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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
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जन्य वासनाएं मानव हृदयका मन्थन कर विषयोकी ओर प्रेरित करती है जिससे व्यक्ति के जीवन में अशान्तिका सूत्रपात होता है । योग शास्त्रियोंने इस अशान्तिको रोकने के विधानोका वर्णन करते हुए बतलाया है कि मनकी चचलतापर पूर्ण आधिपत्य कर लिया जाये तो चित्तको वृत्तियोका इधरउधर जाना रुक जाता है । अतएव व्यक्तिकी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नतिका एक साधन योगाभ्यास भी है। मुनिराज मन, वचन और कायकी चवलताको रोकने के लिए गुप्ति और समितियांका पालन करते हैं । यह प्रक्रिया भी योगके अन्तर्गत है । कारण स्पष्ट है कि चित्तकी एकाग्रता समस्त शक्तियोको एक केन्द्रगामी बनाने तथा साध्य तक पहुँचाने में समर्थ है । जीवनमे पूर्ण सफलता इसी शक्तिके द्वारा प्राप्त
होती है ।
जैनग्रन्थोमे सभी जिनेश्वरोको योगी माना गया है । श्रपूज्यपादस्वामीने दशभक्ति में बताया है - "योगीश्वरान् जिनान् सर्वान् योगनिर्धूतकल्मषान् । योगेस्त्रिभिरह वन्दे योगस्कन्धप्रतिष्ठितान्"। इससे स्पष्ट है कि जैनागम मे योगका पर्याप्त महत्त्व स्वीकार किया गया है । योगश स्त्रके इतिहासपर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि इस कल्पकालमें भगवान् आदिनाथने योगका उपदेश दिया । पश्चात् अन्य तीर्थंकरोने अपने-अपने समयमें इस योगमार्गका प्रचार किया | जैनग्रन्थोंमें योगके अर्थमे प्रधानतया ध्यान शब्दका प्रयोग हुआ है । ध्यानके लक्षण, भेद, प्रभेद, आलम्बन आदिका विस्तृत वर्णन अग और अगवाह्य ग्रन्थों में मिलता है । श्रीउमास्वामी माचार्यने अपने तत्त्वार्थसूत्र में ध्यानका वर्णन किया है, इस ग्रन्यके टीकाकारोने अपनी-अपनी टीकाओमे ध्यानपर बहुत कुछ विचार किया है। ध्यानसार और योगप्रदीप में योगपर पूरा प्रकाश डाला गया है | आचार्य शुभचन्द्रने ज्ञानार्णव में योगपर पर्याप्त लिखा है । इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे श्रीहरिभद्रसूरिने नयी शैली में बहुत लिखा है । इनके रचे हुए योगविन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविशिका, योगशतक और पोडशक ग्रन्थ है । इन्होने