | जैसे अग्निका उष्णत्त्व, जलका शीतत्व, वायुका स्पर्शवत्त्व एव आत्माका चेतनधर्म अनादि है, उसी प्रकार यह णमोकार मन्त्र अनादि है । अथवा अनादि जिनवाणीका अग होनेसे यह मन्त्र अनादि है। महावन्ध प्रथम भागकी प्रस्तावना मे बताया गया है कि "जिस प्रकार णमो जिणाण' आदि मंगलसूत्र भूतबलि द्वारा संगृहीत है, ग्रथित नही है, उसी प्रकार णमोकार मन्त्र रूपसे ख्वात अनादि मूलमन्त्र नामसे वन्दित 'रणमो अरिहताण' आदि भी पुष्पदन्त आचार्य द्वारा सग्रहीत है, ग्रथित नही है ।" मोक्षमार्ग अनादि है, इस मार्गके उपदेशक और पथिक भी अनादि हैं, तीर्थंकर प्रभुओ की परम्परा भी अनादि है । अन यह अनादि मूलमन्त्र भगवान्की दिव्यध्वनिसे प्राप्त हुआ है। सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान् ने अपनी दिव्यध्वनिसे जिन तत्त्वोका प्रकाशन किया, गरणधरदेवने उन्हें द्वादशाग वाणीका रूप दिया । अतएव
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१. धवला टीका, पुस्तक २, पृ० ३३-३६ । २. महाबन्ध, प्रथम भाग प्रस्तावना, पृ० ३० ।
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मगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
अनादि द्वादशागवाणीका अंग होनेसे यह महामन्त्र अनादि है। इस महामन्त्रके सम्बन्धमे निम्न श्लोक प्रसिद्ध है।
अनादिमूलमन्त्रोऽय सर्वविघ्नविनाशनः ।
मगरेपु च सर्वेपु प्रथमं सगलं मतः ॥ द्रव्यायिक नयको अपेक्षासे यह मंगलसूत्र अनादि है और पर्यायायिक नयकी अपेक्षा सादि है। इसी प्रकार यह नित्यानित्य रूप भी है । कुछ ऐतिहासिक विद्वानोका अभिमत है कि साधु शब्दका प्रयोग साहित्यमे अधिक पुराना नहीं है अत इस अर्थमे ऋषि-मुनि शब्द ही प्राचीनकालमे प्रचलित थे। णमोकार मन्त्रमे 'साहण पाठ है, अतः यह शब्द हो इस बातका द्योतक है कि यह मन्त्र अनादि नही है । इस शब्दका समाधान पहले ही किया जा चुका है, क्योकि शब्दरूपमे निवद्ध यह मन्त्र अवश्य सादि है अर्थकी अपेक्षा यह अनादि है। इमे अनादि कहनेका अर्थ यही है कि द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा इसे अनादि कहा गया है ।
किसी भी कार्यका फल दो प्रकारसे प्राप्त होता है-तात्कालिक और कालान्तरमावी। इस महामन्त्रके स्मरणते ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि कोका क्षय होकर वल्याण-श्रेयोमार्गकी प्राप्ति होना, इसका तात्कालिक फल है। अनादिकर्म लिप्त आत्मा इस महामन्त्रके स्मरणसे तत्काल ही श्रद्धालु हो सम्यक्त्वकी ओर अग्रसर होता है । पचपरमेष्ठीका पविन मरण व्यक्तिको आत्मिक वल प्रदान करता है। यत पचपरमेष्ठीके स्मरणने आत्मागे पवित्रता आती है, शुभ परिणति उत्पन्न हो जाती है और आत्मामे ऐनी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जिससे वह स्वयमेव ही धमकी ओर नगर होती है। अत तात्कालिक फल आत्मशुद्धि है। कालान्तरभावी फलमे आत्माको शुभ परिणति के कारण अर्थ-धन, ऐश्वर्य अभ्युदय और काम~-सासारिक भोग, सुम्ब, स्वास्थ्य आदिके साथ स्वर्गादिकी प्राप्ति है । वास्तवमे णमोकार मन्त्रको उद्देश्य मोक्ष
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
प्राप्ति है और यही इस मन्त्रका यथार्थ फल है, किन्तु इस फल की प्राप्तिके लिए आत्मामे क्षायिक सम्यक्त्वकी योग्यता अपेक्षित है ।
माहात्म्य
हमारे आगममे इस मन्त्रकी बडी भारी महिमा बतलायी गयी है । यह सभी प्रकार की अभिलाषाओको पूर्ण करनेवाला है । आत्मशोधनका णमोकार मन्त्रका हेतु होते हुए भी नित्य जाप करनेवालेके रोग, शोक, आधि, व्याधि आदि सभी बाधाएँ दूर हो जाती हैं । पवित्र, अपवित्र, रोगी, दुखी, सुखी आदि किसी भी अवस्था में इस मन्त्रका जप करनेसे समस्त पाप भस्म हो जाते हैं तथा बाह्य और अभ्यन्तर पवित्र हो जाता है । यह समस्त विघ्नोको दूर करनेवाला तथा समस्त मगलोमे प्रथम मगल है । किसी भी कार्यके आदिमे इसका स्मरण करने से वह कार्य निर्विघ्नतया पूर्ण हो जाता है । बताया गया है ।
एसी पचणमोयारो सव्वपावपणासणी | मगलाणं च सव्वेसि पढम होइ मंगल ||
इस गाथाकी व्याख्या करते हुए सिद्धचन्द्रगणिने लिखा है - " एप पञ्चनमस्कारः एष—प्रत्यक्ष विधीयमानः पञ्चानामर्हदादीनां नमस्कार. - प्रणामः । स च कीदृश: ? सर्वपापप्रणाशन | सर्वाणि च तानि पापानि सर्वपापानि इति कर्मधारयः । सर्वपापानां प्रकर्षेण नाशनी -- विध्वसक सर्वपापप्रणाशनः इति तत्पुरुषः । सर्वेषां द्रव्यभावभेदमिन्नानां मङ्गलानां प्रथममिदमेव मङ्गलम् । च समुच्चये पञ्चसु पदेषु चतुर्थ्यर्थपु पष्ठी । अत्र चाष्टपष्टिरक्षराणि, नव पदानि अष्टौ च संपदो - विश्रामस्थानानि ।
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पुनः सर्वेषां मङ्गलानां - मङ्गलकारकवस्तूना दधिदूर्वाक्षतचन्दननालिकेर पूर्णकलश-स्वस्तिक दर्पण-भद्रासन - वर्धमान मत्स्यट् गल श्रीवत्सनन्द्यावर्तादीना मध्ये प्रथम मुख्यं मङ्गल मङ्गलकारको भवति । यताऽस्मिन् पटिते जप्ते स्मृते च सर्वाण्यपि मङ्गलानि भवन्तीत्यर्थः । "
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मगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
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___ अर्थात्-यह णमोकार मन्त्र, जिसमे पंचपरमेष्ठीको नमस्कार किया गया है, सभी प्रकारके पापोको नष्ट करनेवाला है। पापीसे पापी व्यक्ति भी इस मन्त्रके स्मरणसे पवित्र हो जाता है तथा सभी प्रकारके पाप इस महामन्त्रके स्मरणसे नष्ट हो जाते हैं । यह दधि, दूर्वा, अक्षत, चन्दन, नारियल, पूर्णकलश, स्वस्तिक, दर्पण, भद्रायन, वर्धमान, मत्स्य-युगल, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त आदि मगल-वस्तुओमे सबसे उत्कृष्ट मगल है। इसके स्मरण और जपसे अनेक प्रकारकी सिद्धियां प्राप्त होती हैं । अमगल दूर हो जाता है और पुण्यकी वृद्धि होती है।
तात्पर्य यह है कि किसी भी वस्तुकी महिमा उमके गुणोंके द्वारा व्यक्त होती है। इस महामन्त्रके गुण अचिन्त्य हैं। इसमे इस प्रकारकी विद्युत् शक्ति वर्तमान है जिससे इसके उच्चारण मापसे पाप और अशुभका विध्वंस हो जाता है तथा परम विभूति और कल्याणकी प्राप्ति होती है । इस महामन्त्रकी महिमा व्यक्त करनेवाली अनेक रचनाएं हैं। इसमे णमोकारमन्त्रमाहात्म्य, नमस्कारक्ल्प, नमस्कारमाहात्म्य आदि प्रधान हैं। कहा जाता है कि जन्म, मरण, भय, पराभव, क्लेश, दुख, दारिद्रहो आदि इस महामन्त्रके जापसे क्षण भरमे भस्म हो जाते हैं । इसकी अचिशरीर महिमाका वर्णन णमोकारमन्त्र-माहात्म्यमे निम्न प्रकार बतलाया गया उत्पन्न
मन्त्रं संमारसारं निजगदनुपमं सर्वपापारिमन्नं आत्माको संसारीच्छेदमन्त्रं विपनविषहरं कर्मनिर्मूलमन्त्रम्। ।जा सकता मन्नं सिविप्रनान शिवमुख जनन केवलज्ञानमन्त्रं इसना शक्ति मन्त्र श्रीजैनमन्त्रं जप जप जपितं जन्मनिर्वाणमन्त्रम भय्य निहित है।
____इसके द्वारा भूत, ग्राष्टिं सुरसंपदा विदधते मुक्तिधियो वश्य उचाट विपदा चतुर्गतिभुवां विद्वेषमात्मनसा स्तम्म दुर्गमन प्रति प्रयततो मोहम्य संमार मोकार भी पानापन्नमस्कियाक्षरमयी माराधना दे
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
योऽसख्यदु खक्षयकारणस्मृतिः य ऐहिकामुष्मिकसौख्यकामधुक । यो दुष्षमायामपि कल्पपादपो मन्त्राधिराजः स कथ न जप्यते ।।
न यदीपेन सूर्येण चन्द्रेणाप्यपरेण दा। तमस्तदपि निर्नाम स्यान्नमस्कारतेजसा ।।
-न० मा० षष्ठ अ० श्लो० २३,२४ अर्थात्-भावसहित स्मरण किया गया यह णमोकारमन्त्र असख्य दु खोको क्षय करनेवाला तथा इहलौकिक और पारलौकिक समस्त सुखोको देनेवाला है। इस पचमकालमे कल्पवृक्षके समान सभी मनोरथोको पूर्ण करनेवाला यह मन्त्र ही है, अत संसारी प्राणियोको इसका जप अवश्य करना चाहिए। जिस अज्ञान, पाप और सक्लेशके अन्धकारको सूर्य, चन्द्र और दीपक दूर नही कर सकते हैं, उस घने अन्धकारको यह मन्त्र नष्ट कर देता है।
इस मन्त्रके चिन्तन, स्मरण और मनन करनेसे भूत, प्रेत, ग्रहवाधा, राजभय, चोरभय, दुष्टभय, रोगभय आदि सभी कष्ट दूर हो जाते हैं । राग-द्वेषजन्य अशान्ति भी इस मन्त्रके जापसे दूर होती है। यह इस पचमकालमे कल्पवृक्ष, चिन्तामणिरत्न या कामधेनुके समान अभीष्ट फल देनेवाला है। जिस प्रकार समुद्रके मन्थनसे सारभूत अमृत एव दधिके मन्थनसे सारभूत घृत उपलब्ध होता है, उसी प्रकार आगमका सारभूत यह णमोकार मन्त्र है। इसकी माराधनासे सभी प्रकारके कल्याण प्राप्त होते हैं । श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी आदिकी प्राप्ति इस मन्त्रके जपसे होती है। कर्मकी ग्रन्थिको खोलनेवाला यही मन्त्र है तथा भावपूर्वक नित्य जप करनेसे निर्वाण पदकी प्राप्ति होती है।
भगवान्की पूजा, स्वाध्याय, सयम, तप, दान और गुरुभक्तिके साथ प्रतिदिन इस णमोकार मन्त्रका तीनो सन्ध्याओमे जो भक्तिभावसहित जाप करता है, वह इतना पुण्यास्रव करता है, जिससे चक्रवर्ती, अहमिन्द्र, इन्द्र आदिके पदोको प्राप्त करनेकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है। ऐसा व्यक्ति
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अपने पुण्यातिशयके कारण तीर्थंकर भी वन सकता है । अपने सातिशय पुण्यके कारण वह तीर्थ- प्रवर्तक पदको प्राप्त हो जाता है । तथा जो व्यक्ति इस मन्त्रका आठ करोड, माठ लाख, माठ हजार और आठ सौ माठ चार लगातार जाप करता है, वह शाश्वतपदको प्राप्त हो जाता है । लगातार सात लाख जप करनेवाला व्यक्ति सभी प्रकारके कष्टोसे मुक्ति प्राप्त करता है तथा दारिद्र्य भी उसका नष्ट हो जाता है । घूप देकर एक लाख बार जपनेवाला भी अपनी अभीष्ट मन कामनाको पूर्ण करता है । इस मत्यका अचिन्त्य प्रभाव है |
णमोकार मन्त्र का जाप करनेके लिए सर्वप्रथम आठ प्रकारकी शुद्धियोका होना आवश्यक है । १ द्रव्यशुद्धि - पचेन्द्रिय तथा मनको वश कर कपाय और परिग्रहका शक्तिके अनुसार त्याग णमोकार मन्त्रके जाप करने की विधि कर कोमल और दयालुचित्त हो जाप करना । यहाँ द्रव्यशुद्धिका अभिप्राय पात्रको अन्तरंग शुद्धि से है । जाप करनेवालेको यथाशक्ति अपने विकारोको हटाकर ही जाप करना चाहिए । अन्तरगमे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मान, माया आदि विकारोको हटाना आवश्यक है । २. क्षेत्रशुद्धि--- निराकुल स्थान, जहाँ हल्ला-गुल्ला न हो तथा डाँस, मच्छर आदि बाधक जन्तु न हो । चित्तमे क्षोभ उत्पन्न करनेवाले उपद्रव एव शीत-उष्णकी वाघा न हो, ऐसा एकान्त निर्जन स्थान जाप करनेके लिए उत्तम है। घर के किसी एकान्त प्रदेशमे, जहाँ अन्य किसी प्रकारकी बाधा न हो और पूर्ण शान्ति रह सके, उस स्थानपर भी जाप किया जा सकता है । ३. समय शुद्धि - प्रातः, मध्याह्न और सन्ध्या समय कमसे कम ४५ मिनिट तक लगातार इस महामन्त्रका जाप करना चाहिए । जाप करते समय निश्चिन्त रहना एवं निराकुल होना
१. वयट्टमया
मदरस भट्टलक्स घट्टकोटी | जो गुणः भचिजुडो, सी पावर सासयं ठाये ॥३॥
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परम आवश्यक है । ४. आसनशुद्धि-काष्ठ, शिला, भूमि, चटाई या शीतलपट्टीपर पूर्वदिशा या उत्तरदिशाकी ओर मुंह करके पद्मासन, खड्गासन या अर्धपद्मासन होकर क्षेत्र तथा कालका प्रमाण करके मौनपूर्वक इस मन्त्र का जाप करना चाहिए। ५ विनयशुद्धि-जिस आसनपर बैठकर जाप करना हो, उस आसनको सावधानीपूर्वक ईर्यापथ शुद्धिके साथ साफ करना चाहिए तथा जाप करनेके लिए नम्रतापूर्वक भीतरका अनुराग भी रहना आवश्यक है। जबतक जाप करने के लिए भीतरका उत्साह नहीं । होगा, तबतक सच्चे मनसे जाप नही किया जा सकता। ६. मनःशुद्धिविचारोंकी गन्दगीका त्याग कर मनको एकाग्र करना, चचल मन इधर-उधर न भटकने पाये इसकी चेष्टा करना, मनको पूर्णतया पवित्र बनानेका प्रयास करना ही इस शुद्धिमे अभिप्रेत है । ७ वचनशुद्धि-धीरे-धीरे साम्यभावपूर्वक इस मन्त्रका शुद्ध जाप करना अर्थात् उच्चारण करनेमे अशुद्धि न होने पाये तथा उच्चारण मन-मनमे ही होना चाहिए। ८ कायशुद्धि-- शोचादि शकामोसे निवृत्त होकर यलाचारपूर्वक शरीर शुद्ध करके हलनचलन क्रियासे रहित जाप करना चाहिए। जापके समय शारीरिक शुद्धिका भी ध्यान रखना चाहिए ।
इस महामन्त्रका जाप यदि खड़े होकर करना हो तो तीन-तीन श्वासोच्छ्वासोंमे एक बार पढ़ना चाहिए। एक सौ आठ बारके जापमे कुल ३२४ श्वासोच्छ्वास-सांस लेना चाहिए।
जाप करनेकी विधियां--कमल जाप्य, हस्तागुलि जाप्य और माला जाप्य ।
कमल-जापविधि-अपने हृदयमे आठ पांखुड़ीके एक श्वेत कमलका विचार करे । उसकी प्रत्येक पांखुड़ीपर पीतवर्णके बारह-बारह बिन्दुओंकी कल्पना करे तथा मध्यके गोलवृत्त-करिणकामे बारह विन्दुओका चिन्तन करे । इन १०८ विन्दुओके प्रत्येक विन्दुपर एक-एक मन्त्रका जाप करता
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हुआ १०८ बार इस मन्त्रका जाप करे । कमलको आकृति निम्नप्रकार चिन्तन की जायेगी ।
मन्त्र जापका हेतु प्रतिदिन व्यक्ति १०८ प्रकारके पाप करता है, अत. १०८ बार मन्त्र का जाप करनेसे उस पापका नाश होता है । आरम्भ, समारम्भ, सरम्भ, इन तीनोको मन, वचन, काय से गुरणा किया तो ३x ३ = ९ हुआ । इनको कृत, कारित, अनुमोदित और कषायोंसे गुणा किया तो ९४
३५४ = १०८ । वीचवाले गोलवृत्तमे १२ बिन्दु हैं और आठ दलो में से प्रत्येक मे वारह-बारह विन्दु हैं । इन १२४८ = ९६, ९६ + १२ = १०८ विन्दुओपर १०८ बार यह मन्त्र पढा जाता है ।
A
हस्तांगुलिजाप - अपने हाथकी अँगुलियोपर जाप करनेकी प्रक्रिया यह है कि मध्यमा वीचकी अंगुली के बीच पोरुयेपर इस मन्त्रको पढ़े, फिर उसी अंगुली के ऊपरी पोरुयेपर, फिर तर्जनी - अँगूठे के पासवाली अंगुली के ऊपरी पोरुयेपर मन्त्र जाप करे । फिर उसी अँगुली के बीच पोरुयेपर मन्त्र पढ़े, फिर नीचे के पोरुयेपर जाप करे । अनन्तर वीचकी अंगुली के निचले पोरुयेपर मन्त्र पढ़े, फिर अनामिका - सबसे छोटी अँगुलीके सायवाली अंगुली के निचले पोरुयेपर, फिर वीच तथा ऊपर के पोरयेपर क्रमसे जाप करे । इसी प्रकार पुन. बीचको अंगुली के बीच के पोरुयेते जाप आरम्भ करे । इस प्रकार नौ-नी चार मन्त्र जपता रहे, इस तरह १२ बार जपनेमे १०८ बार मे पूरा एक जाप होता है ।
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मालाजाप-एक-सौ आठ दानेकी, माला-द्वारा जाप करे ! ___ इन तीनो जापकी विधियोमे उत्तम कमल-जाप-विधि है। इसमे उपयोग अधिक स्थिर रहता है। तथा कर्म-बन्धनको क्षीण करनेके लिए यही जापविधि अधिक सहायक है। सरल विधि माला-जाप है। इसमे किसी भी तरहका झझट-झगडा नहीं है। सीधे माला लेकर जाप कर लेना है । जाप करनेके पश्चात् भगवान्का दर्शन करना चाहिए। बताया गया है
ततः समुत्थाय जिनेन्द्रबिम्बं पश्येत्परं मंगलदानदशम् ।।
पापप्रणाशं परपुण्य हेतुं सुरासुरै. सेवितपादपमम् ॥ । अर्थात्-प्रातःकालके जापके पश्चात् चैत्यालयमे जाकर सव तरहके मगल करनेवाले, पापोको क्षय करनेवाले, सातिशय पुण्यके कारण एव सुरासुरो-द्वारा वन्दनीय श्रीजिनेन्द्र भगवानके दर्शन करना चाहिए। ___इस णमोकार मन्त्र का जाप विभिन्न प्रकारकी इष्टसिद्धियो और अरिष्टविनाशनोके लिए अनेक प्रकारसे किया जाता है। किस कार्यके लिए किस प्रकार जाप किया जायेगा, इसका आगे निरूपण किया जायेगा । जापका फल बहुत कुछ विधिपर निर्भर है।
उपर्युक्त सक्षिप्त विवेचनके अनन्तर यह णमोकारमन्त्र जिनागमका सार कहा गया है। यह समस्त द्वादशागरूप बतलाया गया है । अतः इस कथनकी सार्थकता सिद्ध की जाती है।
आचार्यनि द्वादशाग जिनवाणीका वर्णन करते हुए प्रत्येककी पदसख्या तथा समस्त श्रुतज्ञानके अक्षरोकी संख्याका वर्णन किया है। इस
महामन्यमे समस्त श्रुतज्ञान विद्यमान है। द्वादशांगरूप णमोकारमन्न
क्योकि पचपरमेष्ठीके अतिरिक्त अन्य श्रुतज्ञान
कुछ नहीं है। अतः यह महामन्त्र समस्त द्वादशाग जिनवाणी रूप है। इस महामन्त्रका विश्लेषण करने पर निम्न निष्कर्ष सामने आते हैं
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मगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन ७५ इस मन्त्रमे ३५ अक्षर है । ५ पद हैं । णमो अरिहंताण =७ अक्षर, णमो सिद्धाण - ५, णमो आइरियाण-७, णमो उवज्झायाण =७, णमो लोए सन्वसाहूण = ९ अक्षर, इस प्रकार इस मन्त्रमे कुल ३५ अक्षर हैं। स्वर और व्यजनोका विश्लेषण करनेपर प्रतीत होता है कि 'रणमो अरिहतारण % ६ व्यजन, णमो सिद्धारणं ५ व्यजन, गमो माइरियाण = ५ व्यजन, णमो उवज्झायाण = ६ व्यजन, णमो लोए सव्वसाहूणं-८, इस प्रकार इस मन्यमें कुल ६+५+५+६+८%3D३० व्यजन हैं। स्वर निम्न प्रकार हैं___ इस मन्त्रमे सभी वर्ण मजन्त हैं, यहां हलन्त एक भी वर्ण नहीं है। अतः ३५ अक्षरोमे ३५ स्वर मानने चाहिए। पर वास्तविकता यह है कि ३५ अक्षरोके होनेपर भी वहाँ स्वर ३४ हैं । इसका प्रधान कारण यह है कि णमो अरिहताणं' इस पदमे ६ ही स्वर माने जाते हैं। मन्त्रशास्त्रके व्याकरण के अनुसार 'रणमो मरिहताण' पदके 'म' का लोप हो जाता है। यद्यपि प्राकृतमे ''एटः" - नेत्यनुवर्तते । एडित्येदोती। एदोतोः संस्कृसो सन्धिः प्राकृठे तु न भवति । यथा देवो महिणंदणी, अहो मम्वरिभ, इत्यादि । सूत्रके अनुसार सन्धि न होने के कारण 'अ' का मस्तित्व ज्योका त्यो रहता है, अका लोप या खण्डाकार नही होता है, किन्तु मन्त्रशास्त्रमें 'बहुलम्' सूत्रकी प्रवृत्ति मानकर 'स्वस्योरव्यवधाने प्रकृतिभावो लोपो चकस्य' इस सूत्रके अनुसार अरिहताण' वाले पदके 'ब' का लोप विकल्पसे हो जाता है, अतः इस पदमे छह ही स्वर माने जाते हैं । इस प्रकार कुल मन्त्रमे ३५ अक्षर होनेपर भी ३४ ही स्वर रहते हैं। कुल स्वर और व्यजनोको सल्या ३४+ ३० = ६४ है। मूल वर्गों की संख्या भी ६४ ही है। प्राकृत भापाके नियमानुसारम, इ, उ और ए मूल स्वर तथा जक
२. त्रिविक्रमदेवका प्राकृत व्याकरण, पृ० ४, सुनसड्या १ २. जैनसिमान्तकौमुदो, पृ. ४, सूपरल्या रा.
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ण त द ध य र ल व स और ह ये मूल व्यजन इस मन्त्रमे निहित हैं । अतएव ६४ अनादि मूल वर्णों को लेकर समस्त श्रुतज्ञानके अक्षरोका प्रमाण निम्न प्रकार निकाला जा सकता है । गाथासूत्र निम्न प्रकार हैचउसद्विपद विरलिय दुगं च दाउण सगुण किया ।
सऊण च कए पुण सुदणाणस्लक्खरा होंति ॥ भर्थ -- उक्त चौसठ अक्षरोका विरलन करके प्रत्येक ऊपर दोका अक देकर परस्पर सम्पूर्ण दोके अकोका गुणा करनेसे लव्धराशिमे एक घटा देनेसे जो प्रमारण रहता है, उतने ही श्रुतज्ञानके अक्षर होते हैं । यहाँ ६४ अक्षरोका विरलन कर रखा तो-
२ ૨ ૨ ૨ ૨ ૨ ૨ ૨ २ ૨ ૨ ૨ ૨ ૨ १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १
१८४४६७४४०७३७०९५५१६१६-१ १८४४६७४४०७३७०९५५१ ६१५ समस्त श्रुतज्ञानके अक्षर । इन अक्षरोंका प्रमारण गाथामे निम्न
प्रकार कहा गया है । -
..........
एकट्ठे च च य छस्सत्तयं च च य सुण्णसत्ततियसत्ता । सुण्णं णव पण पंचय एक्कं छक्केक्कगो य पणय च ॥
२
'१| =
अर्थात् - एक आठ चार-चार छह सात चार-चार शून्य सात तीन सात शून्य नव पच-पच एक छह एक पाँच समस्त श्रुतज्ञान के अक्षर हैं ।
इस प्रकार णमोकार मन्त्रमे समस्त श्रुतज्ञानके अक्षर निहित हैं । क्योकि अनादि निघन मूलाक्षरोपर से ही उक्त प्रमाण निकाला गया है । मत संक्षेपमे समस्त जिनवाणीरूप यह मन्त्र है ! इसका पाठ या स्मरण करनेसे कितना महान् पुण्यका बन्ध होता हैं । तथा केवल ज्ञानलक्ष्मीकी प्राप्ति भी इस मन्त्रको आराधनासे होती है। ज्ञानार्णवमे शुभचन्द्राचार्यने इस मन्त्रकी आराधनाका फल बताते हुए लिखा हैप्रियमास्यन्तिकों प्राप्ता योगिनो येन कंचन | अमुमेव महामन्त्रं ते समाराध्य केवलम् ॥
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मंगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
प्रभावमस्य निशेषं
योगिनामप्यगोचरम् ।
अनभिज्ञो जनो ते य स मन्येऽनिलार्दितः ॥ अनेनैव विशुद्ध्यन्ति जन्तव: पापपक्किताः । अनेनैव विमुच्यन्ते भवक्लेशान्मनीषिणः ॥
अर्थात् - इस लोक मे जितने भी योगियोने आत्यन्तिकी लक्ष्मी -- मोक्षलक्ष्मीको प्राप्त किया है, उन सवोने श्रुनज्ञानभूत इस महामन्त्रकी आराघना करके ही । समस्त जिनवाणीरूप इस महामन्त्र की महिमा एव इसका तत्काल होनेवाला अमिट प्रभाव योगी मुनीश्वरोके भी अगोचर हैं । वे इसके वास्तविक प्रभावका निरूपण करनेमें असमर्थ हैं। जो साधारण व्यक्ति इस श्रुतज्ञानरूप मन्त्रका प्रभाव कहना चाहता है, वह वायुवश प्रलाप करनेवाला ही माना जायेगा । इस णमोकार मन्त्रका प्रभाव केवली ही जाननेमे समर्थ है। जो प्राणी पापसे मलिन हैं, वे इमी मन्त्र से विशुद्ध होते हैं और इसी मन्यके प्रभावसे मनीषोगण संसार के क्लेशोंसे छूटते हैं ।
स्वाध्याय और ध्यानका जितना सम्वन्ध आत्मशोधनके साथ है, उतना ही इस मन्त्रका भी सम्बन्ध आत्मकल्याणके साथ है । इस मन्त्रका १०८ वार जाप करनेसे द्वादशाग जिनवाणीके स्वाध्यायका पुण्य होता है तथा मन एकाग्र होता है । इस मन्त्र के प्रति अटूट श्रद्धा या विश्वास होनेसे ही यह मन्त्र कार्यकारी होता है। द्वादशाग जिनवाणीका इतना सरल, सुसंस्कृत एव सच्चा रूप कही नही मिल सकता है। ज्ञानरूप आत्माको इमका अनुभव होते ही श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञानावरणीय कर्मकी निर्जरा या क्षयोपशम रूप शक्ति इस मन्त्रके उच्चारणसे मानी है तथा आत्मासे महान् प्रकाश उत्पन्न हो जाता है। अतएव यह महामन्त्र समस्त श्रुतज्ञान रूप है, इसमें जिनवाणीका समस्त रूप निहित है ।
मनोज्ञानिक दृष्टि से यह विचारणीय प्रश्न है कि णमोकार मन्यका मनपर क्या प्रभाव पड़ता है ? मात्मिक शक्तिका विकास किस प्रकार होता है, जिससे इस मन्त्रको समस्त कार्योंमें सिद्धि देनेवाला कहा गया
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णमोकार मन्त्र
है । मनोविज्ञान मानता है कि मानवकी दृश्य क्रियाएँ उनके चेतन मनमें और अदृश्य क्रियाएँ अचेतन मन में होती हैं । मनकी इन दोनों क्रियाओको मनोवृत्ति कहा जाता है । यो तो साधारणत. मनोविज्ञान और मनोवृत्ति शब्द चेतन मनकी क्रियाके बोधके लिए प्रयुक्त होता है । प्रत्येक मनोवृत्तिके तीन पहलू हैंज्ञानात्मक, वेदनात्मक और क्रियात्मक । मनोवृत्तिके ये तीनों पहलू एकदूसरेसे अलग नही किये जा सकते हैं। मनुष्यको जो कुछ ज्ञान होता है, उसके साथ साथ वेदना और क्रियात्मक भावकी भी अनुभूति होती है । अनात्मक मनोवृत्तिके सवेदन, प्रत्यक्षीकरण, स्मरण, कल्पना और विचार ये पांच हैं | संवेदनात्मकके सवेग, उमंग, स्थायीभाव और भावना ग्रन्थि ये चार भेद एवं क्रियात्मक मनोवृत्तिके सहज क्रिया, मूलवृत्ति, आदत, इच्छित क्रिया और चरित्र ये पाँच भेद किये गये हैं । णमोकारमन्त्र के स्मरणसे ज्ञानात्मक मनोवृत्ति उत्तेजित होती है, जिससे उससे अभिन्नरूपमे सम्बद्ध रहनेवाली उमग वेदनात्मक अनुभूति और चरित्र नामक क्रियात्मक अनुभूतिको उत्तेजना मिलती है । अभिप्राय यह है कि मानव मस्तिष्क मे ज्ञानवाही और क्रियावाही ये दो प्रकारकी नाडियां होती हैं | इन दोनो नाडियोका आपसमे सम्बन्ध होता है, परन्तु इन दोनोके केन्द्र पृथक् हैं । ज्ञानवाही नाडियां और मस्तिष्क के ज्ञानकेन्द्र मानवके ज्ञानविकासमे एवं क्रियावाही नाडियाँ और मानव मस्तिष्क के क्रिया केन्द्र उसके चरित्रके विकासकी वृद्धिके लिए कार्य करते हैं । क्रियाकेन्द्र मौर ज्ञानकेन्द्रका घनिष्ठ सम्बन्ध होनेके कारण णमोकार मन्त्रकी आराधना, स्मरण और चिन्तनसे ज्ञानकेन्द्र और क्रियाकेन्द्रोका समन्वय होनेसे मानव मन सुदृढ़ होता है और आत्मिक विकासकी प्रेरणा मिलती है ।
मनुष्य का चरित्र उसके स्थायी भावोका समुच्चय मात्र है, जिस मनुष्य के स्थायीभाव जिस प्रकार के होते हैं, उसका चरित्र भी उसी प्रकारका होता है । मनुष्यका परिमार्जित और आदर्श स्थायीभाव ही हृदयकी अन्य प्रवृत्तियो का
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नियन्त्रण करता है। जिस मनुष्यके स्थायीभाव सुनियन्त्रित नहीं अथवा जिसके मनमे उच्चादर्शोके प्रति श्रद्धास्पद स्थायीभाव नहीं है, उसका व्यक्तित्व सुगठित तथा चरित्र सुन्दर नहीं हो सकता है । दृढ और सुन्दर चरित्र बनानेके लिए यह आवश्यक है कि मनुष्यके मनमे उच्चादर्भोके प्रति श्रद्धास्पद स्थायीभाव हो तथा उसके अन्य स्थायीभाव उसी स्थायीभावके द्वारा नियन्त्रित हो । स्थायीभाव ही मानवके अनेक प्रकारके विचारोके जनक होते हैं। इन्हीके द्वारा मानवकी समस्त क्रियाओंका सचालन होता है। उच्च आदर्शजन्य स्थायीभाव और विवेक इन दोनोमे घनिष्ठ सम्बन्ध है । कभी-कभी विवेकको छोडकर स्थायी भावोके अनुसार ही जीवन क्रियाएँ सम्पन्न की जाती हैं। जैसे विवेकके मना करनेपर भी श्रद्धावश धार्मिक प्राचीन कृत्योंमे प्रवृत्तिका होना तथा किसीसे झगडा हो जानेपर उसकी झूठी निन्दा सुननेकी प्रवृत्तिका होना। इन कृत्योमे विवेक साथ नहीं है. केवल स्थायी भाव ही कार्य कर रहा है। विवेक मानवकी क्रियाओंको रोक या मोड सकता है, उससे स्वयं क्रियायोके मचालनको शक्ति नहीं है। अतएव आचरणको परिमाजिन और विकसित फरनेके लिए केवल विवेक प्राप्त करना ही मावश्यक नहीं है, बल्कि मावश्यक्त है उसके स्थायी भावको योग्य और दृढ बनाना। ___व्यक्तिके मनमें जबतक किनी मुन्दर मादर्शके प्रति या किसी महान् व्यक्तिके प्रति श्रद्धा और प्रेमके स्थायीभाव नहीं तबतक दुराचारसे हटकर सदाचारमे उनकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। ज्ञानकी मात्र जानकारीसे दुराचार नहीं रोका जा सकता है, इसके लिए उच्च शदशंके प्रति प्रदा भावनाका होना अनिवार्य है । णमोकार मन्त्र ऐसा पवित्र उच्च आदर्श है, जिससे सुदृढ म्यायीभावी उत्सति होनी है। यत णमोकारमन्त्रका मनपर जब बार-बार प्रभाव पडेगा अर्थात् शविक समय तक इस महामन्त्रकी भावना जब गनमें बनी रहेगी तर स्थायी भावो परिकार हो ही जायेगा योर गे हो नियन्त्रित स्थायीभाव मानवो परियके विकासमे गहायया होंगे।
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इस महामन्त्रके मनन, स्मरण, चिन्तन और ध्यानमें अजित भावोस्थायीरूपसे स्थित कुछ संस्कारमें जिनमे अधिकांश संस्कार विषय-कषायसम्बन्धी ही होते-मे परिवर्तन होता है । मंगलमय आत्माओंके स्मरणसे मन पवित्र होता है और पुरातन प्रवृत्तियोमे शोधन होता है, जिससे सदाचार व्यक्तिके जीवनमे आता है। उच्च आदर्शसे उत्पन्न स्थायीभावके अभावमें ही व्यक्ति दुराचारकी मोर प्रवृत्त होता है। अतएव मनोविज्ञान स्पष्ट रूपसे कहता है कि मानसिक उद्वेग, वासना एवं मानसिक विकार उच्च आदर्शके प्रति श्रद्धाके अभावमे दूर नहीं किये जा सकते हैं। विकारोको अधीन करनेकी प्रतिक्रियाका वर्णन करते हुए कहा गया है कि परिणाम-नियम, अभ्यास-नियम और तत्परता-नियमके द्वारा उच्चादर्शको प्राप्त कर विवेक और आचरणको दृढ करनेसे ही मानसिक विकार और सहज पाशविक प्रवृत्तियां दूर की जा सकती है।
णमोकार मन्त्रके परिणाम-नियमका अर्थ यहाँपर है कि इस मन्त्रकी आराधना कर व्यक्ति जीवनमे सन्तोषकी भावनाको जाग्रत करे तथा समस्त सुखोंका केन्द्र इसीको समझे । अभ्यास-नियमका तात्पर्य है कि इस मन्त्रका. मनन, चिन्तन और स्मरण निरन्तर करता जाये । यह सिद्धान्त है कि जिस योग्यताको अपने भीतर प्रकट करना हो, उस योग्यताका वार-बार चिन्तन, स्मरण किया जाये । प्रत्येक व्यक्तिका चरम लक्ष्य ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यरूप शुद्ध आत्मशक्तिको प्राप्त करना है। यह शुद्ध अमूर्तिक रत्नत्रयस्वरूप सच्चिदानन्द आत्मा ही प्राप्त करने योग्य है, अतएव रत्नत्रयस्वरूप पंचपरमेष्ठी वाचक णमोकार महामन्त्रका अभ्यास करना परम आवश्यक है। इस मन्त्रक अभ्यास-द्वारा शुद्ध आत्मस्वरूपमे तत्परताके साथ प्रवृत्ति करना जीवनमे तत्परता नियममे उतारना है। मनुष्यमे अनुकरणकी प्रधान प्रवृत्ति पायी जाती है, इसी प्रवृत्तिके कारण पचपरमेष्ठीका आदर्श सामने रखकर उनके अनुकरणसे व्यक्ति अपना विकास कर सकता है।
मनोविज्ञान मानता है कि मनुष्य में भोजन ढूंढना, भागना, लड़ना,
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उत्सुकता, रचना, सग्रह, विकर्षण, शरणागत होना, काम प्रवृत्ति, शिशुरक्षा, दूसरोंकी चाह, आत्म-प्रकाशन, विनीतता और हँसना ये चोदह मूलप्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं । इन मूलप्रवृत्तियांका अस्तित्व ससारके सभी प्राणियोमे पाया जाता है, पर मनुष्यकी मूलप्रवृतियोंमें यह विशेषता है कि मनुष्य इनमें समुचित परिवर्तन कर लेता है । केवल मूलप्रवृत्तियो द्वारा संचालित जोवन असभ्य और पाशविक कहलायेगा । अत मूलप्रवृत्तियो में Repression दमन, Inhibition विलयन, Redirection मार्गान्तरीकरण और Sublimation शोधन ये चार परिवर्तन होते रहते हैं ।
प्रत्येक मूलप्रवृत्तिका वल उसके बराबर प्रकाशित होने से बढता है । यदि किसी मूलप्रवृत्तिके प्रकाशनपर कोई नियन्त्रण नहीं रखा जाता है, तो वह मनुष्य के लिए लाभकारी न बनकर हानिप्रद हो जाती है । अत दमनकी क्रिया होनी चाहिए । उदाहरणार्थ यो कहा जाता है कि संग्रहकी प्रवृत्ति यदि सयमित रूपमें रहे तो उससे मनुष्यके जीवनकी रक्षा होती है, किन्तु जब यह अधिक वढ जाती है तो कृपणता और चोरीका रूप धारण कर लेती है, इसी प्रकार द्वन्द्व या युद्धको प्रवृत्ति प्राण-रक्षा के लिए उपयोगी है, किन्तु जब यह अधिक बढ जाती है तो यह मनुष्यकी रक्षा न कर उसके विनाशका कारण बन जाती है। इसी प्रकार अन्य मूलप्रवृत्तियोके सम्बन्धमें भी कहा जा सकता है । अतएव जीवनको उपयोगी बनाने के लिए यह मावश्यक है कि मनुष्य समय-समयपर अपनी प्रवृत्तियोका दमन करे और उन्हें अपने नियन्त्रणमें रखे । व्यक्तित्व के विक्रामके लिए मूलप्रवृत्तियोका दमन उतना ही आवश्यक है, जितना उनका प्रकाशन ।
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मूलप्रवृत्तियोका दमन विचार या विवेक द्वारा होता है । किसी बाह्य मत्ता द्वारा किया गया दमन मानव जीवनके विकासके लिए हानिकारक होता है । अत वचनमे हो णमोकार मन्यके आदर्श द्वारा मानवको मूलप्रवृत्तियांका दमन सरल और स्वाभाविक है । इस मन्या आदर्श हृदयमे श्रा और दृढ विश्वासको उत्पन्न करता है; जिसमे मूलप्रवृत्तियोका दमन
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मगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
करने में बडी सहायता मिलती है । णमोकार मन्त्रके उच्चारण, स्मरण, चिन्तन, मनन और ध्यान द्वारा मनपर इस प्रकारके सस्कार पढते हैं, जिससे जीवनमें श्रद्धा और विवेकका उत्पन्न होना स्वाभाविक है । क्योकि मनुष्यका जीवन श्रद्धा और सद्विचारोंपर हो अवलम्बित है, श्रद्धा और विवेकको छोडकर मनुष्य मनुष्यकी तरह जीवित नहीं रह सकता है अत जीवनको मूलप्रवृत्तियोका दमन या नियन्त्रण करनेके लिए महामंगल वाक्य णमोकार मन्त्रका स्मरण परम आवश्यक है । इस प्रकारके धार्मिक वाक्योंकेचिन्ननसे मूलप्रवृत्ति नियन्त्रित हो जाती हैं तथा जन्मजात स्वभावमें परिवर्तन हो जाता है । अत नियन्त्रणकी प्रवृत्ति धीरे-धीरे आती है । ज्ञानार्णवमें आचार्य शुभचन्द्रने बतलाया है कि महामंगल वाक्योको विद्युत्शक्ति आत्मामें इस प्रकारका झटका देती है, जिससे आहार, भय, मैथुन और परिग्रह जन्य सज्ञाएँ सहजमें परिष्कृत हो जाती हैं । जीवनके धरातलको उन्नत बनानेके लिए इस प्रकारके मगल वाक्योको जीवनमें उतारना परम आवश्यक है । अतएव जीवनको मूलप्रवृत्तियो के परिष्कार के लिए दमन क्रियाको प्रयोगमें लाना आवश्यक है ।
इससे मूलप्रवृत्तियाँ कुछ
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मूलप्रवृत्तियोके परिवर्तनका दूसरा उपाय विलयन है । यह दो प्रकार से हो सकता है - निरोप द्वारा ओर विशेष द्वारा । निरोधका तात्पर्य है कि प्रवृत्तियोंको उत्तेजित होने का ही अवसर न देना। समयमें नष्ट हो जाती हैं । विलियम जेम्सका कथन है कि यदि किसी प्रवृत्तिको अधिक काल तक प्रकाशित होनेका अवसर न मिले तो वह नष्ट हो जाती है । अत धार्मिक आस्था द्वारा व्यक्ति अपनी विकार प्रवृत्तियोंको अवरुद्ध कर उन्हें नष्ट कर सकता है। दूसरा उपाय जो कि विरोध द्वारा प्रवृत्तियोके विलयन के लिए कहा गया है, उसका अर्थ यह है कि जिस समय एक प्रवृत्ति कार्य कर रही हो, उसी समय उसके विपरीत दूसरी प्रवृत्तिको उत्तेजित होने देना । ऐसा करने से दो पारस्परिक विरोधी प्रवृत्तियों के एक साथ उभडने से दोनोका बल घट जाता है । इस तरह दोनोके प्रकाशनकी
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
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रीतिमँ अन्तर हो जाता है अथवा दोनो शान्त हो जाती है । जैसे द्वन्द्वप्रवृत्तिके उभडने पर यदि सहानुभूतिको प्रवृत्ति उभाड दी जाये तो उक्त प्रवृत्तिका विलयन सरलतासे हो जाता है । णमोकार मन्त्रका स्मरण इस दिशामें भी सहायक सिद्ध होता है । इस शुभ प्रवृत्ति के उत्पन्न होनेसे अन्य प्रवृत्तियाँ सहज में विलीन की जा सकती है ।
मूलप्रवृत्तिके परिवर्तनका तीसरा उपाय मार्गान्तरीकरण है। यह उपाय दमन और विलयन के उपायसे श्रेष्ठ है । मूलप्रवृत्तिके दमनसे मानसिक शक्ति सचित होती है, जबतक इस सचित शक्तिका उपयोग नहीं किया जाये, तत्रतक यह हानिकारक भी सिद्ध हो सकती है । णमोकार मन्त्रका स्मरण इस प्रकारका अमोघ अस्त्र हैं, जिसके द्वारा वचपन से ही व्यक्ति अपनी मूलप्रवृत्तियोका मार्गान्तरीकरण कर सकता है। चिन्तन करने की प्रवृत्ति मनुष्य में पायी जाती है, यदि मनुष्य इस चिन्तनकी प्रवृत्तिमें विकारी भावनाओंको स्थान नहीं दे और इस प्रकारके मगलवाक्योंका हो चिन्तन करे तो चिन्तन प्रवृत्तिका यह सुन्दर मार्गान्तरीकरण है । यह सत्य है कि मनुष्यका मस्तिष्क निरर्थक नहीं रह सकता है, उसमें किसीन किसी प्रकारके विचार अवश्य आयेंगे । अतः चरित्र भ्रष्ट करनेवाले विचारोंके स्थानपर चरित्र-वर्धक विचारोको स्थान दिया जाये तो मस्तिष्कको क्रिया भी चलती रहेगी तथा शुभ प्रभाव भी पड़ता जायेगा । ज्ञानार्णव में शुभचन्द्राचार्यने बतलाया है
अपास्य कल्पनाजाल चिदानन्दमये स्त्रयम् । य. स्वरूपे लय प्राप्त. स स्याइत्नत्रयास्पदम् ॥ नित्यानन्दमय शुद्धं चित्स्वरूप सनातनम् । पश्यात्मनि परं ज्योतिराद्वतीयमनव्ययम् ॥ अर्थात् — नमस्त कल्पनाजालको दूर करके अपने चैतन्य और आनन्दमय स्परूपमें लोन होता, निश्वय रत्नययको प्राप्तिका स्थान है । जो इस विचारमें लीन रहता है कि में नित्य आनन्दमय है, शुद्ध हूँ, चैतन्यस्वरूप
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मगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन
ध्रौव्यसहित हूँ, वह व्यक्ति व्यर्थके विचारोसे अपनी रक्षा करता है, पवित्र विचार या ध्यानमें अपने को लीन रखता है। यह मागन्तिरीकरणका सुन्दर प्रयोग है।
मूलप्रवृत्तियोके परिवर्तनका चौथा उपाय शोधन है । जो प्रवृत्ति अपने अपरिवर्तित रूपमें निन्दनीय कर्मोमें प्रकाशित होती है, वह शोधित रूपम प्रकाशित होनेपर श्लाघनीय हो जाती है। वास्तवमें मूलप्रवृत्तिका शोधन उसका एक प्रकारसे मार्गान्तरीकरण है। किसी मन्त्र या मगलवाक्यका चिन्तन आर्त और रौद्र ध्यानसे हटाकर धर्मध्यानमें स्थित करता है अतः धर्मध्यानके प्रधान कारण णमोकारमन्त्रके स्मरण और चिन्तनकी परम आवश्यकता है।
उपर्युक्त मनोवैज्ञानिक विश्लेषणका अभिप्राय यह है कि णमोकारमन्त्रके द्वारा कोई भी व्यक्ति अपने मनको प्रभावित कर सकता है। यह मन्त्र मनुष्यके चेतन, अवचेतन और अचेतन तोनो प्रकारके मनोको प्रभावित कर अचेतन और अवचेतनपर सुन्दर स्थायी भावका ऐसा संस्कार डालता है, जिससे मूल प्रवृत्तियोका परिकार हो आता है और अचेतन मनमें वासनाओको अजित होनेका अवसर नहीं मिल पाता। इस मन्त्रको माराधनामें ऐसो विद्युत्-गक्ति है, जिससे इसके स्मरणसे व्यक्तिका अन्तर्द्वन्द्व शान्त हो जाता है, नैतिक भावनाओका उदय होता है, जिससे अनैतिक वासनामोका दमन होकर नैतिक सस्कार उत्पन्न होते हैं। आभ्यन्तरमें उत्पन्न विद्युत् बाहर और भोतरमें इतना प्रकाश उत्पन्न करती है, जिससे वासनात्मक सस्कार भस्म हो जाते है और ज्ञानका प्रकाश व्याप्त हो जाता है । इस मन्त्रके निरन्तर उच्चारण, स्मरण और चिन्तनसे मात्मामे एक प्रकारको शक्ति उत्पन्न होती है, जिसे माइकी भाषामे विद्युत् कह सकते हैं, इस शक्ति द्वारा आत्माका शोधन-कार्य तो किया ही जाता है, साथ ही इससे अन्य आश्चर्यजनक कार्य भी सम्पन्न किये जा सकते हैं।
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
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मनके साथ जिन नियोंका घर्षण होनेसे दिव्य ज्योति प्रकट होती है उन ध्वनियोके समुदायको मन्त्र कहा जाता है । मन्त्र और विज्ञान दोनोमें अन्तर है, क्योकि विज्ञानका प्रयोग जहाँ भी किया जाता है, फल एक ही होता है । परन्तु मन्यमें
यह बात नहीं है, उसकी सफलता साधक और साध्यके ऊपर निर्भर है, ध्यानके अस्थिर होनेसे भी मन्त्र असफल हो जाता हूँ । मन्त्र तभी सफल होता है; जब श्रद्धा, इच्छा और दृढ सकल्प ये तीनों ही यथावत् कार्य करते हो । मनोविज्ञानका सिद्धान्त है कि मनुष्यकी अवचेतनायें बहुत-सी आध्यात्मिक शक्तियाँ भरी रहती है, इन्ही शक्तियो को मन्त्र द्वारा प्रयोगमें लाया जाता है । मन्त्रको ध्वनियोंके मघर्ष-द्वारा माध्यात्मिक शक्तिको उत्तेजित किया जाता है । इस कार्यमें अकेली विचारशक्ति ही काम नहीं करती है, इसको सहायता के लिए उत्कट इच्छा-शक्तिके द्वारा ध्वनि सचालनकी भी आवश्यकता है । मन्त्र शक्ति के प्रयोगको सफलताके लिए मानसिक योग्यता प्राप्त करनी पडती है, जिसके लिए नैष्टिक आचारको आवश्यकता है । मन्त्रनिर्माणके लिए ओं हां हीं हं ह्रीं हः हा हसः क्लीं क्लॅ द्वा ह्रीं द्रद्रः श्री क्षत्रों की हं अं फट् चपट्, सर्वोपट्, घे वै यः ठः सः हव्यं पं चं यात यंत्र आदि बीजाक्षरोको आवश्यकता होती है । साधारण व्यक्तिको ये बीजाक्षर निरर्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु है ये सार्थक और इनमें ऐमी शक्ति अन्तनिहित रहती है, जिसमें आत्मशक्ति या देवताओको उत्तेजित किया जा सकता है | अतः ये धीजाक्षर जन्त. करण और वृत्तिकी शुद्ध प्रेरणा व्यक्त हैं. जिनमे मात्मिक शक्तिका विकास किया जा सकता है ।
मन्त्रशास्त्र और
णमोकार मन्त्र
इन घोजाक्षरॉकी उत्पत्ति प्रधानतः णमोकारमन्यसे ही हुई हैं क्योंकि मानूका ध्यनियाँ इसी मन्त्र से उद्भूत है । इन सबमें प्रधान 'भ' बोज है, यह आत्मवाचक मूलभूत है । इसे तेजोवीज, कामवोज और भववोज माना गया है। पंचपरमेष्ठी वाचक होनेसे ओोको समस्त मन्त्रीका सारतत्त्व
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
बताया गया है । इसे प्रणववाचक भी कहा जाता है कीर्तिवाचक, ह्रीको कल्याणवाचक, क्षींको शान्तिवाचक, र्हको मगलवाचक, ॐको सुखवाचक, क्ष्वींको योगवाचक, हको विद्वेष और रोपवाचक, प्री प्रींको स्तम्भनवाचक और क्लीको लक्ष्मीप्राप्तिवाचक कहा गया है । सभी तीर्थकरोके नामाक्षरोको मंगलवाचक एव यक्ष-यक्षिणियोंके नामोंको कीति और प्रीतिवाचक कहा गया है। बीजाक्षरोका वर्णन निम्न प्रकार किया गया है
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ॐ प्रणवध्रुवं ब्रह्मवीजं, तेजोवीजं वा, ओं तेजोवीजं, ऐं वाग्भवबीजं, लं कामबीज, क्रीं शक्तिषीज, हंसः विषापहारवीजं क्षीं पृथ्वीवीजं, स्वा वायुबीजं, हा आकाशग्रीजं, हां मायावीजं त्रैलोक्यनाथबीजं वा, क्रां कुशबीजं, ज पाशबीजं, फट् विसर्जनं चालनं वा, वौषट् पूजाग्रहण आकर्पण वा, संवोषट् आमन्त्रणम्, ब्लू द्वावण, कुं श्राकर्षण, ग् स्तम्मन, हाँ महाशक्ति, वपट् आह्वानन, रं ज्वलन, क्ष्वीं विषापहारबीज, ठः चन्द्रयीजं, घे घै ग्रहणवीजं, वैविबन्धों वा; द्वा द्वा क्ली ब्लूं सः पञ्चवाणी, द्वं विद्वेषणं रोषवीज वा, स्वाहा शान्तिक मोहक वा, स्वधा पौष्टिकं, नमः शोधनवीज, हं गगनवीजं, ह ज्ञानवीज, यः विसर्जन बीज उच्चारणं वा, य वायुवीज, जु विद्वेषणवीज, इवीं अमृतबीज, क्ष्व मोगवीज, हू ढण्डबीजम्, खः स्वादनवीज, झौं महाशक्तित्रीज, ह लव यू पिण्डवीज, हं मगलबीज सुखबीज वा, श्री कीत्तिबीज कल्याणवीज वा क्लीं घनबीज कुबेरवीजं वा, तीर्थकरनामाक्षरशान्तिवीज मागल्यबीज कल्याणवीज विघ्नविनाशकवीज वा अ भाकाशवीज धान्यवीज वा, अ सुखबीज तेजोवीज वा, ई गुणवीज तेजोवीज वा, उ वायुवीज, क्षा क्षीं क्षं क्ष क्ष क्ष क्ष रक्षाबीज, सर्वकल्याणर्वीजं सर्वशुद्वियीज वा, व द्रवणश्रीजं, य मगलवीज, शोधनबीज, यं रक्षायीज, अं शक्तिबीज तथ कालुप्यनाशक मंगळवर्धक च । - वीजकोश अर्थात् - ओ प्रणव, ध्रुव, ब्रह्मवीज या तेजोवीज है । ऐं वाग्भव वीज,
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मगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन ८७ लु कामबीज, क्रों शक्तिबीज, ह स विपापहार बीज, श्री पृथ्वी बीज, स्वा वायुवीज, हा आकाशवोज, ह्रा मायावीज या त्रैलोक्यनाथ बीज, क्रो अकुशवीज, ज पाशवोन, फट् विसर्जनात्मक या चालन-दूरकरणार्थक, वौपट् पूजाग्रहण या आकर्पणार्थक, सवौषट् आमन्त्रणार्थक, ब्लू द्रावणवीज, क्लों आकर्पणबोज, ग्लौं स्तम्भन वीज, ह्रो महाशक्तिवाचक, वषट् आह्वानन वाचक, रं ज्वलनवाचक, क्ष्वी विपापहारवीज, ठ' चन्द्रबीज, घे घे ग्रहण. बीज, द्र विद्वेषणार्थक, रोषबीज, स्वाहा शान्ति और हवनवाचक, स्वघा पौष्टिक वाचक, नम शोधनवीज, ह गणनबीज, ह जानवीज, य विसर्जन या उच्चारण वाचक, नु विद्वेषणवीज, श्वी अमृतबीज, क्ष्वी भोगवीज, हूँ दण्डबीज, ख: स्वादनयोज, भौं महाशक्तिबीज, ह, ल्यू पिण्डबीज, क्ष्वों है मगल और सुखवोज, श्री कोतिबीज या कल्याणवीज, क्लीं धनवीज, या कुवरबीज, तीर्थकरके नामाक्षर शान्तिवीज, हो ऋद्धि और सिद्धिवोज, ह्रा ह्रीं ह्र. ह्रीं ह्र सर्वशान्ति, मागल्य, कल्याण, विघ्नविनाशक, सिद्धिदायक, म आकाशवीज, या धान्यबोज, आ सुखबीज या तेजोबोज, ई गुणवीज या तेजोबोज या वायुवीज, क्षा क्षों क्षधे वै क्षो क्षों क्ष सर्वरल्याण या मर्वगुद्धिबीज, व द्रवणबोज, यं मंगलवोज, म शोधनबोज, यं रक्षाबीज, झं गक्तिबीज और त थ दं कालुप्यनाशक, मगलवर्धक और सुखकारक बताया गया है। इन समस्त बीजाक्षरोको उत्तत्ति णमोकार मन्य तथा इस मन्त्री प्रतिपादित पवपरमेष्ठीफे नामाक्षर, तीर्थकर और यक्ष यक्षिणियोके नामाक्षरोपर-से हुई है । मन्त्रके तीन अग होते है, रूप, वौज और फल । जितने भी प्रकारके मन्य है, उनमें वीजरूप यह णमोकार मन्त्र या इससे निष्पन कोई सूक्ष्मतत्त्व रहता है । जिस प्रकार होम्योपैथिक दवामें दवाका अग जितना अल्ल होता जाता है, उतनी ही उसको शक्ति बढती जाती है और उसका चमत्कार दिखलाई पडने लगता है। इसी प्रकार इस णमोपार मन्त्रको सूक्ष्मीकारण-माग जितने भूधम बीजाक्षर अन्य मन्त्रोंमें निहित किये जाते है, उन मन्योकी उतनी ही शयित बढती जाती है।
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मन्त्रोका बार-बार उच्चारण किसी सोते हुएको बार-बार जगाने के समान है । यह प्रक्रिया इसीके तुल्य है, जिस प्रकार किन्हीं दो स्थानोंके वीच विजलीका सम्बन्ध लगा दिया जाये । साधककी विचार-शक्ति स्विच - का काम करती है ओर मन्त्र शक्ति विद्युत् लहरका । जब मन्त्र सिद्ध हो जाता है तब आत्मिक शक्तिसे आकृष्ट देवता मान्त्रिकके समक्ष अपना आत्मार्पण कर देता है और उस देवताकी सारी शक्ति उस मान्त्रिक आ जाती है । सामान्य मन्त्रों के लिए नैतिकताको विशेष आवश्यकता नहीं है । साधारण साधक वीजमन्त्र और उनकी ध्वनियोंके घर्षणसे अपने भीतर आत्मिक शक्तिका प्रस्फुटन करता है । मन्त्रशास्त्र में इसी कारण मन्त्रोके अनेक भेद बताये गये हैं । प्रधान ये हैं- ( १ ) स्तम्भन ( २ ) मोहन (३) उच्चाटन ( ४ ) वश्याकर्पण ( ५ ) जृम्भण ( ६ ) विद्वेषण ( ७ ) मारण ( ८ ) शान्तिक और ( ९ ) पौष्टिक |
जिन ध्वनियोके वैज्ञानिक सन्निवेशके घर्षण द्वारा सर्प, व्याघ्र, सिंह आदि भयकर जन्तुमोको भूत, प्रेत, पिशाच आदि दैविक बाधाओोको, शत्रुसेना के माक्रमण तथा अन्य व्यक्तियो द्वारा किये जानेवाले कष्टोको दूर कर इनको जहाँ तहाँ निष्क्रिय कर स्तम्भित कर दिया जाये, उन ध्वनियोके सन्निवेशको स्तम्भन मन्त्र, जिन ध्वनियोके वैज्ञानिक सन्निवेशके घर्षण द्वारा किसीको मोहन कर दिया जाये उन ध्वनियोके सन्निवेशको मोहित मन्त्र; जिन ध्वनियोके सन्निवेशके घर्पण-द्वारा किसीका मन अस्थिर, उल्लासरहित एव निरुत्साहित होकर पदभ्रष्ट एव स्थानभ्रष्ट हो जाये, उन ध्वनियोके सन्निवेशको उच्चाटन मन्त्र, जिन ध्वनियो के सन्निवेशके घर्पण-द्वारा इच्छित वस्तु या व्यक्ति साधकके पास आ जाये - किसीका विपरीत मन भी साधकको अनुकूलता स्वीकार कर ले, उन ध्वनियोके सन्निवेशको वश्याकर्पण, जिन ध्वनियोके वैज्ञानिक सन्निवेशके घर्षण-द्वारा शत्रु, भूत, प्रेत, व्यन्तर साधकको साधना से भयत्रस्त हो जायें, काँपने लगें, उन घ्ननियोंके सन्निवेशको जृम्भण मन्त्र, जिन ध्वनिया के
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संलपनका एक ि
अपि परस्पर और
kau g, n, t. 50, 0 जालि मंत्र कार्य, उन
विशेष ध्
अभिवाद्य चाक को दे सके. ति
महारा
मयंकेरसे भयंकर कन्दराका क्रू समस्यावर विषबाधा, विष्ट, स्यावृष्टि, दुनिआदि इंडयों और चीर लादला प्रहरेको मन्दि
मन्त्र एवं कित व्यतिया वैज्ञानिक के द्वारा सुलयको की प्रति हो, पोक
प्रतिमा सत्य कहते है । एक वर्षको दुषित नहीं कियग का सकता है. किंतु इससे मन्त्रका विश्टेषन हो होता है, जिसकी है।
है।
इस
न
वर्ष कार्यक
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कोशेक विकेन्द्र करके उनके
है
कक्षा व् मु च तु र व
खरका स्विपन करने हुए
उसे वर्षः च
उन्ले संवत्र र ८८७३
こ
55
कोटिंग और कनिक होते है।
सेवई
अनियो परिवार या
वर्ष
क
वर्ग संक्रमण क्लस और स्वनियों बंद एवं और
मंत्रक होवो है ।
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
वश्य, आकर्षण और उच्चाटन 'हूँ' का प्रयोग, मारण में 'फट्का प्रयोग, स्तम्भन, विद्वेषण और मोहन में 'नमः' का प्रयोग एव शान्ति और पौष्टिक के लिए 'वपट्' शब्दका प्रयोग किया जाता है । मन्त्र के अन्त में 'स्वाहा' शब्द रहता है । यह शब्द पापनाशक, मगलकारक तथा आत्माको आन्तरिक शान्तिको उद्बुद्ध करनेवाला बतलाया गया है | मन्त्रको शक्ति' शाली बनानेवाली अन्तिम ध्वनियोंमें स्वाहाको स्त्रीलिंग; वषटु, फट्, स्वधाको पुल्लिंग और नम को नपुंसक लिंग माना है | मन्त्र- सिद्धिके लिए चार पीठोका वर्णन जैनशास्त्र में मिलता है - श्मशानपीठ, शवपीठ, अरण्यपीठ और श्यामापीठ ।
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भयानक श्मशानभूमिमें जाकर मन्त्रकी आराधना करना श्मशानपीठ है । अभीष्ट मन्त्री सिद्धिका जितना काल शास्त्रोमें बताया गया है, उतने काल तक श्मशानमें जाकर मन्त्र साधन करना आवश्यक है । भीरु साधक इस पीठका उपयोग नहीं कर सकता है । प्रथमानुयोग में आया है कि सुकुमाल मुनिराजने णमोकार मन्त्रको आराधना इस पीठमें करके आत्मसिद्धि प्राप्त की थी। इस पीठमें सभी प्रकार के मन्त्रोकी साधना की जा सकती है । शवपीठमें कर्णपिशाचिनी, कर्णेश्वरी आदि विद्याओकी सिद्धिके लिए मृतक कलेवरपर आसन लगाकर मन्त्र साधना करनी होती है । आत्मसाधना करनेवाला व्यक्ति इस घृणित पीठसे दूर रहता है । वह तो एकान्त निर्जन भूमिमें स्थित होकर आत्माकी साधना करता है । अरण्यपीठमें एकान्त निर्जन स्थान, जो हिमक जन्तुओंसे समाकोर्ण है, में जाकर निर्भय एकाग्र चित्त से मन्त्रकी आराधना की जाती है । णमोकार मन्त्रकी माराधना के लिए अरण्यपीठ ही सबसे उत्तम माना गया है । निर्ग्रन्थ परम तपस्वी निर्जन अरण्योमे जाकर ही पचपरमेष्ठोकी आराधना द्वारा निर्वाण लाभ करते है । राग-द्वेप, मोह, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि विकारोको जीतनेका एक मात्र स्थान अरण्य ही है, अतएव इस महामन्त्रकी साधना इसी स्थानपर यथार्थ रूपसे हो सकती है। एकान्त निर्जन स्थानमें षोडशी नवयौवना
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन सुन्दरीको वस्त्ररहित कर सामने बैठाकर मन्त्र सिद्ध करना एवं अपने मनको तिलमात्र भी चलायमान नहीं करना और ब्रह्मचर्यव्रतमें दृढ रहना श्यामापीठ है । इन चारो पीठोका उपयोग मन्त्र-सिद्धिके लिए किया जाता है। किन्तु णमोकार मन्त्रकी साधनाके लिए इस प्रकारके पीठोकी आवश्यकता नहीं है। यह तो कहीं भी और किसी भी स्थितिमें सिद्ध किया जा सकता है।
उपर्युक्य मन्त्र-शास्त्रके सक्षिप्त विश्लेषण और विवेचनका निष्कर्ष यह है कि मन्त्रोके बीजाक्षर, सन्निविष्ट ध्वनियोके रूप विधानमें उपयोगी लिंग और तत्त्वोका विधान एव मन्त्रके अन्तिम भागमें प्रयुक्त होनेवाला पल्लव-अन्तिम ध्वनिसमूहका मूलस्रोत णमोकार मन्त्र है। जिस प्रकार समुद्रका जल नवीन घडेमे भर देनेपर नवीन प्रतीत होने लगता है, उसी प्रकार णमोकार मन्त्ररूपी समुद्र में से कुछ ध्वनियोको निकालकर मन्त्रोका सृजन हुआ है। "सिद्धो वर्णसमाम्नाय' नियम बतलाता है कि वर्गों का समूह अनादि है। णमोकार मन्त्रमें कण्ठ, तालु मूर्धन्य, अन्तस्य, काम, उपन्मानीय, वत्स्य॑ आदि मभी ध्वनियोके बीज विद्यमान हैं। बीजाक्षर मन्त्रोके प्राण है। ये बीजाक्षर ही स्वयं इस बातको प्रकट करते हैं कि इनको उत्पत्ति कहीसे हुई है। बीजकोशमें बताया गया है कि ॐ वीज समस्त णमोकार मन्त्रसे, होंको उत्पत्ति णमोकार मन्त्रके प्रयमपदसे, श्रीको उत्पत्ति णमोकार मन्त्रके द्वितीयपदसे, क्षी और क्ष्वीको उत्पत्ति णमोकार मन्त्रके प्रथम, द्वितीय और तृनीय पदोसे, म्लोंकी उत्पत्ति प्रयमपदमें प्रतिपादित तीर्थंकरोकी यक्षिणियोंसे, अत्यन्त शक्तिशाली सकल मन्त्रोमें व्याप्त 'ह' की उत्पत्ति णमोकार मन्त्रके प्रथम पदसे, द्रां द्रींको उत्पत्ति उक्त मन्त्रके चतुर्थ और पचमपदसे हुई है। ह्रा ह्रीं है. ह्रीं ह्रः ये वीजाक्षर प्रथम पदसे, क्षा क्षी सू दे क्ष क्षो क्ष वीजाक्षर प्रथम, द्वितीय और पचमपदसे निष्पन्न है। णमोकार मन्त्रकल्प, भक्तामर यन्त्र-मन्त्र, कल्याणमन्दिर यन्त्र-मन्त्र, यन्त्र-मन्त्र सग्रह, पद्मावतो मन्त्र कल्प आदि मान्त्रिक ग्रन्योके अवलोकनसे पता लगता है कि समस्त मन्त्रोंके रूप
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
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बीज पल्लव इसो महामन्त्रसे निकले हैं । ज्ञानार्णवमें षोडशाक्षर, पडक्षर, चतुरक्षर, द्वयक्षर, एकाक्षर, पचाक्षर, त्रयोदशाक्षर, सप्ताक्षर, अक्षरपक्ति इत्यादि नाना प्रकारके मन्त्रोकी उत्पत्ति इसी महामन्त्रसे मानी है । षोडशाक्षर मन्त्रकी उत्पत्तिका वर्णन करते हुए कहा गया है. स्मर पन्चपदोद्भूतां महाविद्यां जगन्नुताम् । गुरुपञ्चकनामोत्यां षोडशाक्षरराजिताम् ॥
अस्याः शतद्वयं ध्यानी जपन्नेकाग्रमानसः । अनिच्छन्नप्यवाप्नोति चतुर्थतपसः फलम् ॥ विद्यां षड्वर्णसंभूतामजय्यां पुण्यशालिनीम् । जपन्प्रागुक्तमभ्येति फलं ध्यानी शतत्रयम् ॥ चतुर्वर्णमयं मन्त्र चतुर्वर्गफलप्रदम् । चतु शतं जपन् योगी चतुर्थस्य फलं लभेत् ॥ वर्णयुग्मं श्रुतस्कन्धसारभूतं शिवप्रदम् । ध्याये जन्मोद्भवाशेष क्लेशविध्वंसनक्षमम्
॥"
सिद्धेः सौंधं समारोदुमियं सोपानमाटिका । त्रयोदशाक्षरोत्पन्ना विद्या विश्वातिशायिनी ॥
अर्थात् — पोडशाक्षरी महाविद्या पंचपदी और पचगुरुओके नामोंसे उत्पन्न हुई हैं, इसका ध्यान करनेसे सभी प्रकार के अभ्युदयोकी प्राप्ति होती है । यह सोलह अक्षरका मन्त्र यह है - "अहंत्सिदाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यो नम" ।” जो व्यक्ति एकाग्र मन होकर इस सोलह अक्षरके मन्त्रका ध्यान करता है, उसे चतुर्थ तप - एक उपवासका फल प्राप्त होता है । णमोकार मन्त्र से निसृत - 'अरिहन्त सिद्ध' इन छह अक्षरोसे उत्पन्न हुई विद्याका तीन सौ वार - तीन माला प्रमाण जाप करनेवाला एक उपवासके फलको प्राप्त होता है, क्योंकि पडक्षरी विद्या अजय है और पुण्यको उत्पन्न करनेवाली तथा पुण्यते शोभित है। उक्त महासमुद्र से निकला हुआ 'अरिहन्त' यह चार अक्षरोंवाला मन्त्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप फलको
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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन ९३ देनेवाला है, इसकी जो चार मालाएं प्रतिदिन जाप करता है, उसे एक उपवासका फल मिलता है। 'सिद्ध' यह दो अक्षरोका मन्त्र द्वादशाग जिनवाणोका सारभूत है, मोक्षको देनेवाला है, तथा ससारसे उत्पन्न हुए समस्त क्लेगोका नाश करनेवाला है। णमोकार महामन्त्रसे उत्पन्न तेरह अक्षरोके समूहरूप मन्त्र मोक्षमहलपर चढने के लिए सीढीके समान है । वह मन्त्र है-"ॐ अर्हत् सिद्धसयोगकेवलो स्वाहा"।"
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने द्रव्यसग्रहको ४९वीं गाथामें इस णमोकार मन्त्रसे उत्पन्न आत्मसाधक तथा चमत्कार उत्पन्न करनेवाले मन्त्रोका उल्लेख करते हुए कहा है
पणतीस सोल छप्पण चउद्गमेगं च जबह आएह ।
परमेट्ठिवाचयाणं अण्णं च गुरूवएसेण ॥ अर्थात्-पंचपरमेष्ठी वाचक पैतीस, सोलह, छह, पांच, चार, दा मोर एक अक्षररूप मन्त्रोका जप और ध्यान करना चाहिए। स्पष्टताके लिए इन मन्त्रोको यहाँ क्रमश दिया जाता है ।
सोलह अक्षरका मन्त्र-अरिहत-सिद्ध-आइरिय-उवज्झाय-साहू अथवा अहं सिद्धाचार्यउपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नम ।
छह अक्षरका मन्त्र - अरिहं प्रसिद्ध, अरिहंत सि सा, ॐ नमः सिद्धेभ्यः, नमोऽहं सिद्धेभ्यः ।
पांच अक्षरोका मन्य - अ सि आ उ सा । णमो सिद्धाणं । चार अक्षरका मन्त्र - अरिहंत । अ मि साह । सात अक्षरका मन्त्र- ॐ ह्रीं श्री अहं नम । आठ अक्षरका मन्त्र - ॐ णमो अरिहंताणं । तेरह अक्षरका मन्त्र - ॐ महत् सिद्धसयोगकेवली स्वाहा । दो अक्षरका मन्त्र - ॐहीं। मिद्धः । म सि । एक अक्षरका मन्त्र - ॐ, ओं, भोम्, अ, सि । प्रयोदशाक्षरात्मकविद्या - ॐ हां ही हूं ही ह भ सि आ र साननः
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
अक्षरपक्ति विद्या - ॐ नमोऽर्हते केवलिने परमयोगिनेऽनन्तशुद्धिपरिणाम विस्फुरदुरुशुक्लध्यानाग्निर्दग्धकर्सबीजाय प्राप्तानन्तचतुष्टयाय सौम्याय शान्ताय मगलाय वरदाय अष्टादशदोषरहिताय स्वाहा । यह अभय स्थान मन्त्र भी कहा गया है। इसके जपनेसे कामनाएं पूर्ण होती हैं । प्रणवयुगल और मायायुगल मन्त्र - ह्रीं ॐ ॐ ह्रीं, ह सः ।
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अचिन्त्य फलप्रदायक मन्त्र
ह्रीं नमः ।
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ॐ ह्रीं स्वहं णमो णमो अरिहताणं
पापमक्षिणी विद्यारूप मन्त्र-ॐ अर्हमुखकमलवासिनी पापात्मक्षयंकरि, श्रुतिज्ञानज्वाळा सहस्रप्रज्वलिते सरस्वति भस्पाप हन हन दह दह क्षां क्षीं क्ष क्ष क्षः क्षीरवरधवले अमृतसभवें वं वं हूं हूं स्वाहा । इस मन्त्रके जपके प्रभाव से साधकका चित्त प्रसन्नता धारण करता है और समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और आत्मामें पवित्र भावनाओका सचार हो जाता है ।
गणधर लयमें आये हुए 'ॐ णमो अरिहंताणं', 'ॐ णमो सिद्धाण', 'ॐ णमो आइरियाण', 'ॐ णमो उवज्झायाणं', 'ॐ णमो लोए सव्वसाहूण' आदि मन्त्र णमोकार महामन्त्रके अभिन्न अंग ही हैं ।
णमोकार मन्त्र कल्पके सभी मन्त्र इस महामन्त्रसे निकले हैं । ४६ मन्त्र इस कल्पके ऐसे हैं, जिनमे इस महामन्त्र के पदोका सयोग पृथक् रूप में विद्यमान हैं । इन मन्त्रोका उपयोग भिन्न-भिन्न कार्योंके लिए किया जाता है । यहाँपर कुछ मन्त्र दिये जा रहे हैं -
६.
