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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन २७ इच्छाओको बढाते जाना मिथ्यात्वका ही फल है। इससे स्पष्ट है कि समस्त दुःखोका कारण मिथ्यादर्शन है।
मिथ्यादर्शनके सद्भाव- आत्मविश्वासके अभाव - मे ज्ञान भी मिथ्या ही रहता है। मिथ्यात्व-रूपी मोहनिद्रासे अभिभूत होनेके कारण ज्ञान वस्तु-तत्त्वको यथार्थता तक पहुंच नहीं पाता। अत मिथ्यादृष्टिका ज्ञान आत्मकल्याणसे सदा दूर रहता है। ज्ञानके मिथ्या रहनेसे चारित्र भी मिथ्या होता है। यत कपाय और असयमके कारण ससारमे परिभ्रमण करनेवाला आचरण ही व्यक्ति करता है, जो मिथ्या चारित्रकी कोटिमे परिगणित है। मोहनिद्रासे अभिभूत होने के कारण विषय ग्रहण करनेकी इच्छा उत्पन्न होती है, इच्छाएँ अनन्त हैं । इनकी तृप्नि न होनेसे जीवको अशान्ति होती है । मोहाभिभूत होनेके कारण इच्छा-तृप्तिको ही मिथ्यादृष्टि सुख समझता है, पर वास्तवमे इच्छाएं कभी तृप्त नहीं होती। एक इच्छा तृप्त होती है, दूसरी उत्पन्न हो जाती है, दूसरीके तृप्त होनेपर तीसरी उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार मोहके निमित्तसे पचेन्द्रिय-सम्बन्धी इच्छाएं निरन्तर उत्पन्न होती रहती हैं, जिससे मनुष्यको आकुलता सदा बनी रहती है।
चारित्र-मोहके उदयसे क्रोवादि कपाय रूप अथवा हास्यादि नोकपाय रूप जीवके भाव होते हैं, जिससे दुष्कृत्योमे प्रवृत्ति होती है। क्रोध उत्पन्न होनेपर अपनी और परकी शान्ति भग होती है, मान उत्पन्न होनेपर अपनेको उच्च और परको नीच समझता है, माया उत्पन्न होनेपर अपने तथा परको धोखा देता है एव लोभके उत्पन्न होनेपर अपने तथा परको लुब्धक बनाता है। अतएव सक्षेपमे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र आत्माके विकार हैं, ये आत्माके स्वभाव नही विभाव हैं । उक्त मिथ्यात्वकी उत्पत्तिका कारण राग और द्वेप ही हैं। इन्ही विभावोके कारण आत्मा स्वभाव धर्मसे च्युत है, जिससे क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शोच, सयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्य रूप अथवा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप आत्माकी प्रवृत्ति नहीं हो रही है। ससारका प्रत्येक