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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन १६३ रहा है। ये विषय-सुख भी आरम्भमे बडे सुन्दर मालूम होते हैं, इनका रूप वडा ही लुभावना है, जिसकी भी दृष्टि इनपर पडती है, वही इनकी ओर आकृष्ट हो जाता है, पर इनका परिणाम हलाहल विषके समान होता है । कहा भी है - "मापातरम्ये परिणामदुःखे सुखे कथं वैषयिके रतोऽसि" अर्थात् – वैषयिक सुख परिणाममे दुखकारक होते हैं, इनसे जीवनको क्षणिक शान्ति मिल सकती है, किन्तु अन्तमे दुखदायक ही होते हैं । आचारशास्त्र जीवको सचेत करता है तथा उसे विषय-सुखोमे रत होनेसे रोकता है । मोह और तृष्णाके दूर होनेपर प्रवृत्ति सत् हो जाती है, परन्तु यह सत्प्रवृत्ति भी जव-तब अपनी मर्यादाका उल्लघन कर देती है । अतएव प्रवृत्तिकी अपेक्षा निवृत्तिपर ही आचारशास्त्र जोर देता है। निवृत्ति - मार्ग ही व्यक्तिकी आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक शक्तिका विकास करता है प्रवृत्तिमार्ग नही । प्रवृत्तिमार्गमे समलकर चलनेपर भी जोखिम उठानी पड़ती है, भोग-विलास जव-तब जीवनको अशान्त बना देते हैं, किन्तु निवृत्तिमार्गमे किसी प्रकारका भय नहीं रहता। इसमे आत्मा रत्नत्रय रूप आचरणकी ओर बढता है तथा अनुभव होने लगता है कि जो आत्मा ज्ञाता, द्रष्टा है, जिसमे अपरिमित वल है, वह मैं हूँ। मेरा सासारिक विषयोसे कुछ भी सम्बन्ध नही है। मेरा आत्मा शुद्ध है, इसमे परमात्माके सभी गुण वर्तमान हैं । शुद्ध आत्माको ही परमात्मा कहा जाता है । अत शक्तिको अपेक्षा प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा है । इस प्रकार जैसेजैसे आत्मतत्त्वका अनुभव होता है, वैसे-वैसे ऐन्द्रियिक सुख सुलभ होते हुए भी नही रुचते हैं।
निवृत्तिमार्गकी ओर अथवा सत्प्रवृत्तिमार्गकी ओर जीवको प्रवृत्ति तभी होती है, जब वह रत्नग्रयरूप आत्मतत्त्वकी आराधना करता है। णमोकार मन्त्रमे आरावना ही है। इस मन्त्रका चिन्तन, मनन और स्मरण करनेते रत्नत्रयरूप आत्माका अनुभव होता है, जिससे मन, वचन और कायकी सत्प्रवृत्ति होती है तथा कुछ दिनोके पश्चात् निवृत्तिमार्गकी ओर भी व्यक्ति