रक्षामन्त्र' ( किसी भी कार्यके आरम्भ में इन रक्षा मन्त्र के जयसे उस कार्यमें विघ्न नहीं माता है )
-
ॐ णमो अरिहताण हा हृदय रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा । ॐ णमो सिद्धाण हों सिरो रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा ।
ॐ नमो आइरियाणं हळू शिखा रक्ष रक्ष हु फट् स्वाहा । ॐ णमो उवज्झायाण हैं एहि एहि भगवति वज्रकवचमज्रिणी रक्ष
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मगलमन्त्र णमोकार. एक अनुचिन्तन
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रक्ष हु फट् स्वाहा । ॐ णमो लोए सब्बसाहूण हः क्षिप्र साधय साधय वज्रहस्ते शूलिनी दुष्टान् रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा 12
रोग निवारणमन्त्र ( इन मन्त्रोको १०८ बार लिखकर रोगी के हाथपर रखने से सभी रोग दूर होते हैं । मन्त्र- सिद्ध कर लेनेके पश्चात् किसी भी मन्त्र से १०८ बार पढकर फूंक देनेसे रोग अच्छा होता है ) -
ॐ णमो अरिहताण णमो सिद्धाण णमो आइरियाणं णमो उवज्झाया णमो लोए सव्वसाहूण । ॐ नमो भगवति सुभदे वयाणवार सग एव, यण जणणीये, सरस्लई ए सन्त्र, वार्हणि सवणवणे, ॐ अवतर भवतर, देवी मयसरीर वपिस पुछ, तस्स पविससत्व जण मयहरीये अरिहंत सिरिसरिए स्वाहा |
सिरको पीडा दूर करनेके मन्त्र (१०८ बार जलको मन्त्रित कर पिला देने से सिर दर्द दूर होता है ) -
ॐ णमो अरिहताणं, ॐ णमो सिद्धाण, ॐ नमो आइरियाणं, ॐ णमो उवज्झाया ं, ॐ णमो लोए सव्वसाहूणं । ॐ णमो णाणाय, ॐ णमो दंसणाय, ॐ णमो चारिताय, ॐ ह्रीं त्रैलोक्यवश्यंकरी ह्रीं स्वाहा ।
बुखार, तिजारी ओर एकतरा दूर करनेका मन्त्र
णमो लोए सव्वसाहूण ॐ णमो उवज्झायाण ॐ णमो आइरियाण ॐ णमो सिद्धाणं भ णमो अरिहंताण |
विधि - एक सफेद चादरके एक किनारेको लेकर एक बार मन्त्र पढ - कर एक स्थानपर मोड दे, इस प्रकार १०८ बार चादरको मन्त्रित कर मोड देनेके पश्चात् उस चादरको रोगोको उढा देनेपर रोगीका बुखार उतर जाता है ।
अग्निनिवारक मन्त्र -
ॐ णमो ॐ अहं भसि भा उसा, णमो अरिहंताण नमः
विधि - एक लोटेमें शुद्ध पवित्र जल लेकर उसमें से थोडा-सा जल चुल्लू में अलग निकालकर उस चुल्लूके जलको २१ वार उपयुक्त मन्त्र से
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
मन्त्रित कर चुल्लूके जलसे एक रेखा खीच दे तो अग्नि उस रेखासे आगे नहीं बढती है। इस प्रकार चासे दिशाओमें जलसे रेखा खींचकर अग्निका स्तम्भन करे। पश्चात् लोटके जलको लेकर १०८ बार मन्त्रित कर अग्निपर छींटे दे तो अग्नि शान्ति हो जाती है । इस मन्त्रका आत्मकल्याणके लिए १०८ वार जाप करनेसे एक उपवासका फल मिलता है।
लक्ष्मी प्राप्ति मन्त्र
ॐ णमो भरिहताण ॐ णमो सिद्धाण ॐ णमो आइरियाणं ॐ णमो उवज्झायाण ॐ नमो लोए सव्वसाहूणं। ॐ हा ही है, हौं ह स्वाहा ।
विधि-मन्त्रको सिद्ध करनेके लिए पुष्य नक्षत्रके दिन पीला आसन, पीली माला और पीले वस्त्र पहनकर एकान्तमें जप करना आरम्भ करे। सवालाख मन्त्रका जाप करनेपर मन्त्र सिद्ध होता है। साधनाके दिनोंमें एक बार भोजन, भूमिपर शयन, ब्रह्मचर्यका पालन, सप्तव्यसनका त्याग, पचपापका त्याग करना चाहिए । स्वाहा शब्दके साथ प्रत्येक मन्त्रपर धूप देता जाये तथा दीप जलाता रहे। मन्त्रसिद्धिके पश्चात् प्रतिदिन एक माला जपनेसे धनकी वृद्धि होती है।
सर्वसिद्धिमन्त्र (ब्रह्मचर्य और शुद्धतापूर्वक सवालाख जाप करनेसे सभी कार्य सिद्ध होते हैं )
ॐ भ सि मा उ सा नम । पुत्र और सम्पदा-प्राप्तिका मन्त्र
ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं भ सि मा उ सा चल चल हुल हुलु मुल मुलु इच्छियं में कुरु कुरु स्वाहात्रिभुवनस्वामिनी विद्या
ॐ हां गमो मिद्धाणं ॐ ही णमो भाइरियाणं ओ हैं, णमो अरिहन्ताणं ओ हो णमो उबमायाणं ओं हः णमो लोए सवसाहूर्ण । श्री क्लीं नम. क्षा क्षीक्षक्षे झें क्षों क्षौं क्ष स्वाहा।
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मगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
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विधि---मन्त्र सिद्ध करनेके लिए सामने धूप जलाकर रख ले तथा २४ हजार श्वेत पुष्पो पर इस मन्त्रको सिद्ध करे । एक फूलपर एक बार मन्त्र पढे ।
राजा, मन्त्री या किसी अधिकारीको वश करनेका मन्त्र -
ॐ ह्रीं णमो अरिहंताणं ॐ ह्रों णमो सिद्धाणं ॐ ह्रीं णमो आइरियाणं ॐ ह्रीं णमो उवज्झायाणं ॐ ह्रीं णमो लोए सन्नसाहूणं । अमुकं मम वश्यं कुरु कुरु स्वाहा ।
विधि - पहले ११ हजार बार जाप कर मन्त्रको सिद्ध कर लेना चाहिए | जब राजा, मन्त्री या अन्य किसी अधिकारीके यहाँ जाये तो सिरके वस्त्रको २१ बार मन्त्रित कर धारण करे, इससे वह व्यक्ति वशमें हो जाता है । अमुक के स्थानपर जिस व्यक्तिको वश करना हो उसका नाम
जोड देना चाहिए ।
महामृत्युजय मन्त्र --
ॐ हा णमो अरिहंताणं ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं ॐ हृ णमो आइरियाणं ॐ हौं णमो उवज्झायाणं ॐ हृ णमो लोए सव्वसाहूणं । मम सर्वदारिष्टान् निवारय निवारय अपमृत्युं घातय घातय सर्वशान्ति कुरु
कुरु स्वाहा |
विधि-दीप जलाकर धूप देते हुए नैष्ठिक रहकर इस मन्त्रका स्वयं जाप करे या अन्य द्वारा करावे । यदि अन्य व्यक्ति नाप करे तो 'मम' के स्थानपर उस व्यक्तिका नाम जोड ले – अमुकस्य सर्वग्रहारिष्टान् निवारय आदि । इस मन्त्रका सवा लाख जाप करनेसे ग्रहवाधा दूर हो जाती है । कमसे कम इस मन्त्रका ३१ हजार जाप करना चाहिए । जापके अनन्तर दशाश आहुति देकर हवन भी करे ।
सिर, अक्षि, कर्ण, श्वास रोग एवं पादरोगविनाशक मन्त्र-
ॐ ह्रीं महं णमो ओहिजिणाणं परमोहिजिणाणं शिरोरोगविनाशनं भवतु |
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
ॐ ह्रीं अहं णमो सचोहि जिणाणं भक्षिरोगविनाशनं भवतु । ' ॐ हों अहं णमो अणं तोहिलिणाणं कणरोगविनाशनं मवतु । ॐ ह्रीं अहं णमो संमिण्णसादेराणं श्वासरोगविनाशन भवतु । ॐ ह्रीं अहं णमो सम्बजिणाणं पादादिपर्वरोगविनाशनं भवतु । विवेक प्राप्ति मन्त्र
ॐ ही अहं णमो कोहबुद्धीणं बीजबुद्धीणं ममात्मनि विवेकज्ञान भवतु। विरोध-विनाशक मन्त्रॐ ही अहं णमो पादानुसार णं परस्परविरोधविनाशनं भवतु । प्रतिवादीकी शक्तिको स्तम्भन करनेका मन्त्र--- ॐ ही अहं णमो पत्तेयबुद्धाण प्रतिवादिविद्याविनाशनं भवतु । विद्या और कवित्व प्राप्तिके मन्त्रॐ ही भहं णमो सयंबुद्धाणं कवित्वं पाण्डित्यं च भवतु ।
ॐ ह्रीं दिवसरात्रिभेदविवर्जितपरमज्ञानार्कचन्द्रातिशयाय श्रीप्रयमजिनेन्द्राय नम ।
सर्वकार्यसाधक मन्त्र ( मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक प्रात , साय मौर मध्याह्नकालमें जाप करना चाहिए )
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं नमः स्वाहा । सर्वशान्तिदायक मन्त्रॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ब्लू भह नम । व्यन्तर वाधा विनाशक मन्त्र
ॐ हीं श्रीं क्लीं अह असि आ उ सा अनावृतविद्यायै णमो मरिहताणं ह्रौं सर्वशान्तिमवतु स्वाहा।
ओं नमोऽहंते सर्व रक्ष रक्ष हुँ फट् स्वाहा।
उपर्युक्त मन्त्रोके अतिरिक्त सहस्रो मन्त्र इसी महामन्यसे निकले हैं । सकलीकरण क्रियाके मन्त्र, ऋपिमन्त्र, पीठिकामन्त्र,प्रोक्षणमन्त्र,प्रतिष्ठामन्य,
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शान्तिमन्त्र, इष्टसिद्धि-अरिष्टनिवारकमन्त्र, विभिन्न मागलिक कृत्योंके अवसर - पर उपयोगमें आनेवाले मन्त्र, विवाह, यज्ञोपवीत आदि संस्कारोके अवसर - पर हवन-पूजन के लिए प्रयुक्त होनेवाले मन्त्र प्रभृति समस्त मन्त्र णमोकार महामन्त्रसे प्रादुर्भूत हुए हैं। इस महामन्त्रको ध्वनियोके सयोग, वियोग, विश्लेषण और सश्लेषण के द्वारा ही मन्त्रशास्त्रको उत्पत्ति हुई है । प्रवचनसारोद्वारके वृत्तिकारने बताया है
सर्वमन्त्ररखानामुपस्याक्रस्य प्रथमस्य कल्पितपदार्थ करणैककल्पgher विषविषधरशाकिनी डाकिनी या किन्यादिनिग्रह निरवग्रह स्वभावस्य सकलजगद्वशीकरणाकृष्टया द्यव्यभिचारप्रौढ प्रभावस्य चतुर्दशपूर्वाणां सारभूतस्य पञ्चपरमेष्टिनमस्कारस्य महिमात्यद्भुतं वरीवर्तते, त्रिजगत्याकालमिति निष्प्रतिपक्षमेतत्सर्वसमय विदाम् |
अर्थात् - यह णमोकार मन्त्र सभी मन्त्रोकी उत्पत्ति के लिए समुद्रके समान है । जिस प्रकार समुद्रसे अनेक मूल्यवान् रत्न उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार इस महामन्त्र से अनेक उपयोगी और शक्तिशाली मन्त्र उत्पन्न हुए हैं । यह मन्त्र कल्पवृक्ष है, इसकी आराधनासे सभी प्रकारकी कामनाएँ पूर्ण हो जाती है । इस मन्त्रसे विष, सर्प, शाकिनी, डाकिनी, याकिनी, भूत, पिशाच आदि सब वशमें हो जाते हैं । यह मन्त्र ग्यारह अंग और चौदह पूर्वका सारभूत है | मन्त्रोंको आचार्योंने वश्य, आकर्षण आदि नो भागोमें विभक्त किया है। ये नौ प्रकारके मन्त्र इसी महामन्त्रसे निष्पन्न हैं, क्योकि उन मन्त्रोंके रूप इस मन्त्रोक्त वर्णों या ध्वनियोंसे ही निष्पन्न हैं । मन्त्रोके प्राण बीजाक्षर तो इसी मन्त्रसे निसृत है तथा मन्त्रोंका विकास और निकास इसी महासमुद्रसे हुआ है । जिस प्रकार गंगा, मिन्धु आदि नदियाँ पद्महदादिमे निकलकर समुद्रोमें मिल जाती है, उसी प्रकार सभी मन्त्र इसी महामन्यसे निकलकर इसी महामन्त्र के तत्त्वोंमे मिश्रित हैं ।
जिनकी तिसूरिने अपने नमस्कारस्तवके पृष्पिकावाक्यमे बताया है षि इस महामन्त्रमें समस्त मन्त्रशास्त्र उसी प्रकार निवास करता है, जि
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मगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
प्रकार एक परमाणुमें त्रिकोणाकृति। और यही कारण है कि इस महामन्त्र. की आराधनाते सभी प्रकारके शुभ और आत्म नुभवरूप शुद्ध फल प्राप्त होते हैं। इसीलिए यह सब मन्त्रोमें प्रधान और अन्य मन्त्रोका जनक है - ____ एवं श्रीपञ्चपरमेष्ठीनमस्कारमहामन्त्र सकलसमीहितार्थ-प्रापणकल्पदुमाभ्यधिकमहिमाशान्तिपौष्टिकाद्यष्टकर्मकृत् । ऐहिकपारलौकिकस्वामिमतार्थसिद्धये यथा श्रीगुर्वाम्नाय जातव्यः ।
अर्थात्-यह णमोकार मन्त्र, जिसे पंचपरमेष्टीको नमस्कार किये जानेके कारण पंचनमस्कार भी कहा जाता है, समस्त अभीष्ट कार्योंकी सिद्धि के लिए कल्पद्रुमसे भी अधिक शक्तिशाली है। लौकिक और पार• लौकिक सभी कार्यों में इसकी आगधनासे सफलता मिलती है । अत अपनी आम्नायके अनुसार इसका ध्यान करना चाहिए।
निष्कर्ष यह है कि णमोकार महामन्त्रकी वीज ध्वनियां ही समस्त मन्त्रशास्त्रको आधारशिला है । इसोसे यह शास्त्र उत्पन्न हुआ है।
मनुष्य अहर्निश सुख प्राप्त करनेकी चेष्टा करता है, किन्तु विश्वके अशान्त वातावरणके कारण उसे एक क्षणको भी शान्ति नहीं मिलती है । ग त मनीषियोका कथन है कि चित्तवृत्तियोका निरोध
कर लेने पर व्यक्तिको शान्ति प्राप्त हो सकती है । णमोकार महामन्त्र नाराम चित्तवत्तिका निरोध करने के लिए यागका वर्णन किया गया है । आत्माका उत्कर्ष साधन एव विकास योग - उत्कृष्ट ध्यानके सामर्थ्य पर अवम्बित है। योगव लसे केवलज्ञानको प्राप्ति होती है तथा पूर्ण अहिमा शक्ति या शोलको प्राप्ति-द्वारा सचित कर्ममल दूर कर निर्वाण प्राप्त किया जाता है । साधारण ऋद्धि-सिद्धियां तो उत्कृष्ट ध्यान करनेवालोके चरणोम लोटती है। योगसाधना करनेवाले को शरीरमनपर अधिकार प्राप्त हो जाता है । ___ मनुष्यको वित्तकी चचलताके कारण ही अशान्तिका अनुमव करना पड़ता है, क्योंकि अनावश्यक सकल्प-विकल्प हो दु खोके कारण है। मोह
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जन्य वासनाएं मानव हृदयका मन्थन कर विषयोकी ओर प्रेरित करती है जिससे व्यक्ति के जीवन में अशान्तिका सूत्रपात होता है । योग शास्त्रियोंने इस अशान्तिको रोकने के विधानोका वर्णन करते हुए बतलाया है कि मनकी चचलतापर पूर्ण आधिपत्य कर लिया जाये तो चित्तको वृत्तियोका इधरउधर जाना रुक जाता है । अतएव व्यक्तिकी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नतिका एक साधन योगाभ्यास भी है। मुनिराज मन, वचन और कायकी चवलताको रोकने के लिए गुप्ति और समितियांका पालन करते हैं । यह प्रक्रिया भी योगके अन्तर्गत है । कारण स्पष्ट है कि चित्तकी एकाग्रता समस्त शक्तियोको एक केन्द्रगामी बनाने तथा साध्य तक पहुँचाने में समर्थ है । जीवनमे पूर्ण सफलता इसी शक्तिके द्वारा प्राप्त
होती है ।
जैनग्रन्थोमे सभी जिनेश्वरोको योगी माना गया है । श्रपूज्यपादस्वामीने दशभक्ति में बताया है - "योगीश्वरान् जिनान् सर्वान् योगनिर्धूतकल्मषान् । योगेस्त्रिभिरह वन्दे योगस्कन्धप्रतिष्ठितान्"। इससे स्पष्ट है कि जैनागम मे योगका पर्याप्त महत्त्व स्वीकार किया गया है । योगश स्त्रके इतिहासपर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि इस कल्पकालमें भगवान् आदिनाथने योगका उपदेश दिया । पश्चात् अन्य तीर्थंकरोने अपने-अपने समयमें इस योगमार्गका प्रचार किया | जैनग्रन्थोंमें योगके अर्थमे प्रधानतया ध्यान शब्दका प्रयोग हुआ है । ध्यानके लक्षण, भेद, प्रभेद, आलम्बन आदिका विस्तृत वर्णन अग और अगवाह्य ग्रन्थों में मिलता है । श्रीउमास्वामी माचार्यने अपने तत्त्वार्थसूत्र में ध्यानका वर्णन किया है, इस ग्रन्यके टीकाकारोने अपनी-अपनी टीकाओमे ध्यानपर बहुत कुछ विचार किया है। ध्यानसार और योगप्रदीप में योगपर पूरा प्रकाश डाला गया है | आचार्य शुभचन्द्रने ज्ञानार्णव में योगपर पर्याप्त लिखा है । इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे श्रीहरिभद्रसूरिने नयी शैली में बहुत लिखा है । इनके रचे हुए योगविन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविशिका, योगशतक और पोडशक ग्रन्थ है । इन्होने
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मंगलमन्त्र णमोकार ' एक अनुचिन्तन
जैनदृष्टि से योगशास्त्रका वर्णन कर पातंजल योगशास्त्रकी अनेक बातो की तुलना जैन सकेतो के साथ की है । योगदृष्टिपमुच्चय में योगको आठ दृष्टियोका कथन है, जिनसे समस्त योग साहित्य में एक नवीन दिशा प्रदर्शित की गयी है। हेमचन्द्राचार्यने आठ योगागोंका जैन शैलोके अनुसार वर्णन किया है तथा प्राणायामसे सम्बन्ध रखनेवाली अनेक बातें बतलायी हैं ।
श्रीशुभचन्द्राचार्य ने अपने ज्ञानार्णवमें ध्यानके पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत भेदोका वर्णन विस्तारके साथ करते हुए मनके विक्षिप्त, यातायात, शिष्ट और सुलीन इन चारो भेदोका वर्णन बड़ी रोचकता और नवीन शैली में किया है । उपाध्याय यशोविजयने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद् आदि ग्रन्थो में योग विषयका निरूपण किया है। दिगम्बर सभी आध्यात्मिक ग्रन्थो में ध्यान या समाधिका विस्तृत वर्णन प्राप्त है ।
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योग शब्द युज् धातुसे घन् प्रत्यय कर देनेसे सिद्ध होता है । युजके दो अर्थ है- जोडना और मन स्थिर करना । निष्कर्ष रूपमें योगको मनको स्थिरताके अर्थ में व्यवहृत करते हैं । हरिभद्र सूरिने मोक्ष प्राप्त करनेवाले साधनका नाम योग कहा है | पतंजलिने अपने योगशास्त्र में "योगश्चित्तवृत्तिनिरोध " - चित्तवृत्तिका रोकना योग वताया है । इन दोनो लक्षणोका समन्वय करनेपर फलितार्थ यह निकलता है कि जिस क्रिया या व्यापार के द्वारा ससारोन्मुख वृत्तियाँ रुक जायें और मोक्षकी प्राप्ति हो, योग है । अतएव समस्त आत्मिक शक्तियो का पूर्ण विकास करनेवाली क्रिया - आत्मोन्मुख चेष्टा योग है। योग के आठ अंग माने जाते हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । इन योगागोके अभ्यास से मन स्थिर हो जाता है तथा उसकी शुद्धि होकर वह शुद्धोपयोगकी ओर बढता है या शुद्धोपयोगको प्राप्त हो जाता है | शुभचन्द्राचार्यने वतलाया है -
'यमादिपु कृताभ्यासो निःसङ्गो निर्ममो मुनि । रागादिक्लेशनिर्मुक्तं करोति स्ववशं मनः ॥
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सर्वाभ्युदयसाधक' |
एक एव मनोरोधः यमेवालम्ब्य संप्राप्ता योगिनस्तत्त्वनिश्चयम् ॥ मन शुद्ध व शुद्धिः स्याददेहिनां नात्र संशय । वृथा तद्व्यतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ॥ - ज्ञानार्णव प्र० २२, श्लो०३, १२, १४ अर्थात् - जिसने यमादिकका अभ्यास किया है, परिग्रह और ममतासे रहित है ऐमा मुनि हो अपने मनको रागादिसे निर्मुक्त तथा वश करने मे समर्थ होता है । निस्सन्देह मनकी शुद्धिमे ही जीवोकी शुद्धि होती है, मनकी शुद्धिके बिना शरीरको क्षीण करना व्यर्थ है । मनकी शुद्धिसे इस प्रकारका ध्यान होता है, जिससे कमजाल कट जाता है । एक मनका निरोध ही समस्त अभ्युदयोको प्राप्त करनेवाला है, मनके स्थिर हुए बिना आत्मस्वरूपमें लोन होना कठिन है । अतएव योगागों का प्रयोग मनको स्थिर करने के लिए अवश्य करना चाहिए। यह एक ऐसा साधन है, जिससे मन स्थिर करने में सबसे अधिक सहायता मिलती है ।
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यम और नियम - जैनवर्म निवृत्तिप्रधान है, अत यम-नियमका अर्थ भी निवृत्तिपरक है । अतएव विभाव परिणतिसे हटकर स्वभावकी मोर रुचि होना ही यम-नियम है । जैनागममें इन दोनो योगागोका विस्तृत वर्णन मिलता है । यम या सयमके प्रधान दो भेद है - प्राणिसंयम और इन्द्रियसम | समस्त प्राणियोकी रक्षा करना, मन-वचन-कायसे किसी भी प्राणीको कष्ट न पहुँचाना तथा मनमें राग-द्वेपको भावना न उत्पन्न होने देना प्राणिसयम है और पचेन्द्रियोपर नियन्त्रण करना इन्द्रियसयम है | पाँचो व्रतोके धारण, पाँचों समितियोके पालन, चारो कपायोका निग्रह, तीन दण्डो मन, वचन, कायकी विपरीत परिणतिका त्याग और पाँचो इन्द्रियोका विजय करना ये सब सयमके अग हैं । जैन आम्नायमें यम-नियमोका विधान राग-द्वेषमयी प्रवृत्तिको वश करने के लिए ही किया गया है । अत ये दोनों प्रवृत्तियाँ ही मानवोको परमानन्दसे हटाती रहती
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१०४ मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन है । रागी जीव कर्मोको बांधता है और वीतरागो कर्मोसे छूटता है । अतः राग और द्वेपको प्रवृत्तिको इन्द्रियनिग्रह एव मनोनिग्रह आत्ममावनाके द्वारा दूर करना चाहिए । कहा गया है -
रागी बध्नाति कर्माणि वीतरागो विमुच्यते । जीवो जिनोपदेशोऽयं समासाद् वन्धमोक्षयोः ।। यन्त्र रागः पदं धत्ते द्वेषस्तनैति निश्चय. । उमावेतो समालम्व्य विक्राम्यत्यधिकं मनः ।। रागद्वेषविषोधानं मोहबीजं जिनमतम् । मत स एव नि.शेषदोषसेनानरेश्वर ॥ रागादिवैरिण क्रूरान्मोहभूपेन्द्रपालितान् । निकृत्य शमशास्त्रेण मोक्षमार्ग निरूपयः ।।
-ज्ञानार्णव प्र० २३, श्लो० १, २५, ५०, ३७ अर्थात् - अनादिसे लगे हुए राग-द्वेष ही ससारके कारण है, जहाँ राग-द्वेष हैं, वहां नियमत. कर्मवन्य होता है। वीतरागताके प्राप्त होते ही कर्मका बत्व रुक जाता है और कर्मोकी निर्जरा होने लगती है। जहां राग रहता है वहीं उसका अविनाभावी द्वेप भी अवश्य रहता है। अतः इन दोनोंका अवलम्बन करके मनमें नाना प्रकारके विकार उत्पन्न होते है। राग-द्वेषरूपी विषवनका मोह बीज है, अत समस्त विषय-कपायोकी सेनाका मोह हो राजा है। यही संसारमें उत्पन्न हुआ दावानल है तथा अत्यन्त दृढ कर्मवन्वनका हेतु है। यह संसारी प्राणी मोह-निद्राके कारण हो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूपी पिशाचोके अधीन होता है । इमी मोहको ज्वालासे अपने ज्ञानादिको भस्म करता है । मोहरूपी राजाके द्वारा पालित राग-द्वेषरूपो शत्रुओंको नष्ट कर मोक्षमार्गका अवलम्बन लेना चाहिए। राग, द्वेप, मोहरूप त्रिपुरको ध्यानरूपी अग्निद्वारा भस्म करना चाहिए।
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन १०५ यम-नियम निवृत्तिपरक होनेपर ही उपयुक्त त्रिपुरका भस्म कर व्यक्तिके ध्यानसिद्धिका कारण हो सकते है । अत. जैनागममें यम-नियमका अर्थ समताभावको प्राप्ति-द्वारा उक्त त्रिपुरको भस्म करना है, क्योकि इसीसे ध्यानकी सिद्धि होती है । आर्तध्यान और रोद्रध्यानका निवारण धर्म-ध्यान और शुक्लध्यानको सिद्धिमें सहायक होता है।
आसन - समाधिके लिए मनकी तरह शरीरको भी साधना मत्यावश्यक है । आसन वैठनेके ढगको कहते हैं। योगोको आसन लगानेका अभ्यास होना चाहिए। श्रोशुभचन्द्राचार्यने ध्यानके योग्य सिद्धक्षेत्र, नदी. सरोवर समुद्रका निर्जन तट, पर्वतका शिखर, कमलवन, अरण्य, श्मशानभूमि, पर्वतकी गुफा उपवन, निर्जन गृह या चैत्यालय, निर्जन प्रदेशको स्थान माना है । इन स्थानोमें जाकर योगी काष्ठके टुकडेपर या शिलातलपर अथवा भूमि या वालुकापर स्थिर होकर आसन लगावे। पर्यकासन, अर्द्धपयंकासन, वज्रासन, सुखासन, कमलासन और कायोत्सर्ग ये ध्यानके योग्य आसन माने गये है । जिस आसनसे ध्यान करते समय साधकका मन खिन्न न हो, वही उपादेय है। बताया गया है -
कायोत्सर्गश्च पर्यत प्रशस्तं कैश्चिदीरितम् । देहिना वीर्यवैकल्यारकालदोपेण सम्प्रति ॥
-ज्ञानार्णव प्र० २८, श्लो० २२ अर्थात् - इस समय कालदोषसे जीवोके सामर्थ्यको हीनता है, इस कारण पद्मासन और कायोत्सर्ग ये ही आमन ध्यान करनेके लिए उत्तम है । तात्पर्य यह है कि जिस आसनसे बैंठकर साधक अपने मनको निश्चल कर सके, वही आसन उसके लिए प्रशस्त है ।
प्राणायाम - श्वास और उच्छ्वासके साधनेको प्राणायाम कहते है। ध्यानकी सिद्धि और मनको एकाग्र करनेके लिए प्राणायाम किया जाता है। प्राणायाम पवनके साधनकी क्रिया है । शरीरस्थ पवन जब वश हो जाता है
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१०६ मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन तो मन भी अधीन हो जाता है । इसके तीन भेद हैं - पूरक, कुम्भक और रेचक । नासिका छिद्रके द्वारा वायुको खीचकर शरीरमे भरना पूरक, उस पूरक पवनको नामिके मध्यमें स्थिर करना कुम्भक और उसे धीरे-धीरे बाहर निकालना रेचक है। यह वायुमण्डल चार प्रकारका बतलाया गया है - पृथ्वीमण्डल, जलमण्डल, वायुमण्डल और अग्निमण्डल । इन चारोंको पहचान बताते हुए कहा है कि क्षितिबीजसे युक्त, गले हुए स्वर्णके समान काचन प्रभावाला, वनके चिह्नसे संयुक्त, चौकोर पृथ्वीमण्डल है। वरुणवीजसे युक्त, अर्धचन्द्राकार, चन्द्रसदृश शुक्लवर्ण और अमृतस्वरूप जलसे सिचित् अप्मण्डल है। पवनबीजाक्षरयुक्त, सुवृत्त, बिन्दुओसहित नीलाजन घनके समान, दुर्लक्ष्य वायुमण्डल है। अग्नि के स्फुलिंग समान पिंगलवर्ण, भीम - रौद्ररूप, उध्वंगमन करनेवाला, त्रिकोणाकार, स्वस्तिकसे युक्त एव वह्नित्रीजयुक्त अग्निमण्डल होता है । इस प्रकार चारो वायुमण्डलोको पहचानके रक्षण बतलाये है, परन्तु इन लक्षणोके माधारसे पहचानना मतीव दुष्कर है। प्राणायामके अत्यन्त अभ्याससे ही किसी साधकविशेषको इनका सवेदन हो सकता है। इन चारो वायुओक प्रवेश और निस्सरणसे जय-पराजय, जीवन-मरण, हानि-लाम आदि अनेक प्रश्नोका
समाकृप्य यदा प्राणधारण स तु पूरकः । नामिमध्ये स्थिरीकृत्य रोधन स तु कुम्भक । यत्कोष्ठादतियत्नेन नासानापुरातनै । वहि. प्रक्षेपण वायो स रेचक इति स्मृतः ।। शनैः शनैर्मनोऽजस्र वितन्द्रः सह चाथुना। प्रवेश्य हृदयाम्मोजकर्णिकाया नियन्त्रयेत् ॥ विकल्पा न प्रसयन्ते विषयाशा निवर्तते । अन्तः स्फुरति विज्ञानं तत्र चित्त स्थिरीकृते ॥
1-छानार्णव प्र० २६, श्लो० १, २, १०, ११
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन १०७ उत्तर दिया जा सकता है। इन पवनोकी साधनासे योगीमें अनेक प्रकारकी अलौकिक और चमत्कारपूर्ण शक्तियोका प्रादुर्भाव हो जाता है। प्राणायामकी क्रियाका उद्देश्य भी मनको स्थिर करना है, प्रमादको दूर भगाना है। जो साधक यत्नपूर्वक मनको वायुके साथ-साथ हृदय कमलकी कणिकामें प्रवेश कराकर वहां स्थिर करता है, उसके चित्तमें विकल्प नहीं उठते और विषयोंकी आशा भी नष्ट हो जाती है तथा अन्तरगमें विशेप ज्ञानका प्रकाश होने लगता है। प्राणायामकी महत्ताका वर्णन करते हुए शुभचन्द्राचार्यने बतलाया है
जन्मशतजनितमुग्र प्राणायामाद्विलीयते पापम् । नाडीयुगलस्यान्ते यतेर्जिताक्षस्य वीरस्य ॥
-ज्ञानार्णव प्र० २९, इलो० १०२ अर्थ-पवनोके साधनरूप प्राणायामसे इन्द्रियोके विजय करनेवाले साधकोके सैकडो जन्मके सचिन किये गये तीन पाप दो घडीके भीतर लय हो जाते हैं।
प्रत्याहार-इन्द्रिय और मनको अपने अपने विषयोंमें खोंचकर अपनी इच्छानुसार किसी कल्याणकारी ध्येयमें लगानेको प्रत्याहार कहते हैं। अभिप्राय यह है कि विपयोसे इन्द्रियोको और इन्द्रियोसे मनको पृथक कर मनको निराकुल करके ललाटपर धारण करना प्रत्याहार-विधि है। प्रत्याहारके सिद्ध हो जानेपर इन्द्रियां वशीभूत हो जाती हैं और मनोहरसे मनोहर विपयकी ओर भी प्रवृत्त नही होती है। इसका अभ्यास प्राणायामके उपरान्त किया जाता है। प्राणायाम द्वारा ज्ञानतन्तुमओके अधीन होनेपर इन्द्रियोका वशमें आना सुगम है । जैसे कछुआ अपने हस्त-पादादि अंगोको
१ सुख-दुःख-जय-पराजय-जीवित मरणानि विघ्न इति केचित् । वायु. प्रपन्चरचनामवेदिनां कथमय मानः ।।
-शा० प्र० २६, श्लो० ७७
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१०८ मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन अपने भीतर सकुचित कर लेता है, वैसे ही स्पर्श, रसना आदि इन्द्रियोंको प्रवृत्तिको आत्मरूपमें लोन करना प्रत्याहारका कार्य है। राग-द्वेप आदि विकासोसे मन दूर हट जाता है । कहा गया है
सम्यक्समाधिसिद्ध्यर्थं प्रत्याहार प्रशस्यते । प्राणायामेन विक्षिप्तं मन स्वास्थ्यं न विन्दति ॥ प्रत्याहृतं पुनः स्वस्थं सर्वोपाधिविवर्जितम् । चेत. समत्वमापनं स्वस्मिन्नेव लयं ब्रजेत् ॥ वायो संचारचातुर्यमणिमाघनसाधनम् ।
प्रायः प्रत्यूहवीजं स्यान्मुनेर्मुक्तिममीप्ससः ॥ अर्थात्-प्राणायाममें पवनके साधनसे विक्षिप्त हुआ मन स्वास्थ्यको प्राप्त नहीं करता, इस कारण समाधि सिद्धि के लिए प्रत्याहार करना आवश्यक है। इसके द्वारा मन राग-द्वेषसे रहित होकर आत्मामें लय हो जाता है। पवनसाधन शरीर-सिद्धिका कारण है, अत: मोक्षकी वाछा करनेवाले साधकके लिए विघ्नकारक हो सकता है। अतएव प्रत्याहार-द्वारा रागद्वेषको दूर करनेका प्रयत्न चाहिए ।
धारणा-जिसका ध्यान किया जाये, उस विषय में निश्चलरूपसे मनको लगा देना, धारणा है। धारणा-द्वारा ध्यानका अभ्यास किया जाता है।
ध्यान भऔर समाधि-योग, ध्यान और समाधि ये प्राय एकार्थवाचक हैं । योग कहनेसे जैनाम्नायमें ध्यान और समाधिका हो वोष होता है। ध्यानकी चरम सीमाको समावि कहा जाता है। ध्यानके सम्बन्धमें ध्यान, ध्याता, ध्येय और फल इन चारो बातोंका विचार किया गया है। ध्यान चार प्रकारका है-आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल। इनमें आर्त और रौद्र ध्यान दुर्यान है एव धर्म और शुक्ल ध्यान शुभ ध्यान है। इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, शारीरिक वैदना आदि व्यथाओको दूर करनेके लिए सकल्प विकल्प करना आर्तध्यान और हिंसा, झूठ, चोरी अब्रह्म और
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन १०९ परिग्रह इन पांचों पापोके सेवनमें आनन्दका अनुभव करना और इस आनन्दको उपलब्धिके लिए नाना तरहको चिन्ताएं करना रौद्रध्यान है ।
धर्मसे सम्बद्ध बातोंका सतत चिन्तन करना धर्मध्यान है । इसके चार भेद हैं - माज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । जिनागमके अनुसार तत्त्वोंका विचार करना आज्ञाविचय, अपने तथा दूसरो. के राग, द्वेष, मोह आदि विकारोको नाश करनेका उपाय चिन्तन करना अपायविचय, अपने तथा परके सुख-दुख देखकर कर्मप्रकृतियोंके स्वरूपका चिन्तन करना विपाकविचय एव लोकके स्वरूपका विचार करना सस्थानविचय धर्मध्यान है। इसके भी चार भेद है - पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ
और रूपातीत । शरीर स्थिन आत्माका चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान है। इसकी पांच धारणाएं बतायो गयो हैं - पार्थिवी, आग्नेयी, वायवी, जलीय और तत्त्वरूपवती।
पार्थिवी - इस धारणामें एक मध्यलोकके बराबर निर्मल जलका समुद्र चिन्नन करे और उसके मध्यमें जम्बू द्वीपके समान एक लाख योजन चौडा स्वर्णरगके क्मलका चिन्तन करे, इसको कणिकाके मध्यमें सुमेरुपर्वतका चिन्तन करे । उस सुमेरुपर्वतके कार पाण्डुक वनमें पाण्डु कशिला तथा उस शिलापर म्फटिकमणिके आसनका एव उस आसनपर पद्मासन लगाये ध्यान करते हुए अपना चिन्तन करे । इतना चिन्तन बार-बार करना पृथ्वो धारणा है।
आग्नेयी धारणा - उसी सिंहासनपर स्थिर होकर यह विचारे कि मेरे नाभि-कमलके स्थानपर मंतर ऊपरको उठा हुमा सोलह पत्तोका एक कमल है उसपर पोतररंगके अ आ इ ई उ ऊ ऋऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं आये सोलह स्वर अंकित हैं तथा बीचमे 'है' लिखा है। दूसरा कमल हृदयस्थानपर नाभिकमलके ऊपर आठ पत्तोका औंधा कमल विचारना चाहिए । इसे ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंका क्मल कहा गया है । पश्चात् नाभिकमलके वोचमें 'ह' लिखा है, उसको रेफसे धुना निकलता
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११० मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन हुआ सोचे, पुन. अग्निकी शिखा उठती हुई सोचना चाहिए। आगको ज्वाला उठकर आठो कर्मोके कमलको जलाने लगी। कमलके वीचसे फूटकर अग्निकी लौ मस्तकपर आ गयी। इसका आधा भाग शरीरके एक तरफ और शेष आधा भाग शरीरके दूसरी तरफ मिलकर दोनो कोने मिल गये । अग्निमय त्रिकोण सब प्रकारसे शरीरको वेष्टित किये हुए है। इस त्रिकोणमें र र र र र र र र अक्षरोको अग्निमय फैले हुए विचारे अर्थात् इस त्रिकोणके तीनो कोण अग्निमय र र र अक्षरोके बने हुए हैं। इसके बाहरी तीनो कोणोपर अग्निमय साथिया तथा भीतरी तीनो कोणोपर अग्निमय ॐ हं लिखा हुमा सोचे । पश्चात् सोचे कि भीतरी अग्निकी ज्वाला कर्मोको और बाहरी अग्निकी ज्वाला शरीरको जला रही है। जलते-जलते कर्म और शरीर दोनों ही जलकर राख हो गये हैं तथा अग्निकी ज्वाला शान्त हो गयी है अथवा पहलेको रेफमें समा गयी है, जहाँसे वह उठी थी, इतना अभ्यास करना अग्नि-धारणा है ।
वायु-धारणा - पुन साधक चिन्तन करे कि मेरे चारो ओर प्रचण्ड वायु चल रही है । वह वायु गोल मण्डलाकार होकर मुझे चारो ओरसे घेरे हुए है । इस मण्डलमें आठ जगह 'स्वार्य-स्वाय' लिखा है । यह वायुमण्डल कर्म तथा शरीरको रजको उडा रहा है, आत्मा स्वच्छ तथा निर्मल होता जा रहा है । इस प्रकार ध्यान करना वायु-धारणा है।
जल-धारणा - पश्चात् चिन्तन करे कि आकाश मेवाच्छन्न हो गया है, बादल गरजने लगे है, बिजली चमकने लगी है और खूब जोरकी वर्षा होने लगी है । ऊपर पानीका एक अर्धचन्द्राकार मण्डल बन गया है, जिसपर प प प प प प प कर्मस्थानोपर लिखा है । गिरनेवाले पानीकी सहन धाराएँ आत्माके ऊपर लगी हुई कर्मरगको घोकर आत्माको साफ कर रही है । इस प्रकार चिन्तन करना जल धारणा है ।
वत्वरूपवती धारणा - वही साधक आगे चिन्तन करे कि अब में। सिद्ध, बुद्ध, सवज्ञ, निर्मल, निरजन, कर्म तथा शरीरसे रहित चैतन्य आत्मा
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मंगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
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हूँ । पुरुषाकार चैतन्य धातुको बनी हुई मूर्तिके समान हूँ । पूर्ण चन्द्रमा के समान ज्योतिरूप देदीप्यमान हूँ । इस प्रकार इन पांचो धारणाओके द्वारा पिण्डस्थ ध्यान किया जाता है ।
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स्थान
पदस्थ ध्यान मन्त्र - पदोके द्वारा अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु तथा आत्माके स्वरूपका विचारना पदस्थ ध्यान है । किसी नियत नासिकाग्र या भृकुटिके मध्यमें णमोकार मन्त्रको विराजमान कर उसको देखते हुए चित्तको जमाना तथा उस मन्त्र के स्वरूप का चिन्तन करना चाहिए | इस ध्यानका सरल और साध्य उपाय यह है कि हृदयमें माठ पत्तो कमलका चिन्तन करे। इस आठो पत्तो - दलोंमें से पांच पत्तोपर क्रमश ' ' णमो अरिहंताण, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं । इन पांच पदोको तथा शेष तीन पत्तोपर क्रमश 'सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः, सम्यक् चारित्राय नम. ' इन त ेन पदोको और कणिकापर 'सम्यक् तपसे नम ' इस पदको लिखा हुआ सोचे । इस प्रकार प्रत्येक पत्तेपर लिखे हुए मन्त्रोका ध्यान जितने समय तक कर सके, करे ।
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रूपस्थ - अरिहन्त भगवान् के स्वरूपका विचार करे कि भगवान् समवशरण में द्वादश सभाओके मध्य में ध्यानस्य विराजमान हैं । अथवा ध्यानस्थ प्रभु मुद्राका ध्यान करे ।
रूपातीत - मिद्धोके गुणोका विचार करे कि सिद्ध अमूर्तिक, चैतन्य, पुरुषाकार, कृतकृत्य, परमशान्त, निष्कलक, अष्टकर्मरहित, सम्यक्त्वा दि आठ गुणमहित, निलिप्न, निर्विकार एव लोकाग्रमे विराजमान हैं । पश्चात् अपने-आपको सिद्ध स्वरूप समझकर लीन हो जाना रूपातीत ध्यान हूँ | शुक्रुध्यान जो ध्यान उज्ज्वल सफेद रंग के समान अत्यन्त निर्मल
और निर्विकार होता है उसे शुक्लध्यान कहते हैं। पृथक्त्ववितर्क वोचार, एकत्ववितर्क अवचार, सूक्ष्म व्युपरत क्रियानिवृत्ति |
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इसके चार भेद हैं क्रियाप्रतिपाति और
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मंगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
ध्याता - ध्यान करनेवाला ध्याता होता है। आत्मविकासको दृष्टिसे ध्याता १४ गुणस्थानोमें रहनेवाले जीव है, अतः इसके १४ भेद हैं । पहले गुणस्थानमें आर्तध्यान या रौद्रध्यान ही होता है। चौथे गुणस्थानमें धर्मध्यान होता है।
ध्येय - ध्यानके स्वरूपका कथन करते समय ध्येयके स्वरूपका प्रायः विवेचन किया जा चुका है । ध्येयके चार भेद है - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । णमोकार मन्त्र नामध्येय है। तीर्थंकरोकी मूर्तियां स्थापनाध्येय है । मरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पंचपरमेष्ठी द्रव्यध्येय है और इनके गुण भावध्येय हैं। यो तो सभा शुद्धात्माएं ध्येय हो सकती है । जिस साध्यको प्राप्त करना है, वह साध्य ध्येय होता है ।। ___योगशास्त्रके इस सक्षिप्त विवेचन के प्रकाशमें हम पाते हैं कि णमोकारका योगके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । योगको क्रियाओका इसो मन्त्रराजकी साधना करनेके लिए विधान किया गया है । जैनाम्नायमें प्रधान स्थान ध्यानको दिया गया है । योगके आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार-क्रियाएं शरीरको,स्थिर करती हैं। साधक इन क्रियाओके अभ्यासद्वारा णमोकार मन्त्रका साधनाके योग्य अपने शरीरको बनाता है। धारणा-द्वारा मनकी क्रियाको अधीन करता है । तात्पर्य यह है कि योगों - मन, वचन, कायको स्थिर करनेके लिए योगाभ्यास करना पड़ता है। इन तीनो योगोको क्रिया तभी स्थिर होती है, जब साधक मारम्मिक साधनाके द्वारा अपने को इस योग्य बना लेता है । इस विषयके स्पष्टीकरणके लिए गणितका गति-नियामक सिद्धान्त अधिक उपयोगी होगा । गणितशास्त्रमें आया है कि किसी भी गतिमान् पदार्थको स्थिर करनेके लिए उसे तीन लम्बसूत्रों-द्वारा स्थिर करना पडता है । इन तीन सूत्रोंसे आबद्ध करनेपर उसकी गति स्थिर हो जाती है । उदाहरणके लिए यों कहा जा सकता है कि वायुके द्वारा नाचते हुए बिजलीके वल्बको यदि स्थिर करना हो तो उसे तीन सम सूत्रोफे द्वारा आवद्ध कर देना होगा। क्योकि वायु या अन्य किसी भी प्रकारके वक्केको
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रोकने के लिए चौथे सूत्र से आबद्ध करनेकी आवश्यकता नही होगी । इसी प्रकार णमोकार मन्त्रकी स्थिर साधना करनेके लिए साधकको अपनी त्रिसूत्र रूप मन, वचन और कायकी क्रियाको अवरुद्ध करना पडेगा । इसी - के लिए आसन, प्राणायाम और प्रत्याहारको आवश्यकता है । मनके स्थिर करनेसे हो ध्यानकी क्रिया निर्विघ्नतया चल सकती है ।
ध्यान करनेका विषय - ध्येय णमोकार मन्त्रसे बढ़कर और कोई पदार्थ नहीं हो सकता है । पूर्वोक्त नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चारों प्रकारके ध्येयो द्वारा णमोकार मन्त्रका ही विधान किया गया है । साधक इस मन्त्रकी आराधना द्वारा अनात्मिक भावोको दूर कर आत्मिक भावोका विकास करता जाता है और गुणस्थानारोहण कर निर्विकल्प समाधिके पहले तक इस मन्त्रका या इस मन्त्रमें वर्णित पचपरमेष्ठीका अथवा उनके गुणोका ध्यान करता हुआ आगे बढता रहता है । ज्ञानार्णवमे बताया गया हैगुरुपञ्चनमस्कारलक्षणं मन्त्रमूर्जितम् । विचिन्तयेज्जगज्जन्तुपवित्रीकरणक्षमम् ॥
अनेनैव विशुद्धयन्ति जन्तव. पापपङ्किताः । अनेनैव विमुच्यन्ते भवदलेशान्मनीषिण ||
- ज्ञानार्णव प्र० १८, श्लो० ३८, ४३ अर्थात् - णमोकार जो कि पंचपरमेष्ठो नमस्कार रूप है, जगत्के जीवको पवित्र करने में समर्थ है । इसी मन्त्रके ध्यानसे प्राणी पापसे छूटते हैं तथा बुद्धिमान् व्यक्ति समार के कष्टोसे भी । इसी मन्त्रकी आराधना द्वारा सुख प्राप्त करते है । यह ध्यानका प्रधान विषय है । हृदय-कमलमें इसका जप करने से चित्त शुद्ध होता है ।
जाप तीन प्रकारसे किया जाता है - वाचक, उपाशु और मानस । वाचक जापमें शब्दोका उच्चारण किया जाता है अर्थात् मन्त्रको मुंहसे बोलबोलकर जाप किया जाता है। उपाशुपें भीतरसे शब्दोच्चारणकी क्रिया होती है, पर कण्ठ स्थानपर मन्त्र के शब्द गूंजते रहते हैं किन्तु मुखसे नहीं निकल
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
पाते। इस विधिमें शब्दोच्चारणको क्रियाके लिए बाहरी और भीतरी प्रयास किया जाता है, परन्तु शब्द भीतर-ही-भीतर गूंजते रहते हैं, बाहर प्रकट नहीं हो पाते। मानस जापमें बाहरी और भीतरी शब्दोच्चारणका प्रयास रुक जाता है, हृदयमें णमोकार मन्त्रका चिन्तन होता रहता है । यही क्रिया ध्यानका रूप धारण करती है। यशस्तिलकचम्मूमें इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है -
वचसा वा मनसा वा कार्यों जाप्य सव्याहितस्वान्ते । शतगुणमाघे पुण्ये सहस्रसंख्यं द्वितीये तु ॥
-~-य० मा० २, पृ. ३८ वाचक जापसे उपांशुमें शतगुणा पुण्य और उपाश जापकी अपेक्षा मानसजापमें सहस्रगुणा पुण्य होता है। मानस जाप ही ध्यानका रूप है, यह अन्तजल्परहित मौनरूप होना है। वृहद्रव्यसंग्रहमें बताया गया है - "एतेषां पदानां सर्वमन्त्रवादपदेषु मध्ये सारभूतानां इहलोकपरलोकेष्टफलप्रदानामथं ज्ञात्वा' पश्चादनन्तज्ञानादिगुणस्मरण रूपेण वचनोधारणेन च जापं कुरुत । तथैव शुमोपयोगरूपत्रिगुणावस्थायां मौनेन ध्यायत ।" अर्थात् - सब मन्त्रशास्त्रके पदोमें सारभूत और इस लोक तथा परलोकमें इष्ट फलको देनेवाले परमेष्ठी वाचक पच पदोंका अर्थ जानकर, पुन अनन्तज्ञानादि गुणोके स्मरणरूप वचनका उच्चारण करके जप करना चाहिए और इसी प्रकार शुभोपयोगरूप इस मन्त्रका मन, वचन और काय गुप्तिको रोककर मौन द्वारा ध्यान करना चाहिए । सर्वभूतहितरत, अचिन्त्यचरित्र ज्ञानामृतपय पूर्ण तीनो लोकोंको पवित्र करनेवाले, दिव्य, निर्विकार, निरजन विशुद्ध ज्ञानलोचनके धारक, नववललब्धियोंके स्वामी, अष्टमहाप्रातिहार्योंसे विभूषित स्वयम्बद्ध अरिहन्त परमेष्ठीका ध्यान भी किया जाता है, अथवा सामूहिक रूपमे पचपरमेष्ठीका मौन चिन्तन भी ध्यानका रूप ग्रहण कर लेता है।
पदस्थ और रूपस्थ दोनो प्रकारके ध्यानोमें इस महामन्त्रके स्मरण
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन ११५ द्वारा हो आत्माकी सिद्धि की जाती है, क्योकि महामन्त्र और शुद्धात्मामें कोई अन्तर नही है। शुद्धात्माका वर्णन ही महामन्त्र में है और उसीके ध्यानसे निर्विकल्प समाधिकी प्राप्ति होती है । अत ध्यानका दृढ अभ्यास हो जानेपर साधकको यह अनुभव करना आवश्यक है कि मैं परमात्मा हूँ, सर्वज्ञ हूँ, मैं ही साध्य हूँ, मैं ही सिद्ध हूँ, सर्वज्ञाता और सर्वदर्शी भी मैं ही हूँ। मैं सत्, चित्, आनन्दरूप हूँ, अज हूँ, निरजन हूँ। इस प्रकार चिन्तन करता हुआ साधक जब समस्त संकल्प-विकल्पोसे विमुक्त हो अपने-आपमें विलीन हो जाता है, तब उसे निर्विकल ध्यान या परम समाधिकी प्राप्ति होती है।
