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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
सर्वाभ्युदयसाधक' |
एक एव मनोरोधः यमेवालम्ब्य संप्राप्ता योगिनस्तत्त्वनिश्चयम् ॥ मन शुद्ध व शुद्धिः स्याददेहिनां नात्र संशय । वृथा तद्व्यतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ॥ - ज्ञानार्णव प्र० २२, श्लो०३, १२, १४ अर्थात् - जिसने यमादिकका अभ्यास किया है, परिग्रह और ममतासे रहित है ऐमा मुनि हो अपने मनको रागादिसे निर्मुक्त तथा वश करने मे समर्थ होता है । निस्सन्देह मनकी शुद्धिमे ही जीवोकी शुद्धि होती है, मनकी शुद्धिके बिना शरीरको क्षीण करना व्यर्थ है । मनकी शुद्धिसे इस प्रकारका ध्यान होता है, जिससे कमजाल कट जाता है । एक मनका निरोध ही समस्त अभ्युदयोको प्राप्त करनेवाला है, मनके स्थिर हुए बिना आत्मस्वरूपमें लोन होना कठिन है । अतएव योगागों का प्रयोग मनको स्थिर करने के लिए अवश्य करना चाहिए। यह एक ऐसा साधन है, जिससे मन स्थिर करने में सबसे अधिक सहायता मिलती है ।
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यम और नियम - जैनवर्म निवृत्तिप्रधान है, अत यम-नियमका अर्थ भी निवृत्तिपरक है । अतएव विभाव परिणतिसे हटकर स्वभावकी मोर रुचि होना ही यम-नियम है । जैनागममें इन दोनो योगागोका विस्तृत वर्णन मिलता है । यम या सयमके प्रधान दो भेद है - प्राणिसंयम और इन्द्रियसम | समस्त प्राणियोकी रक्षा करना, मन-वचन-कायसे किसी भी प्राणीको कष्ट न पहुँचाना तथा मनमें राग-द्वेपको भावना न उत्पन्न होने देना प्राणिसयम है और पचेन्द्रियोपर नियन्त्रण करना इन्द्रियसयम है | पाँचो व्रतोके धारण, पाँचों समितियोके पालन, चारो कपायोका निग्रह, तीन दण्डो मन, वचन, कायकी विपरीत परिणतिका त्याग और पाँचो इन्द्रियोका विजय करना ये सब सयमके अग हैं । जैन आम्नायमें यम-नियमोका विधान राग-द्वेषमयी प्रवृत्तिको वश करने के लिए ही किया गया है । अत ये दोनों प्रवृत्तियाँ ही मानवोको परमानन्दसे हटाती रहती
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