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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
पाते। इस विधिमें शब्दोच्चारणको क्रियाके लिए बाहरी और भीतरी प्रयास किया जाता है, परन्तु शब्द भीतर-ही-भीतर गूंजते रहते हैं, बाहर प्रकट नहीं हो पाते। मानस जापमें बाहरी और भीतरी शब्दोच्चारणका प्रयास रुक जाता है, हृदयमें णमोकार मन्त्रका चिन्तन होता रहता है । यही क्रिया ध्यानका रूप धारण करती है। यशस्तिलकचम्मूमें इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है -
वचसा वा मनसा वा कार्यों जाप्य सव्याहितस्वान्ते । शतगुणमाघे पुण्ये सहस्रसंख्यं द्वितीये तु ॥
-~-य० मा० २, पृ. ३८ वाचक जापसे उपांशुमें शतगुणा पुण्य और उपाश जापकी अपेक्षा मानसजापमें सहस्रगुणा पुण्य होता है। मानस जाप ही ध्यानका रूप है, यह अन्तजल्परहित मौनरूप होना है। वृहद्रव्यसंग्रहमें बताया गया है - "एतेषां पदानां सर्वमन्त्रवादपदेषु मध्ये सारभूतानां इहलोकपरलोकेष्टफलप्रदानामथं ज्ञात्वा' पश्चादनन्तज्ञानादिगुणस्मरण रूपेण वचनोधारणेन च जापं कुरुत । तथैव शुमोपयोगरूपत्रिगुणावस्थायां मौनेन ध्यायत ।" अर्थात् - सब मन्त्रशास्त्रके पदोमें सारभूत और इस लोक तथा परलोकमें इष्ट फलको देनेवाले परमेष्ठी वाचक पच पदोंका अर्थ जानकर, पुन अनन्तज्ञानादि गुणोके स्मरणरूप वचनका उच्चारण करके जप करना चाहिए और इसी प्रकार शुभोपयोगरूप इस मन्त्रका मन, वचन और काय गुप्तिको रोककर मौन द्वारा ध्यान करना चाहिए । सर्वभूतहितरत, अचिन्त्यचरित्र ज्ञानामृतपय पूर्ण तीनो लोकोंको पवित्र करनेवाले, दिव्य, निर्विकार, निरजन विशुद्ध ज्ञानलोचनके धारक, नववललब्धियोंके स्वामी, अष्टमहाप्रातिहार्योंसे विभूषित स्वयम्बद्ध अरिहन्त परमेष्ठीका ध्यान भी किया जाता है, अथवा सामूहिक रूपमे पचपरमेष्ठीका मौन चिन्तन भी ध्यानका रूप ग्रहण कर लेता है।
पदस्थ और रूपस्थ दोनो प्रकारके ध्यानोमें इस महामन्त्रके स्मरण