________________
मगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन ५९ अणत-नाण वसणधरेहि तित्थयरेहि वक्खाणिय तहेव समासओ वक्सागिज्ज त भासि । अहन्नया कालपरिहाणिढोसेण ताओ णिज्जुत्तिभास-चुन्नीओ वुच्छिन्नाओ । इभो य वच्च तेण कालेण समपुण महिड्ढिपत्ते पयाणुमारी वहरसामी नाम दुवालसगसुभहरे समुप्पन्ने । तेण य प वमंगल-महासुयक्खधस्स उद्धारो मूल सुत्तस्स मज्झे लिहिओ। मूलसुत्तं पुण सुत्तत्ताएगणहरेहि अत्यताए अरिहंनेहि भगवतेहिं धम्मतित्थयरेहि तिलोगमहिएहिं वारजिणिदेहि पन्नविय त्ति एस वुड्ढसंपयाओ।"
अर्थात्-इस पचमंगल महाश्रुतस्कन्धका व्याख्यान महान् प्रवन्धसे अनन्त गुण और पर्यायोसहित, सूत्रकी प्रियभूत नियुक्ति, भाष्य और चूणियो-द्वारा जैसा अनन्त ज्ञान-दर्शनके धारक तीर्थंकरोने किया, उसी प्रकार सक्षेपमे व्याख्यान करने योग्य था। परन्तु आगे काल-परिहाणिके दोपसे वे नियुक्ति, भाष्य और चूणियां विच्छिन्न हो गयी। फिर कुछ काल जानेपर यथा समय महाऋद्धिको प्राप्त पदानुमारी वनस्वामी नामक द्वादशाग श्रुतज्ञानके घारक उत्पन्न हुए। उन्होने पचमगल महाश्रुतस्कन्धका उद्धार मूल सूत्रके मध्य लिखा । यह मूलसूत्र सूत्रत्वकी अपेक्षा गणधरोद्वारा तथा अर्थकी अपेक्षा अरिहन्त भगवान्, धर्मतीर्थकर त्रिलोक-महित वीर जिनेन्द्रके द्वारा प्रज्ञापित है, ऐसा वृद्ध सम्प्रदाय है ।
श्वेताम्बर आगमके उक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि श्वेताम्बर सम्प्रदायमे णमोकार मन्त्र के अर्थका विवेचन तीर्थंकरो-द्वारा तथा शब्दोका विवेचन गणधरो द्वारा किया गया माना गया है। इस कल्पकालके अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरने इस महामन्त्रके अर्थका निरूपण तथा गौतम स्वामीने शब्दोका कथन किया है। कालदोपके कारण तीर्थकरतारा कथित व्याख्यानके विच्छिन्न हो जानेसे द्वादशाग ज्ञानके धारी श्री वचस्वामीने इसका उद्धार किया। अतएव यह मन्त्र अनादि है, गुरू परम्परासे अनादिकालसे प्रवाहरूपमे चला आ रहा है। हाँ, इतनी बात