________________
1
मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
•
१३०
प्राभृत, महाबन्ध, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति, कर्मस्तव, कर्म प्रकृति प्राभृत, कर्मग्रन्थ, षडशीति एवं सप्ततिका आदि कई ग्रन्थ हैं, जिनमे इस विषयका वर्णन विस्तारके साथ किया गया है। ज्ञानावरणादि मठो कर्मोंके स्वरूप, भेद-प्रभेद, उनके फल, कर्मोंकी अवस्थाएं - बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्त्व, उत्कर्षरण, अपकर्षण, संक्रमण, निघत्ति और निकाचनाका स्वरूप मार्गणा और गुणस्थानोके आश्रयसे कर्मप्रकृतियोमे बन्ध, उदय और सत्त्वके स्वामियोका विवेचन, मार्गणास्थानोंमे जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या और अल्प बहुत्वका विवेचन कर्म साहित्यका प्रधान विषय है । कर्मवादका जैन अध्यात्मवादके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है | आचार्योंने चिन्तन और मननको विपाकविचय नामक धर्मध्यान बताया है । मनको प्रारम्भमे एकाग्र करनेके लिए कर्मविषयक गहन साहित्य के निर्जन वनप्रदेशमे प्रवेश करना आवश्यक-सा है । इस साहित्य के अध्ययनसे मनको शान्ति मिलती है तथा इधर-उधर जाता हुआ मन एकाग्र होता है, जिससे ध्यानकी सिद्धि प्राप्त होती है ।
णमोकार महामन्त्र और कर्मसाहित्यका निकटतम सम्बन्ध है; क्योंकि कर्म - साहित्य णमोकार मन्त्र के उपयोगकी विधिका निरूपण करता है । इस महामन्त्रका उपयोग किस प्रकार किया जाये, जिससे आत्मा अनादिकालीन बन्धनको तोड सके । आत्माके साथ अनादिकालीन कर्मप्रवाहके कारण सूक्ष्म शरीर रहता है, जिससे यह आत्मा शरीरमें आवद्ध दिखलाई पडता है । मन, वचन और कायकी क्रियाके कारण कषाय-राग, द्वेष, क्रोध, मान आदि भावोके निमित्तसे कर्म-परमाणु आत्मा के साथ बंधते हैं। योग शक्ति जैसी तीव्र या मन्द होती है, वैसी हो सख्यामे कम या अधिक परमाणु आत्माकी ओर खिंच आते हैं । जब योग उत्कट रहता है, उस समय कर्मपरमाणु अधिक तादादमे और जब योग जघन्य होता है, उस समय कर्मपरमाणु कम तादादमे जीवकी ओर आते हैं। इसी प्रकार तीव्र कषायके होनेपर कर्मपरमाणु अधिक समय तक आत्माके साथ रहते हैं तथा