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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
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रोकने के लिए चौथे सूत्र से आबद्ध करनेकी आवश्यकता नही होगी । इसी प्रकार णमोकार मन्त्रकी स्थिर साधना करनेके लिए साधकको अपनी त्रिसूत्र रूप मन, वचन और कायकी क्रियाको अवरुद्ध करना पडेगा । इसी - के लिए आसन, प्राणायाम और प्रत्याहारको आवश्यकता है । मनके स्थिर करनेसे हो ध्यानकी क्रिया निर्विघ्नतया चल सकती है ।
ध्यान करनेका विषय - ध्येय णमोकार मन्त्रसे बढ़कर और कोई पदार्थ नहीं हो सकता है । पूर्वोक्त नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चारों प्रकारके ध्येयो द्वारा णमोकार मन्त्रका ही विधान किया गया है । साधक इस मन्त्रकी आराधना द्वारा अनात्मिक भावोको दूर कर आत्मिक भावोका विकास करता जाता है और गुणस्थानारोहण कर निर्विकल्प समाधिके पहले तक इस मन्त्रका या इस मन्त्रमें वर्णित पचपरमेष्ठीका अथवा उनके गुणोका ध्यान करता हुआ आगे बढता रहता है । ज्ञानार्णवमे बताया गया हैगुरुपञ्चनमस्कारलक्षणं मन्त्रमूर्जितम् । विचिन्तयेज्जगज्जन्तुपवित्रीकरणक्षमम् ॥
अनेनैव विशुद्धयन्ति जन्तव. पापपङ्किताः । अनेनैव विमुच्यन्ते भवदलेशान्मनीषिण ||
- ज्ञानार्णव प्र० १८, श्लो० ३८, ४३ अर्थात् - णमोकार जो कि पंचपरमेष्ठो नमस्कार रूप है, जगत्के जीवको पवित्र करने में समर्थ है । इसी मन्त्रके ध्यानसे प्राणी पापसे छूटते हैं तथा बुद्धिमान् व्यक्ति समार के कष्टोसे भी । इसी मन्त्रकी आराधना द्वारा सुख प्राप्त करते है । यह ध्यानका प्रधान विषय है । हृदय-कमलमें इसका जप करने से चित्त शुद्ध होता है ।
जाप तीन प्रकारसे किया जाता है - वाचक, उपाशु और मानस । वाचक जापमें शब्दोका उच्चारण किया जाता है अर्थात् मन्त्रको मुंहसे बोलबोलकर जाप किया जाता है। उपाशुपें भीतरसे शब्दोच्चारणकी क्रिया होती है, पर कण्ठ स्थानपर मन्त्र के शब्द गूंजते रहते हैं किन्तु मुखसे नहीं निकल