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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
वश्य, आकर्षण और उच्चाटन 'हूँ' का प्रयोग, मारण में 'फट्का प्रयोग, स्तम्भन, विद्वेषण और मोहन में 'नमः' का प्रयोग एव शान्ति और पौष्टिक के लिए 'वपट्' शब्दका प्रयोग किया जाता है । मन्त्र के अन्त में 'स्वाहा' शब्द रहता है । यह शब्द पापनाशक, मगलकारक तथा आत्माको आन्तरिक शान्तिको उद्बुद्ध करनेवाला बतलाया गया है | मन्त्रको शक्ति' शाली बनानेवाली अन्तिम ध्वनियोंमें स्वाहाको स्त्रीलिंग; वषटु, फट्, स्वधाको पुल्लिंग और नम को नपुंसक लिंग माना है | मन्त्र- सिद्धिके लिए चार पीठोका वर्णन जैनशास्त्र में मिलता है - श्मशानपीठ, शवपीठ, अरण्यपीठ और श्यामापीठ ।
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भयानक श्मशानभूमिमें जाकर मन्त्रकी आराधना करना श्मशानपीठ है । अभीष्ट मन्त्री सिद्धिका जितना काल शास्त्रोमें बताया गया है, उतने काल तक श्मशानमें जाकर मन्त्र साधन करना आवश्यक है । भीरु साधक इस पीठका उपयोग नहीं कर सकता है । प्रथमानुयोग में आया है कि सुकुमाल मुनिराजने णमोकार मन्त्रको आराधना इस पीठमें करके आत्मसिद्धि प्राप्त की थी। इस पीठमें सभी प्रकार के मन्त्रोकी साधना की जा सकती है । शवपीठमें कर्णपिशाचिनी, कर्णेश्वरी आदि विद्याओकी सिद्धिके लिए मृतक कलेवरपर आसन लगाकर मन्त्र साधना करनी होती है । आत्मसाधना करनेवाला व्यक्ति इस घृणित पीठसे दूर रहता है । वह तो एकान्त निर्जन भूमिमें स्थित होकर आत्माकी साधना करता है । अरण्यपीठमें एकान्त निर्जन स्थान, जो हिमक जन्तुओंसे समाकोर्ण है, में जाकर निर्भय एकाग्र चित्त से मन्त्रकी आराधना की जाती है । णमोकार मन्त्रकी माराधना के लिए अरण्यपीठ ही सबसे उत्तम माना गया है । निर्ग्रन्थ परम तपस्वी निर्जन अरण्योमे जाकर ही पचपरमेष्ठोकी आराधना द्वारा निर्वाण लाभ करते है । राग-द्वेप, मोह, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि विकारोको जीतनेका एक मात्र स्थान अरण्य ही है, अतएव इस महामन्त्रकी साधना इसी स्थानपर यथार्थ रूपसे हो सकती है। एकान्त निर्जन स्थानमें षोडशी नवयौवना