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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन ४९ अर्थात्-ढाई द्वीपवर्ती सभी साधुओको नमस्कार हो । जो मनन्त ज्ञानादिरूप शुद्ध आत्माके स्वरूपकी साधना करते हैं, तीन गुप्तियोसे सुरक्षित हैं, अठारह हजार शीलके भेदोको धारण करते हैं और चौरासी लाख उत्तरगुणोका पालन करते हैं, वे साधु परमेष्ठी होते हैं।
मनुष्य लोकके समस्त साधुओंको नमस्कार है। जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्रके द्वारा मोक्षमार्गकी साधना करते हैं तथा सभी प्राणियोमे समान बुद्धि रखते हैं, वे स्थविरकल्पि और जिनकल्पि
आदि भेदोसे युक्त साधु हैं । अथवा ढाई द्वीप - पंतालीस-लाख योजनके विस्तारवाले मनुष्यलोकमे रत्नत्रयधारी, पञ्चमहाव्रतोसे युक्त, दिगम्बर, वीतरागी साधु परमेष्ठीको नमस्कार किया गया है।
मिहके समान पराक्रमी, गजके समान स्वाभिमानी या उन्मत्त, वैलके समान भद्र प्रकृति, मृगके समान सरल, पशुके समान निरीह, गोचरी वृत्ति करनेवाले, पवनके समान निस्संग या सर्वत्र बिना रुकावटके विचरण करनेवाले, सूर्यके समान तेजस्वी या समस्त तत्त्वोके प्रकाशक, समुद्रके समान गम्भीर, सुमेरुके समान परीषह और उपसर्गोके आनेपर अकम्प और अडोल रहनेवाले, चन्द्रमाके समान शान्तिदायक, मणिके समान प्रभापुजयुक्त, पृथ्वी के समान सभी प्रकारकी बाधाओको सहनेवाले, सर्पके समान दूसरेके बनाये हुए अनियत आश्रयमे रहनेवाले, आकाशके समान निरालम्बी या निर्भीक एवं सर्वदा मोक्षका अन्वेषण करनेवाले साधु परमेष्ठी होते हैं।"
अभिप्राय यह है कि जो विरक्त होकर समस्त परिग्रहको त्याग शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्मको स्वीकार करते हैं तथा शुद्धोपयोगके द्वारा अपनी
१ सीइ गय वमह-मिय-पसु मारुद-सूरुवहि-मदरिदु-मणी। खिदि-उरगयर-सरिसा परम-पय विमग्गया साहू ।।
-धवला टीका, प्र० पु०, १० ५२