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मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन ३९ शंका-केवल मोहको ही अरि मान लेनेपर शेष कर्मोका व्यापार - कार्य निष्फल हो जायेगा ?
समाधान-यह शका ठीक नही, क्योकि अवशेष सभी कर्म मोहके अधीन हैं। मोहके अभावमे अवशेष कर्म अपना कार्य उत्पन्न करनेमे असमर्थ हैं । अत. मोहकी ही प्रधानता है।
शंकाकार-मोहके नष्ट हो जानेपर भी कितने ही काल तक शेष कर्मोंकी सत्ता रहती है, इसलिए उनको मोहके अधीन मानना उचित नही ?
समाधान-ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योकि मोहरूप अरिके नष्ट हो जानेपर जन्म, मरणकी परम्परारूप ससारके उत्पादनकी शक्ति शेष कर्मोमे नही रहनेसे उन कर्मोका सत्त्व असत्त्वके समान हो जाता है। तथा केवलज्ञानादि समस्त आत्मगुणोके आविर्भावके रोकनेमे समर्थ कारण होनेसे भी मोहको प्रधान शत्रु कहा जाता है। अत उसके नाश फरनेसे 'अरिहन्त' सज्ञा प्राप्त होती है।
अथवा रज-आवरण कर्मोके नाश करनेसे 'मरिहन्त' यह सज्ञा प्राप्त होती है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मलिकी तरह बाह्य और अन्तरंग समस्त त्रिकालके विषयभूत अनन्त अर्थपर्याय और व्यजनपर्यायरूप वस्तुओको विषय करनेवाले बोध और अनुभवके प्रतिबन्धक होनेसे रज कहलाते हैं । मोहको भी रज कहा जाता है, क्योकि जिस प्रकार जिनका मुख भस्मसे व्याप्त होता है, उनमे कार्यकी मन्दता देखी जाती है, उसी प्रकार मोहसे जिनकी आत्मा व्याप्त रहती है, उनकी स्वानुभूतिमे फालुण्य, मन्दता पायी जाती है।
अथवा 'रहस्य के अभावसे भी अरिहन्त संज्ञा प्राप्त होती है । रहस्य अन्तराय कर्मको कहते हैं। अन्तरायका नाश शेष तीन घातिया कर्मोके नाशका अविनाभावी है और अन्तराय कर्मके नाश होनेपर अघातिया कर्म भ्रष्ट वीजके समान नि.शक्त हो जाते हैं। इस प्रकार अन्तराय कर्मके नाशसे अरिहन्त सज्ञा प्राप्त होती है ।