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मंगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन १८१ नही है, मैं तुम्हारे लिए सब कुछ करनेको तैयार हूँ। पर अभी थोडे दिन तक धर्य रखिए । आज-कल शुक्लपक्ष है, मेरी विद्या कृष्णपक्षको अष्टमीसे कार्य करती है, अतः दो-चार दिनकी बात है, हार तुम्हे लाकर जरूर दूंगा।"
वेश्याने स्त्रियोचित भावभगी प्रदर्शित करते हुए कहा- "यदि आप इस छोटी-सी मेरी इच्छाको पूरा नहीं कर सकते, तो फिर और मेरा कौन-सा काम कीजिएगा। जब मैं मर जाऊंगी, तब उस हारसे क्या होगा।" अजनचोरको वेश्याका ताना सह्य नही हुआ और आँखमे अजन लगाकर हार चुरानेके लिए चल पडा। विद्यावलसे छिपकर ज्योतिप्रभा हारको उसने अपने हाथमे ले लिया। किन्तु ज्योतिप्रभा हारमे लगी हुई मणियोका प्रकाश इतना तेज था, जिससे वह हार छिप न सका। चांदनी रातमे उसकी विद्याका प्रभाव भी नष्ट हो गया, अत पहरेदारोने उसका पीछा किया। वह नगरकी चहारदीवारीको लांघकर श्मशान भूमिकी ओर बढा । वहाँपर एक वृक्षके नीचे दीपक जलते हुए देखकर वह उस पेडके नीचे पहुंचा और ऊपरकी ओर देखने लगा । वहाँपर १०८ रस्सियोका एक सीका लटक रहा था, उसके नीचे भाला, वरछा, तलवार, फरसा, मुद्गर, शूल, चक्र आदि ३२ प्रकारके भस्म गाहे गये थे। एक व्यक्ति वहाँ पूजा कर णमोकार मन्म पढता हुआ एक-एक रस्सी काटता जाता था । प्रत्येक रस्सीके काटनेके बाद वह भयातुर हो कभी नीचे उतरता और कभी साहस कर ऊपर चढ जाता, पुन: एक रस्सो काटकर नीचे आता । इस प्रकारको उसकी स्थिति देखकर अजनचोरने उससे पूछा-"तुम कौन हो तुम्हारा नाम क्या है ? यह फौन-सा कार्य कर रहे हो ? तुम किस मन्त्रका जाप करते हो और क्यो ?"
वह बोला - "मेरा नाम वारिपेण है । मैं गगनगामी विद्याको सिद्ध कर रहा हूँ। मैं पवित्र णमोकार मन्त्रका जाप कर इस विद्याको साधना चाहता हूँ। मुझे यह विधि और मन्त्र जिनदत्त श्रेष्ठिसे मिले हैं।" अजनचोर उसको वातोको सुनकर हंसने लगा और बोला - "तुम डरपोक हो, तुम्हे मन्त्रपर विश्वास नहीं है । अन तुम्हे विद्या सिद्ध नहीं हो सकती है । इस