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मंगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन १९७ अपना सुधार किया है तथा वे सद्गति को प्राप्त हुए हैं। इस महामन्त्रकी आराधना करनेवाले व्यक्तिको भूत, पिशाच और व्यन्तर आदिकी किसी भी प्रकारको बाधा नही हो सकती है। धन्यकुमार-चरितकी सुभौम चक्रवर्तीकी निम्न कथासे यह बात सिद्ध हो जायेगी। ____आठवें चक्रवर्ती सुभौमके रसोइयेका नास जयसेन था । एक दिन भोजनके समय इस पाचकने चक्रवर्तीके आगे गरम-गरम खीर परोस दी । गरम खीरसे चक्रवर्तीका मुंह जलने लगा, जिससे क्रोधमे आकर खीरके रखे हुए वरतनको उस पाचकके सिरपर पटक दिया, जिससे उसका सिर जल गया । वह इस कष्टसे मरकर लवणसमुद्रमे व्यन्तर देव हुआ । जब उसने अवधिज्ञानसे अपने पूर्वभवकी जानकारी प्राप्त की तो उसे चक्रवर्तीके ऊपर वडा क्रोध आया । प्रतिहिंसाकी भावनासे उसका शरीर जलने लगा । अतः वह तपस्वीका वेप बनाकर चक्रवर्तीके यहां पहुंचा। उसके हाथमे कुछ मधुर और सुन्दर फल थे। उसने उन फलोको चक्रवर्तीको दिया, वह फल खाकर बहुत प्रसन्न हुआ। उन्होंने उस तापससे कहा- "महाराज, ये फल अत्यन्त मधुर और स्वादिष्ट हैं। आप इन्हें कहाँसे लाये हैं और ये कहाँ मिलेंगे" । तापसरूपधारी व्यन्तरदेवने कहा - "समुद्रके बीचमे एक छोटासा टापू है । मैं वही निवास करता हूँ। यदि आप मुझ गरीवपर कृपा कर मेरे घर पधारें तो ऐसे अनेक फल भेंट करूं।" चक्रवर्ती जिह्वाके लोभमे फँसकर व्यन्तरके झांसेमे आ गये और उसके साथ चल दिये । जव व्यन्तर समुद्रके बीचमे पहुंचा तब वह अपने प्रकृत रूपमे प्रकट होकर लाल-लाल आंखें कर बोला - "दुष्ट, जानता है, मैं तुझे यहाँ क्यो लाया हूँ। मैं ही तेरे उस पाचकका जीव हूँ, जिसे तूने निर्दयतापूर्वक मार डाला था। अभिमान सदा किसीका नही रहता । मैं तुझे उसीका बदला चुकानेके लिए लाया हूँ।" व्यन्तरके इन वचनोको सुनकर चक्रवर्ती भयभीत हुआ और मनही-मन णमोकार मन्त्र का ध्यान करने लगा। इस महामन्त्रके सामर्थ्य के समक्ष उस व्यन्तरकी शक्ति काम नहीं कर सकी । अत उस व्यन्तरने पुन चक्र