हेमचन्द्राचार्यने अपने योगशास्त्रमें योगागोके साथ णमोकार मन्त्रका सम्बन्ध दिखलाते हुए बतलाया है कि योगाभ्यास द्वारा शरीर और मनकी क्रियाओंका नियन्त्रण कर आत्माको ध्यानके मार्गमें ले जाना चाहिए। साधक सविकल्प समाधिको अवस्थामें इस अनादिसिद्ध मन्त्रके ध्यानसे अन्त आत्माको पवित्र करता है। पचपरमेष्ठोके तुल्य शुद्ध होकर निर्वाण मार्गका माश्रय लेता है । बताया गया है
ध्यायतोऽनादिससिद्धान् वर्णानेतान् यथाविधिः । नष्टादिविषये ज्ञानं ध्यातुरुत्पद्यते क्षणात् ॥ तथा पुण्यतमं मन्त्रं जगस्त्रितयपावनम् । योगी पञ्चपरमेष्ठीनमस्कार विचिन्तयेत् ॥ विशुद्धया चिन्तयंस्तस्य शतमष्टोत्तरं मुनिः । भुजानोऽपि लभेतैव चतुर्थवपसः फलम् ॥ एनमेव महामन्त्रं समाराध्येह योगिन. ।
त्रिलोक्यापि महीयन्तेऽधिगता परमां श्रियम् ।। अर्थात्-अनादि सिद्ध णमोकार मन्त्रके वर्णों का ध्यान करनेसे साधकको नादि विपयका ज्ञान क्षण-भरमें हो जाता है । यह मन्त्र तीनो लोकोके जोवोको पवित्र करता है। इसके ध्यानसे-अन्तर्जल्परहित चिन्तनसे
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११६ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन आत्मामें अपूर्व शक्ति माती है। नित्य मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक इस मन्त्रका १०८ बार ध्यान करनेसे भोजन करनेपर भी चतुर्थोपवास-प्रोषधोपवासका फल प्राप्त होता है। योगो व्यक्ति इस मन्त्रकी आराधनासे अनेक प्रकारको सिद्धियोको प्राप्त होता है तथा तीनो लोकोमें पूज्य हो जाता है। __णमोकार मन्त्रको सभी मात्राएँ अत्यन्त पवित्र हैं, इन मात्राओमें से किसी मात्राका तथा णमोकार मन्त्र के ३५ अक्षरों और पांच पदोमें-से किसी अक्षर और पदका अथवा इन - अक्षरो, पदो और मात्रामओके सयोगसे उत्पन्न अक्षर, पदो और मात्राओका जो ध्यान करता है, वह सिद्धिको प्राप्त होता है। ध्यानके अवलम्बन णमोकार मन्त्र के अक्षर, पद और ध्वनियां ही हैं। जबतक साधक सविकल्प समाधिमें रहता है, तबतक उसके ध्यानका अवलम्बन णमोकार ही होता है। हेमचन्द्राचार्यने पदस्थ ध्यानका वर्णन करते हुए बताया है
यस्पदानि पवित्राणि समालम्ब्य विधीयते ।
तत्पदस्थं समाख्यातं ध्यानं सिद्धान्तपारंगै. ॥ अर्थात् पवित्र णमोकार मन्त्रके पदोंका आलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है, उसको पदस्थ ध्यान सिद्धान्तशास्त्रके ज्ञाताओंने कहा है । रूपस्थ ध्यानमें मरिहन्तके स्वरूपका अथा णमोकार मन्त्रके स्वरूपका चिन्तन करना चाहिए। रूपस्थ ध्यानमें आकृतिविशेषका ध्यान करनेका विधान है। यह आकृतिविशेष पंचपरमेष्ठाको होती है तथा विशेष रूपसे इसमें अरिहन्त भगवान्की मुद्राका ही मालम्बन किया जाता है। ___ रूपातीतमें ज्ञानावरणादि आठ कर्म और औदारिकादि पांच शरीरोंसे रहित, लोक और अलोकके ज्ञाता, द्रष्टा, पुरुपाकारके धारक, लोकाग्रपर विराजमान सिद्ध परमेष्ठो ध्यानके विषय हैं तथा णमोकार मन्त्रको रूपाकृतिरहित, उसका भाव या पंचपरमेष्ठोके अमूर्तिक गुण ध्यानका मालम्बन होते हैं। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती और शुभचन्द्रने रूपातीत
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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन ११७ ध्यानमें अमूर्तिक अवलम्बन माना है तथा यह अमूर्तिक अवलम्बन णमोकार मन्त्र के पदोक्त गुणोका होता है। हरिभद्रसूरिने अपने योगविन्दु ग्रन्यमें "अक्षरद्वयमेतत् श्रयमाणं विधानत" इस श्लोककी स्वोपज्ञटोकामें योगशास्त्रका सार णमोकार मन्त्रको बताया है। इस महामन्त्रकी माराधनासे समता भावकी प्राप्ति होती है तथा आत्मसिद्धि भी इसी मन्त्रके ध्यानसे आती है। अधिक क्या, इस मन्त्र के अक्षर स्वयं योग है। इसको प्रत्येक मात्रा, प्रत्येक पद, प्रत्येक वर्ण अमितशक्तिसम्पन्न है। वह लिखते है"अक्षरद्वयमपि किं पुनः पञ्चनमस्कारादीन्यनेकान्यक्षराणीत्यपि शब्दार्थ. । एतत् 'योग.' इति शब्दलक्षणं श्रूयमाणमाकय॑मानम् । तथाविधार्थानवबोधेऽपि 'विधानतो' विधानेन श्रद्धासंवेगादिशुद्धभावोल्लासकरकुदमलयोजनादिलक्षणेन, गीतयुक्त पापक्षयाय मिथ्यात्वमोहाचकुशलकर्मनिर्मूलनायोच्चैरित्यर्थम्" । अर्थात् ध्यान करनेके लिए ध्येय णमोकार मन्त्र के अक्षर, पद एव ध्वनियां हैं । इन्हीको योग भी कहा जाता है, यदि इन शब्दोको सुनकर भी अर्थका बोव न हो तो भी श्रद्धा, संवेग
और शुद्ध भावोल्लासपूर्वक हाथ जोडकर इस मन्त्रका जाप करनेसे मिथ्यात्व मोह आदि अशुभ कर्मों का नाश होता है। इससे स्पष्ट है कि हरिभद्रसूरिने पंचपरमेष्ठी वाचक णमोकार मन्त्रके अक्षरोको 'योग' कहा है । अतएव णमोकारमन्त्र स्वय योगशास्त्र है, योगशास्त्रके सभी ग्रन्योका प्रणयन इस महामन्त्रको हृदयंगम करने तथा इसके ध्यान द्वारा आत्माको पवित्र करने के लिए हुआ है। 'योग' शब्दका अर्थ जो सयोग किया जाता है, उस दृष्टिसे णमोकार मन्त्रके अक्षरोका सयोग-शुद्धात्माका चिन्तन कर अर्थात् शुद्धात्मामोसे अपना सम्बन्ध जोडकर अपनी आत्माको शुद्ध वनाना है। 'धर्मव्यापार' को जब योग कहा जाता है, उस समय णमोकार मन्त्रोक्त शुद्धात्माके व्यापार-प्रयोग ध्यान, चिन्तन-द्वारा अपनो आत्माको शुद्ध करना अभिप्रेत है। अतएव णमोकार मन्त्र और योगका प्रतिपाद्य-प्रतिपादकभाव सम्बन्व है; क्योंकि आचार्योंने अभेद विवक्षासे णमोकारमन्त्रको योग कहा
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११८ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन है, इस दृष्टिसे योगका तादात्म्यभाव सम्बन्ध भी सिद्ध होता है । तथा भेदविवक्षासे णमोकार मन्त्रकी साधना के लिए योगका विधान किया है । अर्थात् योग-क्रियाद्वारा णमोकार मन्त्रको साधना की जाती है, अतः इस अपेक्षासे योगको साधन और णमोकार मन्त्रको साध्य कहा जा सकता है । यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्यय इन पचागो-द्वारा णमोकार मन्त्रको साधने योग्य शरीर और मनको एकान किया जाता है। ध्यान और धारणा क्रिया-द्वारा मन, वचन और कायकी चंचलता बिलकुल रुक जाती है तथा साधक णमोकार मन्त्र रूप होकर सविकल्प समाधिको पार करनेके उपरान्त निर्विकल्प समाधिको प्राप्त होता है। जिस प्रकार रातमें समस्त बाहरी कोलाहलके रुक जाने पर रेडियोकी आवाज साफ सुनाई पड़ती है तथा दिनमें शव्द-लहरोपर बाहरी वातावरणका घात-प्रतिघात होता रहता है, अत. आवाज साफ सुनाई नहीं पड़ती है। पर रातमें शब्द लहरोपर-से आघात छूट जानेपर स्पष्ट आवाज़ सुनाई पड़ने लगती है । इसी प्रकार जबतक हमारे मन, वचन और काय स्थिर नहीं होते हैं, तबतक णमोकार मन्त्रकी साधनामें आत्माको स्थिरता प्राप्त नहीं होती है, किन्तु उक्त तीनो - मन, वचन और कायके स्थिर होते ही साधनामें निश्चलता आ जाती है । इसी कारण कहा गया है कि साधकको ध्यान-सिद्धिके लिए चित्तकी स्थिरता रखनी परम आवश्यक है। मनको चचलतामें ध्यान बनता नहीं । अतः मनोनुकूल स्त्री, वस्त्र, भोजनादि इष्ट पदार्थोंमें मोह न करो, राग न करो और मनके प्रतिकूल पडनेवाले सर्प, विष, कण्टक, शत्रु, व्याधि आदि अनिष्ट पदार्योंमें उप मत करो, क्योंकि इन इष्ट-अनिष्ट पदार्थोंम राग द्वेप करनेसे मन चचल होता है और मनके चचल रहनेसे निर्विकल्प समाधिरूप ध्यानका होना सम्भव नही। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने इसी वातको स्पष्ट किया है
मा मुज्झइ मा रजाइ मा दूसइ इट्टणिद्वेसु । थिरमिच्छइ जइ चित्तं विचित्तज्झाणप्पसिद्धीए॥
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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन
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णमोकार मन्त्रका बार-बार स्मरण, चिन्तन करनेसे मस्तिष्कमें स्मृतिनिह्न ( Memory Trace) बन जाते हैं, जिससे इस मन्त्रको धारणा ( Retaining ) हो जानेसे व्यक्ति अपने मनको आत्मचिन्तनमें लगा सकता है । अभिरुचि, अर्थ, अभ्यास, अभिप्राय, जिज्ञासा और मनोवृत्तिके कारण ध्यानमें मजबूती आती है जब ध्येयके प्रति अभिरुचि उत्पन्न हो जाती है तथा ध्येयका अर्थ अवगत हो जाता है और उस अर्थको बार-बार हृदयगम करने की जिज्ञासा और मनोवृत्ति बन जाती है, तव ध्यानकी क्रिया पूर्णताको प्राप्त हो जाती है । अतएव योग-मार्गके द्वारा णमोकार मन्त्र की साधनायें सहायता प्राप्त होती है। इस मार्गकी अनभिज्ञतामें व्यक्तिको ध्येय वस्तुके प्रति अभिरुचि, अर्थ, अभ्यास आदिका आविर्भाव नहीं हो पाता है । अत णमोकार मन्त्रकी साधना योग द्वारा करना चाहिए |
आगम साहित्यको श्रुतज्ञान कहा जाता है । णमोकार मन्त्रमें समस्त श्रुतज्ञान है तथा यह समस्त आगमका सार है । दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकवासी इन तीनो ही सम्प्रदायके आगममे णमोकार महामन्त्रके सम्बन्धमें बहुत कुछ पाया जाता है | आचाराग, सूत्रकृताग, स्थानाग मादि नाम द्वादशागके तीनो ही सम्प्रदायमें एक है । दिगम्बर सम्प्रदाय में १४ अग बाह्य तथा ४ अनुयोग प्रमाणभूत, श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ३४ अग बाह्य - १२ उपाग, १० प्रकीर्णक, ६ छेदसूत्र, ४ मूलसूत्र और दो चूलिका सूत्र प्रमाणभूत एवं स्थानकवासी सम्प्रदाय मे २१ अग बाह्य, १२ उपाग ४ छेदसूत्र, ४, मूलसूत्र मोर १ आवश्यक प्रमाणभूत माने गये हैं । इन सभी आगम ग्रन्थोंमें णमोकारका व्याख्यान, उत्पत्ति, निक्षेप, पद, पदार्थ, प्ररूपणा, वस्तु, आक्षेप, प्रसिद्धि, क्रम, प्रयोजन और फल इन दृष्टिकोणोंसे किया गया है ।
भागम- साहित्य और णमोकार मन्त्र
उत्पत्ति-द्वार नयोका अवलम्बन लेकर णमोकार मन्त्रकी उत्पत्ति मोर अनुत्पत्ति - नित्यानित्यत्वका विस्तारसे विचार किया गया है । क्योकि
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
वस्तुके स्वरूपका वास्तविक विवेचन नय और प्रमाणके बिना हो नहीं सकता । नयके जैनागममें सात भेद हैं - नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवभूत । सामान्यसे नयके द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक ये दो भेद किये जाते हैं। द्रव्यको प्रधान रूपसे विषय करनेवाला नय द्रध्याथिक और पर्यायको प्रधानतः विषय करनेवाला पर्यायाथिक कहा जाता है । पूर्वोक्त सातो नयोमें-से नेगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन भेद द्रव्याथिकके और ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत पर्यायार्थिक नयके भेद हैं। सातों नयोकी अपेक्षासे इस महामन्त्रको उत्पत्ति और अनुत्पत्तिके सम्बन्ध में विचार करते हुए कहा जाता है कि द्रव्यायिक नयको अपेक्षा यह मन्त्र नित्य है । शब्दरूप पुद्गलवर्गणाएं नित्य है, उनका कभी विनाश नहीं होता है । कहा भी है -
उप्पणाणुप्पणो इत्थ नया णोगमस्सणुप्पण्णो ।
सेसाणं उप्पण्णो जइ कत्तो विविह सामिसा ।। अर्थात् - नैगमनकी अपेक्षा यह णमोकार मन्त्र अनुत्पन्न - नित्य है। सामान्य मात्र विषयको ग्रहण करनेके कारण इस नयका विषय नोव्यमान है । उत्पाद और व्ययको यह नहीं ग्रहण करता, मतएव इस नयको अपेक्षा. से यह मन्त्र नित्य है । विशेष पर्यायको ग्रहण करनेवाले नयोको अपेक्षासे यह मन्त्र उत्पाद-व्ययसे युक्त है। क्योकि इस महामन्त्रकी उत्पत्ति के हेतु समुत्यान, वचन और लब्धि ये तीन है । णमोकारमन्त्रका धारण सशरीरी प्राणी करता है और शरीरको प्राप्ति अनादिकालसे बीजाकुर न्यायसे होती मा रही है तथा प्रत्येक जन्ममें भिन्न-भिन्न शरीर होते हैं, अतः वर्तमान जन्मके शरीरको अपेक्षा णमोकारमन्त्र सादि और सोत्पत्तिक है । इस मन्त्रकी प्राप्ति गुरुवचनोसे होती है, अत उत्पत्तिवाला होनेसे सादि है। इस महामन्त्रको प्राप्ति योग्य ध्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होने पर ही होती है, इस अपेक्षासे यह मन्त्र उत्पाद व्ययवाला प्रमाणित होता है।
उपर्युक्त विवेचनसे सिद्ध होता है कि नगम, सग्रह और व्यवहार नयको
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
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अपेक्षा यह मन्त्र नित्य, अनित्य दोनो प्रकारका है । ऋजुसूत्र नयको अपेक्षा इस महामन्त्रको उत्पत्तिमें वचन उपदेश और लब्धि ज्ञानावरणीय भर मोर्यान्तरायकर्मका क्षयोपशम विशेष कारण है तथा शब्दादि नयकी अपेक्षा केवललव्धि हो कारण है । इन पर्यायार्थिक नयोको अपेक्षासे यह णमोकार - मन्त्र उत्पादव्ययात्मक है । कहा भी गया है -
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"आद्यनैगम सत्तामात्रग्राडी, ततस्तस्याद्यनैगमस्य मतेन सर्ववस्तु नाभूतं नाविद्यमानं किंतु सर्वदैव सर्व सदेव । अतः भयं नैगमस्य, स नमस्कारो नित्य एव वस्तुत्वात् नभोवत् ।"
शब्द मोर अर्थकी अपेक्षासे भी यह णमोकारमन्त्र नित्यानित्यात्मक है । शब्द नित्य और अनित्य दोनो प्रकार के होते हैं । अतः सर्वथा शब्दोको नित्य माना जाये तो सभी स्थानोपर शब्दोंके श्रवणका प्रसंग मावेगा और अनित्य माना जाये तो नित्य सुमेरु, चन्द्र, सूर्य आदिका संकेत शब्दसे नहीं हो सकेगा । अत पौद्गलिक शब्द वर्गणाएँ नित्य हैं यया व्यवहार में आनेवाले शब्द अनित्य हैं | शब्दोंके नित्यानित्यात्मक होनेसे णमोकार मन्त्र भी नित्यानित्यात्मक है | अर्थको दृष्टिसे यह नित्य है, क्योंकि इसका अर्थ वस्तुरूप है और वस्तु अनादिकालसे अपने स्वरूपमें अवस्थित चली आ रही है और अनन्तकाल तक अवस्थित चली जायेगी | सामान्य विशेषात्मक वस्तुका ग्रहण और विवेचन नेय तथा प्रमाणके द्वारा ही हो सकता है । प्रमाण
१ अनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगमः ।
स्वजात्यविरोधेनैकध्यमुपनीय
पर्यायानामान्त मेदानविशेषेण समस्तग्रहणात्सग्रहः । संग्रहनया क्षिप्तानामर्थान विधिपूर्वकमवहरण व्यवहारः । ऋजुं प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयति इति ऋजुसूत्रः । लिङ्ग राख्या साधना द्विव्यभिचारनिवृत्तिपरः शब्दनयः । नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढः । येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसाययतीत्येवभूत. । शानेन भून. परिणतस्तेनैवाध्यवसाययति ।
अथवा येनात्मना येन
- सर्वार्थसिद्धि, पृ० ८४-८७
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
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नयात्मक वस्तु उत्पादव्यय- ध्रौव्यात्मक हुआ करती है और उत्पाद-व्यय श्रीव्यात्मक ही वस्तु नित्यानित्य कही जाती है ।
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निक्षेप - अर्थ-विस्तारको निक्षेप कहते हैं । निक्षेप - विस्तार में णमोकार मन्त्र के अर्थका विस्तार किया जाता है। निक्षेपके चार भेद हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । णमोकार मन्त्रका भी नाम नमस्कार, स्थापना नमस्कार, द्रव्य नमस्कार और भाव नमस्कार इन चार अर्थोंमें प्रयोग होता है | 'नमः' कहकर अक्षरोका उच्चारण करना नाम नमस्कार और मूर्ति, चित्र आदिमें पंचपरमेष्ठोको स्थापना कर नमस्कार करना स्थापना नमस्कार है । द्रव्य नमस्कारके दो भेद है आगम द्रव्य नमस्कार और नोआगम द्रव्य नमस्कार | उपयोगरहित 'नमः' इस शब्दका प्रयोग करना आगम नमस्कार और उपयोगसहित नमस्कार करना नोभागम नमस्कार होता है । इसके तीन भेद हैं - ज्ञायक, भाव्य और तद्व्यतिरिक्त | भाव नमस्कार के भी दो भेद हैं - आगमभाव नमस्कार और नोआगमभाव नमस्कार । णमोकार मन्त्रका अर्थज्ञाता, उपयोगवान् आत्मा आगमभाव नमस्कार और उपयोगसहित ' णमो अरिहंताणं' इन वचनोंका उच्चारण तथा हाथ, पाँव, मस्तक आदिको नमस्कार-सम्बन्धी क्रियाको करना नोमागमभाव नमस्कार है । इस प्रकार निक्षेप द्वारा णमोकार मन्त्र के अर्थका आशय हृदयगम किया जाता है ।
५
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पद-द्वार - "पद्यते गम्यतेऽर्थोऽनेनेति पदम् " अर्थात् जिसके द्वारा अर्थबोध हो, उसे पद कहते हैं । इसके पांच भेद हैं - नामिक, नैपातिक, ओपaगिक, आख्यातिक और मिश्र । सज्ञावाचक प्रत्ययोंसे सिद्ध होनेवाले शब्द नामिक कहे जाते हैं, जैसे अश्व, घट आदि । अव्ययवाची शब्द नैपातिक कहे जाते हैं, जैसे खलु ननु च आदि । उपसर्गवाचक प्रत्ययों को शब्दोंके पहले जोड़ देनेसे जो नवीन शब्द बनते हैं, वे औपसगिक कहे जाते
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१. विशेषके लिए देखें, धवला टीका, प्रथम पुस्तक, पू० ८-६० ।
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मंगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन १२३ है । जैसे परिगच्छति, परिधावति । क्रियावाचक धातुओसे निष्पन्न होनेवाले शब्द आख्यातिक कहलाते हैं, जैसे धावति, गच्छति आदि । कृदन्त - कृत् प्रत्यय और तद्धित प्रत्ययोसे निष्पन्न शब्द मिश्र कहे जाते हैं, जैसे नायक , पावक , जैन , सयतः आदि । पद-द्वारका प्रयोजन णमोकार मन्त्रमें प्रयुक्त शब्दोका वर्गीकरण कर उनके अर्थका अवधारण करना है-शब्दोकी निष्पत्तिको ध्यानमें रखकर नपातिक प्रभृति शब्दोका अर्थ एव उनका रहस्य अवगत करना ही इस द्वारका उद्देश्य है। कहा गया है - "निपतत्यहंदादिपदानामादिपर्यन्तयोरिति निपातः, निपातादागतं तेन वा निवृत्तं स एव वा स्वायिकप्रत्ययविधान्नैपातिकम् - नम इति पदम्" । तात्पर्य यह है कि णमोकार मन्त्रके पदोकी प्रकृति और प्रत्ययकी दृष्टिसे व्याख्या करना पदद्वार है । इस द्वारकी उपयोगिता शब्दोकी शक्तिको अवगत करने में है। शब्दोमें नैसर्गिक शक्ति पायी जाती है और इस शक्तिका बोध इसी द्वारके द्वारा सम्भव है। जबतक शब्दोंका व्याकरणके प्रकृति-प्रत्ययकी दृष्टिसे वर्गीकरण नहीं किया जाता है, तबतक यथार्थ रूपमें शन्द-शक्तिका बोध नहीं हो सकता। णमोकार मन्त्रके समस्त पद कितने शक्तिशाली हैं तथा पृथक्-पृथक् पदोमें कितनी शक्ति है और इन पदोकी शक्ति का उपयोग आत्म कल्याणके लिए किस प्रकार किया जा सकता है ? आत्माको कर्मावरणके कारण अवरुद्ध शक्ति किस प्रकार इस महामन्त्रकी शक्तिके द्वारा प्रस्फुटित हो सकती है ? मादि बातोका विचार इस पद-द्वारमें होता है। यह केवल शब्दोकी रचना या उस रचना-द्वारा सम्पन्न व्युत्पत्तिका ही प्रदर्शन नहीं करता, बल्कि इस मन्त्रकी पद, अक्षर और ध्वनि शक्तिका विश्लेषण करता है। __पदार्थद्वार - द्रव्य और भावपूर्वक णमोकार मन्त्रके पदोको व्याख्या करना पदार्थद्वार है। "इह नमोऽहंस्य , इत्यादिषु यत् नमः इति पदं तस्य नम इति पदस्याथे. पदार्थः, स च पूजालक्षण., स च क ? इत्याह दव्यसंकोचनं भावसंकोचनं च । वन द्रव्यसकोचन करशिरःपदादि
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१२४ मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन सकोच । भावसंकोचनं तु विशुद्धस्य मनसोऽहं शादिगुणेषु निवेशः।" अर्थात् 'नम. अहंद्भ्यः ' इत्यादि पदोमें नम. शब्द पूजार्थक है। पूजा दो प्रकारसे सम्पन्न की जाती है - द्रव्य संकोच और भाव-संकोच द्वारा । द्रव्यसकोचसे अभिप्राय है हाथ, सिर आदिका झुकाना - नम्रीभूत करना और भाव सकोचका तात्पर्य भगवान् मरिहन्तके गुणोमें मनको लगाना। द्रव्य. सकोच और भाव-संकोचके सयोगी चार भग होते हैं - [१] द्रव्य-संकोच न भाव-सकोच, [२] भाव-सकोच न द्रव्य-सकोच [३] द्रव्य-सकोच भाव. सकोच और [४] न द्रव्य सकोच न भाव सकोच । हाथ, सिर आदिको नम्र करना, किन्तु भीतरी अन्तरग परिणतिमें नम्रताका न आना अर्थात् मन्तरग परिणामोमें श्रद्धाभावका अभाव हो और ऊपरसे श्रद्धा प्रकट करना यह प्रयम भगका अर्थ है । दूसरे भगके अनुसार भीतर परिणामोमें श्रद्धाभाव रहे, किन्तु ऊपर श्रद्धा न दिखलाना । फलतः नमस्कार करते समय भीतर श्रद्धा रहनेपर भी, हाथ न जोडना और सिरको न झुकाना। तृतीय भंगका अर्थ है कि भीतर भी श्रद्धा हो और ऊपरसे भी हाथ जोडना, सिर झुकाना मादि नमस्कारको क्रियाओको सम्पन्न करे। चौथे भगका अर्थ है कि भीतर भी श्रद्धाकी कमी और ऊपर भी नमस्कार-सम्बन्धी क्रियामओका अभाव रहे।
पदार्थद्वारका तात्पर्य यह है कि द्रव्यमावशुद्धिपूर्वक णमोकार मन्त्रका स्मरण, मनन और जप करना । श्रद्धापूर्वक पचपरमेष्ठोकी शरणमें जाने तथा शरणसूचक शारीरिक क्रियाओके सम्पन्न करनेसे ही आत्मामें शक्तिका जागरण होता है । कर्माविष्ट आत्मा शुद्धात्माओको द्रव्यभावकी शुद्धिपूर्वक नमस्कार करनेसे उनके आदर्शसे तद्रूप बनती है।
प्ररूपणाद्वार-वाच्य-वाचक प्रतिपाद्य-प्रतिपादक विषय-विपयो भावकी दृष्टिसे णमोकार मन्त्रके पदोका व्याख्यान करना प्ररूपणाद्वार है। इसमें किं, कस्व, केन, क्व, कियत्कालं और कतिविध इन छह प्रश्नोका अर्थात् निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधानका समाधान
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
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किया जाता है । सबसे पहले यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि णमोकार मन्त्र क्या वस्तु है ? जीव है या अजीव ? जीव-अजीवमें भी द्रव्य है या गुण ? नैगम आदि नयोको अपेक्षा जीव हो णमोकार है; क्योंकि ज्ञानमय जीव होता है और णमोकार श्रुतज्ञानमय है । अतएव पंचपरमेष्ठोवाचक मोकारमन्त्र जीव है । इसकी रूपाकृति - शब्दोको अजीव कहा जा सकता है; पर भाव जो कि ज्ञानमय है, जीवस्वरूप है । द्रव्य और गुणके प्रश्नोंमें गुणोका समुदाय द्रव्य होता है तथा द्रव्य और गुणमें कथचित् भेदाभेदात्मक सम्बन्ध है, अतः णमोकार मन्त्र कर्याचित् द्रव्यात्मक और कथंचित् गुणात्मक है ।
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यह नमस्कार किसको किया जाता है, इस प्रश्नका उत्तर यह है कि यह नमस्कार पूज्य - नमस्कार करने योग्योको किया जाता है । पूज्य जीव और अजीव दोनों हो सकते है । जीवमें अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु तथा अजीवमें इनको प्रतिमाएं नमस्कार्य होती है ।
'केन' किस प्रकार णमोकार मन्त्र की उपलब्वि होती है, इस प्ररूपणा में नियुक्तिकारने बताया है कि जबतक अन्तरगमें क्षयोपशमको वृद्धि नही होती है, इस मन्त्रपर आस्था नहीं उत्पन्न हो सकती है। कहा हैनाणावरणिजस्स य, दंसणमोहस्स जो खओवसमो । जीवमजीचे अट्ठसु मंगेसु य होइ सम्वत्थ ॥२८९३ ॥
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अर्थात् - जीवको ज्ञानावरणादि आठो कर्मो से - मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण कमके क्षयोपशमके साथ मोहनीयकर्मका क्षयोपशम होनेपर णमोकार मन्त्रको प्राप्ति होती है । णमोकार मन्त्र श्रुतज्ञानरूप होता है और श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक ही होता है, अत मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमके साथ, मोहनीय कर्मका क्षयोपशम भी होना आवश्यक है । क्योकि आत्मस्वरूप के प्रति आस्था मिथ्यात्व कर्मके अभाव में ही होती हैं । अनन्तानुarat क्रोध, मान माया और लोभके विसयोजन के साथ मिथ्यात्वका क्षय उपशम या क्षयोपशम होना इस मन्त्रकी उपलब्धिके लिए आवश्यक है ।
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
इस महामन्त्रको उपलब्धिमें अन्तरायकर्मका क्षयोपशम भी एक कारण है । यत भोतरी योग्यता के प्रकट होनेपर हो इस महामन्त्रको उपलब्धि होती है ।
'क्व' यह नमस्कार कहाँ होता है ? इसका आधार क्या है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि यह नमस्कार जीवमें, अजीवमें, जीव-अजीवमें, जीव- अजोवोमें, मजीव-जीवोमें, जीवों-मजीवोमें, जीवोमें मोर भजीवोमें कथंचिद्भेदात्मकता होनेके कारण होता है । नयोकी भिन्न-भिन्न दृष्टियाँ होनेके कारण उपर्युक्त आठ भंगोमें से कभी एक भग आधार, कभी दो भंग आधार, कभी तीन भंग आधार और कभी इससे अधिक भग आधार होते हैं ।
' कियत्कालं' - नमस्कार कितने समय तक होता है, इस प्रश्नका समाधान करते हुए बताया गया है कि उपयोगकी अपेक्षासे नमस्कारका उत्कृष्ट और जघन्य काल मन्तर्मुहूर्त है । कर्मावरण क्षयोपशमरूप लब्धिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल ६६ सागर से अधिक होता है ।
'कतिविधो नमस्कार.' कितने प्रकारका नमस्कार होता है, इस प्ररूपणा में बताया गया है कि अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांचो पदोके पूर्वमें णमो - नम शब्द पाया जाता है । अतः पाँच प्रकारका नमस्कार होता है । इस प्रकार इस प्ररूपणा-द्वारमें निर्देश, स्वामित्व, साधन, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प- बहुत्वकी अपेक्षा भी वर्णन किया गया है ।
वस्तुद्वार - गुण-गुणो मे कथचिद्भेदाभेदात्मकता होनेसे अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांचो परमेष्टी ही नमस्कार करने योग्य वस्तु हैं । व्यक्ति रत्नत्रयरूप गुणोको इसलिए नमस्कार करता है कि गुणोकी प्राप्ति उसे अभीष्ट होती है । मसार प्रटवोसे पार होनेका एकमात्र साघन रत्नत्रय है, मत गुणगुणी में भेदाभेदात्मकता होनेके कारण रत्नत्रय
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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन १२७ गुणको तथा उनके धारण करनेवाले पंचपरमेष्ठियोको नमस्कार किया गया है । यही इस णमोकारमन्त्रकी वस्तु है ।
आक्षेपद्वार - णमोकारमन्त्रके सम्बन्धमे कुछ शकाएं की गयी हैं। इन शकाओका विवरण हो इस द्वारमें किया गया है। बताया गया है कि सिद्ध और साधु इन दोनोको नमस्कार करनेसे काम चल सकता है, फिर पांच शुद्धात्माओको नमस्कार क्यो किया गया है ? क्योकि जीवन्मुक्त अरिहन्तका सिद्ध में और न्यून रत्नत्रय गुणधारी आचार्य और उपाध्यायका साधुपरमेष्ठी में अन्तर्भाव हो जाता है, अत. पंचपरमेष्ठीको नमस्कार करना उचित नहीं । यदि यह कहा जाये कि विशेप दृष्टिसे भिन्नत्वकी सूचना देनेके लिए नमस्कार किया है तो सिद्धोके अवगाहना, तीर्थ, लिंग, क्षेत्र आदिकी अपेक्षासे अनेक भेद होते हैं तथा अरिहन्तोके तीर्थकर अरिहन्त, सामान्य अरिहन्त आदि भी अनेक भेद हैं। इसी प्रकार आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठोके भी मनेक भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार सब परमेष्ठी अनन्त हो जायेंगे, फिर इन्हें पांच मानकर नमस्कार करना कैसे उपयुक्त कहा जायेगा।
प्रसिद्धिद्वार - इस द्वारमें पूर्वोक्त द्वारमें आपादित शकाओका निराकरण किया गया है। द्विविध नमस्कार नहीं किया जा सकता है, क्योकि अव्यापकपनेका दोष आयेगा। सिद्ध कहनेसे अरिहन्तके समस्त गुणोका वोध नहीं होता है, इसी प्रकार साघु कहनेसे आचार्य और उपाध्यायके गुणोका भी ग्रहण नहीं होता है । अतएव सक्षेपसे द्विविध परमेष्ठीको नमस्कार करना अयुक्त है । नियुक्तिकारने भी बताया है -
अरिहन्ताई नियमा, साहूसाहू उ ते सू भइयव्वा ।
तम्हा पचिवहो खलु हेउनिमित्तं हवइ सिद्धो ॥३२०२।। साधुमात्रनमस्कारो विशिष्टोऽहंदादिगुणनमस्कृतिफल प्रापणसमर्थो न मवति । तरसामान्यामिधाननमस्कारकृतत्वात, मनुष्यमात्रनमस्कारवत्,
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१२८ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन जीवमाननमस्कारवद्वेति । तस्मारलक्षेपतोऽपि पञ्चविध एवं नमस्कारो, न तु द्विविधः भव्यापकत्वात् विस्तरतस्तु नमस्कारो न विधीयते अशक्यत्वात् ।
अर्थात् ~ साधुमात्रका कथन करनेसे माचार्य और उपाध्यायके गुणोंका स्मरण नहीं हो सकता है। क्योकि सामान्य कथनसे विशेषकी उपलब्धि नहीं हो सकती है। जिस प्रकार मनुष्य सामान्यको नमस्कार करनेसे अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुके गुणोका स्मरण नहीं हो सकता है और न तद्रूप बनने की प्रेरणा ही मिल सकती है। अतः पचपरमेष्ठीको नमस्कार करना आवश्यक है, परमेष्ठियोके नमस्कारसे कार्य नहीं चल सकता है। जो अनन्त परमेष्ठियोको नमस्कार करनेकी बात कही गयी है, उसका समाधान 'सन्द' पदके द्वारा हो जाता है। यह पद सभी परमेष्ठियोके साथ जोडा जा सकता है, जिससे अनन्त अर्हन्त, अनन्त सिद्ध, अनन्त आचार्य, अनन्त उपाध्याय और अनन्त साधुओका ग्रहण हो ही जाता है । शक्ति सीमित होनेके कारण पृथक् अनन्त परमेप्ठियोका निरूपण नहीं किया गया है। सामान्यके अन्तर्गत विशेप भेदीका भी ग्रहण हो गया है।
क्रमद्वार -किसी भी वस्तुका विवेचन क्रमसे किया जाता है । णमोकार १. पुव्वाणुपुचि न कमो, नेव य पच्छाणुपुम्बिए स भवे । सिद्धाहया पढमा ।
विश्याए साहुणो पार ॥३२१०॥ इह क्रमस्तावत् विविधः - पूर्वानुपूर्वी वा पश्चानुपूर्वी वेति । अत्रानुपूर्वी किल क्रम एव न भवति असलमत्त्वात् । तपायमझ्दादिक्रम पूर्वानुपूर्वी न भवति, सिद्धानामादावनभिधानादेव न्तिकृतकृत्वेन । अहन्नमस्कार्यम्वेन सिद्धानां प्रधानत्वात्, प्रधानस्य चाभ्यहितलेन पूर्वाभिधानादिति भावार्थः । तथा नैव च पश्चानुपूर्वी, एप कमो मवेत साधूनां प्रथममनमिधानात्, हाप्रधानत्वात्सर्वपाश्चात्त्या हि साधवः । ततश्च तानादो प्रतिपाय यदि पर्यन्ते सिद्धामिधान स्यात् तदा भवेत्पश्चानुपू । तामात् प्रथमाया: सिद्धादित्वात्, द्वितीयायास्तु सावादित्वात् नेय पूर्वानुपूर्वी, नापि पश्चानुपूर्वी । दति चेन्न - ३६ तावदय पूर्वानुपूर्वी क्रम एव । यतोऽईदुपदेशेनैव सिद्धा अपि शायन्ते । - नियुक्ति
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मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
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मन्त्रके विवेचनमें पदोका क्रम ठीक नही रखा गया है । क्रम दो प्रकारका होता है - पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी । णमोकार मन्त्र मे पूर्वानुपूर्वी क्रमका निर्वाह नही किया गया है, क्योकि सिद्धोका आत्मा पूर्ण विशुद्ध है, समस्त आत्मिक गुणका विकास सिद्धोमे ही है । अतएव विशुद्धिकी अपेक्षा पूज्य होने के कारण सिद्धों को सर्वप्रथम नमस्कार होना चाहिए था, पर णमोकार मन्त्र में ऐसा नही किया गया है । अत पूर्वानुपूर्वी क्रम यहाँपर नही है । पश्चानुपूर्वीक्रमका भी निर्वाह यहाँ पर नहीं किया गया है, क्योकि इस क्रम से सबसे पहले साधुको नमस्कार और सबसे पीछे सिद्धोको नमस्कार होना चाहिए था। समाधान - उपर्युक्त शंका ठीक नही है । यहाँ पूर्वानुपूर्वी क्रम ही है । सिद्धों की अपेक्षा अरिहन्त अधिक उपकारी हैं, क्योकि इन्हीं के उपदेशसे हमे सिद्धोका ज्ञान प्राप्त होना है। इसके अनन्तर गुणोंकी न्यूनता और अधिकता की अपेक्षा अन्य परमेष्ठियोंको नमस्कार किया गया है । यो तो 'पादक्रम' प्रकरण मे इसका विस्तृत विवेचन किया जा चुका है। अत यहाँपर उन सभी युक्तियो और प्रमाणोको उद्धृत करना असंगत होगा ।
प्रयोजनफल द्वार - णमोकार मन्त्रकी आराधनासे लौकिक और पारलौकिक फलोकी प्राप्ति किस प्रकारसे होती है, इसका वर्णन इस द्वारमे किया गया है |
इस प्रकार नय, निक्षेप एव विभिन्न हेतुओंके द्वारा णमोकार मन्त्र का वर्णन जैनागममे मिलता है ।
अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामीके दिव्य उपदेशका सकलन द्वादशाग साहित्य के रूपमें गणवर देवने किया है। इस सकलनमे कर्मप्रवाद नामके पूर्वमे कर्म विषयका वर्णन विस्तार से किया गया है । इसके सिवा द्वितीय पूर्वके एक विभागका नाम कर्म-प्राभृन और पचम पूर्वके एक विभागका इनमे भी कर्मविषयक वर्णन है। इसी प्राचीन गये दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायमे कषाय
कर्म - साहित्य और महामन्त्र
नाम कपाय- प्राभृत है। साहित्य के आधारपर रचे
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प्राभृत, महाबन्ध, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति, कर्मस्तव, कर्म प्रकृति प्राभृत, कर्मग्रन्थ, षडशीति एवं सप्ततिका आदि कई ग्रन्थ हैं, जिनमे इस विषयका वर्णन विस्तारके साथ किया गया है। ज्ञानावरणादि मठो कर्मोंके स्वरूप, भेद-प्रभेद, उनके फल, कर्मोंकी अवस्थाएं - बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्त्व, उत्कर्षरण, अपकर्षण, संक्रमण, निघत्ति और निकाचनाका स्वरूप मार्गणा और गुणस्थानोके आश्रयसे कर्मप्रकृतियोमे बन्ध, उदय और सत्त्वके स्वामियोका विवेचन, मार्गणास्थानोंमे जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या और अल्प बहुत्वका विवेचन कर्म साहित्यका प्रधान विषय है । कर्मवादका जैन अध्यात्मवादके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है | आचार्योंने चिन्तन और मननको विपाकविचय नामक धर्मध्यान बताया है । मनको प्रारम्भमे एकाग्र करनेके लिए कर्मविषयक गहन साहित्य के निर्जन वनप्रदेशमे प्रवेश करना आवश्यक-सा है । इस साहित्य के अध्ययनसे मनको शान्ति मिलती है तथा इधर-उधर जाता हुआ मन एकाग्र होता है, जिससे ध्यानकी सिद्धि प्राप्त होती है ।
णमोकार महामन्त्र और कर्मसाहित्यका निकटतम सम्बन्ध है; क्योंकि कर्म - साहित्य णमोकार मन्त्र के उपयोगकी विधिका निरूपण करता है । इस महामन्त्रका उपयोग किस प्रकार किया जाये, जिससे आत्मा अनादिकालीन बन्धनको तोड सके । आत्माके साथ अनादिकालीन कर्मप्रवाहके कारण सूक्ष्म शरीर रहता है, जिससे यह आत्मा शरीरमें आवद्ध दिखलाई पडता है । मन, वचन और कायकी क्रियाके कारण कषाय-राग, द्वेष, क्रोध, मान आदि भावोके निमित्तसे कर्म-परमाणु आत्मा के साथ बंधते हैं। योग शक्ति जैसी तीव्र या मन्द होती है, वैसी हो सख्यामे कम या अधिक परमाणु आत्माकी ओर खिंच आते हैं । जब योग उत्कट रहता है, उस समय कर्मपरमाणु अधिक तादादमे और जब योग जघन्य होता है, उस समय कर्मपरमाणु कम तादादमे जीवकी ओर आते हैं। इसी प्रकार तीव्र कषायके होनेपर कर्मपरमाणु अधिक समय तक आत्माके साथ रहते हैं तथा
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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन १३१ तीव्र फल देते हैं। मन्द कषाय होनेपर कम समय तक रहते हैं तथा मन्द ही फल देते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने बतलाया है कि णमोकार मन्त्रोक्त पचपरमेष्ठियोंको विशुद्ध आत्मामोका ध्यान या चिन्तन करनेसे आत्मासे चिपटा राग कम होता है। राग और द्वेषसे युक्त आत्मा ही कर्मवन्धन करता है -
परिणमदि जदा अप्पा सुहम्सि भसुहम्मि रागदोषजुदो। तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिमावेहिं ॥
अर्थात् - जब राग-द्वेपसे युक्त आत्मा अच्छे या बुरे कामोमे लगता है, तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरणादि रूपसे आत्मामे प्रवेश करता है। यह कर्मचक्र जीवके साथ अनादिकालसे चला आ रहा है । पचास्तिकायमे बताया है-'संमारमे स्थित जीवके राग-द्वेषरूप परिणाम होते हैं, परिणामोसे नये कर्म बंधते हैं। कमोंसे गतियोमे जन्म लेना पडता है, जन्म लेनेसे शरीर होता है, शरीरमे इन्द्रियां होती हैं, इन्द्रियोसे विषयका ग्रहण होता है। विषयोके ज्ञानसे राग-द्वेष परिणाम होते हैं। इस तरह संसाररूपी चक्रमे पडे जीवोके भावोंसे कर्म और कर्मोसे भाव होते रहते हैं । यह प्रवाह अभव्य जीवकी अपेक्षा अनादि अनन्त और भव्य जीवकी अपेक्षा अनादि सान्त है । कोंके बीजभूत राग-द्वेषको इस महामन्त्रकी साधना-द्वारा नष्ट किया जा सकता है। जिस प्रकार वीजको जला देनेके पश्चात् वृक्षका उत्पन्न होना, वढना, फल देना आदि नष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार णमोकार मन्त्रकी आराधनासे कर्म-जाल नष्ट हो जाता है।
जेन साहित्यमे कर्मोके दो भेद माने गये हैं - द्रव्य और भाव । मोहके निमित्तसे जीवके राग, द्वेष और क्रोधादिरूप जो परिणाम होते हैं, वे भावकर्म तथा इन भावोके निमित्तमे जो कर्मरूप परिणमन न करनेकी शक्ति रखनेवाले पुद्गल परमाणु खिंचकर आत्मासे चिपट जाते हैं, वे द्रव्य कर्म कहलाते हैं । भावकर्म और द्रव्यकर्म इन दोनोमें कारण-कार्य सम्बन्ध है।
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द्रव्यकर्मी निमित्तसे भावकर्म और भावकर्मके निमित्तसे द्रव्यकमं होते हैं । द्रव्य के मूल ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ भेद तथा अवान्तर १४८ भेद होते हैं । जिन हेतुओ से कर्म आत्मामे आते हैं, वे हेतु आस्रव हैं। मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग ये पाँच आस्रव प्रत्यय - कारण है । जव यह जीव अपने आत्म-स्वरूपको भूलकर शरीरादि पर द्रव्योमे आत्मबुद्धि करता है और उनके समस्त विचार और क्रियाएँ शरीराश्रित व्यवहारोमे उलझी रहती हैं, मिथ्यादृष्टि कहा जाता है । मिथ्यात्वके कारण स्व-पर विवेक नही रहना, लक्ष्मभूत कल्याण - मार्गमे सम्यक् श्रद्धा नही होती । जीव अहकार और ममकारकी प्रवृत्तिके अधीन होकर अपनेको भूल, वाह्य पदार्थोंके रूपपर क्षुब्ध हो जाता है । मिथ्यात्वके समान आत्माके स्वरूपको विकृत करनेवाला अन्य कोई नही है । यह कर्मबन्धका प्रधान हेतु है ।
अविरति - चारित्रमोहका उदय होनेसे चारित्र धारण करनेके परि रणाम नही हो पाते । पाँच इन्द्रियो और मनको अपने वशमे न रखना तथा छह कायके प्राणियोकी हिंसा करना अविरति है । अविरतिके रहनेपर जीवकी प्रवृत्ति विवेकहीन होती है, जिससे नाना प्रकारके अशुभ कर्मोंका वन्य होता है ।
प्रमाद असावधानी रखना या कल्याणकारी कार्योंके प्रति आदर नही करना प्रमाद है । प्रमादी जीव पाँचो इन्द्रियोके विषयोमे लीन रहता है, स्त्री-कथा, भोजनकथा, राजकया और चोरकथा कहता- सुनता है; क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारो कषायोमे लीन रहता है एव निद्रा और प्रणयासक्त होकर कर्तव्य मार्गके प्रति आदरभाव नही रखता । प्रमादी जीव हिंसा करे या न करे, उसे असावधानी के कारण हिंसा
अवश्य लगती है ।
कपाय आत्मा के शान्त और निर्विकारी रूपको जो अशान्त और विकारग्रस्त बनाये उसे कपाय कहते हैं। ये कपायें ही जीवमे राग-द्वेपकी
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन १३३ उत्पत्ति करती हैं, जिससे जीव निरन्तर ससार परिभ्रमण करता रहता है । यत समस्त अनर्थोंका मूल राग-द्वेषका द्वन्द्व है।
योग - मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको योग कहते हैं । योगके द्वारा ही कर्मोका प्रास्रव होता है। शुभ योगके रहनेसे पुण्यास्रव और अशुभ योगके रहनेसे पापास्रव होता है।
कर्मों के आनेके साधन मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग हैं । इन पांचो प्रत्ययोंको जैसे-जैसे घटाते जाते हैं, वैसे-वैसे कर्मोंका आस्रव कम होता जाता है। आसवको गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रसे रोका जा सकता है । मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको रोकना गुप्ति, प्रमादका त्याग करना समिति, आत्मस्वरूपमे स्थिर होना धर्म, वैराग्य उत्पन्न करनेके साधन ससार तथा यात्माके स्वरूप और सम्बन्धका विचार करना अनुप्रेक्षा, आयी हुई विपत्तियोको धैर्यपूर्वक सहना परीपहजय एव आत्मस्वरूपमें विचरण करना चारित्र है। इस प्रकार कर्मो के आनेके हेतुओको रोकने, जिससे नवीन कर्मोका बन्ध न हो और पुरातन सचित कर्मों को निर्जरा-द्वारा क्षीण कर देनेसे सहजमे निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है, कम-सिद्धान्त आत्माके विकासका उल्लेख फरते हुए कहता है कि गुणस्थान क्रमसे कर्मवन्ध जितना क्षीण होता जाता है उतनी ही आत्मा उत्तरोत्तर विकसित होती जाती है। आत्माकी उत्तरोत्तर विकसित होनेवाली विशुद्ध परिणतिका नाम गुणस्थान है। ____ आगममे बताया गया है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र आदि गुणोकी शुद्धि तथा अशुद्धिके तरतम भावसे होनेवाले जीवके भिन्न-भिन्न स्वरूपोको गुणस्थान कहा गया है। अथवा दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके
