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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
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आत्माका अनुभव करते हैं, पर पदार्थोंमे ममत्वबुद्धि नही करते तथा ज्ञानादिस्वभावको अपना मानते हैं, वे मुनि हैं । यद्यपि ज्ञानका स्वभाव जाननेवाला होनेसे अपने क्षयोपशम-द्वारा प्राभृत पदार्थोंको जानते हैं, पर उनसे राग बुद्धि नही करते । शरीरमे रोग, बुढापा आदिके होनेपर तथा बाह्य निमित्तोका सयोग होनेपर सुख-दुख नही करते हैं | अपने योग्य समस्त क्रियाओको करते हैं, पर रागभाव नही करते । यद्यपि इनका प्रयास सर्वदा शुद्धोपयोगको प्राप्त करने का ही रहता है, पर कदाचित् प्रबल रागाशका उदय आनेसे शुभोपयोगी ओर भी प्रवृत्ति करनी पडती है । शरीर को सजाना, शृंगार करना आदि से सर्वदा पृथक् रहते हैं । इनके मूल गुरण २८ हैं । इनके अन्तरगमे अहिंसा भावना सदा वर्तमान रहती है तथा बहिरगमे सौम्य दिगम्वर मुद्रा । ये ज्ञान, व्यान और स्वाध्यायमे सर्वदा लीन रहते हैं । बाईम परीषहोको निश्चल हो सहन करते हैं । शरीरकी स्थिति के लिए आवश्यक आहार-विहारकी क्रियाएं सावधानीपूर्वक करते हैं । इम प्रकारके साधुओ को ' णमो लोए सव्वसाहूण' पद द्वारा नमस्कार किया गया है ।
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पचपरमेष्ठीके उपर्युक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि आत्मिक विकासकी अपेक्षा मे हो अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधुको देव माना गया है । ये पाँचो ही वीतरागी हैं, अतः स्तुति के योग्य हैं । तत्त्वदृष्टिसे सभी जीव ममान हैं, किन्तु रागादि विकारोकी अधिकता और ज्ञानकी हीनतासे जीव निन्दायोग्य, तथा रागादिकी होनता और ज्ञानवी अधिकतासे स्तुतियोग्य होते हैं। अरिहन्त और सिद्धों में रागभावको पूर्ण हीनता और जानकी विशेषता होने के कारण वीतराग विज्ञानभाव वर्तमान है तथा आचार्य, उपाव्याय और साधुओमे एकदेश रागादिकी हीनता और क्षयोपशमजन्य ज्ञानकी विशेषता होनेसे एकदेश वीतराग विज्ञान भाव है, यतएव पाँचो ही परमेष्ठी वीतराग होने के कारण वन्दनीय हैं । धवला टीकामे पचपरमेष्ठी के देवत्वका समर्थन निम्नप्रकार किया गया है