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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
अवश्य है कि प्रत्येक कल्पकालमे इस मन्त्रका व्याख्यान एव शब्दो द्वारा प्रणयन अवश्य होता है।
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जैसा कि आरम्भमे कहा गया है कि दिगम्बर-परम्परा इस ' महामन्त्रको अनादि मानती है। जैसे वस्तुएँ अनादि हैं, उनका कोई कर्ता-धर्ता नही है, उसी प्रकार यह मन्त्र भी अनादि है, इसका भी कोई रचयिता नही है । मात्र व्याख्याता ही पाये जाते हैं । षट्खण्डागमके प्रथम खण्ड जीवद्वाणके प्रारम्भमे यह मात्र मंगलाचरण रूपसे अक्ति किया गया है | धवला टीकाके रचयिता श्री वीरसेनाचार्यने टीका में ग्रन्थ-रचना के क्रमका निरूपण करते हुए कहा है
मंगळ- निमित्त हेऊ परिमाण णाम तह य कत्तार । वागरिय छप्पि पच्छा वक्खाणउ सत्थमाइरियो || इदि णायमाइरिय परपरागयं मणेणावहारिय पुत्रारियायारागुसरणं तिरयण हेउ ति पुप्फदंता इरियो मगलादीणं छष्णं सकारणाण परूवणटुं सुत्तमाह - " णमो अरिहताण" इत्यादि ।
अर्थात् - मगल, निमित्त, हेतु, परिणाम, नाम और कर्त्ता इन छह अधिकारोका व्याख्यान करनेके पश्चात् शास्त्रका व्याख्यान आचार्य करते हैं । इस आचार्य-परम्पराको मनमे धारण करना तथा पूर्वाचार्यों की व्यवहार- परम्पराका अनुसरण करना रत्नत्रयका कारण है, ऐसा समझकर पुष्पदन्ताचार्य मगलादि छहोके सकारण प्ररूपणके लिए णमो अरिहताण' आदि मगल सूत्र को कहते हैं । श्री वीरसेनाचार्यने इस मंगलसूत्रको 'तालपलब' - तालप्रलम्ब सूत्र के समान देशा मर्पक कहकर मंगल, निमित्त हेतु आदि छहो अधिकारवाला सिद्ध किया है
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आगे चलकर वीरसेनाचार्यने मगल शब्दको व्युत्पत्ति एव अनेक दृष्टियोसे भेद-प्रभेदोका निरूपण करते हुए मंगलके दो भेद बताये हैं
१. धवला टीका, प्र० पु०, पृ० ७ ।