औदयिक आदि जिन भावोके द्वारा जीव पहचाना जाता है, वे माव गुणस्थान हैं । असल बात यह है कि मात्माका वास्तविक रूप शुद्ध चेतन और पूर्ण आनन्दमय है । जवतक मात्माके पर तीन कर्मावरणके घने बादलोकी घटा छायी रहती है, तबतक उसका वास्तविक रूप दिखलाई नहीं
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देता, पर आवरणके क्रमशः शिथिल या नष्ट होते ही आत्माका असली स्वरूप प्रकट हो जाता है। जब आवरणकी तीव्रता अपनी चरम सीमापर पहुंच जाती है, तब आत्मा अविकसित अवस्थामे पड़ा रहता है और जब आवरण विलकुल नष्ट हो जाते हैं तो आत्मा अपनी मूल शुद्ध अवस्यामें आ जाता है। प्रथम अवस्थाको अविकसित अवस्था या अघ पतनकी अवस्था तथा अन्तिम अवस्थाको निर्वाण कहा जाता है। इस तरह आध्यात्मिक विकासमे प्रथम अवस्था - मिथ्यात्वभूमिसे लेकर अन्तिम अवस्था - निर्वाणभूमि तक मध्यमे अनेक आध्यात्मिक भूमियोंका अनुभव करना पड़ता है; जैनागमोक्त ये ही आध्यात्मिक भूमियां गुणस्थान हैं। इन्हीका क्रमश. जीव आरोहण करता है। ___समस्त कर्मोमे मोहनीय कर्म प्रधान है, जबतक यह बलवान् और नीत रहता है, तबतक अन्य कर्म सवल बने रहते हैं । मोहके निर्वल या शिथिल होते ही अन्य कर्मावरण भी निवल या शिथिल हो जाते हैं । अतएव आत्माके विकासमे मोहनीय कर्म बाधक है। इसकी प्रधान दो शक्तियां हैं - दर्शन और चारित्र । प्रथम शक्ति आत्मस्वरूपका अनुभव नहीं होने देती है और दूसरी आत्मस्वरूपका अनुभव और विवेक हो जानेपर भी तदनुसार प्रवृत्ति नहीं होने देती है। आत्मिक विकासके लिए प्रधान दो कार्य करने होते हैं - प्रथम स्व-परका यथार्थ दर्शन अर्थात् भेद-विज्ञान करना और दूसरा स्वरूपमे स्थित होना । मोहनीय कर्मकी दूसरी शक्ति प्रथम शक्तिकी अनुगामिनी है अर्थात् प्रथम शक्तिके वलवान होनेपर द्वितीय शक्ति कभी निर्बल नही हो सकती है; किन्तु प्रथम शक्तिके मन्द, मन्दतर और मन्दतम होते ही, द्वितीय शक्ति भी मन्द, मन्दतर और मन्दतम होने लगती है । तात्पर्य यह है कि मात्माका स्वरूपदर्शन हो जानेपर स्वरूप-लाभ हो ही जाता है। कर्मसिद्धान्त इस स्वरूपदर्शन और स्वरूपलाभका विस्तृत विवेचन करता है। मात्मा किस प्रकार स्वरूपलाम करती है तथा इसका स्वरूप किस प्रकार विकृत होता है, यह तो कर्म-सिद्धान्तका प्रधान प्रतिपाद्य विषय है।
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन १३७ णमोकार महामन्त्रका भक्तिपूर्वक उच्चारण, मनन और चिन्तन करना आत्माके स्वरूप-दर्शनमे सहायक है। इस महामन्त्रके भावसहित उच्चारण करने मात्रसे मोहनीयकर्मकी प्रथम शक्ति क्षीण होने लगती है । एक बात यह भी है कि मोहनीय कर्मके मन्द हुए बिना इस महामन्त्रकी प्राप्ति होना अशक्य है । आत्माकी प्रथमावस्था-मिथ्यात्व भूमिमे इस मन्त्रके उच्चारण और मननसे जीव दूर रहना चाहता है, उसकी प्रवृत्ति इस महामन्त्रकी ओर नही होती। परन्तु जब दर्शन-मोहनीयका उपशम, क्षय या क्षयोपशम हो जाता है, तब चतुर्थ गुणस्यान- स्वरूप-दर्शनमे इस महामन्त्रकी ओर श्रद्धा ही सम्यक्त्व है, क्योकि इससे रत्नत्रयगुणविशिष्ट आत्माके शुद्ध. स्वरूपको नमस्कार किया गया है । कर्मसिद्धान्तके आध्यात्मिक विकासके अनुसार अध पतनकी प्रथम अवस्था मिथ्यात्वमे मात्माकी बिलकुल गिरी हुई अवस्या बतलायी है, आत्मा यहाँ आधि मौतिक उत्कर्ष कर सकता है, परन्तु अपने तात्त्विक लक्ष्यसे दूर रहता है। णमोकार मन्त्रका भावसहित उच्चारण इस भूमिमे सम्भव नही । बहिरात्मा बनकर आत्मा महाभ्रममे पड़ा रहता है । राग-द्वेषका पटल और अधिक सघन होता जाता है।
भावपूर्वक णमोकार मन्त्रके जाप, ध्यान और मननसे यह अघ.पतनकी अवस्या दूर हो जाती है, राग-द्वेषको दीवाल जर्जरित हो टूटने लगती है, मोहको प्रधान शक्ति दर्शनमोहनीयके शिथिल होते ही चारित्रमोह भी मन्द होने लगता है । यद्यपि कुछ समय तक दर्शनमोहनीयकी मन्दतासे उत्पन्न आत्मिक शक्तिको मानसिक विकारोके साथ युद्ध करना पडता है, परन्तु णमोकारमन्त्र अपनी अद्भुत शक्तिके द्वारा मानसिक विकारोको पराजित कर देता है। राग-द्वेष की तीव्रतम दुर्भेद्य दीवारको एकमात्र णमोकार मन्त्र ही तोड़नेमे समर्थ है। विकासोन्मुखी आत्माके लिए यह महामन्त्र अगपरित्राणका कार्य करता है। इस मन्त्रकी आराधनासे वीर्योल्लास और आत्मशुद्धि इतनी बढ़ जाती है, जिससे मिथ्यात्वको पराजित करनेमें विलम्ब नही लगता तथा यह जीव चतुर्थगुणस्थानमें पहुंच जाता है।
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१३४ मगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन अपने विशुद्ध परिणामोके कारण इस अवस्थामे पहुंचनेपर आत्माको शान्ति मिलती है तथा अन्तर आत्मा बनकर व्यक्ति अपने भीतर स्थित सूक्ष्म सहज परमात्मा - शुद्धात्माका दर्शन करने लगता है । तात्पर्य यह है कि णमोकार मन्त्रकी साधना मिथ्यात्व भूमिको दूर कर परमात्मभावरूप देवका दर्शन कराता है। इस चतुर्थगुणस्थानसे आगेवाले गुणस्थान -आध्यात्मिक विकासको भूमियां सम्यग्दृष्टिकी हैं, इनमे उत्तरोत्तर विकास तथा दृष्टिकी शुद्धि अधिकाधिक होती है। पांचवें गुणस्थानमे देश-सयमकी प्राप्ति हो जाती है, णमोकारमन्त्रकी आराधनासे परिणामोमे विरक्ति आती है, जिससे जीव चारित्रमोहको भी शिथिल करता है। इस गुणस्थानका व्यक्ति उक्त महामन्त्रकी आराधनाका अभ्यासी स्वभावत. हो जाता है ।
छठे गुणस्थानमे स्वरूपाभिव्यक्ति होती है और लोककल्याणकी भावनाका विकास होता है, जिससे महानतोका पूर्ण पालन साधक करने लगता है। इस आध्यात्मिक भूमिमे णमोकार मन्त्र ही आत्माका एकमात्र आराध्य बन जाता है। विकासोन्मुखी मात्मा जब प्रमादका भी त्याग करता है और स्वरूप-मनन, चिन्तनके सिवा अन्य सव व्यापारोका त्याग कर देता है तो व्यक्ति अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थानका धारी समझा जाता है, प्रमाद आत्मसाधनाके मार्गसे विचलित करता है, किन्तु यह साधना णमोकारमन्त्रके सिवा अन्य कुछ भी नहीं है, क्योकि णमोकार मन्त्रके प्रतिपाद्य आत्मा शुद्ध और निर्मल हैं। इस आध्यात्मिक भूमिमे पहुंचकर साधक अपनी शक्तिका विकास करता है, मानवके कारणोको रोकता है और अवशेष मोहनीयकी प्रकृतियोको नष्ट करनेकी तैयारी करता है । इससे आगे अपूर्वकरणके परिणामो-द्वारा आत्माका विकास करता है और णमोकारमन्त्रकी आराधनामे आत्माराधनाका दर्शन और तादात्म्यकरण करता है तथा मोहके सस्कारोके प्रभावको क्रमशः दबाता हुआ आगे बढता है और अन्त में उसे विलकुल ही उपशान्त कर देता है । कोई-कोई साधक ऐसा भी होता है, जो मोहभावको नाश करता है। आठवें गुणस्थानसे आगे णमोकारमन्त्र
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
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की आराधना - आत्मस्वरूपके चिन्तन द्वारा क्रोध, मान और मायाको नष्ट कर साधक अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थानमे पहुँचता है तथा इससे आगे लोभ कषायका भी दमन कर, दसवें गुणस्थान में पहुंचता है | यहाँ से बारहवें गुणस्थानमे स्थित होकर समस्त मोहभावको नष्ट कर देता है । अनन्तर अपने स्वरूपके ध्यान द्वारा केवलज्ञानको प्राप्त कर जिन बन जाता है । कुछ दिनोके पश्चात् शुक्लध्यानके बलसे योगोका निरोध कर चौदहवें गुणस्थान मे पहुँच क्षण-भर मे निर्वाण लाभ करता है । यह आत्माकी चरम शुद्धावस्था है, इसीको प्राप्त कर आत्मा कर्मजाल से युक्त होनेपर भी सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है। आत्माकी सिद्धिका प्रधान कारण इस मन्त्रकी आराधना ही है । इसीसे कर्मजालको नष्ट कर स्वातन्त्र्यकी प्राप्तिका यह कारण बनता है |
उपर्युक्त गुणस्थान- विकासकी परम्पराको देखनेसे प्रतीत होता है कि णमोकार मन्त्र- द्वारा कर्मोंके आस्रवको रोका जा सकता है तथा सचित कर्मोकी निर्जरा द्वारा क्षय कर निर्वाणलाभ किया जा सकता है। इतना ही नही बल्कि णमोकार मन्त्रकी आराधनासे कर्मोंकी अवस्था मे भी परिवर्तन किया जा सकता है । प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग इन चारो बन्धो मे इस मन्त्र की साधना से स्थिति मोर अनुभाग बन्धको घटाया जा सकता है । शुभ कर्मोंमे उत्कर्पण और अशुभ कर्मोंमे अपकर्षणकरण किया जा सकता है।. इस मन्त्रकी पवित्र सावनासे उत्पन्न हुई निर्मलता से किन्ही विशेष कर्मों की उदीरणा भी की जा सकती है। अतएव कर्म सिद्धान्त की अपेक्षा से भी इस महामन्त्रका बडा भारी महत्त्व है। आत्मविकासके लिए यह एक सवल साधन है । अनादिनिधन इस णमोकार मन्त्रमे आठ कर्म, कर्मोके मास्रवके प्रत्ययधर्म सिद्धान्तके अनेक मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कपाय और योग, वन्ध किया और वन्धके द्रव्य भाव भेद तथा उसके की उत्पत्तिका प्रभेद, कर्मोंके करण, वन्धके चार प्रधान भेद, सात तत्त्व, नव पदार्थ, बन्ध, उदय, सत्त्व, चार
स्थान - णमोकार मन्त्र
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मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
गति, चार कषाय, चौदह मागणा, चौदह गुण-स्थान, पांच अस्तिकाय, छह द्रव्य, वेसठ शलाका पुरुष आदि निहित हैं । स्वर, व्यंजन, पद आदि इस मन्त्रमे निहित हैं । स्वर, व्यजन, पद, अक्षर इनके सयोग, वियोग, गुणन आदिके द्वारा उक्त तथ्य सिद्ध किये जाते है । जिस प्रकार द्वादशाग जिनवाणीके समस्त अक्षर इस मन्त्रमे निहित हैं, उसी प्रकार इसमे उक्त सिद्धान्त भी । यद्यपि द्वादशाग जिन-वारणीके अन्तर्गत सभी तथ्य यों ही आ जाते है, फिर भी इनका पृथक् विचार कर लेना आवश्यक है। ___ इस मन्त्रमे [१] णमो अरिहंताण, [२] णमो सिद्धारणं, [३] णमो आइरियाण, [४] णमो उवज्झायाण, [५] णमो लोए सव्वसाहूणं ये पांच पद हैं । विशेषापेक्षया [१]णमो [२] अरिहताण [३] णमो [४] सिद्धाण [५] णमो [६] आइरियारणं [७] णमो [८] उवज्मायाण [९] णमो [१०] लोए [११] सव्वसाहूण ये ग्यारह पद है। अक्षर इसमें ३५, स्वर ३४, व्यंजन ३० हैं । इस आधारपर-से निम्न निष्कर्ष निकलते हैं । ३४ स्वर सख्या-मे से इकाई, दहाईके अकोको पृथक् किया तो ३ और ४ अक हुए । व्यंजनोमें ३० की संख्याको पृथक् किया तो, ३ और • हुए । कुल स्वर ३४ और व्यंजन ३० की सख्याके योगको पृथक् किया तो ३४ + ३० = ६४, ६ और ४ हुए। इस मन्त्र के अक्षरोकी सख्याको पृथक् किया तो ३ और ५ हुए । अत -
३४५ = १५ योग, ३+५% ८ कर्म, ५ -३% २ जीव और अजीव तत्व, ५-३ = १ लव्व मोर शेप २, मूल दो तत्त्व, अजीव कर्मके हटनेपर लव्धरूप शुद्ध जीव एक ।
स्वरोमे- ३४४ = १२ अविरति, ३+४ = ७ तत्त्व, ४-३%१ प्रधानताकी अपेक्षा जीव । पांच यह पचास्तिकाय । स्वर + व्यजन + अक्षर = ३४+३०+ ३५ = ९९, फल योग ९+ ९ = १८, इनसे योगान्तर १+८%3D ९ पदार्थ । ९९ : ३४ = २ लब्ध और ३१ शेष, ३+१% ४ गति, कषाय, विकथा विशेषापेक्षया ११ पद, सामान्यापेक्षया । ५,३४ स्वर,
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन १३९ ३० व्यंजन, ३५ अक्षर इनपर-से विस्तार किया तो ३४+ ३० = ६४x ५= ३२०-३० = ६ लब्ध और १४ शेष । यह १४ सख्या गुणस्थान और मार्गणाकी है। अथवा ६४४ ११ = ७०४-३० = २३ लब्ध,१४ शेष । यही शेष सख्या गुणस्थान और मार्गणा है। नियम यह है कि समस्त स्वर और व्यजनोकी सख्याको सामान्य पद संख्यासे गुणा कर स्वरकी संख्याका भाग देनेपर शेष तुल्य गुणस्थान और मार्गणा अथवा समस्त स्वर और व्यंजनोकी सख्याको विशेष पद सख्यासे गुणा कर व्य जनोकी संख्याका भाग देनेपर शेष तुल्य गुणस्थान और मार्गरणाकी संख्या आती है। छह द्रव्य और छह कायके जीवोकी संख्या निकालनेके लिए यह नियम है कि समस्त स्वर और व्यजनोकी संख्या (६४) को व्यजनोको सख्यासे गुणा कर विशेष पद सख्याका भाग देनेपर शेष तुल्य द्रव्योकी तथा जीवोके कायकी सख्या अथवा समस्त स्वर और व्यजनोकी संख्याको स्वर संख्यासे गुणा कर सामान्य पद सख्याका भाग देनेपर शेष तुल्य द्रव्योकी तथा जीवोके कायकी सख्या आती है। यथा ६४४३० = १९२०-११ = १७४ लब्ध, ६ शेष, यही शेप तुल्य द्रव्य और कायकी सख्या है । अथवा ६४४ ३४ %3D२१७६ --५= ४३४ लब्ध, ६ शेष। यही शेष प्रमाण द्रव्य और कायकी सख्या है । इस महामन्त्रमे कुल मात्राएँ ५८ हैं । प्रथम पदके 'णमो भरिहवाणं' में = १+२+ + +२+२+२%3D११, द्वितीयपद 'णमो सिद्धाणं' में = १+२+१+२+ २ = ८, तृतीयपद 'णमो आइरियाणं' में = १+२+ +१+१+२+२= 11, चतुर्थपद 'णमो उवज्झायाणं' म = १+२+१+२+२+२ = १२, पंचमपद 'णमो लोए सन्चमाहणं' में% +२+२+२+२+१+२+२+२-१६, समस्त मात्राओका योग%3D ११+८+११+१२+१६ % ५८। इस विश्लेपणसे समस्त कर्म-प्रकृतियोका योग निकलता है। यह जीव कुल १४८ प्रकृतियोको बांधता है। मात्राएँ + स्वर + व्यजन+ विशेषपद +
१ सयुक्त पूर्व वर्णपर स्वराघात न हो तो चन्द-शास्त्र में उसे हल मानते हैं।
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मंगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
सामान्यपदका गुणन % ५८ + ३४ + ३० + ११+ १५ = १४८ । इन १४८ प्रकृतियोमे १२२ प्रकृतियाँ उदय योग्य हैं और वन्ध योग्य १२० प्रकृतियाँ हैं । उनका क्रम इस प्रकार है - ५८+ ६४ % १२२ ये ही उदय योग्य हैं । क्योकि १४८ मे-से २६ निम्न प्रकृतियां कम हो जाती हैं। स्पर्शादि २० की जगह ४ का ग्रहण किया जाता है, इस प्रकार १६ प्रकृतियां घट जाती है और पांचो शरीरोके पांच वन्धन और पाँच सघातोका ग्रहण नही किया गया है । इस प्रकार २६ घटनेसे १२२ उदयमे तथा वन्धमे दर्शनमोहनीयकी एक ही प्रकृति बंधती है और उदयमे यही तीन रूपमे परिवर्तित हो जाती है । कहा गया है -
जंतेण कोदव वा पढमुवसम्ममावजंतेण । ।
मिच्छं दन्वं तु तिधा असखगुणहीणदच्चकमा ।-कमकाण्ड __ अर्थात् - प्रथमोपशमसम्यक्त्वपरिणामरूप यन्त्रसे मिथ्यात्वरूपी कर्मद्रव्य द्रव्यप्रमाणमे क्रमसे असख्यातगुणा-असख्यातगुणा कम होकर तीन प्रकारका हो जाता है। अर्थात् बन्ध केवल मिथ्यात्व प्रकृतिका होता है
और उदयमे वही मिथ्यात्व तीन रूपमे बदल जाता है। जैसे धानके चावल, कंण और भूसा ये तीन अश हो जाते हैं अर्थात् केवल धान उत्पन्न होता है, पर उपयोगकालमे उसी धानके चावल, कण और भूसा ये तीन अश हो जाते है । यही वात मिथ्यात्वके सम्बन्धमे भी है।
इस प्रकार णमोकारमन्त्र वन्ध, उदय और सत्त्वकी प्रकृतियोकी सख्यापर समुचित प्रकाश डालता है। कुल प्रकृति संख्या १४८, बन्धसख्या १२०, उदय संख्या १२२ और सत्त्वसख्या १४८ इसी मन्त्रमे निहित है । १२० सख्या निकालनेका क्रम यह है- ३४ स्वर, ३० व्यजन बताये गये हैं । ३४४ - १२, ३४० = ० गुणनशक्तिके अनुसार शून्यको दस मान लेनेपर गुणनफल = १२० ।
३०, ३ + 0 = ३ रत्नत्रय सख्या; ३x० = कर्माभावरूप-मोक्ष। ३० + ३४ = ६४, ६x४ = २४ तीर्थकर, ३४४ = १२ चक्रवर्ती,
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६४+ ३५ = ९९, ९+ ९ = १८,८+ १ = ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण, ९ बलदेव, इस प्रकार कुल २४+१२+९+९+९= ६३ शलाका पुरुष । ५८ मात्राएं, इनके विश्लेपण-द्वारा ५+८= १३ चारित्र, ५४८ = ४०, ४+ ० = ४ प्रकारके बन्ध - प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग । प्रमाणके भेद-प्रभेद भी इसमे निहित हैं। प्रमाणके मूलभेद दो हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष। ५-३ = १ ल० शेष २, यही दो भेद वस्तुके व्यवस्थापक प्रमाणके भेद हैं। परोक्षमे पांच भेद - स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगमरूप पांच पद हैं । नयके द्रव्याथिक और पर्यायायिक भेदोंके साथ नैगम, सग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवभूत । ये सात भी ३+४ = ७ रूपमें विद्यमान हैं। इस प्रकार इस महामन्त्रमे कर्मवन्धक सामग्री - मिथ्यात्व ५, अविरति १२, प्रमाद १५, कपाय २५ और योग १५ की सख्या भी विद्यमान है। साथ ही कर्मबन्धनसे मुक्त करानेवाली सामग्री ५ समिति, ३ गुप्ति, ५ महाव्रत, २२ परीषहर जय, १२ अनुप्रेक्षा और १० धर्मकी सख्या भी निहित है। १० धर्मकी सख्या तथा कर्मोके १० करणोकी सख्या निम्न प्रकार आती है। ३५ अक्षरोका विश्लेषण सामान्य पदोके साथ किया तो ३४५% १५ - ५ पद - १० । इस मन्त्रके अकोमे द्वादशागके पृथक् पृथक् पदोंकी संख्या भी निहित है, आचाराग, सूत्रकृताग, स्थानाग, समवायाग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथाग, उपासकाध्ययनाग मादि अगोकी पदसख्या क्रमश अठारह हजार, छत्तीस हजार, व्यालीस हजार, एक लाख चौसठ हजार, दो लाख अट्ठाईस हजार, पांच लाख छप्पन हजार, ग्यारह लाख सत्तर हजार, तेईस लाख अट्ठाईस हजार, वानवे लास चवालीस हजार, तिरानवे लाख सोलह हजार और एक करोड चौरासी लाख पद हैं। इन सब सख्याओकी उत्पत्ति इस महामन्त्रसे हुई है । दृष्टिवादके पदोकी सख्या भी इस मन्त्रमे विद्यमान है।
जिसमे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्योका; जीव, अजीव, आस्रव, वन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका
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एवं पुण्य-पापका निरूपण किया जाये, उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं । इस मनुयोगकी दृष्टिमे णमोकार महामन्त्रको विशेष महत्ता है । णमोकार स्वय द्रव्यानुयोग और द्रव्य है, शब्दोंकी दृष्टिसे पुद्गल द्रव्य है और अर्थकी दृष्टिसे शुद्धात्माओका वर्णन करनेके कारण णमोकार मन्त्र जीवद्रव्य है । सम्यक्त्वकी प्राप्तिका यह बहुत वडा साधन है । द्रव्योके विवेचनसे प्रतीत होता है कि णमोकार मन्त्रका आत्मद्रव्यके साथ निकटतम सम्बन्ध है तथा इसके द्वारा कल्याणका मार्ग किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है । इस मन्त्रमे द्रव्य, तत्त्व, अस्तिकाय आदिका निर्देश विद्यमान है ।
जीव आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है, अनन्त ज्ञानदर्शनवाला, अमूर्तिक, चैतन्य, ज्ञानादिपर्यायोका कर्ता, कर्मफलभोक्ता और स्वयं प्रभु है । कुन्दकुन्दाचार्यने बतलाया है कि - " जिसमे रूप, रस, गन्ध न हो तथा इन गुणोके न रहनेसे जो अव्यक्त है, शब्दरूप भी नही है, किसी भौतिक चिह्नसे भी जिसे कोई नही जान सकता, जिसका न कोई निर्दिष्ट आकार है, उस चैतन्य गुणविशिष्ट द्रव्यको जीव कहते हैं ।" व्यवहार नयसे जो इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन चार प्राणो द्वारा जीता है, पहले जिया था और मागे जीवित रहेगा, उसे जीवद्रव्य तथा निश्चय नयकी अपेक्षा से जिसमे चेतना पायी जाये, उसे जीवद्रव्य कहते हैं। णमोकार मन्त्र मे वर्णित मात्माओंमे उपर्युक्त निश्चय और व्यवहार दोनों ही लक्षण पाये जाते हैं । निश्चय नय द्वारा वर्णित शुद्धात्मा अरिहन्त और सिद्धकी है । वे दोनो चैतन्यरूप हैं । ज्ञानादि पर्यायोंके कर्ता और उनके भोक्ता हैं । आचार्य, उपाध्याय और साधू परमेष्ठीको आत्माओमे व्यवहार- नयका लक्षण भी घटित होता है ।
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पुद्गल - जिसमे रूप, रम, गन्ध और स्पर्शं पाये जायें उसे पुद्गल कहते है | इसके दो भेद हैं - अणु और स्कन्ध । अन्य प्रकारमे पुद्गल के तेईस भेद माने गये हैं, जिनमे आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा, भाषावगंणा,
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्ता १४५ मनोवर्गणा और काणिवर्गणा ये पांच ग्राह्य वर्गणाएं होती है, अतः भाषावर्गणाका व्यक्तरूप है । अत. णमोकार मन्त्रके शब्द भाषावर्गणन अंग है। ये वर्गणाएँ द्रव्य दृष्टिसे नित्य और पर्याय दृष्टिसे अनित्य होती हैं । अतः णमोकार मन्त्रके शब्द पुद्गल द्रव्य हैं।
धर्म और अधर्म- ये दोनो द्रव्य क्रमश जीव और पुद्गलोंको चलने और ठहरनेमें सहायता करते हैं । णमोकार महामन्त्रका अनादि परम्पराः से जो परिवर्तन होता आ रहा है तथा अनेक कल्पकालके अनेक तीर्थकरोंने इस महामन्त्रका प्रवचन किया है इसमे कारण ये दोनो द्रव्य है। इन द्रव्योंके कारण ही शब्द और अर्थ रूप परिणमन करनेमे रवय परिवर्तन करते हुए इस मन्त्रको ये दोनो द्रव्य सहायता प्रदान करते है।
आकाश - समस्त वस्तुओको अवकाश - स्थान प्रदान करता है। णमोकार मन्त्र भी द्रव्य है, उसे भी इसके द्वारा अवकाश - स्थान मिलता है। यह मन्त्र शब्दरूपमे लिखित किसी कागजपर उसमे निवास करनेवाले आकाशद्रव्यके कारण ही स्थित है। क्योकि आकाशका अस्तित्व पुस्तक, ताम्रपत्र, ताडपत्र, भोजपत्र, कागज आदि समीमे है । मत यह मन्त्र भी लिखित या अलिखित रूपमे आकाश द्रव्यमे ही वर्तमान है।
काल - इस द्रव्यके निमित्तसे वस्तुओकी अवस्थाएं बदलती हैं। पर्यायोका होना तथा उत्पाद-व्ययरूप परिणतिका होना कालद्रव्यपर निर्भर है। कालद्रव्यकी सहायताके विना इस मन्त्रका आविर्भाव और तिरोभाव सम्भव नहीं है।
णमोकार महामन्त्र द्रव्य है, इसमे गुण और पर्यायें पायी जाती हैं। इस मन्यमे द्रव्य, द्रव्याश, गुण, गुणाश रूप स्वचतृष्टय वर्तमान है जिसे दूसरे शब्दोमे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव कहा जाता है। इसका अपना चतुष्टय होनेने ही यह द्रव्यापेक्षया अनादि माना जाता है । द्रव्यानुयोगकी अपेक्षासे भी यह मन्त्र आत्मकल्याणमे सहायक है, क्योकि इसके द्वारा
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१४२ मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन एवं पुपक गुणोंका निश्चय होता है। स्वानुभूतिकी इसके साथ अन्वय और ययेतिरेक दोन प्रकारकी व्याप्तियां वर्तमान हैं । तात्पर्य यह है कि णमोकार मन्त्रसे स्वानुभूति होती है, अतः णमोकार मन्त्रकी उपयोगा वस्थामे स्वानुभवके साथ विषमा व्याप्ति और लब्धि रूप णमोकार मन्त्रके साथ स्वानुभवकी समा व्याप्ति होती है।
इस महामन्त्र से जीवादि तत्त्वोके विषयमे श्रद्धा, रुचि, प्रतीति और आचरण उत्पन्न होते हैं। तत्त्वार्थके जानने के लिए उद्यत बुद्धिका होना श्रद्धा, तत्त्वार्थमे आत्मिकभावका होना रुचि, तत्त्वार्थको ज्योंका त्यों स्वीकार करना प्रतीति एव तत्त्वार्थके अनुकूल क्रिया करना आचरण है । श्रद्धा, रुचि, प्रतीति ये तीनो णमोकारके द्रव्याश और गुणाश हैं । अथवा यो समझना चाहिए कि ये तीनो ज्ञानात्मक हैं, णमोकारमन्त्र श्रुतज्ञान रूप है, अत ये तीनो ज्ञानकी पर्याय होनेसे णमोकार मन्त्रको भी पर्याय हैं । स्वानुभूतिके साय णमोकार मन्त्रको आराधना करनेसे सम्यग्दर्शन तो उत्पन्न ही होता है, पर विवेक और आचरण भी प्राप्त हो जाते हैं । ____इस महामन्त्रको अनुभूति आत्मामे हो जानेपर प्रशम, सवेग, अनुकम्पा
और आस्तिक्य गुणोका प्रादुर्भाव हो जाता है तथा आत्मानुभूति हो जानेसे बाह्य विपयोसे अरुचि भी हो जाती है। प्रथम गुणके उत्पन्न होनेसे पंचेन्द्रियसम्बन्धी विषयोमे और असख्यात लोकप्रमाण क्रोधादि भावोंमे स्वभावसे ही मनकी प्रवृत्ति नहीं होती है । क्योकि अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभका उदय उसके नही होता है तथा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कपायोका मन्दोदय हो जाता है । सवेग गुणकी उत्पत्ति होनेसे आत्माका धर्म और धर्मके फलमे पूरा उत्साह रहता है तथा साधर्मी भाइयोसे वात्सल्यभाव रहने लगता है। समस्त प्रकारकी अभिलापाएँ भी इस गुणके प्रादुर्भूत होनेसे दूर हो जाती हैं, क्योकि सभी अभिलापाएं मिथ्यात्व कर्मके उदयसे उत्पन्न होती हैं । णमोकार मन्त्रको अनुभूति न होना या इस महामन्त्रके प्रति हार्दिक श्रद्धा भावनाका न होना मिथ्यात्व
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है । सम्यग्दृष्टि से रामोकार महामन्त्रकी अनुभूति हो ही जाती है, अतः सभी सांसारिक अभिलाषाओका अभाव हो जाता है । पंचाध्यायीकारने सवेग गुणका वर्णन करते हुए कहा है
त्यागः सर्वामिलापस्य निर्वेदो लक्षणात्तथा । स संवेगोऽथवा धर्मः साभिलाषो न धर्मवान् ॥ ४४३ ॥ नित्यं रागी कुदृष्टि. स्यान्न स्यात् क्वचिदरागवान् । अस्तरागोऽस्ति सद्द्दष्टिर्नित्यं वा स्यान्न रागवान् ॥ ४४५ ॥
-प० अ० २
अर्थ- सम्पूर्ण अभिलाषाओका त्याग करना अथवा वैराग्य धारण करना सवेग है और उसीका नाम धर्म है । क्योकि जिसके अभिलाषा पायी जाती है, वह धर्मात्मा कभी नहीं हो सकता । मिथ्यादृष्टि पुरुष सदा रागी भी है, वह कभी भी रागरहित नही होता । पर णमोकार मन्त्रको आराधना करनेवाले सम्यग्टष्टिका राग नष्ट हो जाता है । अत वह रागी नहीं, अपितु विरागी है । सवेग गुण आत्माको आसक्तिसे हटाता है और स्वरूपमे लीन करता है । णमोकार मन्त्रकी अनुभूति होनेसे तीसरा मास्तिक्य गुण प्रकट होता है । इस गुणके प्रकट होते ही 'सत्त्वेपु मैत्री' की भावना आ जाती है । समस्त प्राणियोंके ऊपर दयाभाव होने लगता है । 'सर्वभूतेषु समता' के आ जानेपर इस गुण का धारक जीव अपने हृदय मे चुभनेवाले माया, मिथ्यात्व और निदान शल्यको भी दूर कर देता है तथा स्व पर अनुकम्पाका पालन करने लगता है। चौथे आस्तिक्य गुणके प्रकट होनेसे द्रव्य, गुण, पर्याय आदिमे यथार्थ निश्चय बुद्धि उत्पन्न हो जाती है तथा निश्चय और व्यवहार के द्वारा सभी द्रव्योकी वास्तविकनाका हृदयगम भी होने लगता है। द्वादशागवाणीका सार यह णमोकार मन्त्र सम्यक्त्वके उक्त चारो गुरोको उत्पन्न करता है ।
आत्माको सामान्य विशेष स्वरूप माना गया है । ज्ञानकी अपेक्षा आत्मा सामान्य है और उम ज्ञानमें समय-समयपर जो पर्यायें होती है, वह विशेष है । सामान्य स्वयं प्रोव्यरूप रहकर विशेष रूपमे परिणमन करता
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है; इस विशेषपर्यायमे यदि स्वरूपकी रुचि हो तो समय-समयपर विशेषमे शुद्धता आती जाती है । यदि उस विशेष पर्यायमे ऐसी विपरीत रुचि हो कि 'जो रागादि तथा देहादि हैं. वह मैं हूँ तो विशेषमे अशुद्धता होती है। स्वरूपमे रुचि होनेपर शुद्ध पर्याय क्रमबद्ध और विपरीत होनेपर अशुद्ध पर्याय क्रमवद्ध प्रकट होती हैं। चैतन्यकी क्रमवद्ध पर्यायोमे अन्तर नही पडता, किन्तु जीव जिवर रुचि करता है, उस ओरकी क्रमवद्ध दशा प्रकट होती है। णमोकार मन्त्र आत्माकी ओर रुचि करता है तथा रागादि और देहादिसे रुचिको दूर करता है, मत. आत्माको शुद्ध क्रमबद्ध दशाओको प्रकट करनेमें प्रधान कारण यही कहा जा सकता है। यह आत्माको ओर वह पुरुषार्थ है जो क्रमबद्ध चेतन्य पर्यायोको उत्पन्न करने में समर्थ है । अतएव द्रव्यानुयोगकी अपेक्षा णमोकार मन्त्रकी धनु. भूति विपरीत मान्यता और अनन्तानुबन्धी कषायका नाश कर विशुद्ध चैतन्य पर्यायोंकी भोर जीवनको प्रेरित करती है। आत्माकी शुद्धिके लिए इस महामन्त्र का उच्चारण, मनन और ध्यान करना आवश्यक है।
यो तो गणितशास्त्रका उपयोग लोक व्यवहार चलानेके लिए होता है, पर आध्यात्मिक क्षेत्रमे भी इस शास्त्रका व्यवहार प्राचीनकालसे होता
चला आ रहा है । मनको स्थिर करनेके लिए 'गणित एक प्रधान साधन है। गणितकी पेचीदी
न गुत्थियोमे उलझकर मन स्थिर हो जाता है तथा एक निश्चित केन्द्रविन्दुपर आश्रित होकर आत्मिक विकासमे सहायक होता है। णमोकार मन्त्र, षट्खण्डागमका गणित, गोम्मटसार और त्रिलोकसारके गणित मनकी सासारिक प्रवृत्तियोको रोकते हैं और उसे कल्याणके पथपर भग्रसर करते हैं। वास्तवमे गणित विज्ञान भी इसी प्रकारका है जिसे एक बार इसमे रस मिल जाता है, वह फिर इस विज्ञानको जीवन-भर छोड नहीं सकता है । जैनाचार्योंने धार्मिक गणितका विधान कर मनको स्थिर करनेका सुन्दर और व्यवस्थित मार्ग बतलाया है। क्योंकि निकम्मा मन
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प्रमाद करता है, जबतक यह किसी दायित्वपूर्ण कार्यमे लगा रहता है, तबतक इसे व्यर्थकी अनावश्यक एव न करने योग्य बातोके सोचनेका अवसर ही नही मिलता है पर जहां इसे दायित्वसे छुटकारा मिला - स्वच्छन्द हुआ कि यह उन विषयोको सोचेगा, जिनका स्मरण भी कभी कार्य करते समय नही होता था। मनकी गति बडी विचित्र है। एक ध्येयमे केन्द्रित कर देनेपर यह स्थिर हो जाता है।
नया साधक जव व्यानका अभ्यास आरम्भ करता है, तब उसके सामने सबसे बडी कठिनाई यह आती है कि अन्य समय जिन सडी-गली, गन्दी एव घिनौनी बातोकी उसने कभी कल्पना नही की थी, वे ही उसे याद आती हैं और वह घबडा जाता है। इसका प्रधान कारण यही है कि जिसका वह ध्यान करना चाहता है, उसमे मन अभ्यस्त नहीं है और जिनमे मन अभ्यस्त है, उनसे उसे हटा दिया गया है, अतः इस प्रकारकी परिस्थितिमे मन निकम्मा हो जाता है। किन्तु मनको निकम्मा रहना आता नही, जिससे वह उन पुराने चित्रोको उधेडने लगता है, जिनका प्रथम संस्कार उसके ऊपर पडा है। वह पुरानी बातोंके विचारमे सलग्न हो जाता है।
आचार्यने धार्मिक गणितकी गुत्थियोको सुलझानेके मार्ग-द्वारा मनको स्थिर करनेकी प्रक्रिया बतलायी है क्योकि नये विषयमे लगनेसे मन ऊवता है, घबडाता है, रुकता है और कभी-कभी विरोध भी करने लगता है। जिस प्रकार पशु किसी नवीन स्थानपर नये खूटेसे वांधनेपर विद्रोह करता है, चाहे नयी जगह उसके लिए कितनी ही सुखप्रद क्यो न हो, फिर भी अवसर पाते ही रस्सी तोडकर अपने पुराने स्थानपर भाग जाना चाहता है। इसी प्रकार मन भी नये विचारमे लगना नही चाहता। कारण स्पष्ट है, क्योकि विषयचिन्तनका अभ्यस्त मन आत्मचिन्तनमें लगनेसे घबडाता है। यह वडा ही दुनिग्रह और चचल है। धार्मिक गणितके सतत अभ्याससे यह आत्मचिन्तनमें लगता है और व्यर्यकी अनावश्यक वातें विचार-क्षेत्रमे प्रविष्ट नहीं हो पाती।
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णमोकार महामन्त्रका गणित इसी प्रकारका है, जिससे इसके अभ्यासद्वारा मन विषय-चिन्तनसे विमुख हो जाता है और णमोकार मन्त्रकी साधनामें लग जाता है। प्रारम्भमें साधक जब णमोकार मन्त्रका ध्यान करना शुरू करता है तो उसका मन स्थिर नही रहता है। किन्तु इस महामन्त्रके गणितद्वारा मनको थोडे ही दिनमे अभ्यस्त कर लिया जाता है । इधर-उधर विषयोंकी ओर भटकनेवाला चचल मन, जो कि घर द्वार छोडकर वनमे रहनेपर भी व्यक्तिको मान्दोलित रखता है, वह इस मन्त्रके गणितके सतत अभ्यास-द्वारा इस मन्त्रके अर्थचिन्तनमे स्थिर हो जाता है तथा पंचपरमेष्ठी-शुद्धात्माका ध्यान करने लगता है।
प्रस्तार, भगसख्या, नष्ट, उद्दिष्ट, आनुपूर्वी और अनानुपूर्वी इन गणित विधियो-द्वारा णमोकार महामन्त्रका वर्णन किया गया है। इन छह प्रकारके गणितोमे चचल मन एकाग्र हो जाता है। मनके एकाग्र होनेसे आत्माकी मलिनता दूर होने लगती है तथा स्वरूपाचरणको प्राप्ति हो जाती है । णमोकार मन्त्रमे सामान्यकी अपेक्षा, पांच या विशेषको अपेक्षा ग्यारह पद, चौंतीस स्वर, तीस व्यजन, अट्ठावन मात्राओद्वारा गणित-क्रिया सम्पन्न की जाती है। यहां सक्षेपमे उक्त छहो प्रकारकी विधियोका दिग्दर्शन कराया जायेगा। ___भंगसख्या-किसी भी अभीष्ट पदसंख्यामे एक, दो, तीन आदि संख्याको अन्तिम गच्छ सख्या एक रखकर परस्पर गुणा करनेपर कुल भंगसख्या आती है । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने भंगसख्या निकालनेके लिए निम्न करण सूत्र बतलाया है
सव्वेपि पुन्वमंगा उवरिममगेसु एक्कमस्केसु ।
मेलतित्ति य कमतो गुणिदे उप्पज्जदे मंख्या ॥३६॥ अर्थ-पूर्वके सभी भग आगेके प्रत्येक मंगमे मिलते हैं, इमलिए क्रमसे गुणा करनेपर सख्या उत्पन्न होती है ।
उदाहरण के लिए णमोकार मन्त्रकी सामान्य पदसख्या ५ तथा विशेष पदसंख्या ११ तथा मात्राओं की संख्या ५८ को ही लिया जाता है। जिस
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मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन १४९ सख्याके भग निकालने है, वही सख्या गच्छ कहलायेगी। अत यहां सर्वप्रथम ११ पदोकी भगसख्या लानी है, इसलिए ११ गच्छ हुआ। इसको एक-दोतीन आदि कर स्थापित किया - १२२।३।४।५।६।७।८।९।१०।११ ।
इस पदसख्यामे एक सख्याका भग एक ही हुआ, क्योकि एकका पूर्ववर्ती कोई अक नही है, अत. एकको किसीसे भी गुणा नही किया जा सकता है। दो सख्याके भग दो हुए, क्योकि दोको एक भगसख्यासे गुणा करनेपर दो गुणनफल निकला । तीन सख्याके भग छह हुए, क्योंकि तीनको दोकी भगसख्यासे गुणा करनेपर छह हुए। चार सख्याके भग चौबीस हुए, क्योकि तीनकी भंगसस्या छहको चारसे गुणा करनेपर चौबीस गुणनफल निष्पन्न हुआ । पाँच सख्याके भंग एक सौ बीस हैं, क्योकि पूर्वोक्त सख्याके चौबीस भगोको पांचसे गुणा किया, जिससे १२० फल आया। छह सख्याके भग ७२० आये, क्योकि पूर्वोक्त सख्या १२०४६ = ७२० सख्या निष्पन्न हुई । सात सख्याके भंग ५०४० हुए, क्योकि पूर्वोक्त भगसख्याको सातसे गुणा करनेपर ७२०४७ = ५०४० मख्या निष्पन्न हुई। आठ सख्याके भग ४०३२० आये, क्योकि पूर्वोक्त सात अकको भगसख्याको आठसे गुणा किया तो ५०४०४८%= ४०३२० भगोकी सख्या निष्पन्न हुई। नौ सख्याके भग ३६२८८० हुए, क्योकि पूर्वोक्त आठ अककी भगसख्याको ९ से गुणा किया। अत ४०३२०४९%D ३६२८८० भगसख्या हुई । दस सख्याकी भगसख्या लाने के लिए पूर्वोक्त नौ अककी भगसंख्याको दससे गुणा कर देनेपर अभीष्ट अक दसकी भगसख्या निकल आयेगी। मत ३६२८८०४१० = ३६२८८०० भगसस्या दसके अककी हुई। ग्यारहवें पदकी भगसख्या लानेके लिए पूर्वोक्त दसकी भगसख्याको ग्यारहसे गुणा कर देनेपर ग्यारहवें पदकी भगसख्या निकल आयेगी। मत ३६२८८००४११ = ३९९१६८०० ग्यारहवें पदकी भंगसंख्या हुई।
प्रधान रूपसे णमोकार मन्त्रमे पांच पद है। इनकी भगसख्या = १।२।३।४।५, १४१ = १,१४२ %२२४३% ६;६४४% २४;
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मंगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन
२४४५ = १२० हुई। ५८ मात्राओ, ३४ स्वरो और ३० व्यजनोको भी गच्छ बनाकर पूर्वोक्त विधिसे भगसख्या निकाल लेनी चाहिए। भगसख्या लानेका एक सस्कृत करणसूत्र निम्न है। इस करणसूत्रका आशय पूर्वोक्त गाथा करणसूत्रसे भिन्न नहीं है । मात्र जानकारीकी दृष्टिसे इस करणसूत्रको दिया जा रहा है। इसमें गाथोक्त 'मेलता के स्थानपर 'परस्परहता.' पाठ है, जो सरलताको दृष्टिसे अच्छा मालूम होता है । यद्यपि गाथामे भी 'गुणिदा' मागेवाला पद उसी अर्थका द्योतक है । कहा गया है कि पदोको रखकर "एकाद्या गच्छपर्यन्ताः परस्परहताः। राशयस्तद्धि विज्ञेयं विकल्पगणिते फलम् ॥" अर्थात् एकादि गच्छोका परस्पर गुणा कर देनेसे भगसख्या निकल जाती है।
इस गणितका अभिप्राय णमोकार मन्त्रके पदो-द्वारा अक-संख्या निकालना है । मनको अभ्यस्त और एकाग्न करनेके लिए णमोकार मन्त्रके पदोका सीधा-सादा क्रमवद्ध स्मरण न कर व्यतिक्रम रूपसे स्मरण करना है । जैसे पहले 'णमो सिद्धाण' कहनेके अनन्तर 'णमो लोए सवसाहणं' पदका स्मरण करना। अर्थात् 'णमो सिद्धाण, णमो लोए सव्वसाहूणं, णमो आइरियाणं, णमो अरिहंताण, णमो उबज्मायाणं' इस प्रकार स्मरण करना अथवा "णमो अरिहताणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सब्वसाहूणं, णमो आइरियाणं, णमो सिद्धाणं' इस रूप स्मरण करना या किन्ही दो पद, तीन पद या चार पदोका स्मरण कर उस सख्याका निकालना । पदोंके क्रममें किसी भी प्रकारका उलट-फेर किया जा सकता है।।
यहाँ यह आशका उठती है कि णमोकार मन्त्रके क्रमको बदलकर उच्चारण, स्मरण या मनन करनेपर पाप लगेगा, क्योकि इस अनादि मन्त्रका क्रमभग होनेसे विपरीत फल होगा। मत यह पद-विपर्ययका सिद्धान्त ठीक नहीं जंचता । श्रद्धालु व्यक्ति जब साधारण मन्त्रोके पद विपर्ययसे डरता है तथा अनिष्ट फल प्राप्त होनेके अनेक उदाहरण सामने प्रस्तुत हैं, तब इस महामन्त्र में इस प्रकारका परिवर्तन उचित नहीं लगता।
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मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन १५१ इस शंफाका उत्तर यह है कि किसी फलको प्राप्ति करनेके लिए गृहस्थको भगसख्या-द्वारा णमोकारमन्त्रके व्यानकी आवश्यकता नहीं। जबतक गृहस्थ अपरिग्रही नहीं बना है, घरमें रहकर ही साधना करना चाहता है, तबतक उसे उक्त क्रमसे ध्यान नही करना चाहिए। अत जिस गृहस्थ व्यक्तिका मन संसारके कार्योंमें आसक्त है, वह इस भगसख्या-द्वारा मनको स्थिर नहीं कर सकता है। त्रिगुप्तियोका पालन करना जिसने आरम्भ कर दिया है, ऐसा दिगम्बर, अपरिग्रही साधु अपने मनको एकाग्र करनेके लिए उक्त क्रम-द्वारा ध्यान करता है । मनको स्थिर करनेके लिए क्रम-व्यतिक्रम रूपसे ध्यान करनेको आवश्यकता पडती है । अतः गृहस्यको उक्त प्रयोगको प्रारम्भिक अवस्थामें आवश्यकता नही है। हाँ, ऐसा व्रती श्रावक, जो प्रतिमा योग धारण करता है, वह इस विधिसे णमोकार मन्त्रका ध्यान करनेका अधिकारी है । अतएव ध्यान करते समय अपना पद, अपनी शक्ति और अपने परिणामोका विचार कर ही आगे बढना चाहिए।
प्रस्तार--आनुपूर्वी और अनानुपूर्वीके अगोका विस्तार करना प्रस्तार है । अथवा लोम-विलोम क्रमसे आनुपूर्वीवी सख्याको निकालना प्रस्तार है । णमोकाग्मन्त्रके पांच पदोकी भगसख्या १२० आयी है, इसकी प्रस्तार-पक्तियां भी १२० होती हैं। इन प्रस्तार-पक्तियोमें मनको स्थिर किया जाता है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने गोम्मटसार जीवकाण्डमे प्रमादका प्रस्तार निकाला है। इसी क्रमसे णमोकार मन्त्रके पदोका भी प्रस्तार निकालना है। गाथा सूत्र निम्न प्रकार है -
पढमं पमदपमाणं कमेण णिक्खिविय उवरिमाण च । पिंडं पछि एक्के मिक्खित्ते होदि पत्यारो ॥३७॥ णिक्खित्तु विदियमत्त पढमं तस्सुवरि विदियमेक्केक्कं । पिंटं पडि णिक्खेओ एवं सव्वत्यकायन्वो ॥३८।। अर्थात् -- गच्छ प्रमाण पद सख्याका विरलन करके उसके एक एक रूपके प्रति उसके पिण्डका निक्षेपण करने पर प्रस्तार होता है। अथवा
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१५२ मंगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन आगेवाले गच्छ प्रमाणका विरलन कर, उससे पूर्ववाले भगोको उस विर. लनपर रख देने और योग कर देनेसे प्रस्तारकी रचना होती है। जैसे यहां ३ पदसख्याका ४ पदसख्याके साथ प्रस्तार तैयार करना है। तीन । पद-सख्याके अग ६ आये हैं । अतः प्रथम रीतिसे प्रस्तार तैयार करनेके लिए तीन पदकी मगसंख्याका विरलन किया तो १।१।१।१।१।१ हुआ। इसके ऊपर आगेकी पद सख्याकी स्थापना की तो-४४४४४४ = २४ हए।
१११११११११११ इनका आगेवाली पद सख्याके साथ प्रस्तार बनाना हो तो इस २४ सख्याका विरलन किया ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५५५५५५५५५५५५५५५५
११११११११११११११११११११११११११११११।११।१।१।१११ ५५ और इसके ऊपर आगेवाली सख्या स्थापित कर दी तो सबको जोड देनेपर प्रस्तार बन जाता है। यह प्रस्तारसख्या १२० हुई। द्वितीय विधिसे प्रस्तार निकालने के लिए जिस गच्छ प्रमाणका प्रस्तार बनाना हो, उसीका विरलन कर, पूर्वकी भगसख्याको उसके नीचे स्थापित कर दिया जाता है
और सबको जोड देनेपर प्रस्तार हो जाता है। जैसे यह ४ पद-सख्याका प्रस्तार निकालना है तो इस चारका विरलन कर दिया-१.१.१.१ और
६६६६ इस विरलनके नीचे पूर्वकी भगसस्याको स्थापित कर दिया और सवको जोड दिया तो २४ संख्या चौथे पदकी आयी। यदि पांचवें पदका प्रस्तार बनाना हो तो इस पाँचका विरलन कर चौथे पदकी सख्याको इसके नीचे स्थापित कर देनेसे द्वितीय विधिके अनुसार प्रस्तार आयेगा । अत
. इसका योग किया तो १२० प्रस्तार आया। इस २४।२४,२४।२४१२४ २० प्रकार णमोकार मन्त्रके ५ पदोकी पक्तियां १२० होती हैं । यहाँपर छहछह पक्तियोके दस वर्ग बनाकर लिखे जाते हैं । इन वर्गोसे इस मन्त्रकी ध्यान विधिपर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
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मगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन
द्वितीय वर्ग तृतीय वर्ग
प्रथम वर्ग
चतुर्थ वर्ग
३
३
-
पचम वर्ग
पष्ठ वर्ग
सप्तम वर्ग
_
..I.
