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"णमो अरिहंताण णमो सिद्धाण णमो आइरियाणं ।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ।" समारावस्थामे सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा बद्ध है, इसी कारण इसके ज्ञान और सुख पराधीन हैं। राग, द्वेष, मोह और कषाय ही इसकी पराकिन घीनताके कारण हैं, इन्हे आत्माके विकार कहा | সহানি
— गया है। विकारग्रस्त आत्मा सर्वदा अशान्त
रहती है, कभी भी निराकुल नही हो सकती। इन विकारोके कारण ही व्यक्तिके सुखका केन्द्र बदलता रहता है, कभी व्यक्ति ऐन्द्रियिक विषयोके प्रति आकृष्ट होता है तो कभी विकृष्ट । कभी इसे कचन सुखदायी प्रतीत होता है, तो कभी कामिनी ।
राग और द्वेषकी भावनाओके संश्लेषणके कारण ही मानवहृदयमे अगणित भावोकी उत्पत्ति होती है। आश्रय और आलम्बनके भेदसे ये दोनो भाव नाना प्रकारके विकारोके रूपमे परिवर्तित हो जाते हैं । जीवनके व्यवहारक्षेत्रमे व्यक्तिकी विशिष्टता, समानता एव हीनताके अनुसार इन दोनो भावोमे मौलिक परिवर्तन होता है । साधु या गुणवान्के प्रति राग सम्मान हो जाता है, समानके प्रति प्रेम तथा पीडितके प्रति करुणा । इस प्रकार द्वेष-भाव भी दुर्दान्तके प्रति भय, समानके प्रति क्रोध एव दीनके प्रति दर्दका रूप धारण कर लेता है ।
मनुष्य रागभावके कारण ही अपनी अभीष्ट इच्छा मोकी पूर्ति न होनेपर क्रोध करता है, अपनेको उच्च और बडा समझकर दूसरोका तिरस्कार करता है, दूसरोकी धन-सम्पदा एव ऐश्वयं देखकर ईयाभाव उत्पन्न करता है, सुन्दर रमणियोके अवलोकनसे उनके हृदयमे कामतृष्णा जागृत हो उठती है। नाना प्रकारके सुन्दर वस्त्राभूषण, अलकार और पुष्पमालामो आदिसे अपनेको सजाता है, शरीरको सुन्दर बनानेकी चेष्टा