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मंगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन
ये अन्तरग काम, क्रोध, मान, माया, लोभ रूप परिग्रहसे तथा वहिरंग - धन, धान्य, वस्त्र आदि सभी प्रकारके परिग्रहसे रहित होकर आत्म-चिन्तनमे लीन रहते हैं। ये सर्वदा लोकोपकारसे पृथक् रहकर आत्मसाधनामे रत रहते हैं। यद्यपि इनकी सौम्य मुद्रा तथा इनके अहिंसक आचरणका प्रभाव भी समाजपर अमिट पडता है, पर ये आचार्य या उपाध्यायके समान लोक-कल्याणमे सलग्न नही रहते हैं । अत 'सव्वसाधु' पदका पाठ सवसे अन्तमे रखा गया है ।
णमोकार महामन्त्र अनादि है । प्रत्येक कल्पकाल मे होनेवाले तीर्थंकरोंके द्वारा इसके अर्थका और उनके गणधरोके द्वारा इसके शब्दोका निरूपण किया जाता है। पूजन पाठके आरम्भमे इस महामन्त्रको अनादि कहकर स्मरण किया गया है । पूजनका आरम्भ हो इस महामन्त्रसे होता है । पाँचो परमेष्ठियोको एक साथ नमस्कार होने से यह मन्त्र पच परमेष्ठी मन्त्र भी कहलाता है । पच परमेष्ठी अनादि होनेके कारण यह मन्त्र अनादि माना जाता है । इस महामन्त्रमे नमस्कार किये गये पात्र आदि नही, प्रवाहरूपसे अनादि हैं और इनको स्मरण करनेवाला जीव भी अनादि है | वास्तविकता यह है कि णमोकार मन्त्र आत्माका स्वरूप है, आत्मा अनादि है, अतः यह मन्त्र भी अनादिकालसे गुरुपरम्परा द्वारा प्रतिपादित होता चला आ रहा है । अध्यात्ममजरीमे बताया गया है कि "इदम् अर्थमन्त्र परमार्थतीर्थपरंपरागुरुपरंपराप्रसिद्ध विशुद्धोपदेशदम् ।" अर्थात् अभीष्ट सिद्धिकारक यह मन्त्र तीर्थंकरोकी परम्परा तथा गुरुपरम्परा से अनादिकाल से चला आ रहा है । आत्माके समान यह अनादि और अविनश्वर है । प्रत्येक कल्पकालमे होनेवाले तीर्थंकरोंके द्वारा इसका प्रवचन होता है । द्वितीय छेदसूत्र महानिशीथके पांचवें अध्यायमे बताया गया है कि एय तुज पचमगलमहासुयक्रूधस्स वक्खाण तं महया पवंघेण भणत गयपज्जवेहि सुत्तस्स य पियभूयाहि णिजुत्तिमास चुन्नाहिं जद्देव
णमोकार महामन्त्रका अनादि- साहित्य विमर्श
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