M
-
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१५४
मगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन अष्टम वर्ग नवम वर्ग दशम वर्ग
1
२
इस प्रकार क्रम-व्यतिक्रम-स्थापन द्वारा एक सौ बीस पक्तियां भी बनायी जाती हैं । इसका अभिप्राय यह है कि प्रथम वर्गकी प्रथम पक्तिमें णमोकार मन्त्र ज्योका त्यो है, द्वितीय पक्तिमे प्रथम दो अकसल्या रहनेसे इस मन्त्रका प्रथम द्वितीय पद, अनन्तर एक सख्या होनेसे प्रथम पद, पश्चात् तीन सख्या होनेसे तृतीयपद, अनन्तर चार अक सख्या होनेसे चतुर्थपद और अन्तमे पांच अक सस्या होनेसे पचम पदका इस मन्त्रमें उच्चारण किया जायेगा अर्थात् प्रथम वर्गको द्वितीय पक्तिका मन्त्र इस प्रकार रहेगा-"णमो सिद्धाणं, णमो अरिहवाणं, णमो आइरियाण, णमो उवज्झायाण, णमो लोए सब्बसाहूण।" प्रथम वर्गकी तृतीय पक्तिमे पहला एकका अक है, अतः इस मन्त्रका प्रथम पद, दूसरा तीनका अक है, अत इस मन्त्रका तृतीयपद, तीसरा दोका अक है, अत इस मन्त्रका द्वितीय पद, चौथा चारका अक है, मत मन्त्रका चतुर्थपद एव पांचवां पाँचका अक है, अत. इस मन्यका पचम पदका उच्चारण किया जायेगा। अर्थात् मन्त्रका रूप ",मो अरिहताण णमो आइरियाणं णमो सिद्धाण णमो उवज्झायाण णमो कोए
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" होगा।
तीयपद, चतुर
जमो भरिह
मंगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन १५५ सव्वसाहूण" होगा। इसी प्रकार चौथी पक्तिमे प्रथम स्थानमे तृतीयपद, द्वितीयमे प्रथमपद, तृतीयमे द्वितीयपद, चतुर्थ स्थानमे चतुर्थपद और पचम स्थानमे पचमपद होनेसे - "णमो आइरियाणं णमो अरिहंताणं णमो सिन्हाण णमो उवज्झायाण णमो लोए सव्वसाहणं' यह मन्त्रका रूप होगा । प्रथम वर्गकी पांचवी पक्तिके प्रथम स्थानमे द्वितीय पद, द्वितीय स्थानमे तृतीय पद, चतुर्थ स्थानमे चतुर्थपद और पचम स्थानमे पचमपद होनेसे "णमो सिद्धाणं णमो आइरियाण णमो अरिहताणं णमो उवज्झायाण णमो लोए सव्वसाहूण" यह मन्त्रका रूप हुआ। छठवीं पक्तिमे प्रथम स्थानमे तृतीयपद, द्वितीय स्थानमे द्वितीयपद, तृतीय स्थानमे प्रथमपद, चतुर्थ स्थानमे चतुर्यपद और पचम स्थानमे पचम पदके होनेसे "णमो आइरियाणं, णमो सिद्धाण, णमो अरिहताण, णमो उवज्झायाणं, णमो कोए सव्वलाहूणं" मन्त्रका रूप होगा।
इसी प्रकार द्वितीय वर्गकी प्रयम पक्तिमें "णमो अरिहंताण णमो सिद्धाण णमो आइरियाणं णमो लोए सब्बसाहूणं णमो उवज्झायाण" यह मन्त्रका रूप होगा। द्वितीय पक्तिमें "णमो सिद्धाणं णमो अरिहंताण णमो आइरियाण णमो लोए सवसाहूणं णमो उवज्झायाण" यह मन्त्र, तृतीय पक्तिमें "णमो अरिहवाणं णमो आइरियाण णमो सिन्द्वाणं णमो लोए सम्बसाहुण णमो उवज्झायाण" यह मन्त्र, चतुर्थ पक्तिमे णमो भाइरियाणं णमो अरिहंताण णमो सिद्धाणं णमो लोए सब्बसाहूणं णमो उवज्झायाणं' यह मन्त्र, पचम पक्तिमे "णमो सिद्धाणं णमो भाइरियाण णमो अरिहताण णमो लोए सब्बसाहूण णमो उवज्झायाण" यह मन्त्र और पष्ठ पक्तिमे "णमो भाइरियाणं णमो सिद्धाण णमो अरिहताणं णमो लोए सवसाहूण णमो उबज्मायाणं" यह मन्त्रका रूप होगा।
तृतीय वर्गकी प्रथम पक्तिमें "णमो मरिहंताणं णमो सिद्धाण णमो उवज्झायाण णमो लोए सव्वसाहूणं णमो भाइरियाण" द्वितीय पक्तिमे "णमोमिद्धाणं णमो मरिहताणं णमो उवज्झायाण णमो लोए सव्यसाहणं
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१५६ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन णमो आइरियाणं", यह मन्त्र; तृतीय पक्तिमें "णमो अरिहंताणं णमो उवज्झायाणं णमो सिद्धाण णमो लोए सव्वसाहूणं णमो आइरियाणं" यह मन्त्र; चतुर्थ पक्तिमें “णमो उवज्झायाण णमो मरिहंताणं णमो सिद्धाण णमो लोए सम्बसाहूर्ण गमो भाइरियाण" यह मन्त्र; पचम पक्तिमे "णमो सिद्धाण णमो उवज्झायाणं णमो अरिहंताणं णमो लोए सव्वसाहूणं णमो आइरियाण" यह मन्त्र; और छठवी पंक्तिमे "णमो उवज्झायाणं णमो सिद्धाणं णमो अरिहंताणं णमो लोए सम्वताहूणं णमो आइरियाणं" यह मन्त्र का रूप होगा।
चतुर्थ वर्गकी प्रथम पक्तिमे "णमो भरिहंताणं णमो आइरियाण णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं णमो सिद्धाणं" यह मन्त्र, द्वितीय पक्तिमे "णमो माइरियाण णमो अरिहंताणं णमो उवज्झायाण णमो लोए सव्वसाहूणं णमो सिद्धाणं" यह मन्त्र, तृतीय पक्तिमे 'णमो अरिहताणं णमो उवज्झायाणं णमो भाइरियाणं णमो लोए सब्बसाहूण, णमो मिद्धार्ण" यह मन्त्र; चतुर्थ पक्तिमे "णमो उवज्झायाणं णमो अरिहंताणं णमो आइरियाणं णमो लोए सब्बसाहूणं णमो सिद्धाणं" यह मन्त्र; पंचम पक्तिमे "णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो अरिहंताण णमो लोए सव्वसाहणं णमो सिद्धाण" यह मन्त्र और छठवी पक्तिमे “णमो उवज्झायाण णमो श्राइरियाणं णमो अरिहताणं णमो लोए सव्वसाहूणं णमो सिद्धाण" यह मन्त्रका रूप होगा।
पचम वर्गकी प्रथम पक्तिमे "णमो सिद्धाण णमो आइरियाणं णमो उवझायाण णमो लोए सब्यसाहूण णमो अरिहंताणं" यह मन्त्र, द्वितीय पक्तिमे "णमो आइरियाणं णमो सिद्धाण णमो उवझायाणं णमो लोए सच्चसाहणं णमो अरिहंताणं" यह मन्त्र; तृतीय पक्तिमे "णमो सिद्धाण णमो उवज्झायाणं णमो आइरियाणं णमो लोए सन्वसाहणं णमो अरिहंसाण" यह मन्त्र; चतुर्थ पक्तिमे "णमो उवज्झायाणं णमो सिद्धाणं णमो भाइरियाणं णमो लोए सव्वसाहूणं णमो अरिहंताणं" यह मन्त्र; पंचम
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मंगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन १५७ पक्तिमे "णमो आइरियाणं णमो उबझायाणं णमो सिद्धाणं णमो लोए सवमाहूणं णमो अरिहंताण" यह मन्त्र और षष्ठ पक्तिमे "णमो उवझायाणं णमो आइरियाणं णमो सिद्धाणं णमो लोए सव्वसाहूणं णमो अरिहवाणे" यह मन्त्रका रूप होगा।
पष्ठ वर्गकी प्रथम पक्तिमे "णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो उवज्झायाणं णमो आइरियाणं णमो लोए सम्बसाहूण" यह मन्त्र, द्वितीय पक्तिमे "णमो सिद्धाणं णमो अरिहंताणं णमो उवज्झायाण णमो आइरियाणं णमो लोए सव्यसाहूण" यह मन्य, तृतीय पक्तिमे “णमो अरिहताणं णमो उवज्झायाणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाण णमो लोए सम्बसाहूणं" यह मन्त्र, चतुर्थ पक्तिमे 'णमो सिद्धाणं णमो उवज्झायाणं णमो भरिहताणं णमो आइरियाणं णमो लोए सव्वसाहूणं 'यह मन्त्र; पचम पक्तिमे "णमो उवज्झायाण णमो सिद्धाणं णमो अरिहंताणं णमो आइरियाणं णमो लोए सध्वमाहूण" यह मन्त्र और पष्ठ पक्तिमे "णमो उवज्झायाण णमो अरिहताण णमो सिद्धाण णमो आइरियाण णमो लोए सव्वसाहूण" यह मन्त्रका रूप होगा।
सप्तम वर्गकी प्रथम पक्तिमे "णमो अरिहताणं णमो सिद्धाणं णमो लोए सव्वसाहूण णमो माहरियाणं णमो उवज्झायाणं" यह मन्त्र, द्वितीय पंक्तिमे "णमो सिन्दाणं णमो भरिहंताणं णमो लोए सव्वमाहणं णमो आइरियाणंणमो उवज्डायाणं" यह मन्त्र, तृतीय पक्तिमे "णमो अरिहताण णमो लोए सव्वमाहूण णमो सिद्धाणं णमो आइरियाण णमो उवज्झायाण" यह मन्त्र, चतुर्थ पक्तिमे "णमो लोए सव्वसाहणं णमो मरिहताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाण णमो उवज्मायाणं" यह मन्त्र
और पचम पक्तिमे "णमो सिद्धाणं णमो लोए सव्वसाहूणं णमो अरि. हंताणं गमो भाइरियाणं णमो उवज्झायाण" यह मन्त्र और पष्ठ पक्तिमे "णमो लोए सव्वसाहूण णमो सिद्धाणं णमो अरिहताणं णमो आइरियाणं णमो उवझायाण" यह मन्त्रका रूप होता है।
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१५८
मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
___ अष्टम वर्गकी प्रथम पक्तिमे "मो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो लोए सव्वस्साहूणं णमो उवज्झायाणं णमो आइरियाण" यह मन्त्र; द्वितीय पंक्तिमे "णमो सिद्धाणं णमो अरिहंताणं णमो लोए सव्वसाहूणं णमो उवज्झायाणं णमो भाइरियाण" यह मन्त्र; तृतीय पक्तिमे, "णमो अरिहंताणं णमो लोए सन्वसाहूर्ण णमो सिद्धाणं णमो उवज्यायाणं णमो आइरियाणं" यह मन्त्र, चतुर्थ पक्तिमे "णमो लोए सबसाहूणं णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो उबझायाणं णमो भाइरियाण" यह मन्त्र, पचम पक्तिमे "णमो सिद्धाणं णमो लोए सबसाहूण णमो भरिहताण णमो उवज्झायाणं णमो आइरियाणं" यह मन्त्र और षष्ठ पक्तिमें "णमो लोए सव्वसाहूण णमो सिद्धाणं णमो भरिहताणं णमो उवज्झायाणं णसो आइरियाण' यह मन्त्रका रूप होता है।
नवम वर्गकी प्रथम पक्तिमे "णमो अरिहंताणं णमो आइरियाणं णमो लोए सबसाहूणं णमो उवज्भायाण णमो सिद्धाणं" यह मन्त्र, द्वितीय पक्तिमे "णमो भाइरियाणं णमो अरिहंताणं णमो लोए सवसाहूर्ण णमो उवज्झायाणं णमो सिद्धाण" यह मन्त्र, तृतीय पक्तिमें "णमो अरिहताणं णमो लोए सब्बसाहूण णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो सिद्धाणं" यह मन्त्र, चतुर्थ पक्तिमे "णमो लोए सव्व माहूणं णमो अरिहंताणं णमो भाइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो सिद्धाणं" यह मन्त्र, पचम पक्तिमे "णमो माइरियाणं णमो लोए सबसाहूण णमो मरिहताणं णमो उवज्मायाण णमो सिद्धाणे" यह मन्त्र और षष्ठ पक्तिमें "णमो लोए सव्वसाहूणं णमो भाइरियाण णमो अरिहंताणं णमो उवज्झायाणं णमो सिन्हाण" यह मन्त्रका रूप होता है।
दशम वर्गकी प्रथम पंक्तिमे "णमो सिद्ध ण णमो माइरियाणं णमो लोए सव्वसाहूणं णमो उवज्शायाण णमो अरिहंताण"यह मन्त्र, द्वितीय पक्तिमे "णमो माइरियाणं णमो सिद्धाणं णमो लोए सव्वसाहूणं णमो उवज्झायाणं णमो अरिहंताणं" यह मन्त्र, तृतीय पक्तिमें "णमो सिद्धाणं णमो
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन १५९ लोए सन्धमाहूणं णमो आइग्यिाणं णमो उवज्झायाणं णमो अरिहंताण" यह मन्त्र; चतुर्थ पक्तिमे "णमो लोए सवसाहणं णमो सिद्धाणं णमो माइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो अरिहंताणे" यह मन्त्र, पचम पक्तिमे "णमो आइरियाणं णमो लोए सवसाहणं णमो सिद्धाणं णमो उवज्झायाणं णमो अरिहंताणं" यह मन्त्र, और षण्ठ पक्तिमे “णमो लोए सवसाहूणं णमो आइरियाणं णमो सिद्धाणं णमो उवज्झायाणं णमो अरिहनाणं" यह मन्त्रका रूप होता है। इस प्रकार १२० रूपान्तर णमोकार मन्त्रके होते हैं। ___णमोकार मन्त्रका उपर्युक्त विधिके उच्चारण तथा ध्यान करनेपर लक्ष्यको दृढता होती है तथा मन एकाग्र होता है, जिससे कर्मोकी असख्यातगुणी निर्जरा होती है । इन अकोंको क्रमबद्ध इसलिए नही रखा गया है कि क्रमबद्ध होनेमे मनको विचार करनेका अवसर कम मिलता है, फलत मन संसारतन्त्रमे पडकर धर्मकी जगह मार-धाड कर बैठता है । आनुपूर्वी क्रमसे मन्त्रका स्मरण और मनन करनेसे आत्मिक शान्ति मिलती है। जो गृहस्थ व्रतोपवास करके धर्मव्यानपूर्वक अपना दिन व्यतीत करना चाहता है, वह दिन-भर पूजा तो कर नहीं सकता। हाँ, स्वाध्याय अवश्य अधिक देर तक कर सकता है। अतः व्रती श्रावकको उपर्युक्त विघिसे इस मन्त्रका जाप कर मन पवित्र करना चाहिए। जिसे केवल एक माला फेरनी हो, उसे तो सीधे रूपमें ही णमोकार मन्त्रका जाप करना चाहिए । पर जिस गृहस्थको मनको एकाग्र करना हो, उसे उपर्युक्त क्रमसे जाप करनेसे अधिक शान्ति मिलती है । जो व्यक्ति स्नानादि क्रियाओसे पवित्र होकर श्वेत वस्त्र पहनकर कुशासनपर बैठ उपर्युक्त विधिसे इस मन्त्रका १०८ वार स्मरण करता है अर्थात् १२०x१०८ वार उपाशु जाप - वाहरी-भीतरी प्रयास तो दिखलाई पडे, पर कण्ठसे गन्दोच्चारण न हो, कण्ठमे ही शब्द अन्तर्जल्प करते रहे, करे तो वह कठिन कार्यको सरलतापूर्वक सिद्ध कर लेता है । लौकिक सभी प्रकारकी मन.कामनाएं उक्त प्रकारसे जाप
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मंगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
करनेपर सिद्ध होती हैं। दिगम्बर मुनि कर्मक्षय करनेके लिए उक्त प्रकारका जाप करते हैं। जबतक रूपातीत ध्यानकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक इस मन्त्र-द्वारा क्रिया पदस्थ ध्यान असख्यातगुणी निर्जराका कारण है।
परिवर्तन - भंग सख्यामे अन्त्य गच्छका भाग देनेसे जो लब्ध, आवे, वह उस अन्त्य गच्छका परिवर्तनाक होता है, इसी प्रकार उत्तरोत्तर गच्छोका भाग देनेपर जो लव्ध आवे वह उत्तरोत्तर गच्छसम्बन्धी परिवर्तनाक सख्या होती है । उदाहरणार्थ- पूर्वोक्त भंगसख्या ३९९१६८०० मे अन्त्यगच्छ ११ का भाग दिया तो ३९९१६८००-११ = ३६२८८०० परिवर्तनाक अन्त्यगच्छका हुआ । इसी तरह ३६२८८००-१० = ३६२८८० यह परिवर्तनाक दस गच्छका आया । ३६२८८०-९% ४०३२० यह परिवर्तनाक नो गच्छका आया । ४०३२०-८ =५०४० यह परिवर्तनाक आठ गच्छका हुआ। ५०४० ७ = ७२० परिवर्तनाक सात गच्छका आया । ७२०-६ - १२० यह परिवर्तनाक छह गच्छका, १२०-५= २४ परिवर्तनाक पांच गच्छका, २४-४ = ६ परिवर्तनाक चार गच्छका, ६-३ = २ परिवर्तनाक तीन गच्छका, २-२-१ परिवर्तनाक दो गच्छका एव १-१ = १ परिवर्तनाक एक गच्छका हुआ। परिवर्तनाक चक्र निम्न प्रकार बनाया जायेगा।
परिवर्तन चक्र
१ १ २ ६ २४|१२० ७२० ५०४०९४०३२०३६२८८० ३६२८८००
नष्ट और उहिष्ट - "रूपं स्वा पदानयन नष्ट" - सख्याको रखकर पदका प्रमाण निकालना नष्ट है। इसकी विधि है कि भगसख्याका भाग देनेपर जो शेष रहे, उस शेष सख्यावाला भग ही पदका मान होगा । पूर्वमे २४.२४ भगोके कोठे बनाये गये हैं। अतः शेष तुल्य पद समझ लेना
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन १६१ चाहिए। एक शेषमे 'णमो अरिहंताणं' दो शेषमे 'णमो सिद्धाण' तीन शेषमे ‘णमो माइरियाण' चार शेषमे ‘णमो उवज्झायाण' और पांच शेषमे 'णमो लोए सम्बसाहूर्ण' पद समझना चाहिए। उदाहरणार्थ४२ सख्याका पद लाना है। यहां सामान्य पदसख्या ५ से भाग दिया तो-४२-५ -८, शेष २। यहां शेष पद ‘णमो सिद्धाणं' हुआ। ४२वां भग पूर्वोक्न वर्गोमे देखा तो 'णमो सिद्धाण' का आया ।
"पदं धृत्वा रूपानयनमुहिष्टः"-पदको रखकर संख्याका प्रमाण निकालना उद्दिष्ट होता है । इसकी विधि यह है कि 'णमोकार मन्त्रके पदको रखकर संख्या निकालनेके लिए "संठाविदूण एवं उवरीयो संगुणित्त मगमाणे। अवणिज अणंकदिय कुजा एमेव सवय' । अर्थात् एकका अंक स्थापन कर उसे सामान्यपदसख्यासे गुणा कर दे। गुणनफल. में-से अनकित पदको घटा दे, जो शेष आवे, उसमे ५, १०, १५, २०, २५, ३०, ३५, ४० ४५, ५०, ५५, ६०, ६५, ७०, ७५, ८०, ८५, ९०, ९५, १००, १०५, ११०, ११५ जोड देनेपर भगसख्या आती है। अपुनरुक्त भगसख्या १२० है, मत ११५ ही उसमे जोडना चाहिए। उदाहरण 'णमो सिद्धाण' पदकी भगसख्या निकालनी है । अत यहाँ १ सख्या स्थापित कर गच्छ प्रमारणसे गुणा किया। १४५% ५, इसमें-से अनकित पद संख्याको घटाया तो यहां यह अनकित संख्या ३ है। अत. ५-३ = २ सख्या हुई । २+५= ७वा भंग, २+ १० = १२वा भंग, १५+२ = १७वां भग, २०+२% २२वां भंग,२५+२% २७वा भंग, ३०+२ = ३२वा भग, ३५+२ = ३७वा भग, ४०+२= ४२वा भग, ४५+२ = ४७वा भग, ५०+२= ५२वा भग, ५५+२= ५७वां भग, ६०+२ = ६२वां भग, ६५+२= ६७वां भग,७०+२ = ७२वा भग, ७५+२ = ७७वां भंग,८०+२%3D ८२वा भंग, ८५+२= ८७ वां भंग, ९०+२ = ९२वां भग, ९५ + २ = ९७वां भग, १००+२%१०२वाँ भग, १०५+२%3D१०७वां भग,११०+२= ११२वा भग, ११५+२%
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मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
११७व भंग हुआ । अर्थात् ' णमो सिद्धाणं' यह पद २, ७, १२वीं, १७वाँ, ११७व भग है । इसी प्रकार नष्टोद्दिष्टके गरिणत किये जाते हैं । इन गरिणतोंके द्वारा भी मनको एकाग्र किया जाता है तथा विभिन्न क्रमों द्वारा णमोकार मन्त्रके जाप द्वारा ध्यानकी सिद्धि की जाती है । यह पदस्थ ध्यानके अन्तर्गत है तथा पदस्थध्यानकी पूर्णता इस महामन्त्रकी उपर्युक्त जाप विधिके द्वारा सम्पन्न होती है । साधक इस महामन्त्रके उक्त क्रमसे जाप करनेपर सहस्रो पापोंका नाश करता है । आत्माके मोह और क्षोभको उक्त भगजाल द्वारा णमोकार मन्त्रके जापसे दूर किया जाता है ।
मानव जीवनको सुव्यवस्थित रूपसे यापन करने तथा इस अमूल्य मानवशरीर द्वारा चिरस चित कर्मकालिमाको दूर करनेका मार्ग बतलाना आचारशास्त्रका विषय है । आचारशास्त्र जीवनके आचारशास्त्र और विकासके लिए विधानका प्रतिपादन करता है, णमोकार मन्त्र यह आबालवृद्ध सभीके जीवनको सुखी बनानेवाले नियमोंका निर्धारण कर वैयक्तिक और सामाजिक जीवनको व्यवस्थित वनाता है । यो तो आचार शब्दका अर्थ इतना व्यापक है कि मनुष्यका सोचना, बोलना, करना आदि सभी क्रियाएं इसमें परिगणित हो जाती है | अभिप्राय यह है कि मनुष्यकी प्रत्येक प्रवृत्ति और निवृत्तिको आचार कहा जाता है । प्रवृत्तिका अर्थ है, इच्छापूर्वक किसी काममे लगना और निवृत्तिका अर्थ है, प्रवृत्तिको रोकना । प्रवृत्ति अच्छी और बुरी दोनो प्रकारकी होती है । मन, वचन और कायके द्वारा प्रवृत्ति सम्पन्न की जाती है। अच्छा सोचना, अच्छे वचन बोलना, अच्छे कार्य करना, मन, वचन, कायकी सत्प्रवृत्ति और बुरा सोचना, बुरे वचन बोलना, बुरे कार्य करना असत्प्रवृत्ति है ।
अनादिकालीन कर्मसंस्कारोंके कारण जीव वास्तविक स्वभावको भूले हुए हैं, अतः यह विषय वासनाजन्य सुखको ही वास्तविक सुख समझ
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन १६३ रहा है। ये विषय-सुख भी आरम्भमे बडे सुन्दर मालूम होते हैं, इनका रूप वडा ही लुभावना है, जिसकी भी दृष्टि इनपर पडती है, वही इनकी ओर आकृष्ट हो जाता है, पर इनका परिणाम हलाहल विषके समान होता है । कहा भी है - "मापातरम्ये परिणामदुःखे सुखे कथं वैषयिके रतोऽसि" अर्थात् – वैषयिक सुख परिणाममे दुखकारक होते हैं, इनसे जीवनको क्षणिक शान्ति मिल सकती है, किन्तु अन्तमे दुखदायक ही होते हैं । आचारशास्त्र जीवको सचेत करता है तथा उसे विषय-सुखोमे रत होनेसे रोकता है । मोह और तृष्णाके दूर होनेपर प्रवृत्ति सत् हो जाती है, परन्तु यह सत्प्रवृत्ति भी जव-तब अपनी मर्यादाका उल्लघन कर देती है । अतएव प्रवृत्तिकी अपेक्षा निवृत्तिपर ही आचारशास्त्र जोर देता है। निवृत्ति - मार्ग ही व्यक्तिकी आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक शक्तिका विकास करता है प्रवृत्तिमार्ग नही । प्रवृत्तिमार्गमे समलकर चलनेपर भी जोखिम उठानी पड़ती है, भोग-विलास जव-तब जीवनको अशान्त बना देते हैं, किन्तु निवृत्तिमार्गमे किसी प्रकारका भय नहीं रहता। इसमे आत्मा रत्नत्रय रूप आचरणकी ओर बढता है तथा अनुभव होने लगता है कि जो आत्मा ज्ञाता, द्रष्टा है, जिसमे अपरिमित वल है, वह मैं हूँ। मेरा सासारिक विषयोसे कुछ भी सम्बन्ध नही है। मेरा आत्मा शुद्ध है, इसमे परमात्माके सभी गुण वर्तमान हैं । शुद्ध आत्माको ही परमात्मा कहा जाता है । अत शक्तिको अपेक्षा प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा है । इस प्रकार जैसेजैसे आत्मतत्त्वका अनुभव होता है, वैसे-वैसे ऐन्द्रियिक सुख सुलभ होते हुए भी नही रुचते हैं।
निवृत्तिमार्गकी ओर अथवा सत्प्रवृत्तिमार्गकी ओर जीवको प्रवृत्ति तभी होती है, जब वह रत्नग्रयरूप आत्मतत्त्वकी आराधना करता है। णमोकार मन्त्रमे आरावना ही है। इस मन्त्रका चिन्तन, मनन और स्मरण करनेते रत्नत्रयरूप आत्माका अनुभव होता है, जिससे मन, वचन और कायकी सत्प्रवृत्ति होती है तथा कुछ दिनोके पश्चात् निवृत्तिमार्गकी ओर भी व्यक्ति
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१६४ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन अपने-आप झुक जाता है। विषय कषायोसे इसे अरुचि हो जाती है । इस महामन्त्रके जप और मननमे ऐसी शक्ति है कि व्यक्ति जिन बाह्य पदार्थोमे सुख समझता था, जिनके प्राप्त होनेसे प्रसन्न होता था, जिनके पृथक् होनेसे इसे दुःखका अनुभव होता था, उन सबको क्षण भरमे छोह देता है । आत्माके अहितकारक विषय और कषायोसे भी इसकी प्रवृत्ति हट जाती है। इन्द्रियोकी पराधीनता, जो कि कुगतिकी और जीवको ले जानेवाली है, समाप्त हो जाती है । मंगल वाक्यका चिन्तन समस्त पापको गलाने - नष्ट करनेवाला होता है और अनेक प्रकारके सुखोको उत्पन्न करनेवाला है। अतः सुखाकाक्षीको णमोकार मन्त्र-जैसे महा पावन मंगल वाक्योका चिन्तन, मनन और स्मरण करना आवश्यक है; जिससे उसकी राग-द्वेष निवृत्ति हो जाती है। करणलब्धिकी प्राप्तिमे सहायक णमोकार मन्त्र है, इससे अनन्तानुबन्धी और मिथ्यात्वका अभाव होते ही आत्मामे पुण्यास्रव होनेसे बद्ध कर्मजाल विशृखलित होने लगता है । ___णमोकार मन्त्रमें पचपरमेष्ठीका ही स्मरण किया गया है। पचपरमेष्ठीकी शरण जाने, उनकी स्मृति और चिन्तनसे राग-द्वेष रूप प्रवृत्ति रुक जाती है, पुरुषार्थकी वृद्धि होने लगती है तथा रत्नत्रय गुण आत्मामें आविर्भूत होने लगता है । आत्माके गुणोको आच्छादित करनेवाला मोह ही सबसे प्रधान है, इसको दूर करनेके लिए एकमात्र रामवाण पंचपरमेष्ठीके स्वरूपका मनन, चिन्तन और स्मरण ही है । णमोकार मन्त्र के उच्चारण मात्रसे आत्मामे एक प्रकारकी विद्युत् उत्पन्न हो जाती है, जिससे सम्यक्त्वकी निर्मलताके साथ सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रकी भी वृद्धि होती है। क्योकि इस महामन्त्रकी आराधना किसी अन्य परमात्मा या शक्तिविशेषकी आराधना नहीं है, प्रत्युत अपनी आत्माकी ही उपासना है। ज्ञान, दर्शन मय अखण्ड चैतन्य आत्माके स्वरूपका अनुभव कर अपने अखण्ड साधक स्वभावकी उपलब्धिके लिए इस महामन्त्र-द्वारा ही प्रयत्न क्यिा जाता है।
णमोकार मन्त्र या इस मन्त्र के अगभूत प्रभाव आदि वीजमन्त्रोके
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मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
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ध्यानसे आत्मा में केवलज्ञानपर्यायको उत्पन्न किया जा सकता है । साधक वाह्य जगत् से अपनी प्रवृत्तिको रोककर जब आत्ममय कर देता है, तो उक्त पर्यायकी प्राप्तिमे विलम्ब नहीं होता । णमोकार मन्त्रमे इतनी बढी शक्ति है जिससे यह मन्त्र श्रद्धापूर्वक साधना करनेवालोको आत्मानुभूति उत्पन्न कर देता है तथा इस मन्त्रके साधकमे प्रथम गुण आ जाता है | अतः णमोकार मन्त्र के द्वारा सम्यक्त्व और केवलज्ञान पर्यायें उत्पन्न हो सकती हैं । यद्यपि निश्चय नयकी अपेक्षा सम्यक्त्व और केवलज्ञान आत्मा सर्वदा विद्यमान हैं; क्योकि ये आत्माका स्वभाव हैं, इनमे परके अवलम्बनकी आवश्यकता नही । णमोकार मन्य आत्मासे पर नही है, यह आत्मस्वरूप है। अतएव निष्कामकी अपेक्षा यह महामन्त्र आत्मोत्थानके लिए आलम्बन नही है, किन्तु आत्मा ही स्वयं उपादान और निमित्त है यथा आत्माकी शुद्धिके लिए शुद्धात्माको अवलम्वन बनाया जाता है, इसका अर्थ है कि शुद्धात्माको देखकर उनके ध्यान द्वारा अपनी अशुद्धताको दूर किया जाता है अर्थात् आत्मा स्वय ही अपनी शुद्धिके लिए प्रयत्नशील होता है । णमोकार मन्त्र भाव और द्रव्य रूपसे आत्मामे इतनी शुद्धि उत्पन्न करता है जिससे श्रद्धागुणके साथ श्रावक गुण भी उत्पन्न हो जाता है । यद्यपि यह मानन्द आत्माके भीतर ही वर्तमान है, कही बाहरसे प्राप्त नही किया जाता है, किन्तु णमोकार मन्त्रके निमित्तके मिलते ही उबुद्ध हो जाता है । चरित्र और वीर्य आदि गुण भी इस महामन्त्रके निमित्तसे उपलब्ध किये जा सकते हैं । अतएव आत्माके प्रधान कार्य रत्नश्रय या उत्तम क्षमादि पक्ष धर्मकी उपलब्धिमे यह मन्त्र परम सहायक है ।
मुनि पंच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियजय, षट् आवश्यक, स्नानत्याग, दन्तधावनका त्याग, पृथ्वीपर शयन, खडे होकर भोजन लेना, दिनमे एक बार शुद्ध निर्दोष आहार लेना, नग्न रहना, और केशलु च करना इन अट्ठाईस मूल गुणोका पालन करते हैं । ये मध्य रात्रिमे चार
मुनिका आचार और णमोकार मन्त्र
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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन घड़ी निद्रा लेते हैं, पश्चात् स्वाध्याय करते है। दो घडी रात शेष रह जानेपर स्वाध्याय समाप्त कर प्रतिक्रमण करते है। तीनो सन्ध्याओंमे जिनदेवकी वन्दना तथा उनके पवित्र गुणोका स्मरण करते हैं । कायोत्सर्ग करते समय हृदयकमलमे प्राणवायुके साथ मनका नियमन करके ' णमो मरिहताण णमो सिद्धाणं णमो माइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूण" मन्त्रका प्राणायामकी विधिसे नौ बार जप करते हैं । कायोत्सर्गके पश्चात् स्तुति, वन्दना आदि क्रियाएँ करते हैं। इन क्रियाओमे भी णमोकार मन्त्रके ध्यानकी उन्हे आवश्यकता होती है। देवसिक प्रतिक्रमणके अन्त में मुनि कहता है -"पञ्चमहाव्रत-पञ्चसमिति-पञ्चेन्द्रियरोध-लोचषडावश्यकक्रिया-मष्टाविंशतिमूलगुणा उत्तमक्षमामार्दवाजवशौव-सत्यस यमतपस्त्यानाकिंचन्यग्रह्मचर्याणि दशलाक्षणिको धर्म., अष्टादशशीलसहस्राणि, चतुरशीतिलक्षगुणाः, त्रयोदशविधं चारित्रं, द्वादश विध तपश्चेति सकलं अर्हसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुसाक्षिकं सम्यक्त्वपूर्वक दृढव्रतं सुव्रतं समारूढं ते मे भवतु ।" ___अथ सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थ दैवसिक-प्रतिक्रमणक्रियायां कृतदोषनिराकरणार्थं पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ भावपूजावन्दनास्तवसमेतम् आलोचनासिद्धभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यह - इति प्रतिज्ञाप्य णमो अरिहंताणं इत्यादि सामायिकदण्डकं पठित्वा कायोत्सर्ग कुर्यात् ।
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि मुनिराज सर्व अतिचारकी शुद्धिके लिए देवसिक प्रतिक्रमण करते हैं, उस समय सकल कर्मोके विनाशके लिए भावपूजा वन्दना और स्तवन करते हुए कायोत्सर्ग क्रिया करते हैं तथा इस क्रियामे णमोकार मन्त्रका उच्चारण करना परमावश्यक होता है । नैशिक प्रतिक्रमणके समय भी "सर्वातिचारविशुद्धयर्थ नैशिकप्रतिक्रमणक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण भावपूजावन्दनास्तवसमेत प्रतिक्रमणमक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम्" पढकर णमोकार मन्त्ररूप दण्डकको पढकर कायोत्सर्गकी क्रिया सम्पन्न करता है। पाक्षिक प्रतिक्रमणके समय तो अढाई द्वीप,पन्द्रह कर्मभूमियो
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
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मे जितने अरिहन्त, केवलीजिन, तीर्थंकर, सिद्ध, धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, धर्म नायक, उपाध्याय, साधुकी भक्ति करते हुए इस मन्त्रके २७ श्वासोच्छ्वासोमे ९जाप करने चाहिए। प्रतिक्रमण दण्डक आरम्भमे ही 'णमो अरिहंताणं" आदि णमोकार मन्त्र के साथ "णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं, णमो परमोहिजिणाण, णमो सम्बोहिजिणाणं, णमो अणतोहिजिणाण, णमो मोहबुद्धीणं, णमो बीजवुद्धीण, णमो पादाणुमारीणं, णमो संभिण्णसोदाराणं, णमो सयबुद्धाण, णमो पत्तेयबुद्धाण, णमो वोहियबुद्धाणं" भादि जिनेन्द्रोको नमस्कार करते हुए प्रतिक्रमणके मध्यमे अनेक बार णमोकार मन्त्रका ध्यान किया गया है । प्रत्येक महाव्रतको भावनाको द्ध करनेके लिए भी णमोकार मन्त्र का जाप करना आवश्यक समझा जाता है । अतः "प्रथमं महाव्रत सर्वेषां व्रतधारिणां सम्यक्त्व पूर्वकं दृढव्रतं सुतं समारूढं ते मे भवतु " कहकर " णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाण” आदि मन्त्रका २७ श्वासोच्छ्वासोंमे नौ वार जाप किया जाता है । प्रत्येक महाव्रतकी भावनाके पश्चात् यह क्रिया करनी पडती है । अतिक्रमण मे आगे बढनेपर "अचारं पह्निकमामि निंदामि गरहांदि अप्पाणं वोस्सराभि जाव अरहंताणं मयचंताण णमोक्कारं करेमि पज्जुवासं करेमि ताव कार्यं पावक्म्स दुच्चरिणं वोस्सरामि । णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाण णमो लोए सव्वसाहूणं" रूपसे कायोत्सर्ग करता है । वार्षिक प्रतिक्रमण क्रियामे तो गमोकार मन्त्रके जापकी अनेक वार आवश्यकता होती है। मुनिराजकी कोई भी प्रतिक्रमणक्रिया इस णमोकार मन्त्र के स्मरणके बिना सम्भव नही है । २७ श्वासोच्छ्वासोमे इस महामन्त्रका ९ बार उच्चारण किया जाता है ।
इसी प्रकार प्रात कालीन देववन्दनाके अनन्तर मुनिराज सिद्ध, शाल, तीर्थंकर, निर्वाण, चैत्य और आचार्य आदि भक्तियोका पाठ करते हैं । प्रत्येक भक्तिके अन्त मे दण्डक - णमोकार मन्त्रका नौ बार जाप करते हैं । यह भक्तिपाठ ४८ मिनिट तक प्रातःकालमे किया जाता है । पश्चात्
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
स्वाध्याय आरम्भ करते हैं। मुनिराज शास्त्र पढ़नेके पूर्व नो वार णमोकार मन्त्र तथा शास्त्र समाप्त करनेके पश्चात् नौ बार णमोकार मन्त्रका ध्यान करते हैं। इतना ही नही, गमन करने, बैठने, आहार करने, शुद्धि करने, उपदेश देने, शयन करने आदि समस्त क्रियाओके आरम्भ करनेके पूर्व और समस्त क्रियाओकी समाप्तिके पश्चात् नी वार णमोकार मन्त्रका जाप करना परम मावश्यक माना गया है । षट् आवश्यकोंके पालनेमे तो पद-पदपर इस महामन्त्रको आवश्यकता है। मुनिधर्मकी ऐसी एक भी क्रिया नहीं है, जो इस महामन्त्रके जाप विना सम्पन्न की जा सके । जितनी भी सामान्य या विशेष क्रियाएँ हैं, वे सब इस महामन्त्रकी आराधनापूर्वक ही सम्पन्न की जाती हैं । द्रव्यलिंगी' मुनिको भी इन क्रियाओकी समाप्ति इस मन्त्रके ध्यानके साथ ही सम्पन्न करनी होती है । किन्तु भावलिंगी मुनि अपनी भावनाओको निर्मल करता हुआ इस मन्त्रकी आराधना करता है तथा सामायिक कालमें इस मन्त्रका ध्यान करता हुआ अपने कर्मोकी निर्जरा करता है । पूज्यपाद स्वामीने पचगुरु भक्तिमे बनाया है कि मुनिराज भक्तिपाठ करते णमोकार मन्त्रका आदर्श सामने रखते हैं, जिससे उन्हें, परम शान्ति मिलती है । मन एकाग्र होता है और आत्मा धर्ममय हो जाती है। बतलाया गया है
जिनसिद्धसूरिदेशकसाधुवरानमलगुणगणोपान् । पञ्चनमस्कारपदैखिसन्ध्यममिनौमि मोक्षलामाय ॥६॥ अहस्सिद्धाचार्योपाध्यायाः सर्वसाधवः । कुर्वन्तु मङ्गलाः सर्वं निर्वाणपरमश्रियम् ॥ ८॥ पान्तु श्रीपादपद्मानि पञ्चानां परमेष्टिनाम् । ललितानि सुराधीशचूड़ामणिमरीचिमि ॥१०॥ असहा सिद्धाइरिया उवज्झाया साहु पंचपरमेष्ठी।
एयाण णमुक्कारा मवे मवे मम सुहं दितु ।। अर्थात्-निर्मल पवित्र गुणोंसे युक्त अरिहंत, सिद्ध, आचार्य,
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उपाध्याय और साधुको मै मोक्ष-प्राप्तिके लिए तीनो सन्ध्याओमे नमस्कार करता हूँ। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पचपरमेष्ठी हमारा मंगल करें, निर्वाण पदकी प्राप्ति हो । पचपरमेष्ठियोंके वे चरणकमल रक्षा करें, जो इन्द्रके नमस्कार करनेके कारण मुकुट मणियोसे निरन्तर उद्भासित होते रहते हैं । पचपरमेष्ठीको नमस्कार करनेसे भवभवमे सुखकी प्राप्ति होती है। जन्म-जन्मान्तरका सचित पाप नष्ट हो जाता है और आत्मा निर्मल निकल आता है। अतः मुनिराज अपनी प्रत्येक क्रियाके आरम्भ और अन्तमे इस महामन्त्रका स्मरण करते है।
प्रवचनसारमे कुन्दकुन्द स्वामीने बताया है कि जो अरिहन्तके आत्माको ठीक तरहसे समझ लेता है. वह निज आत्माको भी द्रव्य-गुण पर्यायसे युक्त अवगत कर सकता है । णमोकार मन्यकी आराधना स्थिर सचित पापको भस्म करनेवाली है। इस मन्त्रके ध्यानसे अरिहन्त और सिद्धकी आत्माका ध्यान किया जाता है, आत्मा कर्मकलकसे रहित निज स्वरूपको अवगत करने लगता है । कहा गया है
जो जाणदि अरिहत दव्यत्त गुणत्त पजयत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।।८।।
-अ०१ "यो हि नामान्तं द्रव्यत्वगुणत्वपर्यायवै. परिच्छिनत्ति स खल्वास्मानं परिच्छिनत्ति, उभयोरादिनिश्चयेनाविशेषात् । अहंतोऽपि पाककाष्टागतकार्तस्वरस्येव परिस्पष्टमात्मरूप ततस्तत्परिच्छेदै सर्वारमपरिच्छेद. । तत्रान्वयो द्रव्य, अन्वयं विशेषणं गुण., अन्वयव्यतिरेकाः पर्यायाः।' अर्थात् जो अरिहन्तको द्रव्य, गुण और पर्याय रूपसे जानता है, वह अपने आत्माको जानता है, और उसका मोह नष्ट हो जाता है। क्योकि जो अरिहन्तका स्वरूप है, वही स्वभाव दृष्टिसे आत्माका भी यथार्थ स्वरूप है । अतएव मुनिराज सर्वदा इस महामन्यके स्मरण-द्वाग अपने मात्मामे पवित्रता लाते हैं ।
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
समाधिकी प्राप्तिके लिए प्रयत्नवाले साधक मुनि तो इसी महामन्त्रकी आराधना करते हैं। अतः मुनिके आचारके साथ इस महामन्त्रका विशेष सम्बन्ध है। जब मुनिदीक्षा ग्रहण की जाती है, उस समय इसो महामन्त्रके अनुष्ठान द्वारा दीक्षाविधि सम्पन्न की जाती है।
श्रावकाचारकी प्रत्येक क्रियाके साथ इस महामन्त्रका घनिष्ठ सम्बन्ध है। धार्मिक एव लौकिक सभी कृत्योंके प्रारम्भमे श्रावक इस महामन्यका श्रावकाचार और स्मरण करता है। श्रावककी दिनचर्याका वर्णन
__ करते हुए बताया गया है कि प्रात काल ब्राह्म णमोकार महामन्त्र
मुहूर्तमे शय्या त्याग करनेके अनन्तर णमोकार मन्त्रका स्मरण कर अपने कर्तव्यका विचार करना चाहिए। जो श्रावक प्रात कालीन नित्य क्रियाओके अनन्तर देवपूजा, गुरुभवित्, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन षट्कर्मों को सम्पन्न करता है। विधिपूर्वक अहिंसात्मक ढगसे अपनी आजीविका अर्जन कर आसक्तिरहित हो अपने कार्योंको सम्पन्न करता है, वह धन्य है । श्रावकके इन षट्कमोंमे णमोकार महामन्त्र पूर्णतया व्याप्त है । देवपूजाके प्रारम्भमें भी णमोकार मन्त्र पढकर "ओं ह्रीं अनादिमूलमन्त्रेभ्यो नमः पुप्पाञ्जलिम्" कहकर पुष्पाजलि अर्पित किया जाता है । पूजनके बीच-बीचमे भी णमोकार महामन्त्र आता है। यह बार-बार व्यक्तिको आत्मस्वरूपका बोध कराता है तथा आत्मिक गुणोकी चर्चा करनेके लिए प्रेरित करता है। ___गुरुभक्तिमे भी णमोकार महामन्त्रका उच्चारण करना आवश्यक है । गुरुपूजाके आरम्भमे भी णमोकार मन्त्रको पढ़कर पुष्प चढाये जाते हैं। पश्चात् जल, चन्दन आदि द्रव्योसे पूजा की जाती है । यो तो णमोकार मन्त्रमे प्रतिपादित आत्मा ही गुरु हो सकते है। अत गुरु अर्पण रूप भी यही मन्त्र है। स्वाध्याय करनेमे तो णमोकार मन्त्रके स्वरूपका ही मनन किया जाता है। श्रावक इस महामन्त्रके अर्थको अवगत करनेके लिए द्वादशाग जिनवाणीका अध्ययन करता है। यद्यपि यह महामन्त्र समस्त
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
१७१ द्वादशागका सार है, अथवा द्वादशाग रूप ही है । संसारकी समस्त वाधाओको दूर करनेवाला है । शास्त्र प्रवचन आरम्भ करनेके पूर्व जो मंगलाचरण पढा जाता है, उसमें णमोकार मन्त्र व्याप्त है। कर्तव्यमार्गका परिज्ञान करानेके लिए इसके सामने कोई भी अन्य साधन नही हो सकता है । जीवनके अज्ञानभाव और अनात्मिक विश्वास इस मन्त्रके स्वाध्यायद्वारा दूर हो जाते हैं। लोकेषणा, पुत्रषणा और वित्तपणाएं इस महामन्त्रके प्रभावसे नष्ट हो जाती हैं। तथा आत्माके विकार नष्ट होकर आत्मा शुद्ध निकल आता है। स्वाध्यायके साथ तो इस महामन्त्रका सम्बन्ध वर्णनातीत है । अतः गुरुभक्ति और स्वाध्याय इन दोनों आवश्यक कर्तव्योके साथ इस महामन्त्रका अपूर्व सम्बन्ध है । श्रावककी ये क्रियाएं इन मन्त्रके सहयोगके विना सम्भव ही नहीं हैं। ज्ञान, विवेक और आत्मजागरणकी उपलब्धिके लिए णमोकार मन्त्रके भावध्यानकी आवश्यकता है।
इच्छामो, वासनामो और कषायोपर नियन्त्रण करना संयम है। शक्तिके अनुसार सर्वदा संयमका धारण करना प्रत्येक श्रावकके लिए आवश्यक है । पचेन्द्रियोका जप, मन-वचन-कायकी अशुभ प्रवृत्तिकात्याग तथा प्राणीमायकी रक्षा करना प्रत्येक व्यक्तिके लिए आवश्यक है। यह संयम ही कल्याणका मार्ग है। सयमके दो भेद हैं -प्राणीसंयम और शक्तिसंयम । अन्य प्राणियोंको किंचित् भी दुख नहीं देना, समस्त प्राणियोके माथ भ्रातृत्व भावनाका निर्वाह करना और अपने समान सभीको सुख-आनन्द भोगनेका अधिकारी समझना प्राणीसयम है । इन्द्रियोको जीतना तथा उनकी उद्दाम प्रवृत्तिको रोकना इन्द्रिय-सयम है । णमोकार मन्त्रकी आराधनाके विना श्रावक संयमका पालन नहीं कर सकता है, क्योकि इसी मन्यका पवित्र स्मरण संयमकी ओर जीवको झुकाता है । इच्छामोका निरोध करना तप है, णमोकार महामन्त्र का मनन, ध्यान और उच्चारण इच्छाओको रोकता है। व्यर्थकी अनावश्यक इच्छाएं, जो व्यक्तिको दिन-रात परेशान करती रहती हैं, इस महामन्यके कारण
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१७२ मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन से रुक जाती है, इच्छाओपर नियन्त्रण हो जाता है तथा सारे अनर्थोकी । जड चित्तकी चंचलता और उसका सतत सस्कार युक्त रहना, इस महा. मन्त्रके ध्यानसे रुक जाता है। अहकारवेष्टित बुद्धिके ऊपर अधिकार प्राप्त करनेमें इससे बढकर अन्य कोई साधन नहीं है। अतएव संयम और तपकी सिद्धि इस मन्त्रकी आराधना द्वारा ही सम्भव है।
दान देना गृहस्थका नित्य प्रतिका कर्तव्य है। दान देनेके प्रारम्भमे भी णमोकार मन्त्रका स्मरण किया जाता है। इस मन्त्रका उच्चारण किये बिना कोई भी श्रावक दानकी क्रिया सम्पन्न कर ही नहीं सकता है। दान देनेका ध्येय भी त्यागवृत्ति-द्वारा अपनी आत्माको निर्मल करना और मोहको दूर करना है । इस मन्त्रकी आराधना-द्वारा राग-मोह दूर होते हैं और आत्मामे रत्तत्रयका विकास होता है। अतएव दैनिक षट्कर्मोमे णमोकार मन्त्र अधिक सहायक है।
श्रावककी दैनिक क्रियाओका दर्शन करते हुए बताया गया है कि प्रातःकाल नित्यक्रियामोसे निवृत्त होकर जिनमन्दिरमे जाकर भगवान के सामने णमोकार मन्त्रका स्मरण करना चाहिए। दर्शन-स्तोत्रादि पढनेके अनन्तर ईपिथशुद्धि करना आवश्यक है। इसके पश्चात् प्रतिक्रमण करते हुए कहना चाहिए कि 'हे प्रभो । मेरे चलनेमे जो कुछ जीवोकी हिंसा की हो, उसके लिए मैं प्रतिक्रमण करता हूँ। मन, वचन, कायको वशमे न रखनेसे, बहुत चलनेसे, इधर-उधर फिरनेसे, आने-जानेसे, द्वीन्द्रियादिक प्राणियो एव हरित कायपर पैर रखनेसे, मल-मूत्र, थूक आदिका उत्क्षेपण करनेसे, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय या पचेन्द्रिय अपने स्थानपर रोके गये हो, तो मैं उसका प्रायश्चित्त करता हूँ। उन दोषोकी शुद्धिके लिए अरहन्तोंको नमस्कार करता हूँ और ऐसे पापकर्म तथा दुष्टाचारका त्याग करता हूँ।' "णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो भाइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सवसाहूणं" इस मन्त्रका नौ बार जाप करप्रायश्चित्त विधिपूर्वक किया जाता है। प्रायश्चित्तविधिमे इस मन्त्रकी उप
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन १७३ योगिता अत्यधिक है । इसके बिना यह विधि सम्पन्न नहीं की जाती है । २७ श्वासोच्छ्वासमे ९ बार इसे पढा जाता है।
आलोचनाके समय सोचे कि पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम चारों दिशाओ और ईशान आदि विदिशाओमे इधर-उधर घूमने या ऊपरकी
ओर मुंह कर चलनेमे प्रमादवश एकेन्द्रियादि जीवोकी हिंसा की हो, करायी हो, अनुमति दी हो, वे सब पाप मेरे मिथ्या हो। मैं दुष्कर्मोकी शान्तिके लिए पचपरमेष्ठीको नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार मनमे सोचकर अथवा वचनोसे उच्चारण कर नौ बार रणमोकार मन्त्रका पाठ करना चाहिए।
सन्ध्या-वन्दनके समय "ॐ ही श्वी क्ष्वी वं मं हं स तं प द्रां ह्रीं हंस स्वाहा।" इस मन्त्र-द्वारा द्वादशागोका स्पर्श कर प्राणायाम करना चाहिए। प्राणायाममें दाये हाथकी पांचों अंगुलियोंसे नाक पकडकर अंगूठेसे दायें छिद्रको दबाकर बायें छिद्रसे वायुको खीचे । स्वीचते समय 'णमो अरिहताणं' और 'णमो सिद्माण' इन दोनो पदोका जाप करे । पूरी वायु खीच लेनेपर अंगुलियोंसे वायें छिद्रको दबाकर वायुको रोक ले। इस समय 'णमो आइरियाणं' और 'णमो उवज्झायाण' इन पदोका जाप करे । अन्त मे अंगूठेको ढीलाकर धीरे-धीरे दाहिने छिद्रसे वायुको निकालना चाहिए तथा 'णमो लोए सबसाहूण' पदका जाप करना चाहिए। इस तरह सन्ध्या-वन्दनके अन्तमे नौवारणमोकारमन्त्र पढकर चारों दिशाओको नमस्कार कर विधि समाप्त करना चाहिए। हरिवंशपुराणमे वताया गया है कि णमोकार मन्त्र और चतुरुत्तममंगल श्रावककी प्रत्येक क्रियाके साथ सम्बद्ध हैं, श्रावककी कोई भी क्रिया इस मन्त्रके विना सम्पन्न नहीं की जाती है। दैनिक पूजन आरम्भ करनेके पहले ही सर्वपाप और विघ्नका नाशक होनेके कारण इसका स्मरण कर पुप्पाजलि क्षेपण की जाती है। श्रावक स्वस्तिवाचन करता हुमा इस महामन्त्रका पाठ करता है । बताया गया है
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१७४ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
पुण्यपञ्चनमस्कारपदपाठपविनिती।
चतुरुत्तममाङ्गल्यशरणप्रतिपादिनी ॥ आचार्यकल्प श्री पं० आशाघरजीने भी श्रावकोकी क्रियाओं के प्रारम्भमे णमोकार महामन्त्रके पाठका प्राधान्य दिया है। पूज्यपाद स्वामीने दशभक्तिमे तथा उस ग्रन्थके टीकाकार प्रभाचन्द्रने इस महामन्त्र को दण्डक कहा है। इसे दण्डक कहे जानेका अभिप्राय ही यह है कि श्रावककी समस्त क्रियाओमे इसका उपयोग किया जाता है। श्रावकको एक भी क्रिया इस महामन्त्रके विना सम्पन्न नहीं की जा सकती है।
षोडशकारण सस्कारोके अवसरपर इस मन्त्रका उच्चारण किया जाता है। ऐसा कोई भी मागलिक कार्य नहीं, जिसके आरम्भमे इसका उपयोग न किया जाये । मृत्युके समय भी महामन्त्रका स्मरण आत्माके लिए अत्यन्त कल्याणकारक बताया है। जैनाचार्योंने बतलाया है कि जीवन-भर धर्म साधना करनेपर भी कोई व्यक्ति अन्तिम समयमें आत्मसाधन-णमोकार मन्त्रकी आराधना द्वारा निजको पवित्र करना भूल जाये, तो वह उसी प्रकार माना जायेगा, जिस प्रकार निरन्तर अलशस्त्रोका अभ्यास करनेवाला व्यक्ति युद्धके समय शस्त्र प्रयोग करना भूल जाये । अतएव अन्तिम समयमें अनानिधन इस महामन्त्रका जाप करके अपनी आत्माको अवश्य पवित्र करना चाहिए। कहा गया है
जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभुदं । जरमरणवाहिवेयण खयकरणं सबढुक्खाणं ॥
-मूलाचार अर्थात् जिनेन्द्र भगवान्की वचनरूपी ओषधि इन्द्रिय-जनित विषयसुखोका विरेचन करनेवाली है,-मूलाचार अमृत स्वरूप है और जरा, मरण, व्याधि, वेदना आदि सब दु खोका नाश करनेवाली है । इस प्रकार जो पंचपरमेष्ठीके स्वरूपका स्मरण करनेवाले णमोकार मन्त्रका ध्यान करता है, वह निश्चयत. सल्लेखनाव्रतको धारण करता है । श्रावकको ससारके
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नाश करनेमे समर्थ इस महामन्त्रकी आराधना अवश्य करनी चाहिए । अमितगति आचार्य ने कहा है
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सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमे ।
सन्ति पञ्चनमस्कारे नवधा चिन्तिते सति ॥
इस प्रकार श्रावक अन्तिम समयमे णमोकार मन्त्रकी साधना कर उत्तम गतिकी प्राप्ति करता है और जन्म-जन्मान्तर के पापोका विनाश होता है । अन्तिम समयमे ध्यान किया गया मन्त्र अत्यन्न कल्याणकारी होता है ।
व्रतोका पालन आत्मकल्याण और जीवन सस्कारके लिए होता है । व्रतोकी विधिका वर्णन कई श्रावकाचारोमे आया है । कर्मों की असख्यातगुणी निर्जरा करनेके लिए श्रावक व्रतोपवास करता है, जिससे उनकी आत्माके विकार शान्त
व्रतविधान और
णमोकार मन्त्र होते हैं और त्यागकी महत्ता जीवनमे आती है । सप्तव्यमनके त्यागके साथ, आठ मूलगुण, बारह व्रत ओर अन्तिम समयमे सल्लेखना धारण कर विशेष उपवासोके द्वारा श्रावक अपनी आत्माको शुद्ध करनेका आभाम करता है । व्रत प्रधान रूपसे नौ प्रकारके होते हैं - सावधि, निरवधि, दैवसिक, नैशिक, मासावधिक, वार्षिक, काम्य, अकाम्य और उत्तमार्थं । सावधि व्रत दो प्रकारके हैं - तिथिकी अवधिसे किये जानेवाले और दिनोंकी अवधिसे किये जानेवाले । तिथिकी अवधि से किये जानेवाले सुखचिन्तामणि, पर्चाविशतिभावना, द्वात्रिंशत् भावना, सम्यक्त्वपचविशतिभावना और णमोकारपचत्रिंशत् भावना आदि हैं। दिनोकी अवधिसे किये जानेवाले व्रतोमे दुखहरणव्रत, धर्मचक्रव्रत, जिनगुणसम्पत्ति, सुखसम्पत्ति, शीलकल्याणक, श्रुतिकल्याणक और चकल्याणक आदि । निरवधिमे कवलचन्द्रायण तपोजल, जिन मुखावलोकन, मुक्तावली, द्विकावली और एकावली आदि हैं । दैवसिक व्रतोंमे दशलक्षण, पुष्पांजलि, रत्नमय आदि हैं। आकाशपचमी नैशिक व्रत है। पोडशकारण, मेघमाला नादि मासिक है। जो व्रत किती कामनाकी पूर्ति के लिए किये जाते हैं,
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१७६ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन वे काम्य और जो निष्कामरूपसे किये जाते हैं, वे निष्काम कहलाते हैं। काम्य व्रतोमे संकटहरण, दुःखहरण, धनदकलश आदि व्रतोकी गणना की जाती है। उत्तम वनोमें कर्मचूर, कर्मनिर्जरा, महासर्वतोभद्र आदि हैं। अकाम्य व्रतोंमे मेरुपक्ति आदिकी गणना है । इन समस्त व्रतोके विधानमें जाप्य मन्त्रीको आवश्यकता होती है। यों तो णमोकार मन्त्रके नामपर णमोकारपत्रिंशत्भावना व्रत भी है । इस नतका वर्णन करते हुए बताया गया है कि इस व्रतका पालन करनेसे अनेक प्रकारके ऐश्वर्योंके साथ मोक्ष-सुख प्राप्त होता है। कहा गया है -
अपराजित है मन्त्र णमोकार, अक्षर तहँ पैंतीस विचार । कर उपचास वरण परिमाण, सोहं सात करो बुधिमान । पुनि चौदा चौदशिवत साँच, पॉचे तिथि के प्रोषध पाँच । नवमी नब करिये मवि सात, सब प्रोषध पैंतीस गणात ।। पैंतीसी णवकार जु येह, जाप्यमन्त्र नवकार जयेह । मन वच तन नरनारी करे, सुरनर सुख लह शिवतिय वरे ।।
अर्थात् - यह णमोकारपैतीसी व्रत एक वर्ष छह महीनेमे समाप्त होता है। इस डेढ वर्षको अवधिमे केवल ३५ दिन व्रतके होते हैं। व्रतारम्भ करनेकी यह विधि है -[१] प्रथम आषाढ शुक्ला सप्तमीका उपवास करे, फिर श्रावण महीनेकी दोनों सप्तमी, भाद्रपद महीनेकी दोनो सप्तमी और आश्विन महीनेकी दो सप्तमी इस प्रकार कुल सात सप्तमियोके उपवास करे। [२] पश्चात् कात्तिक कृष्ण पचमीसे पौष कृष्ण पचमी तक अर्थात् कुल पाँच पचमियोके उपवास करे। [३] तदनन्तर पौष कृष्ण चतुर्दशीसे चैत कृष्ण चतुर्दशी तक सात चतुर्दशियोके सात उपवास करे। [४]अनन्तर चैत्र शुक्ला चतुर्दशीसे आषाढ शुक्ला चतुर्दशी तक सात चतुर्दशियोंके सात उपवास करे। [५] तत्पश्चात् श्रावण कृष्ण नवमीसे अगहन कृष्ण नवमी तक नौ नवमियोके नौ उपवास करे। इस प्रकार कुल ३५ अक्षरोके पैतीस उपवास किये जाते हैं । णमोकार मन्त्रके प्रथम पदमें ७ अक्षर, द्वितीयमे ५,
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तृतीयमे ७, चतुर्थमे ७ और पंचममें ९ हैं, अतः उपवासोका क्रम भी ऊपर इसी के अनुसार रखा गया है । उपवासके दिन व्रत करते हुए भगवान्का अभिषेक करनेके उपरान्त णमोकार मन्त्रका पूजन तथा त्रिकाल इस मन्त्र का जाप किया जाता है । व्रतके पूर्ण हो जानेपर उद्यापन कर देना चाहिए । इस व्रत का पालन गोपाल नामक ग्वालने किया था, जो चम्पानगरी में तद्भवमोक्षगामी सुदर्शन हुआ । वर्धमानपुराण में समोनार व्रतको ७० दिनमे ही समाप्त कर देनेका विधान है |
णमोकार व्रत अब सुन राज, सत्तर दिन एकान्तर साज ।
अर्थात् ७० दिनो तक लगातार एकाशन करे । प्रतिदिन भगवान् के अभिषेकपूर्वक णमोकारमन्त्रका पूजन करे । त्रिकाल णमोकार मन्त्रका जाप करे । रात्रिमे पचपरमेष्ठी के स्वरूपका चिन्तन करते हुए या इस महामन्त्र का ध्यान करते हुए अल्प निद्रा ले । जो व्यक्ति इस व्रतका पालन करता है, उसकी आत्मा में महान पुण्यका सचय होता है ओर समस्त पाप भस्म हो जाते हैं ।
णमोकार मन्त्रका त्रिकाल जाप, त्रेपन क्रिया व्रत, लघु ल्यविधान, वृहत्पत्यविवान, नक्षत्रमाला, सप्तकुम्भ, लघुनिहनिष्क्रीडित वृहत्सहनिकोडित, भाद्रवनसिंहनिष्क्रीडित, त्रिगुणमार, सर्वतोभद्र, महासर्वतोभद्र, दुखहरण, जिनपूनापुरन्दरव्रत, लघुवमंचक्र, वृहद्धर्मचक्र, वृहद् जिनगुणसम्पत्ति, लघुजिनगुणसम्पत्ति, वृहत्मुखसम्पत्ति, मध्यम मुखसम्पत्ति, लघुसुखसम्पत्ति, रुद्रवसन्तव्रत, शीलकल्याणकव्रत, श्रुतिकल्याणकन, चन्द्रकल्याणकव्रत, रघुकल्याणवव्रत, वृहद्रत्नावली व्रत, मध्यम रत्नावलीव्रत, लघुरत्नावलीव्रत, वृहद् मुक्तावलीव्रन, मध्यममुक्तावलीव्रत, लघुमुक्तावली - व्रत, एकानलोव्रत, लघुएकावलीव्रत, द्विकावलीयन, लघुद्विकावलोव्रत, लघुकनकावलीयन, वृहदुकनकावलीव्रत, लघुमृदङ्गमध्यवन, वृहद् मृदङ्गमध्यव्रत, मुरजमध्यव्रत, वज्र मध्यव्रत, अक्षयनिधिव्रत, मेघमाला व्रत, सुख१२
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१७८ मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन कारणवत, आकाशपंचमी, निर्दोपसप्तमी, चन्दनषष्ठी, श्रवणद्वादशी, श्वेतपंचमी, सर्वार्थसिद्धिव्रत, जिनमुखावलोकनन्नत, जिनरात्रिनत, नवनिचिन्नत, अशोकरोहिणीव्रत, कोकिलापचमीव्रत, रुक्मिणीव्रत, अनस्तमीव्रत, निर्जरपंचमीव्रत कवलचन्द्रायणव्रत, बारह विजोरावत, ऐसोनव्रत, ऐसो. दशवत, कजिकव्रत, कृष्णपचमीव्रत, नि शल्यअष्टमीव्रत, लक्षणपंक्तिवत, दुग्धरसीव्रत, धनदकलशवत, कलिचतुर्दशी, शीलसप्तमीव्रत, नन्दसप्तमीव्रत, ऋषिपंचमीयत, सुदर्शनवन, गन्धअष्टमीव्रत, शिवकुमारवेलावत, मौनव्रत, वारहतपव्रत और परमेष्ठिगुणवतके विधानमें बतलाया गया है। अर्थात् उपर्युक्त व्रतोको णमोकार मन्त्रके जाप-द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है। कुल २५-२६ व्रत ऐसे हैं, जिनमे णमोकार मन्त्रसे उत्पन्न मन्त्रोके जापका विधान है । इस मन्त्रका प्रतसाधनाके लिए कितना महत्त्व पूर्ण स्थान है, यह उपर्युक्त व्रतोंकी नामावलीसे ही स्पष्ट है । श्रावक व्रतोंके पालन द्वारा अनेक प्रकारके पुण्यका अर्जन करता है। बताया गया है कि
अनेकपुण्यसंतानकारणं स्वनियन्धनम् । पापघ्नं च क्रमादेतत् व्रतं मुक्तिवशीकरम् ॥ यो विधत्ते व्रतं सारमेतरसर्वसुखावहम् ।
प्राप्य षोडशमं नाकं स गच्छेत् क्रमशः शिवम् ॥ अर्थात्-व्रत अनेक पुण्यको सन्तानका कारण है, संमारके समस्त पापोको नाश करनेवाला है एवं मुक्ति-लक्ष्मीको वशमे करनेवाला है, जो महानुभाव सर्वसुखोत्पादक श्रेष्ठ व्रत धारण करते हैं, ये सोलहवें स्वर्गके सुखोका अनुभव कर अनुक्रमसे अविनाशी मोक्षसुस्वको प्राप्त करते हैं। अतएव यह स्पष्ट है कि व्रतोंके सम्यक् पालन करनेके लिए णमोकार मन्त्र का ध्यान करना अत्यावश्यक है ।
णमोकार मन्त्रके महत्त्व और फलको प्रकट करनेवाली अनेक कथाएं जैन-साहित्यमे आयी हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बरदोनो सम्प्रदायके धर्मकथासाहित्यमें इस महामन्त्रका बडा भारी फल बतलाया गया है। पुण्यानव
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और आराधना कया-कोषके अतिरिक्त अन्य पुराणोमें भी इस महामन्त्रके महत्त्वको प्रकट करनेवाली कथाएं हैं। एक बार जिसने भी भक्तिभावपूर्वक कयामत इस महामन्त्र का उच्चारण किया वही उन्नत हो
- गया। नीचसे नीच प्राणी भी इस महामन्त्रके णमोकार मन्त्र प्रभावसे स्वर्ग और अपवर्गके सुख प्राप्त करता है । धर्मामृत की पहली कथामे आया है कि वसुभूति ब्राह्मणने लोभसे आकृष्ट होकर दिगम्बरमुनिव्रत धारण किये थे तथा दयामित्रके अष्टाह्निक पर्वको सम्पन्न करानेके लिए दक्षिणा प्राप्तिके लोभसे उसने केशलुच एवं द्रव्यलिंगी साधुके अन्य व्रत धारण किये थे । दयामित्र जव जगलमे जा रहा
था तो एक दिन रातको जगली लुटेरोने दयामित्र सेठके साथवाले व्यापारियोपर आक्रमण किया। दयामित्र वीरतापूर्वक लुटेरोके साथ युद्ध करने लगा । उसने अपार वाण वर्षा की, जिससे लुटेरोके पैर उखड गये और वे भागनेपर उतारू हो गये। युद्ध-समय वसुभूति दयामियके तम्बूमे सो रहा था। लुटेरोका एक बाण माकर वसुभूतिको लगा और वह घायल होकर पीडासे तडफडाने लगा । यद्यपि दयामित्रके उपदेशसे उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो चुकी थी, तो भी साधारण-सा कष्ट उसे था। दयामित्रने उसे समझाया कि आत्माका कल्याण समाधिमरणके द्वारा ही सम्भव है, अत उसे समाविमरण धारण कर लेना चाहिए। सल्लेखनासे आत्मामे अहिंसाकी शक्ति उत्पन्न होती है, अहिंसक ही सच्चा वीर होता है । अत मृत्युका भय त्यागकर णमोकार मन्यका चिन्तन करें। इस मन्त्रको महिमा अद्भुत है । भक्तिभावपूर्वक इस मन्त्रका ध्यान करनेसे परिणाम स्थिर होते हैं तथा सभी प्रकारकी विघ्न-बाधाएँ टल जाती हैं । मनुप्यकी तो बात ही क्या, तियंच भी इस महामन्त्रके प्रभावसे स्वर्गादि सुखोको प्राप्त हुए हैं । हो, इस मन्यके प्रति अटूट श्रद्धा होनी चाहिए । श्रद्धाके द्वारा ही इसका वास्तविक फल प्राप्त होगा । योतो इस मन्यके उच्चारण मापसे यात्मामे असंख्यातगुणी विशुद्धि उत्पन्न होती है।
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दयामित्रके इस उपदेशको सुनकर वसुभूति स्थिर हो गया । उसने अपने परिणामोंको वाह्य पदार्थोंसे हटाकर आत्माकी ओर लगाया और णमोकार मन्त्रका ध्यान करने लगा । ध्यानावस्थामे ही उसने शरीरका त्याग किया, जिसके प्रभाव से सौधर्मके स्वर्गके मणिप्रभा विमानमे मणिकुण्ड नामक देव हुआ । स्वर्गके दिव्य भोगोंको देखकर वसुभूतिके जीव मणिकुण्डको अत्यन्त आश्चर्य हुआ । तत्काल ही भवप्रत्यय अवधि - ज्ञानके उत्पन्न होते ही उसने अपने पूर्वभवकी सब घटना अवगत कर ली और णमोकार मन्त्र के दृढ श्रद्धानका फल समझ अपने उपकारी दयामित्र के दर्शन करने को आया और उसकी भक्ति कर अपने स्थानको चला गया । वसुभूतिका जीव स्वर्गसे चय कर अभयकुमार नामक राजा श्रेणिकका पुत्र हुआ । इसने वयस्क होते ही दीक्षा ले लो और कठोर तरश्चरण कर समाधिके साथ शरीर त्याग किया, जिससे सर्वार्थसिद्धिमे अहमिन्द्र हुआ । वहाँसे चय कर निर्वाण प्राप्त करेगा । णमोकार मन्त्रके दृढ श्रद्धान द्वारा व्यक्ति सभी प्रकारके सुख प्राप्त कर सकता है । संसारका कोई भी कार्य उसके लिए दुर्लभ नहीं होता है ।
इस ग्रन्थकी दूसरी कथामे बताया गया है कि ललितागदेव-जैसे व्यभिचारी, चोर, लम्पट, हिंसक व्यक्ति भी इस मन्त्र के प्रभावसे अपना कल्याण कर लिये हैं, तो अन्य व्यक्तियोकी बात ही क्या ? यही ललितागदेव आगे चलकर अंजन चोर नामसे प्रसिद्ध हुआ है, क्योंकि यह चोरकी कलामे इतना निपुण था कि लोगोके देखते हुए उनके सामनेसे वस्तुओका अपहरण कर लेता था । इसका प्रेम राजगृह नगरीकी प्रधान वेश्या मणिकांजना से था । वेश्याने ललितागदेव उर्फ अंजनचोर से कहा- " प्राणवल्लभ 1 आज मैंने प्रजापाल महाराजकी कनकावती नामकी पट्टरानीके गलेमे ज्योतिप्रभानामक रत्नहार देखा है । वह वहुत ही सुन्दर है । मैं उस हार के बिना एक घडी भी नही रह सकती हूँ । अत. तत्काल मुझे उस हारको ला दीजिए।” ललितागदेव उर्फ अजनचोरने कहा- "प्रिये, वह बहुत बडी बात
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मंगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन १८१ नही है, मैं तुम्हारे लिए सब कुछ करनेको तैयार हूँ। पर अभी थोडे दिन तक धर्य रखिए । आज-कल शुक्लपक्ष है, मेरी विद्या कृष्णपक्षको अष्टमीसे कार्य करती है, अतः दो-चार दिनकी बात है, हार तुम्हे लाकर जरूर दूंगा।"
वेश्याने स्त्रियोचित भावभगी प्रदर्शित करते हुए कहा- "यदि आप इस छोटी-सी मेरी इच्छाको पूरा नहीं कर सकते, तो फिर और मेरा कौन-सा काम कीजिएगा। जब मैं मर जाऊंगी, तब उस हारसे क्या होगा।" अजनचोरको वेश्याका ताना सह्य नही हुआ और आँखमे अजन लगाकर हार चुरानेके लिए चल पडा। विद्यावलसे छिपकर ज्योतिप्रभा हारको उसने अपने हाथमे ले लिया। किन्तु ज्योतिप्रभा हारमे लगी हुई मणियोका प्रकाश इतना तेज था, जिससे वह हार छिप न सका। चांदनी रातमे उसकी विद्याका प्रभाव भी नष्ट हो गया, अत पहरेदारोने उसका पीछा किया। वह नगरकी चहारदीवारीको लांघकर श्मशान भूमिकी ओर बढा । वहाँपर एक वृक्षके नीचे दीपक जलते हुए देखकर वह उस पेडके नीचे पहुंचा और ऊपरकी ओर देखने लगा । वहाँपर १०८ रस्सियोका एक सीका लटक रहा था, उसके नीचे भाला, वरछा, तलवार, फरसा, मुद्गर, शूल, चक्र आदि ३२ प्रकारके भस्म गाहे गये थे। एक व्यक्ति वहाँ पूजा कर णमोकार मन्म पढता हुआ एक-एक रस्सी काटता जाता था । प्रत्येक रस्सीके काटनेके बाद वह भयातुर हो कभी नीचे उतरता और कभी साहस कर ऊपर चढ जाता, पुन: एक रस्सो काटकर नीचे आता । इस प्रकारको उसकी स्थिति देखकर अजनचोरने उससे पूछा-"तुम कौन हो तुम्हारा नाम क्या है ? यह फौन-सा कार्य कर रहे हो ? तुम किस मन्त्रका जाप करते हो और क्यो ?"
