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मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन १३१ तीव्र फल देते हैं। मन्द कषाय होनेपर कम समय तक रहते हैं तथा मन्द ही फल देते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने बतलाया है कि णमोकार मन्त्रोक्त पचपरमेष्ठियोंको विशुद्ध आत्मामोका ध्यान या चिन्तन करनेसे आत्मासे चिपटा राग कम होता है। राग और द्वेषसे युक्त आत्मा ही कर्मवन्धन करता है -
परिणमदि जदा अप्पा सुहम्सि भसुहम्मि रागदोषजुदो। तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिमावेहिं ॥
अर्थात् - जब राग-द्वेपसे युक्त आत्मा अच्छे या बुरे कामोमे लगता है, तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरणादि रूपसे आत्मामे प्रवेश करता है। यह कर्मचक्र जीवके साथ अनादिकालसे चला आ रहा है । पचास्तिकायमे बताया है-'संमारमे स्थित जीवके राग-द्वेषरूप परिणाम होते हैं, परिणामोसे नये कर्म बंधते हैं। कमोंसे गतियोमे जन्म लेना पडता है, जन्म लेनेसे शरीर होता है, शरीरमे इन्द्रियां होती हैं, इन्द्रियोसे विषयका ग्रहण होता है। विषयोके ज्ञानसे राग-द्वेष परिणाम होते हैं। इस तरह संसाररूपी चक्रमे पडे जीवोके भावोंसे कर्म और कर्मोसे भाव होते रहते हैं । यह प्रवाह अभव्य जीवकी अपेक्षा अनादि अनन्त और भव्य जीवकी अपेक्षा अनादि सान्त है । कोंके बीजभूत राग-द्वेषको इस महामन्त्रकी साधना-द्वारा नष्ट किया जा सकता है। जिस प्रकार वीजको जला देनेके पश्चात् वृक्षका उत्पन्न होना, वढना, फल देना आदि नष्ट हो जाते हैं, इसी प्रकार णमोकार मन्त्रकी आराधनासे कर्म-जाल नष्ट हो जाता है।
जेन साहित्यमे कर्मोके दो भेद माने गये हैं - द्रव्य और भाव । मोहके निमित्तसे जीवके राग, द्वेष और क्रोधादिरूप जो परिणाम होते हैं, वे भावकर्म तथा इन भावोके निमित्तमे जो कर्मरूप परिणमन न करनेकी शक्ति रखनेवाले पुद्गल परमाणु खिंचकर आत्मासे चिपट जाते हैं, वे द्रव्य कर्म कहलाते हैं । भावकर्म और द्रव्यकर्म इन दोनोमें कारण-कार्य सम्बन्ध है।