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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन घड़ी निद्रा लेते हैं, पश्चात् स्वाध्याय करते है। दो घडी रात शेष रह जानेपर स्वाध्याय समाप्त कर प्रतिक्रमण करते है। तीनो सन्ध्याओंमे जिनदेवकी वन्दना तथा उनके पवित्र गुणोका स्मरण करते हैं । कायोत्सर्ग करते समय हृदयकमलमे प्राणवायुके साथ मनका नियमन करके ' णमो मरिहताण णमो सिद्धाणं णमो माइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूण" मन्त्रका प्राणायामकी विधिसे नौ बार जप करते हैं । कायोत्सर्गके पश्चात् स्तुति, वन्दना आदि क्रियाएँ करते हैं। इन क्रियाओमे भी णमोकार मन्त्रके ध्यानकी उन्हे आवश्यकता होती है। देवसिक प्रतिक्रमणके अन्त में मुनि कहता है -"पञ्चमहाव्रत-पञ्चसमिति-पञ्चेन्द्रियरोध-लोचषडावश्यकक्रिया-मष्टाविंशतिमूलगुणा उत्तमक्षमामार्दवाजवशौव-सत्यस यमतपस्त्यानाकिंचन्यग्रह्मचर्याणि दशलाक्षणिको धर्म., अष्टादशशीलसहस्राणि, चतुरशीतिलक्षगुणाः, त्रयोदशविधं चारित्रं, द्वादश विध तपश्चेति सकलं अर्हसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुसाक्षिकं सम्यक्त्वपूर्वक दृढव्रतं सुव्रतं समारूढं ते मे भवतु ।" ___अथ सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थ दैवसिक-प्रतिक्रमणक्रियायां कृतदोषनिराकरणार्थं पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ भावपूजावन्दनास्तवसमेतम् आलोचनासिद्धभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यह - इति प्रतिज्ञाप्य णमो अरिहंताणं इत्यादि सामायिकदण्डकं पठित्वा कायोत्सर्ग कुर्यात् ।
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि मुनिराज सर्व अतिचारकी शुद्धिके लिए देवसिक प्रतिक्रमण करते हैं, उस समय सकल कर्मोके विनाशके लिए भावपूजा वन्दना और स्तवन करते हुए कायोत्सर्ग क्रिया करते हैं तथा इस क्रियामे णमोकार मन्त्रका उच्चारण करना परमावश्यक होता है । नैशिक प्रतिक्रमणके समय भी "सर्वातिचारविशुद्धयर्थ नैशिकप्रतिक्रमणक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण भावपूजावन्दनास्तवसमेत प्रतिक्रमणमक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहम्" पढकर णमोकार मन्त्ररूप दण्डकको पढकर कायोत्सर्गकी क्रिया सम्पन्न करता है। पाक्षिक प्रतिक्रमणके समय तो अढाई द्वीप,पन्द्रह कर्मभूमियो