वह बोला - "मेरा नाम वारिपेण है । मैं गगनगामी विद्याको सिद्ध कर रहा हूँ। मैं पवित्र णमोकार मन्त्रका जाप कर इस विद्याको साधना चाहता हूँ। मुझे यह विधि और मन्त्र जिनदत्त श्रेष्ठिसे मिले हैं।" अजनचोर उसको वातोको सुनकर हंसने लगा और बोला - "तुम डरपोक हो, तुम्हे मन्त्रपर विश्वास नहीं है । अन तुम्हे विद्या सिद्ध नहीं हो सकती है । इस
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
प्रकार कहकर अंजनचोर सोचने लगा कि मुझे तो मरना ही है जैसे भो म । अतः जिनदत्त श्रेष्ठिके द्वारा प्रतिपादित इस मन्त्र और विधिपर विश्वास कर मरना ज्यादा अच्छा है, इससे स्वर्ग मिलेगा । जरा भी देर होती है तो पहरेदारोंके साथ कोतवाल मायेगा और पकड़कर फांसी पर चढ़ा देगा | इस प्रकार विचार कर उसने वारिपेणसे कहा - "भाई ! तुम्हे विश्वास नहीं है, तो मुझे इस मन्त्रकी साधना करने दीजिए।" वारिषेण प्राणो मोहमे पडकर घबडा गया और उसने मन्त्र तथा उसकी विषि अजन चोरको बतला दी । उसने दृढ श्रद्धानके साथ मन्त्र की साधना की तथा १०८ रस्सियोको काट दिया। अब वह नीचे गिरनेको हो था, कि इसी वीच आकाशगामिनी विद्या प्रकट हुई और उसने गिरते हुए अजनचोरको ऊपर हो उठा लिया । विद्या प्राप्तिके अनन्तर वह अपने उपकारी जिनदत्त सेठके दर्शन करनेके लिए सुमेरु पर्वतपर स्थित नन्दन और भद्रशालके चैत्यालयो मे गया । यहाँपर वह भगवान्को पूजा कर रहा था । इस प्रकार अंजन चोरको आकाशगामिनी विद्याकी प्राप्ति के अनन्तर संसारसे विरक्ति हो गयो, अत उसने देवर्षि नामक चारण ऋद्धिधारी मुनिके पास दीक्षा ग्रहण की और दुर्घर तप कर कर्मोंका नाश कर कैलाश पर्वतपर मोक्ष प्राप्त किया । णमोकार महामन्त्र मे इतनी बड़ी शक्ति है कि इसकी साधनासे अजनचोर-जैसे व्यसनी व्यक्ति भी तद्भवमे निर्वाण प्राप्त कर सकते है । इसी कथामे यह भी वतलाया गया है कि धन्वन्तरि और विश्वानुलोम-जैसे दुराचारी व्यक्ति णमोकार मन्त्रको दृढ साधना द्वारा कल्याणको प्राप्त हुए हैं ।
धर्मामृत की तीसरी कथामे अनन्तमतीके व्रतोकी दृढताका वर्णन करते हुए बताया गया है कि अनन्तमतीने अपने संकट दूर करनेके लिए कई बार इस महामन्त्रका ध्यान किया । इस मन्त्र के स्मरण से उसका बडासे बड़ा कष्ट दूर हुआ है । जब वेश्याके यहाँ अनन्तमतीके ऊपर उपसगं आया था, उस समय उसके दूर होने तक उसने समाधिमरण ग्रहण कर लिया और
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मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन १८३ अन्न-पानीका त्याग गार पंचपरमेष्ठीके प्यानमे लीन हो गयी । णमोकार मन्त्रशा आश्रप ही उसके प्राणोका रक्षक या । गय येन्याने देखा कि यह इस तरह माननेवाली नहीं है, तो उसने सोचा कि इनके प्राण लेनेमे अच्छा है कि इसे गजाके हाथ बॅच दिया जाये। राजा इस अनुपम तुन्दरीको प्राप्त कर महुन प्रसन्न होगा और मुझे अपार धन देगा, जिससे मेरे जन्म-जन्मान्तरके दारिद्रय दूर हो जायेंगे। इस प्रकार विचार पर वह वेदया अनन्तमतीको राजा सिंहनतके पास ले गयी और दरवारमे जाफर बोली- "देव, इन रमणीरत्नको आपकी सेवामे अपंग करने आयी है। यह अनाघ्रात कलिका आपके भोग करने योग्य है । दासीने इसे पानेके लिए अपार धन खर्च किया है।" राजा उस दिव्य सुन्दरीको देखकर बहुर प्रसन्न हुमा और उस वेश्याको विपुल धनराशि देकर विदा किया ।
सन्ध्या होते ही राजा अनन्तमतीसे बोला -"हे कमलमुखी । तुम्हारे रूपका जादू मुझपर चल गया है, मेरे समस्त अगोपाग शिथिल हो रहे हैं, मेरा मन मेरे अधीन नहीं रहा है । मैं अपना सर्वस्व तुम्हारे घरणोंमे अर्पित करता हूँ। माजसे यह राज्य तुम्हारा है। हम मत्र तुम्हारे हैं, मत अव शीघ्र ही मन कामना पूर्ण करो। हाय ! इतना मौन्दर्य तो देवियोमे भी नही होगा।" ___ अनन्तमती णमोकारमन्त्रका स्मरण करती हुई ध्यानमे लीन थी। उसे राजाकी वातोंका बिलकुल पता नहीं था। उसके मुखपर अद्भुत तेज था । सतीत्वकी किरणें निकल रही थीं। वह एक मात्र णमोकार मन्त्रकी आराधनामे डूबी हुई थी। कहा गया है "सापि पचनमस्कार सस्मरन्तो सुखप्रदम्" अर्थात् वह मौन होकर एकाग्रमावसे णमोकार मन्त्रकी साधनामें इतनी लीन हो गयी कि उमने राजाकी बातें ही नहीं सुनी । अव अनन्तमतीसे उत्तर न पाकर राजाका क्रोध उभहा और उसने अनन्तमतीको पीटना आरम्भ किया। अनन्तमतीके ऊपर होनेवाले इस प्रकारके अत्याचारोको देखकर णमोकार मन्त्रके प्रभावसे उस नगरके शासन देव
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१८४ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन का मासन हिला और उसने ज्ञानवलसे सारी घटनाएँ अवगत कर ली। वह अनन्तमतीके पास पहुंचा और अदृश्य होकर राजाको पीटने लगा । आश्चर्यकी बात यह थी कि मारनेवावाला कोई नही दिखलाई पडता था, केवल मारही दिखलाई पडती थी। कोड़े लगने के कारण युवराजके मुंहसे खून निकल रहा था। राजा-अमात्य सभी मूच्छित थे, फिर भी मार पडना वन्द नही हुआ था। हल्ला-गुल्ला और चीत्कार सुनकर दरवारके अनेक व्यक्ति एकत्र हो गये । रानियां भा गयी, पर युवराजकी रक्षा कोई नहीं कर सका।. जवसव लोगोने मिलकर मारनेवालेकी स्तुति की तो शासनदेवने प्रत्यक्ष हो कहा-"आप लोग इसी सतीको प्रसन्न करें, मैं तो सतीका दास है। यह कुमारी णमोकारमन्त्रके ध्यानमे इतनी लीन है कि मुझे इसकी सेवाके लिए आना पडा है । जो भगवान्की भक्तिमे निरन्तर लीन रहते हैं, उनकी आराधना और सेवा मावालवृद्ध सभी करते हैं । जो मोहवशमे आकर भक्तिका तिरस्कार करता है, वह अत्यन्त नीच है। जिसके पास धर्म रहता है उसके पास ससारकी सभी अलभ्य वस्तुएँ रहती हैं । व्रतविभूषित व्यक्ति यदि भगवान्के चरणोकी भक्ति करता है, तो उसे संसारके सभी दुर्लभ पदार्थ अपने-आप प्राप्त हो जाते हैं । रणमोकारमन्त्रका ध्यान समस्त अरिटोको दूर करनेवाला है। जो विपत्तिमे इस मन्त्रका स्मरण करता है, उसके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं । पचपरमेष्ठी की भक्ति और उनका स्मरण सभी प्रकारके सुखोको प्रदान करता है । पश्चात् देवने कुमारीसे कहा"हे अनन्तमती ! तुम्हारा सकट दूर हुआ, नेत्रोन्मीलन करो। ये सव भक्त तुम्हारी चरण-धूल लेनेके लिए आये हैं । जिस प्रकार अग्निका स्वभाव जलना, पानीका स्वभाव शीतल, वायुका स्वभाव बहना है, उसी प्रकार णमोकारमन्त्रकी आराधनाका फल समस्त उपसर्ग और कष्टोका दूर होना है। अब इस राजकुमारको आपक्षमा करें। ये सभी नगरनिवासी आपसे क्षमा याचनाके लिए आये हैं।" इस प्रकार शासनदेवने अनन्तमतीके द्वारा राजकुमारको क्षमा प्रदान करायी। राजा, अमात्य तथा रानियोने
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मगलमा णमोकार : एक अनुचिन्तन १८५ गिरकर अनन्तमती की पूजा की और हाथ जोडकर वे चाहने सगे-पमूतें! हमने विना जाने वा माराप किया। हम लोगोफ गमान गगार. मे यौन पापी हो सकता है। अब बार हमे क्षमा करें, यह तारा राज्य गार सारा वैभव मापसे चरणोंमे अपित है । अनन्तगतीने कहा"रामन् ! धर्मसे बढ़कर कोई भी वस्तु हितकारी नहीं है। आप धर्म में स्थिर हो जाइए। रामोकारमन्त्रका विज्ञान कीजिए। इसी मन्नने स्मरण, ध्यान और चिन्तनसे आपके समस्त पाप नष्ट हो जायेंगे। पचपरमेष्ठी वाचक इम महामन्त्रका प्यान सभी पापोको भस्म करनेवाला है। पापोसे पापी व्यक्ति भी इम महामन्त्र के ध्यानमे सभी प्रकारको सुख प्राप्त करता है।" राजाने रानियों और अमात्यसहित णमोकार मन्यका ध्यान निया, जिमने उनको आत्मामे विशुद्धि उत्पन्न हो गयी।
वहाँसे चलकर अनन्तमती जिनालयमे पहुंची और वही आयिकाके पास जाकर धर्म श्रवण किया। यहींपर उसके माता-पितासे मुलाकात हुई। पिताने अनन्तमतीको घर ले जाना चाहा, पर उसने घर जाना पसन्द नहीं किया और पितामे स्वीकृति लेकर वरदत्त मुनिराजकी शिष्या कमतश्री गायिकासे जिन-दीक्षा ले ली तथा नि.काक्षित हो व्रत पालन करने लगी। वह दिन-रात णमोकार मन्त्रके ध्यानमे लीन रहती थी तथा उग्र तपश्चरण करनेमे लीन थी। अन्तिम समयमे उसने समाधिमरण धारण किया, जिसमे स्त्रीलिंगका छेदकर बारहवें स्वर्गमे १८ सागरकी आयु प्राप्त कर देव हुई। इस प्रकार णमोकार मन्यकी साधनामे अनन्तगतीने अपने सासारिक कष्टोको दूर कर मात्म-कल्याण किया।
धर्मामृतकी चौथी कथामे बताया गया है कि नारायणदत्ता नामक सन्यामिनीके बहकावेमे गाकर मालवनरेश चण्डप्रयोतने रोरवपुर नरेश उद्दायनकी पत्नी प्रगावनी के रूप-मोन्दर्यका लोभी बनकर राजा उदायनको अनुपस्थितिमे रोरवपुरपर आक्रमण किया । उस समय रानी प्रभावतीके शीलकी रक्षा णमोकार मन्त्र की आराधनामे ही हुई। प्रभावतीने अन्न
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जलका त्याग कर इस मन्त्रका ध्यान किया । राजा चण्ड प्रद्योतकी सेना जिस समय नगर मे उपद्रव कर रही थी, उसी समय आकाश मागंसे अकृत्रिम चैत्यालयोकी वन्दना के लिए देव जा रहे थे । प्रभावती के मन्त्रस्मरणके प्रभावसे देवोका विमान रौरवपुरके ऊपरसे नही जा सका । देवाने अवधिज्ञानसे विमानके अटकनेका कारण अवगत किया तो उन्हें मालूम हुआ कि इस नगर मे घिरी सतीके ऊपर विपत्ति आयी है । सतीके ऊपर होनेवाले अत्याचारको अवगत कर एक सम्यग्दृष्टि देव उसकी रक्षाके लिए उद्यत हुआ । उसने अपनी शक्ति से चण्डप्रद्योतकी सेनाको उडाकर उज्जयिनीमे पहुँचा दिया और नगरका सारा उपद्रव शान्त कर दिया ।
रानी प्रभावतीकी परीक्षा करनेके लिए उस देवने चण्डप्रद्योतका रूप धारण किया और समस्त प्रजाको महानिद्रामे मग्न कर विक्रिया ऋद्धिके वलसे चतुरग सेना तैयार की और गढको चारो ओरसे घेर लिया । नगरमे मायावी आग लगा दी, मार्ग और सड़कोपर कृत्रिम रक्तकी धार बहने लगी, सर्वत्र भय व्याप्त कर दिया और प्रभावती देवी के पास आकर बोला"मैंने तुम्हारी सेनाको मार डाला है अब आप पूरी तरहसे मेरे अधीन हैं; अत आँखें खोलकर मेरी ओर देखिए ? आपके पति उद्दायन राजाको भी पकडकर कैद कर लिया है । अव मेरा सामना करनेवाला कोई नही है | आप मेरे साथ चलिए और पटरानी वनकर संसारका आनन्द लीजिए। आपको किसी प्रकारका कष्ट नही होने दूंगा ।"
रानी राजा चण्डप्रद्योत के रूपधारी देवके वचनोको सुनकर णमोकार मन्त्रके ध्यानमे और भी लीन हो गयी और स्थिरतापूर्वक जिनेन्द्र प्रभुके गुणोका चिन्तन करने लगी। उसने निश्चय किया कि प्राण जाने तक शीलको नही छोड़ंगी । इस समय णमोकार मन्त्र हो मेरा रक्षक है। पचपरमेष्ठीकी शरण हो मेरे लिए सहायक है। इस प्रकार निश्चय कर वह ध्यानमें और दृढ हो गयी । देवने पुनः कहा - " अब इस घ्यानसे कुछ नही होगा, तुम्हे मेरे वचन मानने पडेंगे ।" परन्तु प्रभावती तनिक भी विचलित नहीं
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन १८७ हुई और णमोकार मन्त्रका ध्यान करती रही । प्रभावतीकी घडतासे प्रसन्न होकर देवने अपना वास्तविक रूप धारण किया और रानीसे बोला-' देवि ! आप धन्य है । मैं देव हूँ, मैंने चण्डप्रद्योतकी सेनाको उज्जयिनी पहुंचा दिया है तथा विक्रियावलसे आपकी सेना और प्रजाको मूच्छित कर दिया है । मैं आपके सतीत्व और भक्तिभावकी परीक्षा कर रहा था । मैं आपसे बहुत प्रसन्न हूँ । सापके ऊपर किसी भी पकारकी अब विपत्ति नही है। मध्यलोक वास्तवमे सती नारियोके सतीत्वपर ही अवलम्बित है।" इस प्रकार कहकर पारिजात पुष्पोसे रानीकी पूजा की, आकाशमे दुन्दुभि बाजे बजने लगे, पुष्पवृष्टि होने लगी । पचपरमेष्ठीकी जय और जिनेन्द्र भगवान्की जयके नारे सर्वत्र सुनाई पड़ते थे। णमोकारको आराधनाके प्रभावसे रानी प्रभावतीने अपने शीलकी रक्षा की तथा आर्थिकासे दीक्षा ग्रहण कर तप किया, जिससे ब्रह्मस्वर्गमे दस सागरोपम आयु प्राप्त कर महधिदेव हुई। ___ इसी ग्रन्यकी बारहवीं कथामे बताया गया है कि जिनपालित मुनि एक दिन एकाकी विहार करते हुए आ रहे थे। उज्जयिनीके पास आतेआते सूर्यास्त हो गया, अत रातमे गमन निषिद्ध होनेसे वह भयंकर श्मशानभूमिमे जाकर ध्यानस्थ हो गये। सूर्योदय तक इसी स्थानपर ध्यानपर रहेंगे, ऐसा नियम कर वही एक ही करवट लेट गये । धनुपाकार होकर उन्होने ध्यान लगाया। योगमे मुनिराज इतने लीन थे कि उन्हे अपने शरीरका भी होश नहीं था। __मध्यरात्रिमे उज्जयिनीका विडम्ब नामक साधक मन्त्रविद्या सिद्ध करनेके लिए उमी श्मशानभूमिमे आया। उसने योगस्थ जिनपालित मुनिको मुरदा समझा, अत पासकी चिताओसे दो-तीन मुरदे और खीच लाया । जिनपालित मुनि और अन्य मुरदोको मिलाकर उसने चूल्हा तैयार किया और इस चूल्हेमें आग जलाकर भात बनाना आरम्भ किया। जब आगकी लपटें जिनपालित मुनिके मस्तकके पास पहुंची, तब भी वह ध्यानस्थ रहे । उन्होने अग्निकी कुछ भी परवाह नहीं की। मुनिराज सोचने
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मंगलमन्त्र णमोकार एक
चन्तन
लगे - "स्त्री विना पुत्र, दूध विना मक्खन, सूत बिना कपडा और मिट्टी बिना घडेका बनना जैसे असम्भव है, उसी प्रकार उपसर्ग विना सहे कर्मोका नष्ट होना असम्भव है । उपसर्गकी आगसे कर्मरूपी लकड़ी जलकर भस्म हो जाती है। इस पर्यायकी प्राप्ति, और इसमे भी दिगम्बर दीक्षाका मिलना वडे मौभाग्यकी बात है। जो व्यक्ति इस प्रकारके अवसरोंपर विचलित हो जाते हैं, वे कहीके नही रहते । जीवके परिणाम ही उन्नति-अवनतिके साधन है। परिणाम जैसे-जैसे विशुद्ध होते जाते हैं, वैसे-वैसे यह जीव आत्मकल्याणमे प्रवृत्त हो जाता है । परिणामोकी शुद्धिका साधन रामोकार मन्य है। इसी मन्त्र की आराधनासे परिणामोमे निर्मलता आ जाती है, आत्मा अपने ज्ञान, दर्शन, चैतन्यमय स्वरूपको समझ लेता है। अत णमोकार मन्त्रकी साधना ही सकटकालमे सहायक होती है। इसीके द्वारा मोहममताको जीता जा सकता है । जड़ और चेतनका भेद-भाव इसी महामन्त्रकी साधनासे प्राप्त होता है। मात्मरसका स्वाद भी पंचपरमेष्ठीके गुणचिन्तनसे प्राप्त होता है । इस प्रकार जिनपालित मुनिने द्वादश अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन किया। महाव्रत और समितिके स्वरूपका विचार कर परिणामोको दृढ किया । अनन्तर सोचने लगे कि व्रतोंकी महिमा अचिन्त्य है। व्रत पालन करनेसे चाण्डाल भी देव हो गया, कौवेका मास छोडनेसे खदिरसागर इन्द्र पदवीको प्राप्त हुआ। णमोकार मन्त्रके प्रभावसे कितने ही भव्य जीवोंने कल्याण प्राप्त किया है । दृढसूर्य नामक चोर चोरी करते पकडा गया, दण्डस्वरूप शूलीपर चढाया गया, पर णमोकार मन्त्र के स्मरणसे देवपद प्राप्त हो गया । सोमशर्माकी स्त्रीने वरदत्त मुनिराजको अविभावपूर्वक आहार दान दिया था तथा अन्तिम समयमे णमोकारमन्त्रकी आराधना की थी, जिससे वह देवागना हुई। नमि और विनमिने भगवान आदिनाथकी माराधना की थी, जिससे घरगेन्द्रने आकर उनकी सेवा की। क्या पचपरमेष्ठीकी आराधना करना सामान्य बात है । द्रुमसेनने जिनेश्वर मार्गको समझकर णमोकार मन्त्रकी साधना की, जिससे पिण्डस्थ, पदस्थ और
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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन १८९ रूपस्थ ध्यानके अन्तर रूपातीत ध्यान किया और कर्मों का नाश कर मोक्ष लाभ किया। अत इस समय सभी प्रकारके उपसर्गोको जीतना परम आवश्यक है । णमोकारमन्त्र ही मेरे लिए शरण है ।
अग्नि उत्तरोत्तर बढ रही थी। जिनपालितका सारा शरीर भस्म हो रहा था, पर वह णमोकारमन्त्रकी साधनामे लीन थे । परिणाम और विशुद्ध हुए और णमोकार मन्त्र के प्रभावसे श्मशान-भूमिके रक्षक देवने प्रकट हो उपसर्ग दूर किया तथा मुनिराजके चरण-मलोकी पूजा की। इस प्रकार णमोकार मन्त्रकी साधनासे जिनपालित मुनिने अपूर्व मात्मसिद्धि प्राप्त । की
इस ग्रन्थकी तेरहवी कथामे आया है कि एक दिन द्रोणाचार्य अपने शिष्योसहित मालवदेश पहुंचे, यहांका राजा सिंहसेन था। इसकी स्त्रीका 'नाम चन्द्रलेखा था। चन्द्रलेखा अपनी सखियोके साथ सहस्रकुट चैत्यालयका दर्शन कर लौट रही थी। इतनेमे एक मदोन्मत्त हाथी चिघाडता हुआ और मार्गमे मिलनेवालोको रौंदता हुमा चन्द्रलेखाके निकट आया । चारो ओर हाहाकार मच गया, चन्द्रलेखाकी सखियाँ तो इधर-उधर भाग गयी, किन्तु वह अपने स्थानपर ही घबराकर गिर गयी। उसने उपसर्गके दूर होने तक सन्यास ले लिया और णमोकारमन्त्रके ध्यानमे लीन हो गयी। हाथी चन्द्रलेखाको पैरोके नीचे कुचलनेवाला ही था, सभी लोग किनारेपर खडे इस दयनीय दृश्यको देख रहे थे । द्रोणाचार्यके शिष्य भी इस अप्रत्याशित घटनाको देखकर घबरा गये। प्रमातिकुमारको चन्द्रलेखापर दया मायी, अतः वह हाथीको पकडनेके लिए दौडा । अपने अपूर्व वलसे तथा चन्द्रलेखाके णमोकारमन्त्र के प्रभावसे उसने हाथीको पकड लिया, जिससे चन्द्रलेखाके प्राण बच गये। यह कुमारी णमोकारमन्त्रकी अत्यन्त भक्तिन बन गयी और सर्वथा इस मन्त्रका चिन्तन किया करती थी। चन्द्रलेखाका विवाह भी प्रमातिकुमारके साथ हो गया, क्योकि प्रमातिकुमारने ही स्वयवरमे चन्द्रवेध किया । प्रमातिकुमारके इस
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१९० मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन कोशलके कारण उसके साथी भी इससे ईर्ष्या रखते थे। एक दिन वह जंगल में गया था, वहाँ एक मदोन्मत्त वनगज सामने आता हुआ दिखाई दिया। प्रमातिकुमारने धैर्यपूर्वक णमोकारमन्त्रका स्मरण किया और हाथीको पकड लिया। इस कार्य से उसके साथियोपर अच्छा प्रभाव पडा
और वे अपना वैर-विरोध भूलकर उससे प्रेम करने लगे। ___एक दिन कौशाम्बी नगरीसे दूत माया और उसने कहा कि दन्ति बल राजापर एक माण्डलिक राजाने आक्रमण कर दिया है। शत्रुओंने कौशाम्बीके नगरको तोड दिया है। राजा दन्तिवल वीरतापूर्वक युद्ध कर रहा है, पर युद्धमे विजय प्राप्त करना कठिन है । प्रमातिकुमारने मालव नरेशसे भी आज्ञा नही ली और चन्द्रलेखाके साथ रातमे णमोकारमन्त्रका जाप करता हुआ चला । मार्गमें चोर-सरदारसे मुठभेड़ भी हुई, पर उसे परास्त कर कौशाम्बी चला आया और वीरतापूर्वक युद्ध करने लगा। राजा दन्तिवलने जब देखा कि कोई उसकी सहायता कर रहा है, तो उसके आश्चर्यका ठिकाना नही रहा । प्रमातिकुमारने वीरतापूर्वक युद्ध किया जिससे शत्रुके पैर उखड गये और वह मैदान छोड़कर भाग गया । राजा दन्तिवलपुत्रको प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुए। चन्द्रलेखाने ससुरकी चरणधूलि सिरपर धारण की । दन्ति वलको वृद्धावस्था जानेसे संसारसे विरक्ति हो गयी। फिर उन्होने प्रमातिकुमारको राज्यभार दे दिया । प्रमातिकुमार न्याय-नीतिपूर्वक प्रजाका पालन करने लगा । एक दिन वनमें मुनिराजका आगमन सुनकर वह अमात्य, सामन्त और महाजनोसहित मुनिराजके दर्शन करनेको गया । उसने भक्तिभावपूर्वक मुनिराजकी वन्दना की और उनका धर्मोपदेश सुनकर ससारसे विरक्त रहने लगा। कुछ दिनोके उपरान्न एक दिन अपने श्वेत केश देखकर उसे संसारसे बहुत घृणा हुई और अपने पुत्र विमलकीतिको बुलाकर राज्यभार सौंप दिया और स्वय दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर घोर तपश्चरण करने लगा। मरणकाल निकट जानकर प्रमातिकुमारने सल्लेखनामरण घारण किया तथा णमोकार मन्त्रका
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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन १९१ स्मरण करते हुए प्राणोका त्याग किया, जिससे पन्द्रहवें म्वर्गमे कीर्तिधर नामक महद्धिकदेव हुमा । णमोकारमन्त्रका ऐसा ही प्रभाव है, जिससे इस मन्त्रके ध्यानसे सासारिक कष्ट दूर होते हैं, साथ ही परलोकमे महान् सुख प्राप्त होता है। धर्मामृतकी सभी कथाओमे णमोकारमन्त्रकी महत्ता प्रदर्शित की गयी है । यद्यपि ये कथाएँ सम्यक्त्वके आठ अग तथा पचाणुव्रतोंकी महत्ता दिखलानेके लिए लिखी गयी हैं, पर इस मन्त्र का प्रभाव सभी पात्रोपर है।
पुण्यास्रव कथाकोपमे इस महामन्त्रके महत्त्वको प्रकट करनेवाली आठ कथाएं आयी हैं। प्रथम कथाका वर्णन करते हुए बताया गया है कि इस महामन्त्र की आराधना करके तियंच भी मानव पर्यायको प्राप्त होते हैं । कहा है
प्रथम मन्त्र नवकार सुन तिरी बैलको जीव । ता प्रतीत हिरदै धरी मयो रास सुग्रीव ।। ताके बरनन करत हूँ जानो मन वच काय । महामन्त्र हिरदै धरै सकल पाप मिट जाय ।। णमोकारका महापुण्य है अकथनीय उसकी महिमा । जिसके फलसे नीच वैलने पाई सद्गति गरिमा ।। देखो! पदमरुचिर जिस फलसे हुए रामसे नृपति महान् ।
करो ध्यान युत उसकी पूजा यही जगतमें सच्चा मान ।। अयोध्यामे जब महाराज रामचन्द्रजी राज्य करते थे, उस समय सकलभूपण केवलज्ञानके धारी मुनिराज इस नगरके एक उद्यानमे पधारे । पूजा-स्तुति करनेके उपरान्त विभीषणने मुनिराजसे पूछा कि "प्रभो । कृपा कर यह बतलाइए कि किस पुण्यके प्रभावसे सुग्रीव इतना गुणी और प्रभावशाली राजा हुआ है। महाराज रामचन्द्रजीकी तथा सुग्रीवकी पूर्व भवावलि जाननेकी बडी भारी इच्छा है।
केवली भगवान् कहने लगे-इस भरत क्षेत्रके आर्यखण्डमे श्रेष्ठपुरी
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
नामकी एक प्रसिद्ध नगरी है। इस नगरी मे पद्मरुचि नामका सेठ रहता था, जो अत्यन्त घर्मात्मा, श्रद्धालु और सम्यग्दृष्टि या । एक दिन यह गुरुका उपदेश सुनकर घर जा रहा था कि रास्तेमे एक घायल वैलको पीडासे छटपटाते हुए देखा । सेठने दया कर उसके कानमें णमोकार मन्त्र सुनाया, जिसके प्रभावसे मरकर वह वेल इसी नगर के राजाका वृषभध्वज नामका पुत्र हुआ । समय पाकर जब वह बडा हुआ तो एक दिन हाथीपर सवार होकर वह नगर - परिभ्रमणको चला । मार्गमे जब राजाका हाथी उस वैलके मरनेके स्थानपर पहुंचा तो उस राजाको अपने पूर्वभवका स्मरण हो आया तथा अपने उपकारीका पता लगानेके लिए उसने एक विशाल जिनालय बनवाया, जिसमे एक वैलके कानमे एक व्यक्ति णमोकार मन्त्र सुनाते हुए अकित किया गया । उस बैलके पास एक पहरेदारको नियुक्त कर दिया तथा उस पहरेदारको समझा दिया कि जो कोई इस बैल के पास आकर आश्चर्य प्रकट करे, उसे दरबारमे ले आना ।
एक दिन उस नवीन जिनालय के दर्शन करने सेठ पद्मरुचि आया और पत्थरके उस बैलके पास णमोकार मन्त्र सुनाती हुई प्रस्तर मूर्ति अकित देखकर आश्र्चर्यान्वित हुआ । वह सोचने लगा कि यह मेरी आजसे २५ वर्ष पहलेको घटना यहाँ कैसे अकित की गयी है । इसमे रहस्य है, इस प्रकार विचार करता हुआ आश्चर्य प्रकट करने लगा । पहरेदारने जव सेठको आश्चर्य में पडा देखा तो वह उसे पकडकर राजाके पास ले गया | राजा - सेठजी ! आपने उस प्रस्तर मूर्तिको देखकर आश्चर्य क्यो प्रकट किया ?
सेठ - राजन् । आजसे पचीस वर्ष पहलेकी घटनाका मुझे स्मरण आया । मैं जिनालय से गुरुका उपदेश सुनकर अपने घर लौट रहा था कि रास्ते मे मुझे एक बैल मिला। मैंने उसे णमोकार मन्त्र सुनाया । यही घटना उस प्रस्तर मूर्ति में अकित है । अत उसे देखकर मुझे आश्चर्यान्वित होना स्वाभाविक है ।
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मगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
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राजा - "सेठजी | आज में अपने उपकारीको पाकर धन्य हो गया । आपकी कृपासे ही मै राजा हुआ हूँ । आपने मुझे दया कर णमोकार मन्त्र सुनाया जिसके पुण्यके प्रभावसे मेरी तिथंच जाति छूट गयी तथा मनुष्य पर्याय और उत्तम कुलकी प्राप्ति हुई । अव मैं आत्मकल्याण करना चाहता हूँ | मैंने आपका पता लगानेके लिए ही जिनालय मे वह प्रस्तरमूर्ति अकित करायी थी । कृपया आप इस राज्यभारको ग्रहण करें और मुझे आत्मकल्याणका अवसर दें। अब में इस मायाजालमे एक क्षण भी नही रहना चाहता हूँ ।" इतना कहकर राजाने सेठके मस्तकपर स्वय ही राजमुकुट पहना दिया तथा राज्यतिलक कर दिगम्बर दीक्षा धारण की । वह कठोर तपश्चरण करता हुआ णमोकार मन्त्रकी साधना करने लगा और अन्तिम समय में सल्लेखना धारण कर प्राण त्याग दिये, जिससे वह सुग्रीव हुआ है । सेठ पद्मरुचिने अन्तिम समयमे सल्लेखना धारण की तथा णमोकार मन्त्रकी साधना की, जिससे उनका जीव महाराज रामचन्द्र हुआ है । इस णमोकार मन्त्रमे पाप मिटाने और पुण्य बढाने की अपूर्व शक्ति है । केवली मुनिराजके द्वारा इस प्रकार णमोकार मन्त्रकी महिमाको सुनकर विभीषण, रामचन्द्र, लक्ष्मण और भरत आदि सभीको अत्यन्त प्रसन्नता हुई ।
णमोकार मन्त्र के स्मरण से बन्दरने भी आत्मकल्याण किया है। कहा जाता है कि अर्धमृतक एक वन्दरको मुनिराजने दया कर णमोकार मन्त्र सुनाया । उस वन्दरने भो भक्तिभावपूर्वक णमोकार मन्त्र सुना, जिसके प्रभावसे वह चित्रांगद नामका देव हुआ । चित्रागदके जीवने च्युत होकर मानव पर्याय प्राप्त की और अपना वास्तविक कल्याण किया ।
तीसरी कथामे बताया गया है कि काशीके राजाकी लडकीका नाम सुलोचना था । यह जैनधर्ममे अत्यन्त अनुरक्त थी । वह सतत विद्याभ्यास मे लीन रहती थी । अत उसके पिता ने अपने मित्रकी कन्याके साथ उसे रख
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१९४ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन दिया। दोनो मखियां बढे प्रेमके साथ विद्याभ्यास करने लगीं। 'सुलोचनाकी इस सखीका नाम विन्ध्यश्री था। एक दिन विन्ध्यश्री फूल । तोडने बगीचेमे गयी, वहां एक सांपने उसे काट लिया, जिससे वह मूच्छित होकर गिर पड़ी। सुलोचनाने उसे एमोकार मन्त्र सुनाया, जिसके प्रभावसे वह मरकर गंगादेवी हुई तथा सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगी। कहा है
महामन्त्र को सुलोचना से विभ्यश्री ने जब पाया। भक्ति-माव से उसने पायी गंगा देवी की काया । क्यों न कहेगा अकथनीय है नमस्कार महिमा मारी । उसे भजेगा सतत नेम से बन जावेगा सुखकारी ॥ चौथी कथामे आया है कि चारुदत्तने एक अर्द्धदग्ध पुरुषको, जिसे एक संन्यासीने धोखा देकर रसायन निकालनेके लिए कुएमे डाल दिया था और जिसका आधा शरीर वर्षों से उस अन्धकूपमें रहनेके कारण जल गया था, जिससे उसमे चलने-फिरनेकी भी शक्ति नहीं थी, जिसके प्राणोका अन्त ही होना चाहता था, उसे चारुदत्तने णमोकार मन्त्र सुनाया। अन्तिम समयमे इस महामन्त्रके श्रवणमात्रसे उसकी आत्मामें इतनी विशुद्धि आयो जिससे वह प्रथम स्वर्गमे देव हुआ। आगे इसी कथामे बतलाया गया है कि चारुदत्तने एक मरणासन्न बकरेको भी णमोकार मन्त्र सुनाया, जिससे वह बकरेका जीव भी स्वर्गमे देव हुआ ।
पुण्यासव-कथाकोषकी एक कथामे बतलाया गया है कि कीचडम फंसी हुई हथिनी णमोकार मन्त्रके श्रवणसे उत्तम मानव पर्यायको प्राप्त हुई। कहा गया है कि गुणवतीका जीव अनेक पर्यायोको धारण करनेके पश्चात् एक वार हथिनी हुआ । एक दिन वह हथिनी कीचडमें फस गयी और उसका प्राणान्त होने लगा। इसी बीच सुरंग नामका विद्याधर आया और उसने हथिनीको णमोकार मन्त्र सुनाया; जिसके प्रभावसे वह मरकर
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन १९५ नन्दवती कन्या हुई और पश्चात् सीताके समान सती-साध्वी नारी हुई। महामन्त्रका प्रभाव अद्भुत है। कहा गया है -
हथिनी की काया से कैसे हुई सती सीता नारी । जिसने नारी युग में पायी पातिव्रत पदवी भारी ।। नमस्कार ही महामन्त्र है भव सागर की नैया ।
सदा मजोगे पार करेगा बन पतवार खिवैया ।। पार्श्वपुराणमे वताया गया है कि भगवान् पार्श्वनाथने अपनी छमस्थ अवस्थामे जलते हुए नाग-नागिनीको णमोकार महामन्त्रका उपदेश दिया, जिसके प्रभावसे वे धरणेन्द्र और पद्मावती हुए। इसी प्रकार जीवन्धर स्वामीने कुत्तेको णमोकार महामन्य सुनाया था, जिसके प्रभावसे कुत्ता स्वर्गमे देव हुआ। आराधना-कथाकोशमे इस महामन्यके माहात्म्यकी कथाका वर्णन करते हुए कहा है कि चम्पानगरीके सेठ वृषभदत्तके यहां एक ग्वाला नोकर था। एक दिन वह वनसे अपने घर आ रहा था। शीतकालका समय था, कडाकेकी सर्दी पड़ रही थी। उसे रास्तेमे ऋद्धिधारी मुनिके दर्शन हुए, जो एक शिलातलपर बैठकर ध्यान कर रहे थे । ग्वालेको मुनिराजके ऊपर दया आयी और घर जाकर अपनी पत्नीसहित लौट आया तथा मुनिराजकी वैयावृत्ति करने लगा। प्रात काल होनेपर मुनिराजका ध्यान भंग हुआ और ग्वालेको निकट भव्य समझकर उसे णमोकार मन्त्रका उपदेश दिया। अब तो उस ग्वालेका यह नियम बन गया कि वह प्रत्येक कार्यके प्रारम्भ करनेपर णमोकर मन्त्रका नौ बार उच्चारण करता । एक दिन वह भैस चरानेके लिए गया था। भैसें नदीमे कूदकर उस पार जाने लगी, अत ग्वाला उन्हें लौटानेके लिए अपने नियमानुसार णमोकार मन्त्र पढकर नदीमे कूद पडा। पेटमें एक नुकीली लकडी चुभ जानेसे उसका प्राणान्त हो गया और णमोकार मन्त्रके प्रभाव से उसी सेठके यहाँ सुदर्शन नामका पुत्र हुआ। सुदर्शनने उसी भवसे निर्वाण प्राप्त किया । अत कथाके अन्तमे कहा गया है -
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१९६ मगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
"इत्थ ज्ञात्वा महामन्यैः कर्तव्य परया मुदा।
सारपञ्चनमस्कार-विश्वासः शर्मदः सताम् ।।" अर्थात् णमोकार मन्त्रका विश्वास सभी प्रकारके सुखोंको देनेवाला है । जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस महामन्त्रका उच्चारण, स्मरण या चिन्तन करता है, उसके सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं।
इस महामन्त्रकी महत्ता बतलानेवाली एक कथा दृढसूर्य चोरकी भी इसी कथाकोशमे आयी है। बताया गया है कि उज्जयिनी नगरीमे एक दिन वसन्तोत्सवके समय धनपाल राजाको रानी बहुमूल्य हार पहनकर वनविहारके लिए जा रही थी। जब उसके हारपर वमन्तसेना वेश्याकी दृष्टि पडी तो वह उसपर मोहित हो गयी और अपने प्रेमी दृढसूर्य से कहने लगी कि इस हारके बिना तो मेरा जीवित रहना सम्भव नहीं। अत किसी भी तरह हो, इस हारको ले आना चाहिए। दृढसूर्य राजमहलमे गया और उस हारको चुराकर ज्यो ही निकला, त्यो ही पकड लिया गया। दृढसूर्य फांसीपर लटकाया जा चुका था, पर अभी उसके शरीरमे प्राण अवशेष थे। संयोगवश उसी मार्गसे धनदत्त सेठ जा रहा था । दृढ़सूर्य ने उससे पानी पिलानेको कहा। सेठने उत्तर दिया - "मेरे । गुरुने मुझे णमोकार मन्त्र दिया है। अत मैं जवतक पानी लाता हूँ, तुम इसे स्मरण रखो।" इस प्रकार दृढसूर्यको णमोकार मन्त्र सिखलाकर धनदत्त पानी लेने चला गया। दृढसूर्यने णमोकार मन्त्रका जोर-जोरस उच्चारण आरम्भ किया । आयु पूर्ण होनेसे उस चोरका मरण हो गया और वह णमोकार मन्त्र के प्रभावसे सौधर्म स्वर्गमे देव हुआ। ___ जम्बूम्वामी चरितमे आया है कि सेठ अर्हद्दासका अनुज सप्तव्यसनोमे आसक्त था। एक बार यह जुएमे बहुत सा धन हार गया और इस धनकी न दे सकनेके कारण दूसरे जुआरीने इसे मार-मारकर अधमरा कर दिया। अहहासने अन्त समयमे णमोकार मन्त्र सुनाया,जिसके प्रभावसे वह यक्ष हुआ। इस प्रकार णमोकार मन्त्रके प्रभावसे अगणित व्यसनी और पापी व्यक्तियाने
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मंगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन १९७ अपना सुधार किया है तथा वे सद्गति को प्राप्त हुए हैं। इस महामन्त्रकी आराधना करनेवाले व्यक्तिको भूत, पिशाच और व्यन्तर आदिकी किसी भी प्रकारको बाधा नही हो सकती है। धन्यकुमार-चरितकी सुभौम चक्रवर्तीकी निम्न कथासे यह बात सिद्ध हो जायेगी। ____आठवें चक्रवर्ती सुभौमके रसोइयेका नास जयसेन था । एक दिन भोजनके समय इस पाचकने चक्रवर्तीके आगे गरम-गरम खीर परोस दी । गरम खीरसे चक्रवर्तीका मुंह जलने लगा, जिससे क्रोधमे आकर खीरके रखे हुए वरतनको उस पाचकके सिरपर पटक दिया, जिससे उसका सिर जल गया । वह इस कष्टसे मरकर लवणसमुद्रमे व्यन्तर देव हुआ । जब उसने अवधिज्ञानसे अपने पूर्वभवकी जानकारी प्राप्त की तो उसे चक्रवर्तीके ऊपर वडा क्रोध आया । प्रतिहिंसाकी भावनासे उसका शरीर जलने लगा । अतः वह तपस्वीका वेप बनाकर चक्रवर्तीके यहां पहुंचा। उसके हाथमे कुछ मधुर और सुन्दर फल थे। उसने उन फलोको चक्रवर्तीको दिया, वह फल खाकर बहुत प्रसन्न हुआ। उन्होंने उस तापससे कहा- "महाराज, ये फल अत्यन्त मधुर और स्वादिष्ट हैं। आप इन्हें कहाँसे लाये हैं और ये कहाँ मिलेंगे" । तापसरूपधारी व्यन्तरदेवने कहा - "समुद्रके बीचमे एक छोटासा टापू है । मैं वही निवास करता हूँ। यदि आप मुझ गरीवपर कृपा कर मेरे घर पधारें तो ऐसे अनेक फल भेंट करूं।" चक्रवर्ती जिह्वाके लोभमे फँसकर व्यन्तरके झांसेमे आ गये और उसके साथ चल दिये । जव व्यन्तर समुद्रके बीचमे पहुंचा तब वह अपने प्रकृत रूपमे प्रकट होकर लाल-लाल आंखें कर बोला - "दुष्ट, जानता है, मैं तुझे यहाँ क्यो लाया हूँ। मैं ही तेरे उस पाचकका जीव हूँ, जिसे तूने निर्दयतापूर्वक मार डाला था। अभिमान सदा किसीका नही रहता । मैं तुझे उसीका बदला चुकानेके लिए लाया हूँ।" व्यन्तरके इन वचनोको सुनकर चक्रवर्ती भयभीत हुआ और मनही-मन णमोकार मन्त्र का ध्यान करने लगा। इस महामन्त्रके सामर्थ्य के समक्ष उस व्यन्तरकी शक्ति काम नहीं कर सकी । अत उस व्यन्तरने पुन चक्र
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मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
वर्तीसे कहा - "यदि आप अपने प्राणोकी रक्षा चाहते हैं तो पानीमे णमोकार मन्त्रको लिखकर उसे पैरके अँगूठेसे मिटा दें। मैं इसी शर्तके ऊपर आपको जीवित छोड सकता हूँ । अन्यथा आपका मरण निश्चित है ।" प्राणरक्षा के लिए मनुष्यको भले-बुरेका विचार नही रहता, यही दशा चक्रवर्ती की हुई । व्यन्तरदेव के कथनानुसार उसने णमोकार मन्त्रको लिखकर पैर के अंगूठेसे मिटा दिया । उनके उक्त क्रिया सम्पन्न करते ही, व्यन्तरने उन्हे मारकर समुद्रमे फेंक दिया । क्योकि इस कृत्यके पूर्व वह णमोकार मन्त्र के श्रद्धानीको मारनेका साहस नही कर सकता था । यतः उस समय जिन शासनदेव उस व्यन्तर के इस अन्यायको रोक सकते थे; किन्तु णमोकार मन्त्रके मिटा देनेसे व्यन्तरदेवने समझ लिया कि यह धर्मद्वेषी है, भगवान्का भक्त नही । श्रद्धा या अटुट विश्वास इसमे नही है । अत. उस व्यन्तरने उसे मार डाला । णमोकार मन्त्रके अपमानके कारण उसे सप्तम नरककी प्राति हुई । जो व्यक्ति णमोकार मन्त्रके दृढ ज्ञानी हैं, उनकी आत्मामे इतनी अधिक शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जिससे भूत, प्रेत, पिशाच आदि उनका वाल भी बांका नही कर पाते। आत्मस्वरूप इस मन्त्रका श्रद्धान ससारसे पार उतारनेवाला है तथा सम्यग्दर्शन की उत्पत्तिका प्रधान हेतु है । शान्ति, सुख और समताका कारण यही महामन्त्र है ।
श्वेताम्वर धर्मकथासाहित्यमे भी इस महामन्त्र के सम्वन्ध मे अनेक कथाएँ उपलब्ध होती हैं । कथा रत्नकोपमे श्रीदेव नृपतिके कथानकमे इस महामन्त्रकी महत्ता बतलायी गयी है । णमोकार मन्त्रके एक अक्षर या एक पदके उच्चारणमात्रसे जन्म-जन्मान्तर के संचित पाप नष्ट हो जाते हैं । जिस प्रकार सूर्यके उदय होनेसे अन्धकार नष्ट हो जाता है, कमलश्री वृद्धिगत होने लगती है, उसी प्रकार इस महामन्त्रकी श्राराधनासे पाप तिमिर लुप्त हो जाते हैं और पुण्यश्री बढ़ती है । मनुष्योकी तो बात ही क्या तियंच, भीलभीलनी, नीच चाण्डाल आदि इस महामन्त्रके प्रभावसे मरकर स्वर्गमें देव हुए और वहाँसे चयकर मनुष्यकी पर्याय प्राप्त होकर निर्वाण प्राप्त किया
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन १९९ है। स्त्रीलिंगका छेद और समाधिमरणकी सफलता इसी मन्त्रकी धारणापर निर्भर है।
कथासाहित्यमे एक भील-भीलनीकी कथा आयी है, जिसमे बताया गया है कि पुष्करावर्त द्वीपके भरत क्षेत्रमे सिद्धकूट नामका नगर है। उसमे एक दिन शान्त तपस्वी वीतरागी सुव्रत नामके आचार्य पधारे। वर्षाऋतु आरम्भ हो जानेके कारण चातुर्मास उन्होने वही ग्रहण किया। एक दिन मुनिराज ध्यानस्थ थे कि भील-भीलनी दम्पति वहां आये। मुनिराजका दर्शन करते ही उनका चिरसचित पाप नष्ट हो गया, उनके मनमे अपूर्व प्रसन्नता हुई और दोनो मुनिराजका धर्मोपदेश सुननेके लिए वहीपर ठहर गये । जब मुनिराजका ध्यान टूटा तो उन्होंने भील-भीलनीको नमस्कार करते हुए देखा । महाराजने धर्मबुद्धिको आशीर्वाद दिया । आशीर्वाद प्राप्त कर वे दोनो अत्यन्त आह्लादित हुए और हाथ जोड़कर कहने लगे - प्रभो । हमे कुछ धर्मोपदेश दीजिए। मुनिराजने णमोकार मन्त्र उनको सिखलाया, उन दोनोने भक्ति-भावपूर्वक णमोकार मन्त्रका जाप आरम्भ किया। श्रद्धापूर्वक सर्वदा त्रिकाल इस महामन्त्रका जाप करने लगे। भीलने मृत्युके समय भी भक्ति-भावपूर्वक इस महामन्त्रकी आराधना की, जिससे वह मरकर राजपुत्र हुआ। भीलनीने भी सुगति पायी।
आगे बतलाया गया है कि, जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमे मणिमन्दिर नामका नगर था । उस नगरके निवासी अत्यन्त धर्मात्मा, दानपरायण, गुणग्राही और सत्पुरुष थे । इस नगरके राजाका नाम मृगाक था और इसकी रानीका नाम विजया। इन्ही दम्पतिका पुत्र णमोकार मन्त्रके प्रभावसे उस भीलका जीव हुआ। इस भवमे इसका नाम राजसिंह रखा गया। बडे होनेपर राजसिंह मन्त्री-पुत्र के साथ भ्रमणके लिए गया। रास्तेमे थककर एक वृक्षकी छायामे विश्राम करने लगा। इतनेमे एक पथिक उसी मार्ग से आया और राजपुत्रके पास आकर विश्राम करने लगा। बात-चीतके सिलसिले में उसने बतलाया कि पद्मपुरमे पद्म नामक राजा रहता है, इसकी रत्नावती
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२०० मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन नामको अनुपम सुन्दर पुत्री है। जब इसका विवाह सम्बन्ध ठीक हो रहा था, तब एक नटके नृत्यको देखकर उसे जाति-स्मरण हो गया, अत. उसने निश्चय किया कि जो मेरे पूर्वभवके वृत्तान्तको वतलायेगा, उसीके साप में विवाह करूंगी। अनेक देशोके राजपुत्र आये, पर सभी निराश होकर लौट गये। राजकुमारीके पूर्वभवके वृत्तान्तको कोई नही वतला सका। अब उस राजकुमारीने पुरुषका मुंह देखना ही बन्द कर दिया है और वह एकान्त स्थानमे रहकर समय व्यतीत करती है । __ पथिककी उपर्युक्त वातोको सुनकर राजकुमारका आकर्षण राजकुमारी के प्रति हुआ और उसने मन-ही-मन उसके साथ विवाह करने की प्रतिज्ञा की । वहाँसे चलकर मार्गमे मन्त्री-पुत्र और राजकुमारने णमोकार मन्त्रके प्रभावकी कथाओका अध्ययन, मनन और चिन्तन किया, जिससे राजकुमारने अपने पूर्वभवके वृत्तान्तको अवगत कर लिया।पासमे रहनेवाली मणिके प्रभाव. से दोनो कुमारोंने स्त्रीवेष बनाया और राजकुमारीके पास पहुंचे। राजसिंहने राजकुमारीके पूर्वभवका समस्त वृत्तान्त बतला दिया। तथा अपना वेष बदलकर वहांतक आनेकी बात भी कह दी। राजकुमारी अपने पूर्वभवके पतिको पाकर बहुत प्रसन्न हुई । उसे मालूम हो गया कि णमोकार मन्त्रके माहात्म्यसे मैं भीलनीसे राजकुमारी हुई हूँ और यह भीलसे राजपुत्र । अतः हम दोनो पूर्वभवके पति-पत्नी हैं। उसने अपने पितासे भी यह सब वृत्तान्त कह दिया। राजाने रत्नावती और राजसिंहका विवाह कर दिया।
कुछ दिनो तक सासारिक भोग भोगनेके उपरान्त राजसिंह अपने पुत्र प्रतापसिंहको राजगद्दी देकर धर्मसाधनके लिए रानीके साथ वनमे चला गया। राजसिंह जब वीमार होकर मृत्यु-शय्यापर पड़ा जीवनकी अन्तिम घडियां गिन रहा था, उसी समय उसने जाते हुए एक मुनिको देखा और अपनी स्त्रीसे कहा कि आप उस साधुको बुला लाइए । जव मुनिराज उसके पास आये तो राजसिंहने धर्मोपदेश सुननेकी इच्छा प्रकट की। मुनिराजने णमोकार मन्त्रका व्याख्यान किया और इसी महामन्त्र का
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जप करने को कहा । समाधिमरण भी उसने धारण किया और आरम्भपरिग्रहका त्याग कर इस महामन्त्र के चिन्तनमे लीन होकर प्रारण त्याग दिये; जिससे वह ब्रह्मलोकमे दस सागरकी आयुवाला एक भवावतारी देव हुआ | भीलनीके जीव राजकुमारीने भी णमोकार महामन्त्रके प्रभावसे स्वर्गमे जन्म ग्रहण किया ।
क्षत्रचूडामडिमे णमोकार मन्त्रकी महत्त्वसूचक एक सुन्दर कथा आयी है । इस कथामे बताया गया है कि एक बार कुछ ब्राह्मण मिलकर कही पर यज्ञ कर रहे थे कि एक कुत्तेने आकर उनकी हवन सामग्री जूठी कर दी । ब्राह्मणोने क्रुद्ध हो उस कुत्तेको इतना मारा कि वह कण्ठगत प्राण हो गया । सयोगसे महाराज सत्येन्द्रके पुत्र जीवन्धरकुमार उधर आ निकले, उन्होने कुत्तेको मरते हुए देखकर उसे णमोकार मन्त्र सुनाया। मन्त्रके प्रभावसे कुत्ता मरकर यक्ष जातिका इन्द्र हुआ । अवविज्ञानसे अपने उपकारीका स्मरण कर वह कुमार जीवन्धरके पास आया और नाना प्रकारसे उनकी स्तुति प्रशंसा कर उन्हे इच्छित रूप बनाने और गानेकी विद्या देकर अपने स्थानपर चला गया ।
इस आख्यानसे स्पष्ट है कि कुत्ता भी इस महामन्त्र के प्रभावसे देवेन्द्र हो सकता है, फिर मनुष्य जातिकी बात ही क्या ?
इस प्रकार श्वेताम्बर कथासाहित्यमे ऐसी अनेक कथाएं आयी हैं, जिनमे इस महामन्त्र के ध्यान, स्मरण, उच्चारण और जपका अद्भुत फल बताया गया है । जो व्यक्ति भावसहित इस मन्त्रका फळ- प्राप्ति के अनुष्ठान करता है, वह अवश्य अपना कल्याण कर आधुनिक उदाहरण लेता है । सासारिक समस्त विभूतियाँ उसके चरणोमे लोटती हैं । वर्तमानमे भी श्रद्धापूर्वक णमोकार मन्त्र के जापसे अनेक व्यक्तियोंको अलोकिक सिद्धि प्राप्त हुई है । आनेवाली आपत्तियाँ इस महामन्त्रकी कृपा से दूर हो गयी हैं ।
यहाँ दो-चार उदाहरण दिये जाते हैं । इस मन्त्र के दृढ श्रद्धानसे
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जखौरा ( झांसी) निवासी अब्दुल रज्जाक नामक मुसलमानकी सारी विपत्तियां दूर हो गयी थी। उसने अपना एक पत्र जैनदर्शन वर्ष ३ अक ५-६ पृ० ३१ मे प्रकाशित कराया है। वहाँसे इस पत्रको ज्योका त्यो उद्धृत किया जाता है। पत्र इस प्रकार है - "मैं ज्यादातर देखता या सुनता हूं कि हमारे जैन भाई धर्मकी ओर ध्यान नहीं देते । और जो थोडाबहुत कहने-सुननेको देते भी हैं तो सामायिक और णमोकार मन्त्रके प्रकाशसे अनभिज्ञ हैं । यानी अभीतक वे इसके महत्त्वको नहीं समझते हैं। रातदिन शास्त्रोका स्वाध्याय करते हुए भी अन्धकारकी ओर बढ़ते जा रहे हैं। अगर उनसे कहा जाये कि भाई, सामायिक और णमोकार मन्त्र आत्माको शान्ति पैदा करनेवाला और आये हुए दु खोको टालनेवाला है, तो वे इस तरहसे जवाब देते हैं कि यह णमोकार मन्त्र तो हमारे यहाँके छोटे-छोटे बच्चे जानते हैं । इसको माप क्या बताते हैं, लेकिन मुझे अफसोसके साय लिखना पडता है, कि उन्होने सिर्फ दिखानेकी गरजसे मन्त्रको रट लिया है। उसपर उनका दृढ विश्वास न हुआ और न वे उसके महत्त्वको ही समझे । मैं दावेके साथ कहता हूँ कि इस मन्त्रपर श्रद्धा रखनेवाला हर मुसीबतसे बच सकता है। क्योकि मेरे ऊपर ये बातें बीत चुकी हैं।
मेरा नियम है कि जब मैं रातको सोता हूँ तो णमोकार मन्त्रको पढता हुआ सो जाता है। एक मरतवे जाड़ेकी रातका जिक्र है कि मेरे साथ चारपाईपर एक बडा सांप लेटा रहा, पर मुझे उसकी खबर नहीं। स्वप्नमे जरूर ऐसा मालूम हुआ जैसे कोई कह रहा हो कि उठ सांप है। मैं दो-चार मरतवे उठा भी और उठकर लालटेन जलाकर नीचे-ऊपर देखकर फिर लेट गया लेकिन मन्त्रके प्रभावसे जिस ओर सांप लेटा था, उधरसे एक मरतबा भी नहीं उठा । जब सुबह हुमा, मैं उठा और चाहा कि विस्तर लपेट लं, तो क्या देखता हूँ कि बडा मोटा सांप लेटा हुआ है। मैंने जो पल्ली खीची तो वह झट उठ बैठा और पल्लीके सहारे नीचे उतरकर अपने रास्ते चला गया। .
