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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
स्वाध्याय आरम्भ करते हैं। मुनिराज शास्त्र पढ़नेके पूर्व नो वार णमोकार मन्त्र तथा शास्त्र समाप्त करनेके पश्चात् नौ बार णमोकार मन्त्रका ध्यान करते हैं। इतना ही नही, गमन करने, बैठने, आहार करने, शुद्धि करने, उपदेश देने, शयन करने आदि समस्त क्रियाओके आरम्भ करनेके पूर्व और समस्त क्रियाओकी समाप्तिके पश्चात् नी वार णमोकार मन्त्रका जाप करना परम मावश्यक माना गया है । षट् आवश्यकोंके पालनेमे तो पद-पदपर इस महामन्त्रको आवश्यकता है। मुनिधर्मकी ऐसी एक भी क्रिया नहीं है, जो इस महामन्त्रके जाप विना सम्पन्न की जा सके । जितनी भी सामान्य या विशेष क्रियाएँ हैं, वे सब इस महामन्त्रकी आराधनापूर्वक ही सम्पन्न की जाती हैं । द्रव्यलिंगी' मुनिको भी इन क्रियाओकी समाप्ति इस मन्त्रके ध्यानके साथ ही सम्पन्न करनी होती है । किन्तु भावलिंगी मुनि अपनी भावनाओको निर्मल करता हुआ इस मन्त्रकी आराधना करता है तथा सामायिक कालमें इस मन्त्रका ध्यान करता हुआ अपने कर्मोकी निर्जरा करता है । पूज्यपाद स्वामीने पचगुरु भक्तिमे बनाया है कि मुनिराज भक्तिपाठ करते णमोकार मन्त्रका आदर्श सामने रखते हैं, जिससे उन्हें, परम शान्ति मिलती है । मन एकाग्र होता है और आत्मा धर्ममय हो जाती है। बतलाया गया है
जिनसिद्धसूरिदेशकसाधुवरानमलगुणगणोपान् । पञ्चनमस्कारपदैखिसन्ध्यममिनौमि मोक्षलामाय ॥६॥ अहस्सिद्धाचार्योपाध्यायाः सर्वसाधवः । कुर्वन्तु मङ्गलाः सर्वं निर्वाणपरमश्रियम् ॥ ८॥ पान्तु श्रीपादपद्मानि पञ्चानां परमेष्टिनाम् । ललितानि सुराधीशचूड़ामणिमरीचिमि ॥१०॥ असहा सिद्धाइरिया उवज्झाया साहु पंचपरमेष्ठी।
एयाण णमुक्कारा मवे मवे मम सुहं दितु ।। अर्थात्-निर्मल पवित्र गुणोंसे युक्त अरिहंत, सिद्ध, आचार्य,