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन २०३ दूसरे अभी दो-तीन माहका जिकर है कि जब मेरी बिरादरीवालोको मालूम हुआ कि मैं जैन मत पालने लगा हूँ, तो उन्होने एक सभा की, उसमे मुझे बुलाया गया। मे जखोरासे झाँमी जाकर समामे शामिल हुआ। हर एकने अपनी-अपनी रायके अनुसार बहुत कुछ कहा-सुना और बहुत-से सवाल पैदा किये, जिनका कि मैं जवाब भी देता गया। बहुत-से महाशयोने यह भी कहा कि ऐसे आदमीको मार डालना ठीक है, लेकिन अपने धर्मसे दूसरे धर्ममे न जाने पावे । इस तरह जिसके दिलमे जो वात आयी, कही। अन्तमे सब लोग अपने-अपने घर चले गये और मैं भी अपने कमरेमे चला आया। क्योकि मैं जब अपने माता-पिताके घर आता हूँ तो एक-दूसरे कमरेमे ठहरता हूँ और अपने हाथसे भोजन पकाकर खाता हूँ। उनके हाथका बनाया हुआ भोजन नहीं खाता। जब शामका समय हुआ - यानी सूर्य अस्त होने लगा तो मैंने सामायिक करना आरम्भ किया और सामायिकसे निश्चिन्त होकर जब आंखें खोली तो देखता हूं कि एक बडा सांप मेरे आस-पास चक्कर लगा रहा है और दरवाजेपर एक बरतन रखा हुआ मिला, जिससे मालूम हुआ कि कोई इसमे बन्द करके यहाँ छोड गया है। छोडनेवालेकी नीयत एकमात्र मुझे हानि पहुंचानेकी थी।
लेकिन उस साँपने मुझे कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। मै वहाँसे डरकर आया और लोगोसे पूछा कि यह काम किसने किया है, परन्तु कोई पता न लगा। दूसरे दिन सामायिक समय जब साँपने पासवाले पडोसीके बच्चेको डंस लिया तब वह रोया और कहने लगा कि हाय मैंने बुरा किया कि दूसरेके वास्ते चार आने पैसे देकर वह सांप लाया था, उसने मेरे बच्चेको काट लिया । तब मुझे पता चला, बच्चेका इलाज हुआ, मैं भी इलाज करानेमे सना रहा, परन्तु कोई लाभ नही हुआ । वह बच्चा मर गया । उसके १५ दिन बाद वह भादमी भी मर गया, उसके वही एक बच्चा था। देखिए सामायिक और णमोकार मन्त्र कितना जबरदस्त खम्भ
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है कि आगे आया हुआ काल प्रेमका बरताव करता हुआ चला गया । इस मन्त्रके ऊपर दृढ़ श्रद्धान होना चाहिए। इसके प्रतापसे सभी कार्य सिद्ध होते हैं।"
इस महामन्त्र के प्रभावकी निम्न घटना पूज्य भगतजी प्यारेलालजी, वेलगछिया कलकत्ता निवासीने सुनायी है । घटना इस प्रकार है कि एक बार कलकत्ता निवासी स्व० बलदेवदासजीके पिता स्व० श्रीमान् सेठ दयाचन्दजी, भगतजी सा० तथा और भी कलकत्तेके चार-छह आदमी gataarat यात्राके लिए गये। जब यात्रा से वापस लौटने लगे तो मार्गमे रात हो गयी, जंगली रास्ता था और चोर डाकुओका भय था । अँधेरा होने से मार्ग भी नही सूझता था, कि किधर जायें और किस प्रकार स्टेशन पहुँचे। सभी लोग घबरा गये। सभी के मनमे भय और आतक व्याप्त था । मार्ग दिखाई न पडनेसे एक स्थानपर बैठ गये । भगतजी साहबने उन सबसे कहा कि अब घबरानेसे कुछ नही होगा णमोकार मन्त्रका स्मरण ही इस सकटको टाल सकता है । अत स्वय भगतजी सा० ने तथा अन्य सब लोगोने णमोकारका ध्यान किया । इस मन्त्रके आधा घण्टा तक ध्यान करनेके उपरान्त एक आदमी वहाँ आया और कहने लगा कि आप लोग मार्ग भूल गये हैं, मेरे पीछे-पीछे चले आइए, मैं आप लोगोको स्टेशन पहुंचा दूंगा । अन्यथा यह जंगल ऐसा है कि आप महीनो इसमे भटक सकते है । अत वह आदमी आगे-आगे चलने लगा और सब यात्री पीछे-पीछे । जव स्टेशनके निकट पहुंचे और स्टेशनका प्रकाश दिखलाई पडने लगा तो उस उपकारी व्यक्तिकी इसलिए तलाश की जाने लगी कि उसे कुछ पारिश्रमिक दे दिया जाये । पर यह अत्यन्त आश्चर्यको बात हुई कि उसका तलाश करनेपर भी पता नही चला। सभी लोग अचम्भित थे, आखिर वह उपकारी व्यक्ति कौन था, जो स्टेशन तक छोड़कर चला गया । अन्तमे लोगोने निश्चय किया कि 'णमोकार मन्त्र के स्मरण के प्रभावसे किसी रक्षकदेवने ही उनकी यह सहायता की। एक बात यह भी कि वह व्यक्ति
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पास नहीं रहता था, आगे-आगे दूर-दूर ही चल रहा था कि आप लोग मेरे ऊपर अविश्वास मत कीजिए। मैं आपका सेवक और हितैषी हूँ। अत यह लोगोको निश्चय हो गया कि णमोकार मन्त्रके प्रभावसे किसी यक्षने इस प्रकारका कार्य किया है । यक्षके लिए इस प्रकारका कार्य करना असम्भव नही है ।
पूज्य भगतजी सा० से यह भी मालूम हुआ कि णमोकार मन्त्रकी आराधनासे कई अवसरोपर उन्होने चमत्कारपूर्ण कार्य सिद्ध किये हैं । उनके सम्पर्कमे आनेवाले कई जैनेतरोने इस मन्त्र की साधनासे अपनी मनोकामनाओको सिद्ध किया है। मैंने स्वय उनके एक सिन्धी भक्तको देखा है जो णमोकार मन्त्रका श्रद्धानी है ।
पूज्य बाबा भागीरथ वर्णी सन् १९३७-३८ मे श्री स्याद्वाद महाविद्यालय काशीमे पधारे हुए थे। बाबाजीको णमोकार मन्त्रपर वडी भारी श्रद्धा थी। श्रीछेदीलाल जीके मन्दिरमे बाबाजी रहते थे । जाडेके दिन थे, बाबाजी पूपमे बैठकर छतके ऊपर स्वाध्याय करते रहते थे । ( क लगूर कई दिनो तक वहां माता रहा । वावाजी उसे बगलमे बैठाकर णमोकार मन्त्र सुनाते रहे । यह लगूर भी आधा घण्टे तक बाबाजीके पास बैठता रहा । यह क्रम दस-पांच दिन तक चला। लडकोने वावाजीसे कहा-"महाराज, यह चचल जातिका प्राणी है, इसका क्या विश्वाम, यह आपको किसी दिन काट लेगा।" पर बाबाजी कहते रहे "भय्या, ये तिर्यंच जातिके प्राणी णमोकार मन्त्रके लिए लालायित हैं, ये अपना कल्याण करना चाहते हैं । हमे इनका उपकार करना है।" एक दिन प्रतिदिनवाला लगूर न आकर दूसरा आया और उसने बाबाजीको काट लिया, इसपर भी वावाजी उसे णमोकार मन्त्र सुनाते रहे, पर वह उन्हे काटकर भाग गया । पूज्य बाबाजीको इस महामन्त्रपर वडी भारी श्रद्धा थी और वह इसका उपदेश सभीको देते थे।
एक सज्जन हथुआ मिलमे कार्य करते हैं, उनका नाम ललितप्रसादजी है। वह होम्योपैथिक औषधका वितरण भी करते हैं। णमोकारमन्यपर
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उन्हें बडी भारी श्रद्धा है । वह बिच्छू, ततैया, हड्डा मादिके विषको इस मन्त्र द्वारा ही उतार देते हैं । उसी मिलके कई व्यक्तियोंने बतलाया कि विच्छू का जहर इन्होने कई बार णमोकार मन्त्र द्वारा उतारा है । यो तो वह भगवान के भक्त भी हैं; प्रतिदिन भगवान्की नियमित रूपसे पूजा करते हैं । किन्तु णमोकार मन्त्रपर उनका बड़ा भारी विश्वास है ।
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अनिष्ट निवारक
प्राचीन और आधुनिक अनेक उदाहरण इस प्रकारके विद्यमान हैं, जिनके आधारपर यह कहा जा सकता है कि णमोकार मन्त्रकी आराधना से सभी प्रकार के अरिष्ट दूर हो जाते हैं और सभी इष्ट-साधक और अभिलाषाएं पूर्ण होती हैं । इस मन्त्रके जापसे णमोकार मन्त्र पुत्रार्थी पुत्र, धनार्थी धन और कीर्ति- अर्थी कीर्ति प्राप्त करते हैं । यह समस्त प्रकारकी ग्रहवाघाओको तथा भूत-पिशाचादि व्यन्तरोंकी पीडाओं को दूर करनेवाला है । 'मन्त्रशास्त्र और णमोकार मन्त्र' शीर्षकमे पहले कहा जा चुका है कि इसी महासमुद्रसे समस्त मन्त्रोकी उत्पत्ति हुई है तथा उन मन्त्रोंके जाप - द्वारा किन-किन अभीष्ट कार्योंको सिद्ध किया जा सकता है । जब इस महामन्त्रके ध्यानसे मात्मा निर्वाणपद प्राप्त कर सकता है, तब तुच्छ सासारिक कार्योंकी क्या गणना ? ये तो आनुषंगिक रूपसे अपने-आप सिद्ध हो जाते हैं । 'तिलोयपण्णत्ति' के प्रथम अधिकारमें पचपरमेष्ठीके नमस्कारको समस्त विघ्न - वाघाओको दूर करनेवाला, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, राग-द्वेपादि भावकर्म एवं शरीरादि नौ कर्मोंको नाश करनेवाला बताया है । समस्त पापका नाशक होने के कारण यह दृष्टसाधक और अनिष्टविनाशक है । क्योकि तीव्र पापोदयसे ही कार्यमे विघ्न उत्पन्न होते हैं तथा कार्य सिद्ध नही होता है । अत पापविनाशक मगलवाक्य होनेसे ही यह इष्टसाधक है । बताया गया है
अन्तरदन्वमलं जीवपदेसे णिबद्धमिदि हो । भावमलं णादन्व भणाण दंसणादि परिणामो ॥
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अहवा बहुभेयगयंणाणावरणादिदन्वभावमलदेहा। ताई गालेह पुढ जदो तदो मंगलं भणिदं ॥ अहवा मग सुक्खं लादिहु गेण्हेदि मंगलं तम्हा । एदेण कन्जसिद्धिं मंगइ गच्छेदि गथकत्तारो ॥ पावं मलंति अण्णइ उवचारसरूवएण जीवाणं ।
तं मालेदि विणास जेदि ति भणति मंगलं केइ ॥ अर्थात् - ज्ञानावरणादि कर्मरूपी पापरज जीवोके प्रदेशोके साथ सम्बद्ध होने के कारण आभ्यन्तर द्रव्यमल हैं तथा अज्ञान, अदर्शन आदि जीवके परिणाम भावमल हैं। अथवा ज्ञानावरणादि द्रव्यमलके और इस द्रव्यमलसे उत्पन्न परिणाम स्वरूप भावमलके अनेक भेद हैं। इन्हें यह णमोकार मन्त्र गलाता है, नष्ट करता है, इसलिए इसे मगल कहा गया है अथवा यह मंग अर्थात् सुखको लाता है, इसलिए इसे मगल कहा जाता है । इष्ट-साधक और अनिष्ट-विनाशक होनेके कारण समस्त कार्योंका आरम्भ इस मन्त्रके मगल पाठके अनन्तर ही किया जाता है। अत यह श्रेष्ठ मगल है। जीवोके पापको उपचारसे मल कहा जाता है, यह णमोकार मन्त्र इस पापका नाश करता है, जिससे अनिष्ट बाधाओका विनाश होता है और इष्ट कार्य सिद्ध होते हैं।
यह णमोकार मन्त्र समस्त हितोको सिद्ध करनेवाला है इस कारण इसे सर्वोत्कृष्ट भाव-मगल कहा गया है। 'मायते साध्यते हितमनेनेति मंगलम्' इस व्युत्पत्तिके अनुमार इसके द्वारा समस्त अभीष्ट कार्योंकी सिद्धि होती है। इसमे इस प्रकारकी शक्ति वर्तमान है, जिसमें इसके स्मरणसे आत्मिक गुणोकी उपलब्धि सहजमे हो जाती है। यह मन्त्र रत्नत्रयधर्म तथा उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दस धर्मोको आत्मामे उत्पन्न करता है अत. "मग धर्म लातीति मङ्गलम्" यह व्युत्पत्ति की जाती है । ___ णमोकार मन्त्रका भावपूर्वक उच्चारण संसारके चक्रको दूर करनेवाला है, तथा संवर और निर्जराके द्वारा आत्मस्वरूपको प्राप्त करनेवाला है।
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
आचार्योने इसी कारण बताया है कि "मं भवात् ससारात् गालयति अप- . नयतीति मंगलम्" अर्थात् यह संसार चक्रसे छुडाकर जीवोको निर्वाण देता है और इसके नित्य मनन चिन्तन और ध्यानसे सभी प्रकारके कल्याणोकी प्राप्ति होती है । इस पचम कालमें संसार त्रस्त जीवोको सुन्दर सुशीतल छाया प्रदान करनेवाला कल्पवृक्ष यह महामन्त्र ही है। दुर्गति, पाप और दुराचरणसे पृथक् सद्गति, पुण्य और सदाचारके मार्गमे यह लगानेवाला है । इस महामन्त्रके जपसे सभी प्रकारको माघि व्याधियां दूर हो जाती है और सुख-सम्पत्तिकी वृद्धि होती है । अत. अहितरूनी पाप या अधर्मका ध्वस कर यह कल्याणरूपी धर्मके मार्गमे लगाता है । बडीसे बडी विपत्तिका नाश णमोकार मन्त्रके प्रभावसे हो जाता है। द्रौपदीका चीर बढना, अजन-चोरके कष्टका दूर होना, सेठ सुदर्शनका शूलीसे उत्तरना, सीताके लिए अग्निकुण्डका जलकुण्ड वनना, श्रीपालके कुप्ठ रोगका दूर होना, अजना सतीके सतीत्वकी रक्षाका होना, सेठके घरके दारिद्रयका नष्ट होना आदि समस्त कार्य णमोकार मन्त्र और पचपरमेष्ठीको भक्तिके द्वारा ही सम्पन्न हुए हैं ।
इस महामन्त्रके एक-एक पदका जाप करनेमे नवग्रहोकी बाधा शान्त होती है । णमोकारादि मन्त्रसग्रहमें बताया गया है कि 'ओं णमो सिद्धाण के दस हजार जापसे सूर्यग्रहकी पीडा, 'भों णमो अरिहंताण' के दस हजार जापसे चन्द्रग्रहकी पीडा, 'ओ णमो सिद्धाण के दस हजार जापसे मगलग्रहकी पीड़ा, 'ओं णमो उवज्झायाणं'के दस हजार जापसे बुधग्रहकी पीडा, ओ णमो आइरियाण' के दस हजारजापसे गुरुग्रहकी पीटा, 'ओं णमो अरिहताण' के दस हजार जापसे शुक्रग्रहकी पीडा और णमो लोए सबसाहण' के दस हजार जापसे शनिग्रहकी पीडा दूर होती है। राहुकी पीडाकी शान्तिके लिए समस्त णमोकार मन्त्र का जाप 'मो' छोडकर अथवा 'भों ही णमा अरिहंताणं' मन्त्रका ग्यारह हजार जाप तथा केतुकी पीडाकी शान्तिक लिए 'ओ' जोडकर समस्त णमोकार मन्त्र का जाप अथवा 'भों ही णमो
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
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सिद्धणं' पदका ग्यारह हजार जाप करना चाहिए। भूत, पिशाच और व्यन्तर बाधा दूर करनेके लिए णमोकार मन्त्रका जाप निम्न प्रकारसे करना होता है । इक्कीस हजार जाप करनेके उपरान्त मन्त्र सिद्ध हो जाता है । सिद्ध हो जानेपर ९ वार पढकर झाड देनेसे व्यन्तर बाधा दूर हो जाती है । मन्त्र यह है -
'ओं णमो अरिहंताणं, ओं णमो सिद्धाणं, ओं णमो आइरियाणं, ओं णमो उवज्झायाणं, ओं णमो लोए सव्वसाहूणं । सर्वदुष्टान् स्नम्मय स्तम्भय मोहय मोहय अन्य अन्धय मूत्रकारय कारय ह्रीं दुष्टान् ठः ठः ठः ।' इस मन्त्र द्वारा एक ही हाथ द्वारा खींचे गये जलको मन्त्र सिद्ध होनेपर ९ बार मौर सिद्ध नही होनेपर १०८ बार मन्त्रित करना होता है | पश्चात् णमोकार मन्त्र पढ़ते हुए इस जलसे व्यन्तराक्रान्त व्यक्तिको घोट देनेसे व्यन्तर, भूत, प्रेत और पिशाचकी बाघा दूर हो जाती है ।
(इस मन्त्रका धर्मकार्य और मोक्ष प्राप्तिके लिए अंगुष्ठ और तर्जनी से, शान्तिके लिए अंगुष्ठ और मध्यमा अंगुलीसे, सिद्धिके लिए अंगुष्ठ ओर अनामिका से एवं सर्वसिद्धिके लिए अगुष्ठ और कनिष्ठासे जाप करना होता है सभी कार्योंकी सिद्धिके लिए पचवर्णं पुष्पोको मालासे, दुष्ट और व्यन्तरोके स्तम्भन के लिए मणियों की मालासे, रोग-शान्ति और पुत्र प्राप्तिके लिए मोतियोंकी माला या कमलगट्टोकी मालासे एवं शत्रूच्चाटन के लिए रुद्राक्ष की मालासे णमोकार मन्त्रका जाप करना चाहिए । हायकी अंगुलियोपर इस महामन्त्रका जाप करनेसे दमगुना पुण्य, रेखा खीचकर जाप करने से आठगुना, पुण्य, मूंगाको मालासे जाप करनेपर हजार गुना पुण्य, लवगोकी माला से जाप करनेसे पाँच हजार गुना पुण्य, स्फटिककी माला से जाप करनेसे दस हजार गुना पुण्य, मोतीकी मालासे जाप करनेपर लाख गुना पुण्य, कमलगट्टो की मालासे जाप करनेपर दस लाख गुना पुण्य और सोनेकी मालासे जाप करनेपर करोड़ गुना पुण्य होता है । मालाके साथ भावोकी शुद्धि भी अपेक्षित है ।
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२१० मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, 'स्तम्भन आदि सभी प्रकारक कार्य इस मन्त्रकी साधनाके द्वारा साधक कर सकता है. यह मन्त्र तो सभीका हितसाधक है, पर साधन करनेवाला अपने भावोंके अनुसार मारण, मोहनादि कार्योंको सिद्ध कर लेता है । मन्त्र साधनामें मन्त्रकी शक्तिके साथ साधककी शक्ति भी कार्य करती है । एक ही मन्त्रका फल । विभिन्न साधकोंको उनकी योग्यता, परिणाम, स्थिरता आदिके अनुसार भिन्न भिन्न मिलता है। अतः मन्त्रके साथ साधकका भी महत्वपूर्ण सम्बन्ध है। वास्तविक बात यह है कि यह मन्त्र ध्वनिरूप है और भिन्नभिन्न ध्वनियां अ से लेकर ज्ञ तक भिन्न शक्ति स्वरूप है। प्रत्येक अक्षरमें। स्वतन्त्र शक्ति निहित है, भिन्न-भिन्न अक्षरोके संयोगसे भिन्न-भिन्न प्रकारको शक्तियां उत्पन्न की जाती हैं । जो व्यक्ति उन ध्वनियोंका मिश्रण करना जानता है, वह उन मिश्रित ध्वनियोंके प्रयोगसे उसी प्रकारके शक्तिशाली कार्यको सिद्ध कर लेता है। णमोकार मन्त्रका ध्वनि-समूह इस प्रकारका है। कि इसके प्रयोगसे भिन्न-भिन्न प्रकारके कार्य सिद्ध किये जा सकते हैं। ध्वनियोंके घर्षणसे दो प्रकारको विद्युत् उत्पन्न होती है - एक धन विद्युत् और दूसरी ऋण विद्युत् । घनविद्युत् शक्ति-द्वारा वाह्य पदार्थोपर प्रभाव पडता है और ऋणविद्युत् शक्ति अन्तरंगकी रक्षा करती है, आजका विज्ञान भी मानता है कि प्रत्येक पदार्थमे दोनो प्रकारकी शक्तियाँ निवास" करती हैं। मन्त्रका उच्चारण और मनन इन शक्तियोंका विकास करता, है। जिस प्रकार जलमे छिपी हुई विद्युत्-शक्ति जलके मन्थनसे उत्पन्न होती है, उसी प्रकार मन्त्रके वार-बार उच्चारण करनेसे मन्त्रके ध्वनि-समूहमें छिपी शक्तियां विकसित हो जाती हैं। भिन्न-भिन्न मन्त्रोमें यह शक्ति मिन्नन भिन्न प्रकारकी होती है तथा शक्तिका विकास भी साधककी क्रिया और, उसकी शक्तिपर निर्भर करता है । अतएव णमोकार मन्त्रकी साधनासभाः प्रकारके अभीष्टोंको सिद्ध करनेवाली और अनिष्टोको दूर करनेवाली है। यह लेखकका अनुभव है कि किसी भी प्रकारका सिरदर्द हो, इक्कीस णमो
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कारमन्त्र द्वारा लोग मन्त्रित कर रोगीको खिला देने से सिरदर्द तत्काल बन्द हो जाता है । एक दिन वीच देकर आनेवाले बुखार मे केसर द्वारा पीपलके पत्तेपर णमोकार मन्त्र लिखकर रोगी के हाथमे बाँध देनेसे बुखार नही आता है । पेट दर्द कपूरको णमोकार मन्त्र द्वारा मन्त्रित कर खिला देने से पेटदर्द तत्काल रुक जाता है। लक्ष्मी प्राप्तिके लिए जो प्रतिदिन प्रात काल स्नानादि क्रियाओसे पवित्र होकर "ओं श्रीं क्लीं णमो सरिहंताणं ओं श्रीं क्लीं णमो सिद्धाणं श्रीं श्रीं क्लीं णमो भाइरियाण श्रीं श्रीं क्लीं णमो उवज्झायाण ओं श्रीं क्लीं णमो लोए सव्व साहूणं" इस मन्त्र - का १०८ बार पवित्र शुद्ध धूप देते हुए जाप करते हैं, उन्हें निश्चयतः लक्ष्मी प्राप्ति होती है । इन सब साधनाओंके लिए एक बात आवश्यक है कि मन्त्रके ऊपर श्रद्धा रहनी चाहिए। श्रद्धा के अभाव मे मन्त्र फलदायक नहीं हो सकता है । अतएव निष्कर्ष यह है कि इस कलिकालमे समस्त पापोका ध्वंसक और सिद्धियोको देनेवाला णमोकार मन्त्र ही है। कहा गया है
जापाज्जयेत्क्षयमरोचकमग्निमान्यं
कुष्ठोदरा मक्सनश्वसनादिरोगान् ।
प्राप्नोति चाऽप्रतिमवाग् महतीं महदुद्भ्यः
पूजां परत्र च गतिं पुरुषोत्तमाप्ताम् ॥ लोक द्विष्टप्रियावश्य घातकादेः स्मृतोऽपि यः । मोहनोच्चाटनानुष्टि-कार्मणस्तम्मनादिकृत् ॥ दूरयत्यापदः सर्वाः पूरयत्यन्न कामनाः ॥ राज्यस्वर्गापवर्गास्तु ध्यातो योऽमुत्र यच्छति ॥
विश्वके लिए वही आदर्श मान्य हो सकता है, जिसमे किसी सम्प्रदाय - विशेषकी छाप न हो । अथवा जो आदर्श प्राणीमात्रके लिए उपादेय हो, वही विश्वको प्रभावित कर सकता है । णमोकार महामन्त्रका आदर्श किसी सम्प्रदायविशेषका आदर्श नही है । इसमें नमस्कार की गयी
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२१२ मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन आत्माएँ अहिंसाकी विशुद्ध मूर्ति हैं । अहिंसा ऐसा धर्म है, जिसका पालन प्राणीमात्र कर सकता है और इस आदर्श-द्वारा सबको सुखी बनाया जा विश्व और णमो
सकता है । जब व्यक्तिमे अहिंसा धर्म पूर्णरूपसे
प्रतिष्ठित हो जाता है तब उसके दर्शन और कार मन्त्र
स्मरणसे सभीका सर्वत्र कल्याण होता है । कहा भी गया है कि - "अहिंसा-प्रतिष्ठायां सासनिधो वैरत्याग" अर्थात् अहिंसाकी प्रतिष्ठा हो जानेपर व्यक्तिके समक्ष क्रूर और दुष्ट जीव भी अपनी वैरभावनाका त्याग कर देते हैं। जहां अहिंसक रहता है, वहीं दुष्काल, महामारी, आकस्मिक विपत्तियां एवं अन्य प्रकारके दुख प्राणीमात्रको व्याप्त नहीं होते । अहिंसक व्यक्तिके सन्निधानसे समस्त प्राणियोंको सुखशान्ति मिलती है । अहिंसककी आत्मामे इतनी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जिससे उसके निकटवर्ती वातावरणमे पूर्ण शान्ति व्याप्त हो जाती है।
जो प्रभाव अहिंसकके प्रत्यक्ष रहनेसे होता है, वही प्रभाव उसके नाम और गुणोंके स्मरणसे भी होता है। विशिष्ट व्यक्तियोंके गुणों के चिन्तनसे सामान्य व्यक्तियोके हृदयमे अपूर्व उल्लास, आनन्द, तृप्ति एवं तद्रूप बननेकी प्रवृत्ति उत्पन्न होती है । णमोकार मन्त्रमे प्रतिपादित विभूतियोमे विश्वकल्याणकी भावना विशेष रूपसे अन्तनिहित है। स्वय शुद्ध हो जानेके कारण ये आत्माएँ ससारके जीवोको सत्यमार्गका प्ररूपण करनेमे समर्थ हैं तथा विश्वका प्राणीवर्ग उस कल्याणकारी पक्षका अनुः सरण कर अपना हित साधन कर सकता है ।
विश्वमे कीट-पतगसे लेकर मानव तक जितने प्राणी हैं, सब सुख और मानन्द चाहते हैं । वे इस आनन्दकी प्राप्तिमे पर-वस्तुओंको अपना समझते हैं । तृष्णा, मोह, राग, द्वेष आदि मनोवेगोके कारण नाना प्रकारके कु-आचरण कर भी सुख प्राप्त करनेकी इच्छा करते हैं । परन्तु विश्वके प्राणियोंको सुख प्राप्त नही हो पाता है। अहिंसक स्वपर कल्याणकारक आत्मामोका आदर्श ऐसा ही है जिसके द्वारा सभी अपना विश्वास मोर,
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कल्याण कर सकते है । जिन परवस्तुओको भ्रमवश अपना समझने के कारण अशान्तिका अनुभव करना पड रहा है, उन सभी वस्तुओसे मोहबुद्धि दूर हो सकती है । अनात्मिक भावनाएँ निकल जाती हैं और आत्मिक प्रवृत्ति होने लगती है । जबतक व्यक्ति भौतिकवादकी ओर झुका रहता है, असत्यको सत्य समझता है, तबतक वह ससार परिभ्रमणको दूर नही कर सकता । णमोकार मन्त्र की भावना व्यक्तिमे समृद्धि जागृत करती है, उसमें आत्माके प्रति अटूट आस्था उत्पन्न करती है, तत्त्वज्ञानको उत्पन्न कर मात्मिक विकासके लिए प्रेरित करती है और बनाती है व्यक्तिको आत्मवादी |
यह मानी हुई बात है कि विश्वकल्याण उसी व्यक्तिसे हो सकता है, जो पहले अपनी भलाई कर चुका हो । जिसमे स्वय दोष, गलती, बुराई एवं दुर्गुण होगे, वह अन्यके दोषों का परिमार्जन कभी नही कर सकता है और न उनका आदर्श समाज के लिए कल्याणप्रद हो सकता है । कल्याणमयी प्रवृत्तियाँ तभी सम्भव हैं, जब आत्मा स्वच्छ और निर्मल हो जाये । अशुद्ध प्रवृत्तियोके रहने पर कल्याणमयी प्रवृत्ति नही हो सकती ओरन व्यक्ति त्यागमय जीवनको अपना सकता है। व्यक्ति, राष्ट्र, देश, समाज, परिवार और स्वय अपनी उन्नति स्वार्थ, मोह और महकारके रहते हुए कभी नहीं हो सकती है । अतएव णमोकार मन्त्रका आदर्श विश्वके समस्त प्राणियोके लिए उपादेय है। इस आदर्श के अपनानेसे सभी अपना हितसाधन कर सकते हैं ।
इस महामन्त्रमें किसी दैवी शक्तिको नमस्कार नही किया गया है, किन्तु उन शुद्ध प्रवृत्तिवाले मानवोको नमस्कार किया है, जिनके समस्त क्रिया - व्यापार मानव समाजके लिए किसी भी प्रकार पीडादायक नही होते हैं । दूसरे शब्दोमे यो कहना चाहिए कि इस मन्त्रमे विकाररहित सासारिक प्रपचसे दूर रहनेवाले मानवोको नमस्कार किया गया है। इन विशुद्ध मानवोने अपने पुरुषार्थं द्वारा काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विकारोको जीत लिया है, जिससे इनमे स्वाभाविक गुण प्रकट हो गये हैं । प्रायः देखा जाता है कि साधारण मनुष्य अज्ञान और राग-द्वेषके कारण स्वय
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मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
गलती करता है तथा गलत उपदेश देता है। जब मनुष्यको उक्त दोनो .. कमजोरियां निकल जाती है तब व्यक्ति यथार्थ ज्ञाता द्रष्टा हो जाता है और अन्य लोगोको भी यथार्थ बातें बतलाता है। , पचपरमेष्ठी इसी प्रकारके शुद्धात्मा हैं, उनमे रत्नत्रय गुण प्रकट हो गया है, अत: वे परमात्मा भी कहलाते हैं। इनका नैसर्गिक वेष वीतरागताका सूचक होता. है। ये निर्विकारी आत्मा विश्वके समस्त प्राणियोंका हित साधन कर .. सकते हैं। यदि विश्वमें इस महामन्त्रके आदर्शका प्रचार हो जाये तो आज जो भौतिक संघर्ष हो रहा है, एक राष्ट्रका मानव समुदाय अपनी परिग्रह-पिपासाको शान्त करनेके लिए दूसरे देशके मानव समूहको परमाणु बमका निशाना बना रहा है, शीघ्र दूर हो जाये । मैत्री भावनाका प्रचार, अहकार और ममताका त्याग इस मन्त्र द्वारा ही हो सकता है, अतः विश्वके प्राणियोके लिए बिना किसी भेद-भावके यह महामन्त्र शान्ति और सुखदायक है। इसमे किसी मत, सम्प्रदाय या धर्मकी बात नही है। जो भी आत्मवादी हैं, उन सबके लिए यह मन्त्र उपादेय है । ___ मगलवाक्यो, मूलमन्त्रो और जीवन के व्यापक सत्योका सम्बन्ध सस्कृतिके साथ अनादि कालसे चला आ रहा है। सस्कृति मानव जीवनकी वह अवस्था जैन संस्कृति और है, जहाँ उसके प्राकृतिक राग-द्वेषोका परिमार्जन हो णमोकारमन्त्र जाता है । वास्तवमे सामाजिक और वैयक्तिक जीवन
- को आन्तरिक मूल प्रवृत्तियोका समन्वय ही संस्कृति है। संस्कृतिको प्राप्त करनेके लिए जीवनके अन्तस्तलमे प्रवेश करना पडता है। स्थूल शरीरके आवरणके पीछे जो आत्माका सच्चिदानन्द रूप छिपा है, संस्कृति उसे पहचाननेका प्रयत्न करती है। शरीरसे आत्माकी ओर, जड़से चैतन्यकी ओर, रूपसे भावकी ओर बढ़ना ही संस्कृतिका ध्येय है । यो तो सस्कृतिका व्यक्तरूप सभ्यता है, जिसमे आचार-विचार, विश्वास-परम्पराएं, शिल्प-कौशल आदि शामिल हैं। जैन सस्कृतिका तात्पर्य है कि आत्माके रत्नत्रय गुणको उत्पन्न कर बाह्य
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन २१५ जीवनको उसीके अनुकूल बनाना तथा अनात्मिक भावोको छोड आत्मिक भावोंको ग्रहण करना। अतएव जैन सस्कृतिमे जीवनादर्श, धार्मिक आदर्श, सामाजिक आदर्श, पारिवारिक आदर्श, आस्था और विश्वासपरम्पराएँ. साहित्यकला मादि चीजें अन्तर्भूत हैं । यो तो जैन सस्कृतिमे वे ही चीजें आती हैं, जो आत्मशोधनमे सहायक होती हैं, जिनसे रत्नत्रय गुणका विकास होता है। यही कारण है कि जैन संस्कृति अहिंसा, परिग्रह, त्याग, सयम, तप आदिपर जोर देती चली आ रही है।
आत्मसमत्व और वीतरागत्वकी भावनासे कोई भी प्राणो धर्मकी शीतल छायामे बैठ सकता है । वह अपना आत्मिक विकास कर अहिंसाकी प्रतिष्ठा कर सकता है । यो तो जैन संस्कृतिके अनेक तत्त्व हैं, पर णमोकार महामन्त्र ऐसा तत्त्व है, जिसके स्वरूपका परिज्ञान हो जानेपर इस सस्कृतिका रहस्य अवगत करनेमे अत्यन्त सरलता होती है। णमो. कारमन्त्रमे रत्नत्रयगुण विशिष्ट शुद्ध मात्माको नमस्कार किया है। जिन आत्माओंने अहिंसाको अपने जीवनमे पूर्णतः उतार लिया है, जिनकी सभी क्रियाएँ अहिंसक हैं, ये मात्माएं जैन संस्कृतिकी साक्षात् प्रतिमाएं हैं । उनके नमस्कारसे आदर्श जीवनकी प्राप्ति होती है । पंच महाव्रतीका पालन करनेवाले मात्मस्वरूपके ज्ञाता-द्रष्टा परमेष्ठियोका वेष संसारके सभी वेषोंसे परे है । लाल-पीले तरह-तरहके वस्त्र धारण करना, डण्डा लाठी आदि रखना, जटाएं धारण करना, शरीरमे भ मूत लगाना आदि अनेक प्रकारके वेप हैं, किन्तु नग्नता वेषातीत है, इसमे किसी भी प्रकारके वेपको नहीं अपनाया गया है। पचपरमेष्ठी निम्रन्य रहकर सत्यका मार्ग अन्वेषण करते हैं। उनकी समस्त क्रियाएँ - मन, वचन और शरीरकी क्रियाएं पूर्ण अहिंसक होती हैं। राग-द्वेष, जिनके कारण जीवनमे हिंसाका प्रवेश होता है, इन आत्माओंमे नही पाये जाते ।
विकार दूर होनेसे शरीरपर इनका इतना अधिकार हो जाता है कि पूर्ण अहिंसक हो जानेपर भोजनकी भी इन्हे आवश्यकता नहीं रहती।
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२१६ मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन समष्टि हो जानेसे सासारिक प्रलोभन अपनी ओर खीच नही पाते हैं। द्रव्य और पर्याय उभय दृष्टिसे शुद्ध परमात्मस्वरूप ये आत्मा होते हैं।। जैन संस्कृतिका मुख्य उद्देश्य निर्मल आत्मतत्त्वको प्राप्त कर शाश्वत सुख-निर्वाण लाभ है। शुद्धात्माओका आदर्श सामने रहने से तथा । शुद्धात्माओके आदर्शका स्मरण, चिन्तन और मनन करनेसे शुद्धत्वको । प्राप्ति होती है, जीवन पूर्ण अहिंसक बनता है। स्वामी समन्तभद्रने अपने बृहत्स्वयंभूस्तोत्रमे शीतलनाथ भगवान्की स्तुति करते हुए कहा है -
सुखामिलापानलदाहमूच्छितं मनो निजं ज्ञानमयामृताम्बुमिः । व्यदिध्ययस्व विपदाहमोहितं यथा मिषग्मन्त्रगुणैः स्वविग्रहम् ॥ रूपजीविते कामसुखे च सृष्णया दिवा श्रमार्ता निशि शेरते प्रजाः । स्वमार्य नक्तदिवमप्रमत्तवानजागरेवात्मविशुद्धवर्मनि ।।
अर्थात् - जैसे वैद्य या मन्त्रवित् मन्त्रोंके उच्चारण, मनन और ध्यानसे सर्पके विपसे सन्तप्त मूर्छाको प्राप्त अपने शरीरको विषरहित कर देता है, वैसे ही आपने इन्द्रिय-विषयसुखकी तृष्णारूपी अग्निकी जलनसे मोहित, हेयोपादेयके विचारशून्य अपने मनको आत्मज्ञानमय अमृतकी वर्षासे शान्त कर दिया है। संसारके प्राणी अपने इस जीवनको बनाये रखने और इन्द्रियसुखको भोगनेकी तृष्णासे पीडित होकर दिनमें तो नाना प्रकारके परिश्रम कर थक जाते हैं और रात होनेपर विश्रामकरते हैं। किन्तु हे प्रभो । आप तो रात-दिन प्रमादरहित होकर आत्माको शुद्ध करनेवाले मोक्षमार्गमे जागते ही रहते हैं।
उपर्युक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि पचपरमेष्ठीका स्वरूप शुद्धात्मा. मय है अथवा शुद्धात्माकी उपलब्धिके लिए प्रयत्नशील आत्माएँ हैं । इनकी समस्त क्रियाएँ आत्माधीन होती हैं, स्वावलम्बन इनके जीवनमे पूर्णतया आ जाता है क्योकि कर्मादिमलसे छूटकर अनन्तज्ञानादि गुणोके स्वामी होकर आत्मानन्दमे नित्य मग्न रहना, यही जीवनका सच्चा प्रयोजन है। पच
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
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परमेष्ठीकी आत्माएँ इन प्रयोजनोको सिद्ध कर लेती हैं या इनकी सिद्धिके लिए प्रयत्नशील हैं। आत्मा अनादि, स्वतः सिद्ध, उपाधिहीन एव निर्दोष है । अस्त्र शस्त्रोसे इसका छेदन नही हो सकता, जलप्लावन से यह भीग नही सकता, आगसे जल नही सकता, पवनसे सूख नहीं सकता और धूपसे कभी निस्तेज नहीं हो सकता है । ज्ञान, दर्शन, सुख, वोर्य, सम्यक्त्व, अगुरुलघुत्व आदि आठ गुण इस आत्मा मे विद्यमान हैं । ये गुण इस आत्माके स्वभाव है, आत्मासे अलग नही हो सकते हैं। णमोकार मन्त्र मे प्रतिपादित पंचपरमेष्ठी उक्त गुणोको प्राप्त कर लेते हैं अथवा पचपरमेष्ठियोंमे से जिन्होने उन गुणोको प्राप्त नहीं भी किया है वे प्राप्त करने का उपक्रम करते हैं । इस स्थूल शरीर के द्वारा वे अपनी आत्मसाधना मे सर्वदा संलग्न रहते हैं ।
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ये अहिंसा के साथ तप और त्यागकी भावनाका अनिवार्य रूप से पालन करते हैं, जिससे राग-द्वेष आदि मलिन वृत्तियोपर सहजमे विजय पाते हैं । इनके आचार मोर विचार दोनो शुद्ध होते हैं । माचार की शुद्धिके कारण ये पशु, पक्षी, मनुष्य, कीट, पतंग, चीटी आदि त्रस जीवोकी रक्षाके साथ पार्थिव, जलीय, आग्नेय, वायवीय आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राणियो तककी हिंसासे आत्मौपम्यकी भावना द्वारा पूर्णतया निवृत्त रहते हैं । विचार-शुद्धि होने से इनकी साम्यदृष्टि रहती है, पक्षपात, राग, द्वेष, सकीर्णता इनके पास फटकने भी नही पाती । प्रमाण और नयवादके द्वारा अपने विचारोका परिष्कार कर ये सत्य दृष्टिको प्राप्त करते हैं ।
णमोकार मन्त्र में निरूपित आत्माओका एकमात्र उद्देश्य मानवताका कल्याण करना है | ये पांचो ही प्राणीमात्रके लिए परम उपकारी हैं । अपने जीवन के त्याग, तपश्चरण, तत्त्वज्ञान और आचरण द्वारा समस्त प्राणियोका हित साधन करते हैं। उनकी कोई भी क्रिया, किसी भी प्राणीके लिए बाधक नही हो सकती है । ये स्वय ससार भ्रमण जन्म, मरणके चक्रसे छुटकारा प्राप्त करते हैं तथा अन्य जीवो को भी अपने शारीरिक या
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मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
वाचनिक प्रभाव द्वारा इस ससार-चक्र से छूट जानेका उपाय बतलाते हैं । अतएव णमोकार मन्त्र जैन संस्कृतिका अन्तरग रूप भावशुद्धि - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्आचरण आदिके साथ है । इस मन्त्रके आदर्शसे तप और त्यागके मार्गपर वढने की प्रेरणा, अहिंसा और अपरिग्रहको आचरणमे उतारने की शिक्षा, विश्वबन्धुत्व और आत्मकल्याणकी कामना उत्पन्न होती है | इस महामन्त्र व्यक्तिकी अपेक्षा गुणोको महत्ता दी गयी है । अतः यह रत्नत्रयरूप संस्कृतिकी प्राप्ति के लिए साधकको आगे बढाता है । उसके सामने पंचपरमेष्ठियोका आचरण प्रस्तुत करता है, जिससे कोई भी व्यक्ति आत्माको संस्कृत कर सकता है । आत्माका सच्चा सस्कार त्यागद्वारा ही होता है, इससे राग-द्वेषोका परिमार्जन होता है और संयमकी प्रवृत्ति भी प्राप्त होती है । अन्तरग आत्माको रत्नत्रयके द्वारा ही सजाया जाता है, इसके बिना आत्माका संस्कार कभी भी सम्भव नही । णमोकार - मन्त्रका आदर्श मरूनी, अकर्मा, अभोक्ता, चैतन्यमय, ज्ञानादि परिणामोंका कर्ता और भोक्ताको अनुभूतिमे लाना है। जिस प्रशम गुण- कषायभावसे आत्मामें परमानन्द आया, वह भी इसीके आदर्शसे मिलता है । अत. जैन संस्कृतिका वास्तविक आदर्श इस महान् मन्त्र द्वारा ही प्राप्त होता है ।
बाह्य जैन संस्कृति सामाजिक एव पारिवारिक विकास, उपासनाविधान, साहित्य, ललितकलाएँ, रहन-सहन, खान-पान आदि रूपये है | इन वाह्य जैन संस्कृति के अगोके साथ भी णमोकारमन्त्रका सम्बन्ध है । उक्त संस्कृतिके स्थूल अवयव भी इसके द्वारा अनुप्राणित हैं । निष्कर्ष यह है कि इस महामन्त्रके आदर्श मूल प्रवृत्तियो, वासनामी और अनुभूतियोको नियन्त्रित करनेमे समर्थ हैं। नैतिक जीवन - बुद्धि-द्वारा नियन्त्रित इन्द्रियपरता इस आदर्शका फल है । यतएव निवृत्ति प्रधान जैन संस्कृतिकी प्राप्ति इस महामन्त्र द्वारा होती है । अतः णमोकार मन्त्रका आदर्श, जिसके अनुकरणपर जीवन के आदर्शका निर्माण किया जाता है, त्याग और पूर्ण अहिंसकमय है । इस मन्त्र से जैन संस्कृतिकी सारी रूप-रेखा सामने प्रस्तुत
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन २१९ हो जाती है । मनुष्य ही नही, पशु-पक्षी भी किस प्रकार अपने विकारोंके त्याग और जीवनके नियन्त्रणसे अपने आत्माको सस्कृत कर चुके है । सस्कृतिका एक स्पष्ट मानचित्र अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुका नाम स्मरण करते ही सामने प्रस्तुत हो जाता है। इस सत्यसे कोई इनकार नहीं कर सकता है कि व्यक्तिकी अन्तरग और बहिरग रूमाकृति ही उसका आदर्श है, यह आदर्श अन्य व्यक्तियोके लिए जितना उपयोगी एव प्रभावोत्पादक हो सकता है, उस व्यक्तिकी सस्कृतिको उतना ही प्रभावित कर सकता है। पचपरमेष्ठीद्वारा स्वावलम्बन और स्वातन्त्र्यके भाव जागृत होते हैं। कपिनेकी भावना, जिसके कारण व्यक्ति परमुखापेक्षी रहता है और अपने उद्धार एव कल्याणके लिए अन्यकी सहायताकी अपेक्षा करता रहता है, जैन सस्कृतिके विपरीत है । इस महामन्यका आदर्श स्वयं ही अपने पुरुषार्थ-द्वारा साधु अवस्था धारण कर सिद्ध अवस्था प्राप्त करनेकी ओर सकेत करता है। अतएव णमो. कारमन्त्र जैन सस्कृतिका सच्चा और स्पष्ट मानचित्र प्रस्तुत कर देता है।
णमोकारमन्त्र प्रत्येक व्यक्तिको सभी प्रकारसे सुखदायी है । इस महामन्त्र-द्वारा व्यक्तिको तीनो प्रकारके कर्तव्यो - आत्माके प्रति, दूसरोके प्रति
___ और शुद्धात्माओंके प्रति-का परिज्ञान हो जाता उपसंहार
है। आत्माके प्रति किये जानेवाले कर्तव्योंमे नैतिक कर्तव्य, सौन्दर्यविषयक कर्तव्य, बौद्धिक कर्तव्य, आर्थिक कर्तव्य और भौतिक कर्तव्य परिगणित है। इन समस्त कर्तव्योपर विचार करनेसे प्रतीत होता है कि इस महामन्त्रके आदर्शसे हमे अपनी प्रवृत्तियो, वासनाओ, इच्छाओ और इन्द्रिय-वेगोपर नियन्त्रण करनेकी प्रेरणा मिलती है । आत्मसयम और आत्मसम्मानको भावना जागृत होती है । दूसरोंके प्रति सम्पन्न किये जानेवाले कर्तव्योमे कुटुम्बके प्रति, समाजके प्रति, देशके प्रति, नगरके प्रति, मनुष्योंके प्रति, पशुओके प्रति और पेड़-पौधोके प्रति कर्तव्योका समावेश होता है । दूसरोके प्रति कर्तव्य सम्पादन करनेमे तीन
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२२० मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन वातें प्रधानरूपसे आती हैं - सचाई, समानता और परोपकार। ये तीनों बातें णमोकार मन्त्रकी आराधनासे ही प्राप्त हो सकती हैं । इस महामन्त्रकामादर्श । हमारे जीवनमे उक्त तीनो बातोंको उत्पन्न करता है। शुद्धात्मा-परमात्मा. के प्रति कर्तव्यमें भक्ति और ध्यानको स्थान प्राप्त होता है । हमे नित्य प्रति शुद्धात्माओंकी पूजा कर उनके आदर्श गुर्गों को अपने भीतर उत्पन्न करनेका प्रयास करना होगा। केवल णमोकार मन्त्रका ध्यान, उच्चारण और स्मरण उपर्युक्त तीनों प्रकारके कर्तव्योके सम्पादनमे परम सहायक है।
प्राय लोग आशंका किया करते है कि बार-बार एक ही मन्त्रके जापसे कोई नवीन अर्थ तो निकलता नही है, फिर ज्ञानमे विकास किस प्रकारहोता है ? आत्माके राग-द्वेष विचारएक ही मन्त्र निरन्तर जपनेसे कैसे दूर हो जाते हैं ? एक ही पद या श्लोक बार-बार अभ्यासमे लाया जाता है, तब उसका कोई विशेष प्रभाव आत्मापर नही पड़ता है। अतः मंगलमन्त्रों के बार-बार जापकी क्या आवश्यकता है ? विशेषतः णमोकारमन्यके सम्बन्धमे यह आशंका और भी अधिक सवल हो जाती है; क्योकि जिन मन्त्रोके स्वामी यक्ष, यक्षिणी या अन्य कोई शासक देव माने जाते हैं, उनमन्त्रोंके वारवार उच्चारणका अभिप्राय उनके अधिकारी देवोको तुलाना या सवंदा उनके साथ अपना सम्पर्क बनाये रखना है। पर जिस मन्त्रका अधिकारी कोई शासक देव नही है, उस मन्त्र के बार-बार पठन और मननसे क्या लाभ? - इस आशंकाका उत्तर एक गणितके विद्यार्थीकी दृष्टिसे बडे सुन्दर ढगसे दिया जा सकता है। दशमलवके गणितमे आवर्त सख्या वार-वार एक ही आती है, पर प्रत्येक दशमलवका एक नवीन अर्थ एव मूल्य होता है । इसी प्रकार णमोकार मन्त्र के बार-बार उच्चारण और मननका प्रत्येक बार नूतन ही अर्थ होगा। प्रत्येक उच्चारण रत्नत्रय गुण विशिष्ट आत्माओंके अधिक समीपले जायेगा ! वह साधक जो निश्छल भावसे अटूट श्रद्धाके साथ इस महामन्त्रका स्मरण करता है, इसके जाप-द्वारा उत्पन्न होनेवाली शक्तिको समझता है। विषयकपायको जीतने के लिए इस महामन्त्रका
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मगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन २२१ जाप अमोघ अस्त्र है । पर इतनी वात सदा ध्यान रखने की है कि मन्य जाप करते हुए तल्लीनता आ जाये। जिसने साधनाकी प्रारम्भिक सीढीपर पैर रखा है. मन्त्र जाप करते समय उसके मनमे दूसरे विकल्प आयेंगे, पर उनकी परवाह नही करनी चाहिए। जिस प्रकार आरम्भमे अग्नि जलानेपर नियमत. बुआं निकलता है, पर अग्नि जब कुछ देर जलती रहती है, तो धुआंका निकलना वन्द हो जाता है। इसी प्रकार प्रारम्भिक साधनाके समक्ष नाना प्रकारके सकल्प-विकल्प आते हैं, पर साधनापथमे कुछ आगे बढ जानेपर विकल्स रुक जाते हैं। अत. हनु श्रद्धापूर्वक इस मन्त्रका जाप करना चाहिए। मुझे इसमे रत्ती-भर भी शक नहीं है कि यह मंगलमन्त्र हमारी जीवन-डोरहोगा औरसकटोसे हमारी रक्षा करेगा। इस मन्त्रका चमत्कार है हमारे विचारोके परिमार्जनमे । यह अनुभव प्रत्येक साधकको थोड़े ही दिनोंमे होने लगता है कि पचमहाव्रत, मैत्री,प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन भावनाओंके साथ दान, शील, तप और ध्यानकी प्राप्ति इस मन्त्रकी दृढ श्रद्धा-द्वारा ही सम्भव है। जैन वननेवाला पहला साधक तो इस णमोकार मन्त्रका श्रद्धामहित उच्चारण करता है । वासनाओका जाल, क्रोध-लोभादि कषायोकी कठोरता आदिको इसी मन्त्रकी साधनासे नष्ट किया जा सकता है। अतएव प्रत्येक व्यक्तिको सोते-जागते, उठते-बैठते सभी अवस्यामोमे इस मन्त्रका स्मरण रखना चाहिए । अभ्यास हो जानेपर अन्य क्रियाओमे संलग्न रहनेपर भी णमोकार मन्त्रका प्रवाह अन्तश्चेतनामें निरन्तर चलता रहता है । जिस प्रकार हृदयकी गति निरन्तर होती रहती है, उसी प्रकार भीतर प्रविष्ट हो जानेपर इस मन्त्रकी साधना सतत चल सकती है ।
इस मगलमन्त्रकी आराधनामे इस बातका ध्यान रखना होगा कि इसे एकमात्र तोतेकी तरह न रटें । बल्कि अवाछनीय विकारोको मनसे निकालनेकी भावना रखकर और मन्त्रकी ऐसा करनेकी शक्तिपर विश्वास रखकर ही इसका जाप करें। जो साधक अपने परिणामोको जितना अधिक
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८
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-
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२२२ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन लगायेगा, उसे उतना ही अधिक फल प्राप्त होगा। यह सत्य है कि इस मन्त्रकी साधनासे शने -शनैः आत्मा नीरोग-निविकार होता जाता है। आत्मबल बढ़ता जाता है। जहां तक सम्भव हो इस महामन्त्रका प्रयोग आत्माको शुद्ध करनेके लिए ही करना चाहिए । लौकिक कार्योंकी सिदिके लिए इसके करनेका अर्थ है, मणि देकर शाक खरीदना. अतः मन्त्रको सहायतासे काम-क्रोध-लोभ-मोहादि विकारोको नष्ट करना चाहिए । यह मन्त्र मंगलमन्त्र है, जीवनमे सभी प्रकारके मगलोंको उत्पन्न करनेवाला है.। अमगल - विकार, पाप, असद् विचार आदि सभी इसकी आराधनासे नष्ट हो जाते हैं। नमस्कार माहात्म्य गाथा पच्चीसीमे बताया गया है ।
जिण सासणस्स सारो चउदस पुवाण सो समुद्धारो. जस्स मणे नवकारो संसारे तस्य किं कुणई ॥ एसो मंगल-निलओ मयविलमो सयलसंघसुहजणमो. नवकारपरममंतो चिंति भमित्तं सुहं , देई नवकारभो भो सारो मंतो न भस्थि तियलोएतम्हाहु अणुदिणं 'चिय, पठियन्वो परममत्तीए॥ हरइ दुई कुणइ सुहं जणइ जस सोसए भवसमुई ।
इहलोय-परलोइय-सुहाण मूलं नमोक्कारो । अर्थात्-यह णमोकार मगल मन्त्र जिन-शासनका सार और चतुर्दशपूर्वोका समुद्धार है। जिसके मनमे यह णमोकार महामन्त्र है। संसार उसका कुछ भी नहीं विगाड़ सकता है। यह मन्त्र मगलका आगार भयको दूर करनेवाला, सम्पूर्ण चतुर्विध संघको सुख देनेवाला और चिन्तनमानसे अपरिः मित शुभ फलको देनेवाला है। तीनों लोकोंमें णमोकार मन्त्रसे बढ़कर कुछ भी सार नही है, इसलिए प्रतिदिन भक्तिभाव और श्रद्धापूर्वक इस मन्त्रको पढ़ना चाहिए । यह दुखोंका नाश करनेवाला, सुखोको देनेवाला, यशको उत्पन्न करनेवाला और संसाररूपी समुद्रसे पार करनेवाला है। इस मन्त्रके समान इहलोक और परलोकमें अन्य कुछ भी सुखदायक नहीं है।
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परिशिष्ट नं०१
(णमोकारमन्त्रसम्बन्धी गरिणतसूत्र १ णमोकार मन्त्रके अक्षरोकी सख्याके इकाई, दहाई रूप अंकोंका
परस्पर गुणा करनेसे योग और प्रमाद सख्या आती है । यथा- ३५ अक्षर हैं, इसमे इकाईका अक ५ और दहाईका अक ३ हैं; अतः
५४३ = १५ को योग या प्रमाद । २. णमोकार मन्त्रके इकाई, दहाई रूप अर्कोको जोडनेसे कर्म संख्या
आती है । यथा - ३५ अक्षर सख्यामे ५+ ३ = ८ कम संख्या । ३ णमोकार मन्त्रकी अक्षर संख्याकी इकाई अकसख्यामे-से दहाई रूप
अफ सख्याको घटानेसे मूलद्रव्य सख्या, नय सख्या, भावसंख्या आती है। यथा ३५ अक्षर संख्या है, इसका इकाई अक ५, दहाई अक ३ है, अत ५ - ३२ जीव और अजीव द्रव्य, द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नय या निश्चय और व्यवहार नय, सामान्य और विशेष, अन्तरंग और वहिरग अथवा द्रव्यहिंसा और भावहिंसा,
प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण । ४. णमोकार मन्त्रको स्रवसख्याके इकाई, दहाई रूप अंकोंका गुणा कर
देनेपर अविरति या श्रावकके व्रतोकी सख्या अथवा अनुप्रेक्षाओकी सख्या निकलती है। यथा णमोकारमन्त्र स्वरसंख्या' ३४ है, अत:
४४३ = १२ अविरति, श्रावकके व्रत या अनुप्रेक्षा। ५ णमोकार मन्त्रको स्वर सख्याके इकाई, दहाईके अकोको जोड देने
पर तत्त्व, नय या सप्तभगीके भगोकी सख्या आती है। यथा ३४ स्वर संख्या है, अत. ४+३= ७ तत्त्व, नय या मंगसख्या । १. देखें, इसो पुस्तकका पृ० ७५ ।
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२२४ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन । ६. णमोकार मन्त्रके स्वर, व्यंजन और अक्षरोंकी संख्याको योग कर
देनेपर प्राप्त योगका संख्या-पृथक्त्वके अनुसार अन्योन्य योग करने पर पदार्थ संख्या आती है। यथा ३४ स्वर, ३० व्यंजन और ३५ अक्षर हैं, अतः ३४+३० + ३५ % ९९ इस प्राप्त योगफलको अन्योन्य योग किया। ९+ ९ - १८, पुनः अन्योन्य योग सस्कार
करनेपर १ + ८-९ पदार्थ संख्या। ७. णमोकार मन्त्रके समस्त स्वर और व्यंजनोंकी संख्याको सामान्य पद
संख्यासे गुणा कर स्वर संख्याका भाग देनेपर शेष तुल्य गुणस्थान और मार्गणा-सख्या आती है । अथवा णमोकार मन्त्रके समस्त स्वर और व्यंजनोकी संख्याको विशेषपद संख्यासे गुणा कर व्यंजनोको संख्याका भाग देनेपर शेष तुल्य गुणस्थान और मार्गो संख्या आती है.! यथा - इस मन्त्रके विशेष पद ११, सामान्य ५, स्वर ३४, व्यंजन ३७ हैं। अतः ३४ + ३० % ६४४५% ३२०२३४% ल और १४ शेष, १४ शेष तुल्य ही गुणस्थान या मार्गणाकी संख्या है। अथवा ३० + ३४ % ६४४११ = ७०४:३० - ३२ लब्धि, और १४शेष यही शेष संख्या गुणस्थान या मार्गणाकी है। समस्त स्वर और व्यंजमोकी सख्याको व्यंजनोंकी संख्यासे गुणा कर विशेषपद संख्या का भाग देनेपर शेष तुल्य द्रव्यो या जीवोके कार्यकी संख्या आती है। यथा - ३०+ ३४% ६४४३० १३२००११ = १७४ ल. और शेष । ६ शेष सख्या ही काय, और द्रव्योंकी संख्या है । अथवा - समस्त स्वर और व्यंजनोंफी संख्याको स्वर सख्यासे गुणाकर सामान्य पद संख्याका माग देनेपर,शेष तुल्य द्रव्यार की तथा जीवोके कायकी संख्या आती है। यथा - ३० १३१६ ६४४३४ % २१७६-५-४३४ लब्ध और... शेष । यहा: प्रमाण द्रव्य और कायकी सख्या है।
१. २. श्सी पुस्तकका पृ० १३६ ।
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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
२२५
५
९. णमोकार मन्त्रकी मात्राओ स्वर, व्यजन और विशेष पदके योगमे सामान्य अक्षरोका अन्योन्य गुणनफल जोड देनेसे कुल कर्मप्रकृतियोकी सख्या होती है । यथा इस मन्त्रकी ५८ मात्राएँ, ३४ स्वर, ३० व्यजन, ११ विशेषपद, ३५ सामान्य अक्षर और सामान्य अक्षरोका अन्योन्य गुणनफल = ५X३ = १५, अतः ५८ + ३४ + ३० + ११ + १५ = १४८ कर्म प्रकृतियाँ |
१० मात्राओ, स्वर एवं व्यजनोकी संख्याका योग कर देनेपर उदय योग्य कर्म प्रकृतियां आती है; यथा ५८ + ३० + ३४ = १२२ उदययोग्य प्रकृति संख्या ।
११. मन्त्रकी स्वर और व्यंजन सख्याका पृथक्त्वके अनुसार अन्योन्य गुणा करनेसे वन्व योग्य प्रकृतियोकी सख्या आती है । यथा व्यंजन ३०, स्वर ३४, अन्योन्य क्रम गुणनफल ३० = ०, इस क्रममे शून्य दमका मान देता है; ४ x ३ = १२ः.१२× १० = १२० बन्ध योग्य प्रकृतियाँ |
१२ णमोकार मन्त्रकी व्यजन सख्याका इकाई, दहाई क्रमसे योग करनेपर रत्नत्रयकी सख्या आती है । यथा ३० व्यजन सख्या है, ० + ३ = ३ रत्नत्रय सख्या, द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, और काय गुप्ति अथवा मन, वचन और काय योग । १३. स्वर और व्यजन सख्याका योग कर इकाई, दहाई अक क्रमसे गुणा करनेपर तीर्थंकर संख्या आती है । यथा ३० + ३४ = ६४, अन्योन्य क्रम करनेपर ४X६ = २४ = तीर्थंकर सख्या । १४ स्वर संख्याको इकाई, दहाई क्रमसे गुणा करनेपर चक्रवर्तियोकी सख्या आती है । यथा ३४ स्वर, अन्योन्य क्रम करनेपर ४X३ = १२ चक्रवर्ती, द्वादश अनुप्रेक्षा, द्वादश व्रत आदि ।
-
१. इसी पुस्तकका ५० १३६ ।
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२२६
मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन
*
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१५. स्वर, व्यंजन और अक्षरोके योगका अन्योन्य क्रमसे योग करनेपर नारायण, प्रतिनारायण और बलदेवकी संख्या आती है यथा स्वर ३४, व्यंजन ३०, अक्षर ३५; अतः ३० + ३४३ अन्योन्य क्रम योग ९ + ९ = १८, पुन अन्योन्य क्रम योग ९ नारायण, प्रतिनारायण और बलदेवोकी संख्या
१६ णमोकार मन्त्रको मात्राओंका इकाई, दहाई क्रमसे योग करनेपर
चारित्र संख्या आती है । यथा
-
ار کیا۔
↑
५८ मात्राएँ - ८+५= १३ चारित्र । १७. णमोकार मन्त्रकी मात्राओंका इकाई, दहाई क्रमसे गुणा करनेपर जो गुणनफल प्राप्त हो, उसका पारस्परिक योग करनेपर गति कषाय और वन्ध संख्या आती है । यथा ५८ मात्राएँ हैं, अतः ८X ५ = ४०,० + ४ = ४ गति, कषाय और बन्ध संख्या ।
१८. णमोकार मन्त्रकी अक्षर संख्याका परस्पर गुरगा कर गुणनफलमे से सामान्य पद संख्या घटानेपर कर्म संख्या आती है । यथा ३५ १० कम
T
प० =
क्रमके अनुसार गुण
t
।
यथा - ३४ स्वर क्रममें शून्य दसके
०X३ = ० इस
अक्षर संख्या, ५ X३ = १५, १५ - ५ सा० १९. स्वर और व्यंजन संख्याका पृथक्त्व अन्योन्य कर योग कर देनेपर परीषह संख्या आती है ३० व्यंजन · ४X३ = १२, तुल्य है । अत १२ + १० = २२ परीषह संख्या ।" २० स्वर और व्यंजन संख्याका जोड कर योगफलकां विरलन कर प्रत्येकके ऊपर दोका अंक देकर परस्पर सम्पूर्ण दोके अंकोंका गुणा करनेपर गुणनफल राशिमे से एक घटा देनेपर समस्त श्रुतज्ञान के
4.4
अक्षरोंका योग आता है । यथा ३४ + ३० = ६४
R २
૩.૨ ૩
. . १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ ।१ ........१ 2
= १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ - १ =
१८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ समस्त श्रुतज्ञानके अन्तर
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1
परिशिष्ट नं० २
अनुचिन्तनगत पारिभाषिक शब्दकोष
अगुरुलघुत्व गुण
२१७
यह वह गुण है जिसके निमित्त
से द्रव्यका द्रव्यत्व बना रहता है ।
अघातिया कर्म
वाले कर्म |
अचेतन
३३
आत्म गुणोका घात न करने
८४
अचेतन अनुभूतियां वे हैं जिनकी तात्कालिक चेतना मनुष्यको नही रहती, किन्तु उसके जीवनपर उनका प्रभाव पडता रहता है । भणु पुद्गल के सबसे छोटे टुकड़े या अंशको अणु कहते हैं ।
१४२
अविशय
४०
हैं - अन्तरंग और वहिरंग । अन्तरंग परिग्रह
वे अद्भुत या चमत्कारपूर्ण वातें जो सामान्य व्यक्तियोंमे न पायी जायें, अतिशय कहलाती हैं । अधिकरण
१२४
वस्तुके आधारका नाम अघि
करण है । अधिकरण के दो भेद
४६
आन्तरिक राग, द्वेष, काम,
क्रोधादि विकारोमे ममत्व भाव रखना अन्तरंग परिग्रह है । यह चौदह प्रकारका होता है ।
अन्तरात्मा
३२
शरीर, धन-धान्यादि समस्त परवस्तुओंसे ममत्वबुद्धिरहित होना एवं सच्चिदानन्द स्वरूप आत्माको ही अपना समझना, अन्तरात्मा है । अन्तराय कर्म
३९
सुख ज्ञान एव ऐश्वयं प्राप्तिके साधनोंमे विघ्न उत्पन्न करनेवाला कर्म अन्तराय कर्म कहलाता है । अनानुपूर्वी
૧૪૮
पद व्यतिक्रम से णमोकार मन्त्र
का पाठ करना या जाप करना
अनानुपूर्वी है ।
अपकर्षण
1
१३०
कर्मोंके स्थितिबन्ध एवं अनु
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२२८
भाग वन्धका घट जाना अपकर्षण है । अभिप्राय
११८
णमोकार मन्त्रके रहस्य या
मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
भावकी जानकारी ।
अभिरुचि
११९
अभिरुचि अस्फुट ध्यान है
तथा ध्यान अभिरुचिका ही स्फुट रूप है ।
अभ्यास
११९
मनोविज्ञान बतलाता है कि अभ्यास ( Exercise ) बार-वार किसी कार्यके करनेकी प्रवृत्ति जिसका दूसरा नाम आवृत्ति ( Repetition ) है, ध्यान आदिके लिए उपयोगी है । अभ्यास नियम
८०
अभ्यास नियमको आदत निर्माका नियम भी कहा गया है (The law of habit-formation ) I इस नियमके दो प्रमुख अंग हैं - पहलेको उपयोगका नियम ( The law of use) और दूसरेको अनुप - योगका नियम ( The law of disuse ) कहते हैं। ये दोनो एकदूसरेके पूरक है । उपयोगका नियम यह बतलाता है कि यदि एक खास
परिस्थितिके प्रति वार-बार एक
71
तरहकी प्रतिक्रिया प्रकट की जा तो उस परिस्थिति और प्रतिक्रिया
*
के बीच एक सम्बन्ध स्थापित
जाता है ।
अरण्यपीठ
एकान्त निर्जन अरण्य में जोकर
णमोकार मन्त्र या अन्य किसी
2
मन्त्रकी साधना करना
अरण्य
पीठ है ।
भर्थ
गुरण पर्याय युक्त पदार्थका नाम अर्थ है ।
अर्थ पर्याय
35
प्रतिक्षण होनेवाले सूक्ष्म अर्ध पर्यकासन परिणमनको अर्थ पर्याय कहते हैं।
.१०५
इस आसन में 'ध्यानके समय अर्ध पद्मासन लगाय जाता है । अवचेतन
2
चेतनोन्मुखं मन है । मनके इस चेतन मनके परे अवचेतन या स्तरमे वे 'भावनाएँ स्मृतियाँ, प्रकाशित नहीं हैं किन्तु जो चेतनाइच्छाएँ तथा वेदनाएँ रहती है जो पर आनेके लिए तत्पर हैं । कोई भी
४१
ارا
میرد
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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन २२९ विचार चेतन मनमे प्रकाशित होने- चिन्तित रहना आर्तध्यान हैं। के पूर्व अवचेतन मनमे रहता है। आदत अधिरति
· १०४ आदत मनुष्यका अजित व्रतरूप परिणत न होना मानसिक गुण है। मनुष्यके जीवनअविरति है । इसके बारह भेद हैं। मे दो प्रकारकी प्रवृत्तियां काम असंयम
. २७ करती हैं - जन्मजात और अजित । इन्द्रियासक्ति और हिंसारूप अजित प्रवृत्तियां ही मादत है। परिणतिको असयम कहा जाता है। आनुपूर्वी
१४८ आख्यातिक - १२३- उच्च गुणोके आधारपर या
क्रियावाचक धातुओसे निष्पन्न किसी-किसी विशेष क्रमके आधारहोनेवाले शब्द आख्यातिक कहलाते पर किसी वस्तुका सन्निवेश करना हैं। जैसे-भवति, गच्छति आदि। आनुपूर्वी है। भाचार
१५ आर्जव सात्त्विक प्रवृत्तियोका माल- ' आत्माके सरल परिणामोको म्बन ग्रहण करना आचार है। आर्जव कहते है। आचारमे जीवनव्यापी उन सभी आवश्यक प्रवृत्तियोका आकलन किया जाता जिन क्रियाओका पालन करना है जिनसे जीवनका सर्वांगीण मुनिके लिए अत्यावश्यक होता है, निर्माण होता है।
उन्हे आवश्यक कहते हैं । आवआचाराग
श्यकके ६ भेद हैं। ग्यारह अगोमे यह पहला अंग मासन है। इसमे मुनि और गृहस्थके सभी
• ध्यान करनेके लिए बैठनेकी प्रकारके आचरणोका वर्णन किया
विशेष प्रक्रियाको आसन कहा जाता है।
जाता है। मार्तध्यान
१०५ आसन-शुद्धि 'इष्टवियोग अनिष्टसयोगादिसे काष्ठ, शिला, भूमि या चटाई
२०
-
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२३०
पर अहिंसक वृत्तिपूर्वक आसीन होना आसन शुद्धि है। आसनको सावधानीपूर्वक शुद्ध रखना आसन
शुद्धि है ।
भास्तिक्य
मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
इच्छित क्रिया
७८
जो क्रिया हमे अभीष्ट होती है उसे इच्छित क्रिया कहते हैं । यह
अनुकूल वातावरणमे प्रकाशित होती है । इन्द्रियगोचर
२९
लोक-परलोकमे आस्था रखना
आस्तिक्य है ।
आस्रव
३०
कर्मोके आनेके द्वारको आस्रव कहते हैं । इसके दो भेद है - भाव आस्रव और द्रव्य मास्रव ।
इच्छा
८५
इच्छाशक्ति मनुष्यकी वह मानसिक शक्ति है, जिसके द्वारा वह किसी प्रकारके निश्चयपर पहुँचता है और उस निश्चयपर दृढ़ रहकर उसे कार्यान्वित करता है । सक्षेपमे किसी वस्तुकी चाहको इच्छा कहते हैं । चाह मनुष्य के वातावरणके सम्पर्कसे उत्पन्न होती है उसका लक्ष्य किसी भोगकी प्राप्ति होता है । यह क्रियात्मक मनोवृत्ति है । अप्रकाशित इच्छाएँ वासना कहलाती हैं । मोर प्रकाशित इच्छाभोको इच्छा कहते हैं ।
}
३५
जो इन्द्रियोके द्वारा ग्रहण
किया जा सके उसे इन्द्रियगोचर या
इन्द्रियग्राह्य कहते हैं ।
उच्चाटन
८८
जिन मन्त्रोके द्वारा किसीके मनको अस्थिर, उल्लास रहित एव निरुत्साहित कर पदभ्रष्ट या स्थानभ्रष्ट कर दिया जाये वे मन्त्र उच्चाटन मन्त्र कहलाते हैं ।
उद्दिष्ट
१४८
पदको रखकर संख्याका आन
यन करना उद्दिष्ट है । उत्कर्षण
१३०
कर्मोकी स्थिति और अनुभाग
वन्धका बढ़ना उत्कर्षण है ।
उदय
१३०
समय पाकर कर्मोंका फल देना उदय है ।
उदीरणा
१३०
समयसे पहले ही कर्मो का फल
7
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कमलासन
मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
२३१ देने लगना उदीरणा है। शरीरको औदारिक शरीर कहते है। उपयोग १३० औपसर्गिक
१२२ जानने-देखने रूप चेतनाकी उपसर्गवाचक प्रत्ययोको शब्दोविशेष परिणतिका नाम उपयोग है। के पहले जोड देनेसे जो नवीन शब्द उपांशु
११३ बनते हैं वे औपसर्गिक कहे जाते हैं। अन्तर्जल्परूप किसी मन्त्रका
१०५ जाप करना - मन्त्रके शब्दोको कमलासन पद्मासनका ही मूखमे बाहर न निकालकर कण्ठ- दूसरा नाम है। इसमे दाहिना या स्थानमे शब्दोका गुजन करते रहना बायां पैर घुटनेसे मोडकर दूसरे हो उपाशु विधि है।
पेरके जघामूलपर जमा दीजिए और उमंग
___७८ दूसरे पैरको भी मोड़कर उसी किसी भी कार्यके प्रति उत्साह प्रकार दूसरे जघामूलपर रखिए। ग्रहण करनेकी क्रिया उमग कह.
कल्पना
८७ लाती है।
पूर्व अनुभूतियो तथा उनसे ऋजुसूत्र
१२१
सम्बद्ध घटनाओको विम्बी (Imaभूत और भावी पर्यायोको
ges) के रूपमे संजोनेकी मानसिक छोडकर जो वर्तमानको ही ग्रहण
क्रियाको कल्पना कहते हैं । करता है उस ज्ञान और वचनको
कषाय ऋजुसूत्र नय कहते हैं।
जो आत्माको कसे अर्थात् दुःख एवंभूत
१२० दे अथवा आत्माकी क्रोधादि रूप जिस शब्दका जिस क्रिया रूप विकारमय परिणतिको कषाय अर्थ हो उस क्रिया रूप परिणत करते है। पदार्थको ही ग्रहण करनेवाला वचन कायशुद्धि
७२ और ज्ञान एवभूत नय है।
यत्नाचारपूर्वक शरीर शुद्ध औदारिक शरीर
४२ करनेकी क्रियाको कायशुद्धि मनुष्य और तियंचोके स्थूल कहते हैं ।
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२३२ मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन कुमानुष
३८ गोत्र , कुभोग भूमिके रहनेवाले ऐसे गोत्र कर्मके उदयसे मनुष्यको मनुष्य जिनके शरीरको आकृति उच्च आचरण या नीच आचरणविभिन्न और विचित्र प्रकारको हो। वाले कुल में जन्म लेना पडता है। क्रियाकेन्द्र
७८ घातियाकर्म क्रियावाही नाडियाँ मस्तिष्क- आत्माके गुणोंका घात करने के जिस स्थानमे केन्द्रित होती हैं, वाले कर्म घातिया कहलाते हैं। उसका नाम क्रिया केन्द्र है। चतुर्विध संघ
५७ क्रियात्मक
७८ मुनि, अजिका, श्रावक और क्रियात्मक वह मनोवृत्ति है श्राविका इन चारोके संघको जिसके द्वारा मानवके समस्त क्रिया. चतुर्विध संघ कहते हैं। .. कलापोंका संचालन हो । इसके दो चरित्र भंद हैं - जन्मजात और अजित । इच्छाशक्तिके कार्यका मानक्रियावाही
७४ सिक परिणाम चरित्र है। कुछ सुषुम्नामे स्थित क्रियावाही वे लोग मनुष्यके संस्कार-पुजको ही नाडियां हैं जो शरीरके बाहरी अंग- चरित्र मानते हैं। कुछ मनोवैज्ञामें होनेवाली किसी भी प्रकारको निक चरित्रको आदतोंका पुज उत्तेजनाकी सूचना देती हैं। बताते हैं। गुणस्थान
३२ चेतन मन ___मोह और योगके निमित्तसे चेतन मन, मनका वह भाग होनेवाले आत्माके परिणामविशेष है जिसमें मनकी समस्त ज्ञात गुणस्थान है।
क्रियाएँ चला करती हैं। .. गुप्सि ४५ चौदह पूर्व
४४. मन, वचन और कायका पूर्ण भगवान महावीरके , पहले निग्रह करना गुप्ति है। आगमिक परम्परामें जो अन्य वर्त
.
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मंगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन
मान थे वे पूर्व ग्रन्थ कहलाये | इनकी सख्या चौदह होने से ये चौदह पूर्व कहे जाते हैं ।
८८
जृम्भण
भूत,
जिन मन्त्रो की शक्तियो से शत्रु प्रेत, व्यन्तर आदि भय त्रस्त हो जायें, काँपने लगें, उन मन्त्रोको जृम्भण कहते हैं ।
जिनकल्पि
४९
जिनकल्पिका अर्थ है समस्त परिग्रहके त्यागी दिगम्बर उत्तम घारी साघु 1 ये एकादशाग सहनन सूत्रोंके धारक गुहावासी होते हैं ।
जिज्ञासा
११९
किसी वस्तु या विचारको जाननेरूप जो प्रवृत्ति होती है उसे
जिज्ञासा कहते हैं ।
तत्परता नियम
तप
तप है |
त्याग
४५
इच्छाभोका निरोध करना
२३३
२७
किसी वस्तुसे ममता या मोहको छोडना त्याग कहलाता है ।
त्यागका तात्पर्यं दानसे है ।
दमन
८०
इस नियम के अनुसार प्राणीको ऐसे काम करनेमे आनन्द मिलता है जिसके करनेकी तैयारी उसमे होती है और ऐसे काम करनेसे उसे असन्तोष प्राप्त होता है जिसके करनेकी तैयारी उसमें नही होती ।
८१
मूल प्रवृत्तिके प्रकाशनपर नियन्त्रण करना दमन कहलाता है । दर्शनावरण
४०
जो कर्म आत्मा के दर्शन गुणका
आच्छादन करता है वह दर्शनावरणीय कर्म कहलाता है ।
दर्शनोपयोग
२६
पदार्थके सामान्य रूपको ग्रहण
चैतन्यरूप प्रवृत्ति
करनेवाली
दर्शनोपयोग है ।
देशवती
३२
जो श्रावक व्रतोके धारण करनेवाले गृहस्थ हैं वे देशव्रती हैं। दैवसिक
१७५
दिनोकी अवधिसे किये जानेवाले व्रतोको दैवसिक व्रत कहते हैं । दैवसिक व्रतोमे दश लक्षण, पुष्पाजलि और रत्नत्रय आदि है ।
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२३४
दव्यशुद्धि
१२४
मगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन द्रव्य लिंगी
५७ विपाकविचय और सस्थानविषय ___ मुनिवेशी, किन्तु सम्यक्त्व- रूप चिन्तनको धर्मध्यान कहते हैं। हीन जैन मुनि द्रयलिंगी कहलाता ध्यान
१०२ ध्यान देना एक ऐसी प्रक्रिया
" है जो व्यक्तिको वातावरणमे उपपायकी अन्तरग शुद्धिको द्रव्य- स्थित अनेक उत्तेजनाओंमे-से उसकी शुद्धि कहा गया है। एमोकार यभिरुचि एव मनोवृत्तिके अनुकूल मन्त्रका जाप करनेके लिए बतायी किसी एक उत्तेजनाको चुन लेने गयी आठ प्रकारको शुद्धियोंमे यह तथा उसके प्रति प्रतिक्रिया प्रकट पहली शुद्धि है।
करनेको वाध्य करती है। द्रव्य संकोच
धारणा शरीरको नम्रीभूत बनाना
___ जिसका ध्यान किया जाये, द्रव्य सकोच है।
उस विषयमे निश्चल रूपसे मनको द्रव्य ससार
जशनमा लगा दना धारणा है । के अस्तित्वको द्रव्य संसार कहते हैं। नय। द्वादशाग
७१ वस्तुका आशिक ज्ञान नय अक्षरात्मक श्रतज्ञानके आचा- कहलाता है। राग सूत्रकृताग आदि द्वादश भेदो- नष्ट
१४८ को द्वादशाग कहते हैं।
सख्याको रखकर पदका प्रमाण
४५ निकालना नष्ट है। __ वस्तुके स्वभावका नाम धर्म नाम कर्म ।
४३ है । यह धर्म रत्नत्रय रूप, उत्तम नाम कर्मके उदयसे शरीरकी क्षमादि रूप एव अहिंसामय है। आकृतियाँ उत्पन्न होती हैं । अर्थात् धमध्यान
१०५ शरीर निर्माणका कार्य इसी कर्मके आज्ञाविचय, अपायविचय,
१०२
३२०
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन २३५ नामिक १२२ निर्देश
१२४ ___ संख्या वाचक प्रत्ययोंसे सिद्ध वस्तुका स्वरूप कथन करना होनेवाले शब्द नामिक कहे जाते निर्देश है ।
निर्विकल्प समाधि निदान
२६ जब समाधि कालमे ध्यान, ___ आगामी भोगोकी वाछा ध्याता, घेयका विकल्प नष्ट हो करना या फल-प्राप्तिका उद्देश्य जाये तो उसे निर्विकल्प समाधि रखना निदान है।
कहते हैं। निधत्ति
निक्षेप
११९ कर्मका संक्रमण और उदय न
कार्य होनेपर अर्थात् व्यवहार हो सकना निधत्ति है।
चलानेके हेतु युक्तियोमे सुयुक्ति
मार्गानुसार जो अर्थका नामादि चार नियम
प्रकारसे आरोप किया जाता है वह ___ शौच, सन्तोप, तप, स्वाध्याय
न्यायशास्त्रमे निक्षेप कहलाता है । और ईश्वर-प्रणिधान ये पांच
नैगम
१२० नियम कहे गये हैं। नियमका वास्त
जो भूत और भविष्यत् पर्यायोविक अर्थ राग-द्वेषको हटाना है।
मे वर्तमानका सकल्प करता है या निरवधि
१०५ वर्तमानमे जो पर्यायपूर्ण नही हुई निरवधि वे व्रत कहलाते हैं
उसे पूर्ण मानता है उस ज्ञान तथा जिन व्रतोंके लिए किसी विशेष वचनको नैगम नय कहते हैं । तिथि या दिनका विधान न हो।
नेपातिक जैसे - कवल चन्द्रायण, मुक्ता
अव्ययवाची शब्द नैपातिक कहे वली, एकावली आदि ।
जाते हैं। जैसे - खलु, ननु आदि। निर्जरा
नोकपाय बंधे हुए कर्मोंका आत्मासे
किचित् कषायको नोकषाय अलग होना निर्जरा है। कहते हैं।
१०२
१२२
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पद
२३६ मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
११९ परिणाम नियम जिसके द्वारा अर्थ बोध हो उसे यह नियम सन्तोष और पद कहते हैं।
असन्तोषका नियम भी कहा जाता पदार्थ-द्वार
११९ है। यदि किसी क्रियाके करनेसे द्रव्य और भावपूर्वक णमोकार प्राणीको सन्तोष मिलता है तो उस मन्त्रके पदोको व्याख्या करना क्रियाके करनेकी प्रवृत्ति प्रवल हो पदार्थ-द्वार है ।
जाती है और यदि किसी क्रियाके परमेष्ठी
करनेसे असन्तोष मिलता है तो जो परमपद-उत्कृष्ट स्थानमे उस प्रवृत्तिका विनाश हो जाता है, स्थित हो अर्थात् जिनमे आत्मिक
इस नियम-द्वारा उपयोगी कार्य गुणोका रत्नत्रयका विकास हो
होते है और अनुपयोगी कार्योंका गया है।
अन्त हो जाता है। परसमय
पल्लव
९१ मैं मनुष्य हूँ, यह मेरा शरीर
मन्त्रके अन्तमे जोडे जानेवाले है इस प्रकार नाना अहकार और स्वाहा, स्वधा, फट, वषट् आदि ममकार भावोंसे युक्त हो अवि- शब्द पल्लव कहलाते हैं। चलित चेतना विलास रूप आत्म- पश्चानुपूर्वी
१२९व्यवहारसे व्युत होकर समस्त यह पूर्वानुपूर्वीके विपरीत है। निन्द्य क्रिया समूहके अंगीकार इसमे हीन गुणकी अपेक्षा क्रमकी करनेसे राग, द्वेषके उत्पत्तिमे संलग्न स्थापना की जाती है । रहनेवाला परसमय रत कहलाता पापासव है। वास्तवमे पर-द्रव्योंका नाम ही पाप प्रकृतियोका आना पापापरसमय है।
स्रव है। परिग्रह ३२ पुद्गल
२६ ममता या मू का नाम रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाले परिग्रह है।
द्रव्यको पुद्गल कहते हैं।
४७
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मगलमन्त्र णमोकार • एक अनुचिन्तन
२३७
पुत्रैषणा १७१ प्रत्याहार
१०२ पुत्र प्राप्तिकी कामना या इन्द्रिय और मनको अपनेसासारिक विषयोकी प्राप्तिकी अपने विपयोसे खीचकर अपनी कामना पुत्रपणा है।
इच्छानुसार किसी कल्याणकारी पुण्यास्रव
६९ ध्येयमे लगानेको प्रत्याहार कहते पुण्य प्रकृतियोका आना पुण्या- हैं। स्रव है।
प्रथमोपशमसम्यक्त्व १४० पूजा
मोहनीयकी सात प्रकृतियोके किसीके प्रति अपने हृदयकी
उपशमसे होनेवाला सम्यक्त्व । श्रद्धा और आदरभावनाको प्रकट
प्रमाद
१०४ करना पूजा है।
कपाय या इन्द्रियासक्ति रूप पूर्वानुपूर्वी
१२९
आचरण प्रमाद है। पूर्व-पूर्वकी योग्यतानुसार
प्ररूपणा द्वार वस्तुओं या पदोको क्रम नियोजन ।
. ११९ पौष्टिक
८८
वाच्य-वाचक, प्रतिपाद्यजिन मन्त्रोंकी साधनासे अभीष्ट प्रतिपादक, विषय-विषयी भावकी कार्यों की सिद्धि एव ससारके ऐश्वर्य- दृष्टिसे णमोकार मन्त्रके पदोका की प्राप्ति हो; वे मन्त्र पौष्टिक व्याख्यान करना प्ररूपणा द्वार है। कहलाते हैं।
प्रस्तार
१४९ प्रत्यक्षीकरण
आनुपूर्वी और अनानुपूर्वीके प्रत्यक्षीकरण एक ऐसी मान- अगोका विस्तार करना प्रस्तार है। सिक क्रिया है जिसके द्वारा वाता- प्राणायाम
१०२ वरणमें उपस्थित वस्तु तथा ज्ञान श्वास आर उच्छ्वासक माधनइन्द्रियोको उत्तेजित करनेवली परि- को प्राणायाम कहते हैं। इसके स्थितियोका तात्कालिक ज्ञान प्राप्त तीन भेद हैं - पूरक, कुम्भक ओर होता है।
रेचक ।
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.
२५
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पहिरात्मा
२३८ मंगलमन्त्र णमोकार एक अ.न.प.
८. मुलगुण ___मन्त्रके तीन अंग होते हैं - - मुख्य गुणोंको मूल गुण कहा रूप, बीज और फल । मन्त्रके द्वारा जाता है । . !
2 MIRE होनेवाली किसी वस्तुकी प्राप्ति
भूल प्रवृत्ति उसका फल कहलाती है।
मूल प्रवृत्ति एक प्रकृतिदत्तः बन्ध
१३० शक्ति है। यह शक्ति मानसिक ____ कर्म और आत्माके प्रदेशोंका संस्कारोंके रूपमें प्राणीके मनमें परस्परमें मिलना बन्ध है। स्थित रहती है। जिसके कारण बहिरंग परिग्रह
प्राणी किसी विशेष प्रकारके पदार्थ धन-धान्यादि रूप दश प्रकार
की ओर ध्यान देता है और उसकी का बहिरंग परिग्रह होता है। उपस्थितिमें विशेष प्रकारका वेदना:
३३ की अनुभूति करता है तथा किसी शरीर और आत्माको एक
विशिष्ट कार्यमे प्रवृत्त होता है। समझनेवाला मिथ्याष्टि बहि
मोहन
... रात्मा है।
जिन मन्योंके द्वारा किसीको बीज
८७ मोहित किया जा सके, वे मोहन. मन्त्रकी ध्वनियोंमे जो शक्ति निहित रहती है उसे बीज कहते हैं।
मोहनीय
मोहनीय कर्म वह है जिसके मिथ्या ज्ञान
उदयसे आत्मामे दर्शन और चारित्र मिथ्या दर्शनके साथ होनेवाला
रूप प्रवृत्ति उत्पन्न न हो। ज्ञान मिथ्या ज्ञान कहलाता है।
यम मिश्र
१२३ इन्द्रियोका दमन कर अहिंसक मिश्रित परिणतिको जिसे न प्रवत्तिको अपनाना यम है। तो हम सम्यक्त्व रूप कह सकते योग .. हैं और न मिथ्यात्व रूप ही- मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको मिश्र कहा जाता है।
योग कहते हैं।
मन्त्र कहलाते हैं। . .
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
२३९
रूप
रत्न-नय
४६ कि नितम्बके सामने जमीनपर टिक सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और जाये और सीनेका बायां भाग सम्यक् चारित्रको रत्नत्रय कहते हैं। ऊपर उठे हुए घुटनेपर अडा रहे।
८७ इसके बाद दाहिनी ओर थोडा यन्त्रकी ध्वनियोका सन्निवेश झुकते हुए बायां नितम्ब कुछ ऊपर रूप कहलाता है।
उठाइए, दाहिना हाथ दाहिनी रौद्र-ध्यान
१०५ जांधके पास जमीनपर टिकाकर हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील झुके हुए घडको सहारा दीजिए और परिग्रह रूप परिणतिके और बायें हाथसे वायें पैरको चिन्तनसे आत्माको कषाय युक्त टखनेके पास पकड लीजिए। करना रोद्र-ध्यान है।
वश्याकर्षण - ८८ लेश्या
१३० जिन मन्त्रों के द्वारा किसीको कषायके उदयसे अनुरजित
वश या आकृष्ट किया जा सके वे योग प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं।
मन्त्र वश्याकर्षण कहलाते हैं । लोकैषणा
१७१
वाचक यशकी कामना या ससारमे वाचक विधिमे जाप करते किसी भी प्रकार प्रसिद्धि प्राप्त समय मुंहसे शब्दोका उच्चारण करनेकी इच्छा करना लोकेषणा है। किया जाता है। वचनशुद्धि
७२ वासना वचन व्यवहारमें किसी भी
मानव मनमें अनेक क्रियात्मक प्रकारके विकारको स्थान न देना मनोवृत्तियां हैं। कुछ क्रियात्मक वचन-शुद्धि है।
मनोवृत्तियों प्रकाशित होती. हैं वज्रासन
१०५ अर्थात् चेतनाको उन का ज्ञान रहता दोनो पैर सीधे फैलाकर बैठ है और कुछ अप्रकाशित रहती हैं। जाइए और वायां पैर घुटनेसे मोड- अप्रकाशित इच्छाओका ही नाम फर जांघसे इस प्रकार मिलाइए वासना है।
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२४० मंगलमन्त्र णमोकार ' एक अनुचिन्तन विचार ७८ विसंयोजन
। १२५ विचार मनकी वह प्रक्रिया है अनन्तानुबन्धी कषायका अन्य जिससे हम पुराने अनुभवको वर्त- कषायरूप परिणमन करना विसंमान समस्याओंके हल करनेमे योजन कहलाता है। लाते हैं।
वेदनात्मक विप्लेषणा
१०१
प्रत्येक मनोवृत्तिके तीन ऐश्वर्य प्राप्तिकी अकाक्षा पहलू हैं - ज्ञानात्मक, वेदनात्मक वित्तषणा है।
और क्रियात्मक । वेदनात्मकका विद्वेषण
८८ तात्पर्य है कि किसी प्रकारकी जो मन्त्र द्वेष भावको उत्पन्न अनुभूतिका होना। करनेमे सहायक हो, वे विद्वेषण वेदनीय कहलाते हैं।
वेदनीय वह कम है जिसके विधान
१२४ उदयसे प्राणीको सुख और दुखकी ____ अनुष्टान-विशेपको विधान प्राप्ति हो। कहा जाता है।
व्यंजन पर्याय विनय-शुद्धि
प्रदेशवत्त्व गुणके विकारको जाप करते समय आस्तिक्य व्यजन पर्याय कहते हैं। भावपूर्वक हृदयमे नम्रता धारण
व्यवहार
१२० करना विनय-शुद्धि है।
सग्रह नयसे ग्रहण किये गये विपाविचय
पदार्थोंका विधिपूर्वक भेद करना ___ कर्मके फलका विचार करना व्यवहार नय है। विपाकविचय धर्म ध्यान है।
शवपीठ विलयन
निम्नकोटिके मन्त्रोकी सिद्धिके मनको किसी विशेष प्रवृत्तिको लिए मृतक कलेवपर आसन विलीन कर देना विलयन है। लगाना शवपीठ है ।
१३०
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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन २४१ शब्द नय . १२० शौच
२७ लिंग, संख्या, साधन आदिके अन्तरंग और बहिरगमै पवित्र व्यभिचारको दूर करनेवाले ज्ञान वृत्तिका उत्पन्न होना गोद धर्म है। और वचनको शब्द नय कहते हैं। श्मशान-पीठ शान्तिक
८८ श्मशान भूमिमे जाकर किसी शान्ति उत्पन्न करनेवाले मन्त्र मन्त्रका अनुष्ठान करना श्मशान शान्तिक कहलाते हैं।
पीठ है। शुक्ल-ध्यान
१३
श्यामा-पीठ लेश्याकी उज्ज्वलता हो जाने
जितेन्द्रिय वनकर नग्न तरुणीपर कर्मध्यानका उल्लंघन कर के समक्ष निर्विकार भावसे मन्त्रकी शुक्ल ध्यानका आरम्भ होता है।
होता है। साधना करना श्यामा-पीठ है। इसके चार भेद हैं।
श्रद्धा
८५ शुद्धोपयोग
गुणोके प्रति रागात्मक आसक्ति स्वानुभूत रूप विशुद्ध परिणतिको प्राप्ति शुद्धोपयोग है। इसीका
श्रद्धा कहलाती है।
श्रुतिज्ञान दूसरा नाम वीतराग विज्ञान है।
- पंच इन्द्रिय बौर मनके द्वारा शुन्द्वोपयोगी शुद्धोपयोगके धारी वीतराग
परके उपदेशसे उत्पन्न होनेवाला विज्ञानी शुद्धोपयोगी हैं। ज्ञान श्रुतज्ञान है। शुभोपयोग
श्रेयोमार्ग पुण्यानुरागरूप शुभोपयोग सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और होता है। इसमे प्रशस्त रागका सम्यक् चारित्र रूप मोक्षका मार्ग रहना आवश्यक है।
ही श्रेयोमार्ग है। शोधन . किसी प्रवृत्तिका शुद्ध या जो वस्तु जैसी देखी या सुनी शोधन करना शोधन कहलाता है। है उसका उसी रूपमे कथन करना
.१९
१
सत्य
।
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२४२ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अर्नुचिन्तन । सत्य है। इसमे अहिंसा प्रवृत्तिका संक्रमण : रहना अत्यावश्यक है।
एक' कर्मको दूसरे सजातीरे सत्त्व
१३० कर्म रूप हो जानेको संक्रमण कर कर्मों प्रकृतियोकी सत्ताका कहते हैं। नाम सत्त्व है। सत्त्व प्रकृतियाँ संग्रह १४८ मानी गयी हैं।
अपनी-अपनी जातिके अनुसी सप्त व्यसन
१७५ वस्तुओंका या उनको पर्यायोक बुरी आदतका नाम व्यसन है। एक रूपसे संग्रह करनेवाले का ये सात होते हैं। तात्पर्य यह है और वचनको संग्रह नय कहते हैं कि जुआ, चोरी आदि सात प्रकार- संवेग की बुरी आदतें सप्त व्यसन कहा संवेग एक चेतन अनुभूति । लाती हैं।
जिसमे कई प्रकारकी शारीरिखें समय शुद्धि
१ क्रियाएं शामिल रहती हैं। प्रात, मध्याह्न और सन्ध्या संयम समय नियमित रूपसे किसी मन्त्र- इन्द्रिय निग्रहके साथ अहिंसा का जाप करना समय शुद्धि है। त्मक प्रवृत्तिको अपनान इसमे समयका निश्चित रहना और संयम है। निराकुल होना आवश्यक है। संवेदन सममिरूढ़
१२०
चैतन्य मनका सर्वप्रथम और लिंग मादिका भेद न होनेपर सरल ज्ञान संवेदन है । “ सवेदन भी शब्दभेदसे अर्थका भेद मानने
इन्द्रियोंके वाह्य पदार्थके स्पर्शसे वाला समभिरून नय है।
होता है। संकल्प
८५ समाधि किसी कार्यके करनेकी प्रतिज्ञा- ध्यानकी, -घरम सीमाको का नाम संकल्प है।
समाधि कहते हैं।
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मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
२४३
१७५
१७९
सम्यक चारित्र २७ साधन
१२४ तत्त्वार्थ श्रद्धानके साथ चारित्र- वस्तुके उत्पन्न होनेके कारणोका होना सम्यक् चारित्र है। को साधन कहते हैं । सम्यग्ज्ञान
२० सावधि तत्त्व श्रद्धानके साथ ज्ञानका
जिन व्रतोके करनेके लिए होना सम्यक् ज्ञान है। दिन, मास या तिथिकी अवधि सम्यग्दर्शन
निश्चित रहती है, वे बत सावधि जीव, मजीव आदि सातो कहलाते हैं। तत्त्वो का श्रद्धान करना सम्यग्- सिद्धगात दर्शन है।
जाति, जरा, मरण आदिसे सल्लेखना
रहित समस्त सुखका भाण्डार सिद्ध बुद्धिपूर्वक काय और कपायको
अवस्था ही सिद्ध गति है। अच्छी तरह कृश करना सल्लेखना
सुखासन - आरामपूर्वक पलहत्थी मार
कर बैठना ही सुखासन है । सहज किया
स्कन्ध
१४२ उत्तेजनाका सबसे सरल कार्य
दो या दोसे अधिक परमासहज क्रियाएं, जैसे - छीकना, खुजलाना, आंसू आना आदि हैं।
णुओके समूहको स्कन्ध कहते हैं।
स्तम्सन महज अनुभव
३५ नदी, समुद्र या तेजीसे आती भूख-प्यास आदि शारीरिक हुई सवारीकी गतिका अवरोध मांगोकी पूर्तिमे ही सुख और उनकी करानेवाले मन्त्र स्तम्भन कहलाते पूर्तिके अभावमे दुखका अनुभव हैं। इन मन्त्रोसे जलती हुई अग्निके करना सहज अनुभव है । यह वेगको या वेगसे आक्रमण करते अनुभव पशु कोटिका माना जाता हुए शत्रु की गतिको अवरुद्ध किया
जा सकता है।
१०५
७८
ak
-
-
---
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२४४
स्थविरकल्पि
मंगलमन्त्र णमोकार,एक अनुचिन्तन
परद्रव्योंसे भिन्न
आत्मद्रव्यको
1 IMM
अनुभवमे लाना ही स्व-समय है ।
स्वामित्व,
४९
जो भिक्षु वस्त्र और पात्र
अपने पास रखकर संयमकी साधना करता है - वह स्थविरकल्पि कह
लाता है ।
स्थायीमाव
७८
जब किसी प्रकारका भाव मनमें बार-बार उठता है अथवा एक ही प्रकारकी उमंग जब मनमें अधिक देर तक ठहरती है तब वह मनमे विशेष प्रकारका स्थायी भाव पैदा कर देती है ।
स्थिति
१२४
कर्मोंका जीव के साथ अमुक समय तक बँधे रहनेका नाम
स्थितिवन्ध है ।
स्मरण
७८
पूर्वानुभूत अनुभवो अथवा घटनामोको पुन वर्तमान चेतनामें लानेकी क्रियाको स्मरण कहते हैं । स्व-संवेदन ज्ञान
३१
ज्ञान कहलाता है ।
स्व-समय
11
४५
·
अपनी आत्मामें रमण करनेकी प्रवृत्ति स्व-समय है । अर्थात्
किसी वस्तु अधिकारी नेका
ही स्वामित्व कहते है ।
स्वाध्याय
·
चिन्तन, मननपूर्वक शास्त्रोका
अध्ययन करना स्वाध्यायः
क्षमा
धर्म
क्रोधरूप परिणति न होने देना
क्षमा है ।
क्षयोपशम
कर्मो का क्षय और होना क्षयोपशम है ।
क्षायिक सम्यक्व
स्वानुभूत रूप ज्ञान स्व-संवेदन क्षायिक दान
7/01 201
दर्शन मोहनीयकी तोनं, प्रकृतियाँ और अनन्तानुवन्धी चार; इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है उसे क्षायिक सम्य क्त्व कहते हैं ।
811
दानान्तराय कर्मका अत्यन्त क्षय होनेसे दिव्य ध्वनि आदिके
द्वारा अनन्त प्राणियोंका उपकार करनेवाला क्षायिक दान होता है।।
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२४५
मगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन क्षायिक उपभोग ४१ ज्ञानवाही
उपभोग अन्तराय कर्मका ज्ञानवाही स्नायु-कोष स्नायु अत्यन्त क्षय होनेसे क्षायिक भोग- प्रवाहोको ज्ञान इन्द्रियोंसे सुपुम्ना की प्राप्ति होती है।
और मस्तिष्कमे ले जाते हैं। क्षायिक मोग ११ ज्ञानात्मक
७८ भोगान्तराय कर्मका अत्यन्त
ज्ञान इन्द्रियोके द्वारा सम्पादित क्षय होनेसे क्षायिक भोगकी प्राप्ति होनेवाली प्रवृत्ति ज्ञानात्मक कहहोती है।
लाती है। क्षायिक लाम
४१ ज्ञानावरण लाभान्तराय कर्मका अत्यन्त जीवके ज्ञान गुणको आच्छाक्षय होनेसे क्षायिक लाभ होता है। दित करनेवाला कर्म ज्ञानावरणीय ज्ञान-केन्द्र
७८ कर्म कहलाता है। ____ मस्तिष्कमे ज्ञानवाही नाडियो- ज्ञानोपयोग
२६ का जो केन्द्र स्थान है - वही ज्ञान जोवकी जानने रूप प्रवृत्तिको केन्द्र कहलाता है।
- ज्ञानोपयोग कहते हैं।
.
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-
-
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परिशिष्ट नं०३ पञ्चपरमेष्ठी नमस्कार-स्तोत्र अरिहाण नमो पुवं, अरहताणं रहस्स रहियाणं ।।
पयओ परमिटिं, अरहताणं धुभ-रयाणं ॥३॥ समस्त संसारके ज्ञाता सर्वज्ञ, सुरेन्द्र-नरेन्द्रसे पूजित, जन्म-मरणसे रहित, कर्मरूपी रजके विनाशक, परमेष्ठीपदके धारी महन्त भगवान्को के नमस्कार हो ॥१॥
निहट्ट-भट्ठ-कम्भिधणाण घरनाण - दंसण - घराणं ।
मुत्ताण नमो सिद्धाणं परम - परमिटि - भूयाणं ॥२॥ जिन्होंने आठ कर्मरूपी इंधनको जलाकर भस्म कर दिया है, जो क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक ज्ञानसे युक्त हैं, समस्त कोंसे रहित । परमेष्ठी स्वरूप हैं, ऐसे सिद्ध भगवानको नमस्कार हो ॥२॥
आयर-धराणं नमो, पचविहायार-सुटियाणं च । वाणीणायरियाणं, मायारुवएसयाण सया ॥३॥ जो ज्ञानाचार, वीर्याचार आदि पांच प्रकारके आचारमे अच्छी तरह, स्थित हैं, ज्ञानी है और सदा आचारका उपदेश करनेवाले हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठीको नमस्कार हो ||३||
वारसविहं अपुज्वं, दिट्ठाण सुझं नमो सुभहराणं च ।
सययमुज्झार्ण, सम्नाय - ज्झाण - जुत्ताणं ॥४॥' वारह प्रकारके श्रुत, ग्यारह अंग और चौदह पूर्वका उपदेश करने.. वाले, श्रुतज्ञानी, स्वाध्याय और ध्यानमे तत्पर उपाध्याय परमेष्ठीको :सतत नमस्कार हो ॥४॥
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४
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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन २४७ सन्वेसि साहूणं, नमो तिगुत्ताण सव्वलोए वि ।
सव-नियम-नाण - देसण - जुत्ताणं वंभयारीणं ॥५॥ समस्त लोकके -- ढाई द्वीपके त्रिगुप्तियोके धारी, तप, नियम, ज्ञान एवं दर्शन युक्त ब्रह्मचारी साधुमोको नमस्कार हो ॥५॥
एमो परमिट्ठीणं, पंचण्ह वि मावओ णमुक्कारो।
सम्बरस कीरमाणो, पावस्स पणासणो होइ ॥६॥ पच परमेष्ठीको भावसहित किया गया नमस्कार समस्त पापोका नाश करनेवाला है ॥६॥
भुवणे वि मंगलाणं, मणुयासुर-अमर-सयर-महियाण ।
सम्वेसिमिमो पढमो, हवइ महामगल पढम ॥७॥ मनुष्य, देव, असुर और विद्याधरो-द्वारा पूजित तीनो लोकोमे यह णमोकार मन्त्र सभी मगलोमे सर्व प्रथम और उत्कृष्ट महामगल है ॥७॥
चत्तारि मंगल मे, हुतुरहंता तहेव सिद्धा य ।
साहु अ सत्रकालं, धम्मो य तिलोय-मगल्लो ॥८॥ अर्हन्त, सिद्ध, साघु और तीनो लोकोका मंगल करनेवाला धर्म ये चारों सदा मंगलरूप हो ॥८॥
चत्तारि चेव ससुरासुरस लोगस्स उत्तमा हुंति ।
भरहंत सिद्ध-साहू, धम्मो जिण-देसिय उयारो ॥९॥ अरिहन्त, सिद्ध, साधु तथा जिन प्रणीत उदार धर्म ये चारो ही तीनों लोकोमे उत्तम हैं।।९।।
चत्तारि वि अरहंते, सिद्धे साहू तहेव धम्मं च ।
संलार-घोर - रक्खस - भएण सरणं पवज्जामि ॥१०॥ ससाररूपी घोर राक्षसके भयरो त्रस्त मैं, अहंन्त, मिद्ध, साधु और इन चारोको शरणमे जाता हूँ॥१०॥
अह-भरहमओ मगवमो, महइ महावीर-यङमाणस्स । पणय-सुरेसर-सेहर वियलिय-कुसुमच्चिय-पक्रमस्स ॥११॥
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मंगलमन्त्र णमोकार · एक अनुचिन्तन
जस्स वर-धम्मचक्कं, दिणयर-विवं व भासुरछायं । तेएण पज्जलंतं, गच्छद पुरभो जिणिंदस्स ॥१२॥ आयासं पायालं, सयलं महिमंडलं पयास । मिच्छत्त-मोह-तिमिरं, हरेइ त्ति इहं पि लोयाणं ॥१३॥ नमस्कार करनेके लिए झुके हुए सुरासुरेश्वरोके मुकुटोसे गिरते हुए पुष्पो-द्वारा पूजित चरणवाले अर्हन्त महावीर वर्षमानके आगे सूर्य-विम्बके समान देदीप्यमान और तेजसे उद्भासित धर्मचक्र चलता है। यह धर्मचक्र आकाश, पाताल और समस्त पृथ्वीमण्डलको प्रकाशित करता हुमा यहाँके प्राणियोके मिथ्यात्वरूपी अन्धकारका हरण करे ॥११-१३।।
सयलंमि वि जियलोए, चिंतियमित्तो करेइ सत्ताणं ।
रक्खं रक्खस-हाइणि - पिसाय गह-जस्ख भूयाणं ॥१४॥ यह णमोकार मन्त्र चिन्तनमानसे समस्त जीवलोकमे राक्षस, डाकिनी, पिशाच, ग्रह, यक्ष और भूत-प्रेतोंसे प्राणियोंकी रक्षा करता है ।।१४।।
लहइ विवाए वाए, ववहारे मावभो सरंतो य ।
जूए रणे व रायंगणे य विजयं विसुद्धप्पा |१५|| भावपूर्वक इसका स्मरण करते हुए शुद्धात्मा वाद-विवाद, व्यवहार, जुआ, युद्ध एव राजदरबारमे विजय प्राप्त करता है ।।१।।
पच्चूस-पभोसेसुं, सययं मन्त्रो जणो सुह-ज्झाणो ।
एवं झाएमाणे, मुक्खं पइ साहगो होइ ॥१६ शुभ ध्यानसे युक्त भव्य जीव इस णमोकार मन्त्रका प्रात तथा सायकाल निरन्तर ध्यान करनेसे मोक्ष साधक बनता है ।।१६।।
वेयाल - रुह-दाणच • नरिंद - कोह ढि-रेवईणं च ।
सम्वेसि सत्ताण, पुरिसो अपराजिओ होइ ॥१॥ इस मन्त्रका स्मरण करनेवाला पुरुष वेताल, रुद्र, राक्षस, राजा, कुष्माण्डी, रेवती तथा सम्पूर्ण प्राणियोसे अपराजित होता है ॥१७॥
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मगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन २४९ विज्जुव्व पज्जलंसी, सन्वेसु व अपखरेसु मत्ताओ। पंच-जमुक्कार-पए, इक्किक्के उवरिमा जाव ॥१८॥ ससि-धवल-सलिल-निम्मल-मायारसहं च वणियं विदुं । जोयण-सय-प्पमाण, 'जाला-सयसहस्स- दिपंतं ॥१९॥ णमोकार मन्त्रके पदोंमे स्थित समस्त अक्षरोंमे मात्राएं बिजलीकी तरह प्रकाशमान हैं और इन मात्राओमे प्रत्येक मात्रापर चन्द्रके समान धवल, जलके सदृश निर्मल, आकारसहित एक सौ योजन प्रमाणवाली, लाखो ज्वालाओसे युक्त विन्दु वर्णित हैं ॥१८-१९॥
सोलससु अक्षरेसु, इक्किक्कं भक्खरं जगुज्जोयं ।
भव-सयसहस्ल-महणो, जंमि ठिो पच नवकारो ॥२०॥ लाखों जन्म-मरणोको दूर करनेवाले णमोकार मन्त्रकी शक्ति जिनमे स्थित है, उन सोलह अक्षरोमे-से प्रत्येक अक्षर जगत्का उद्योत करनेवाला है ॥२०॥
जो थुणइ हु इक्कमणो, भविओ भावेण पंच-नवकारं ।
सो गच्छइ सिवलोयं उज्जोयंतो दस-दिसामो ॥२॥ जो भव्य जीव भावपूर्वक एकाग्र चित्त होकर इस पचनमस्कारकी दृढतापूर्वक स्तुति करता है, वह दसों दिशाओंको प्रकाशित करता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है ॥२१॥ " तव-नियम संजम-रहो, पच-नमुक्कार सारहि-निउत्तो।
नाण-तुरंगम-जुत्तो, नेइ पुरं परम-निव्वाणं ॥२२॥ तप-नियम-सयमरूपी रथ पंचनमस्काररूपी सारथी तथा ज्ञानरूपी घोडोसे युक्त हुआ स्पष्ट ही परम निर्वाणपुरमे ले जाता है ।।२२।।
सुद्धप्पा सुद्धमणा, पंचसु समिईसु सजुय-तिगुत्तो।
मि रहे लग्गो, सिम्बं गच्छद ( स ) सिवलोयं ॥२३॥ पच समिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त जो शुद्ध मनवाला शुद्धात्मा इस विजयशाली रथमे बैठता है, वह शीघ्न मोक्षको प्राप्त करता है ।।२३।।
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२५० मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन र
थंमेइ जलं जळणं, चिंतिय मित्तो विपंच-नवकारो
अरि-मारि-चोर-राउल-घोरुबसगं पणासेइ ॥२४॥ इस णमोकार मन्त्रके चिन्तनमात्रसे जल और अग्नि स्तम्भित हो जाते हैं तथा शत्रु, महामारी, चोर और राजकुल-द्वारा होनेवाले घोर उपद्रव नष्ट हो जाते हैं ॥२४॥
अटेव य अढसयं, असहस्सं च अट्टकोडीओ। रक्खतु मे सरीर, देवासुर-पणमिया सिद्धा ॥२५॥ देवता और असुरों-द्वारा नमस्कार किये गये आठ, आठ सौ आठ हजार या आठ करोड़ सिद्ध मेरे शरीरकी रक्षा करें ॥२५॥
नमो भरहताणं तिलोय-पुज्जो य संथुओ भयव ।
अमर-नरराय-महिमओ, अणाइ-निहणो सिवं दिसड ॥२६॥ उन अर्हन्तोको नमस्कार हो, जो त्रिलोक-द्वारा पूज्य, और अच्छी तरह स्तुत्य हैं तथा इन्द्र और राजाओं-द्वारा वन्दित हैं, और जो जन्ममरणसे रहित हैं, वे हमें मोक्ष प्रदान करें ॥२६॥ ' . ' ,
निद्वविय-अट्ठकम्मो, सुइ-भूय-निरंजणो सिवो सिद्धो।
अमर-नरराय-महिओ, अणाइ-निहणो सिवं दिसउ ॥२७॥
आठो कर्मों को नष्ट कर देनेवाले, शुचिभूत, निरंजन, कल्याणमय तथा सुरेन्द्रों और नरेन्द्रोंसे पूजित अनादि अनन्त सिद्ध परमेष्ठी मुझे मुक्ति प्रदान करें ॥२७॥
सव्वे पमोस-मच्छर-आहिय-हियया पणासमुवति। दुगुणीकय-धणुपई, सोउ पि महाधणुं सहसा ॥२॥
"ॐ घणु-धणु महाधणु स्वाहा" इस मन्त्ररूपी विद्याको,सुनकर सव ईर्ष्या, द्वेप और मात्सर्यसे भरे हृदयवाले शीघ्र ही नष्ट होते हैं ॥२८॥
इय विहुयण-पमाण, सोलस-पचं जलंत-दित्त-सरं । अट्ठार-भट्टवलयं, पच-नमुक्कार-चक्कमिणं ॥२९॥
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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन २५१ सोलह पत्रवाला, ज्वलन्त और दीप्त स्वरवाला तथा आठ आरे और आठ वलयसे युक्त यह 'पंच नमस्कार चक्र' त्रिभुवनमे प्रमाणभूत है ।।२९।।
सयलुज्जोइय • भुवर्ण, विद्वाविय - सेस-सत्तु - सघायं ।
नासिय-मिच्छत्त-तमं, वियलिय-मोह हय-तमोइं॥३०॥ यह पचनमस्कार चक्र समस्त भुवनोको प्रकाशित करनेवाला, सम्पूर्ण शत्रुओको दूर भगानेवाला, मिथ्यात्वरूपी अन्धकारका नाश करनेवाला, मोहको दूर करनेवाला और अज्ञानके समूहका हनन करनेवाला है ।॥३०॥
एव सय मज्झत्थो, सम्मादिट्ठी विसुद्ध चारित्तो । नाणी पवयण - भत्तो, गुरुजण - सुस्सूसणा परमो ॥३॥ जो पच नमुक्कार, परमो पुरिसो पराइ भत्तोए । परिय - इ पहदिणं, पयमो सुस्कमो भप्पा ॥३२॥ अट्टेव य भट्टसय, अट्ठसहस्सं च उमयकालं पि ।
अहेब य कोडीमो, सो तइय-भेव लहइ मिद्धिं ॥३३॥ जो उत्तम पुरुष सदा मध्यस्थ, सम्यग्दृष्टि. विशुद्ध चरित्रवान्, ज्ञानी प्रवचन भक्त और गुरुजनोकी शुश्रूपामें तत्पर है तथा प्रणिधानसे आत्माको शुद्ध करके प्रतिदिन दोनो सन्ध्याओके समय उत्कृष्ट भक्तिपूर्वक माठ, आठ सौ, आठ हजार, आठ करोड मन्त्रका जाप करता है, वह तीमरे भवमे सिद्धि प्राप्त करता है ॥३१-३३॥
एसो परमो मंतो, परम-रहस्स परंपर तत्त ।
नाणं परमं नेयं, सुखं झाणं परं शेयं ॥३४॥ यह णमोकार मन्त्र ही परम मन्त्र है. परम रहस्य है, सबसे वडा तत्त्व है, उत्कृष्ट ज्ञान है और है शुद्ध तथा ध्यान करने योग्य उत्तम ध्यान ॥३४॥
एय कवयमभेय, खाइ य सस्थ परा भवणरक्ला ।
जोई सुन्नं बिन्दु, नाओ तारा लवो मत्ता ॥३५॥ यह णमोकार मन्त्र अमोघ कवच है,परकोटेकी रक्षाके लिए खाई है,
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२५२ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन अमोघ शस्त्र है, उच्चकोटिका भवन-रक्षक है, ज्योति है, बिन्दुः है, नाद है, तारा है, लव है, यही मात्रा भी है ॥३५॥
सोलस-परमखर धीय-बिन्दु-गठमो जगुलमो जोह (जोठ)।
सुय-बारसंग-सायर-(बाहिर)-महत्य-पुष्वस्से-परमस्थो ॥३६॥ इस पंच नमस्कार चक्रमें आये हुए सोलह परमाक्षर, अरिहन्त, सिद्ध, आइरिय, उवज्झाय, साहू बीज एवं बिन्दुसे गमित हैं। जगतमें उत्तम हैं, ज्योतिस्वरूप हैं, द्वादशागरूप श्रुतसागरके महान् अर्थको धारण करनेवाले पूर्वोका परम रहस्य है ॥३६॥
नासेइ चोर-सावय-विसहर-जल-जलण-बंधण-सयाई
चिंतिज्जतो रक्सस - रण - राय • भयाई. मांवेणे ॥३७॥ भावपूर्वक स्मरण किया गया यह मन्त्र चोर, हिंसक प्राणी, विषघर - सर्प, जल, अग्नि, बन्धन, राक्षस, युद्ध और राज्यके भयका नाश करता है ।।३७॥
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