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मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन
देता, पर आवरणके क्रमशः शिथिल या नष्ट होते ही आत्माका असली स्वरूप प्रकट हो जाता है। जब आवरणकी तीव्रता अपनी चरम सीमापर पहुंच जाती है, तब आत्मा अविकसित अवस्थामे पड़ा रहता है और जब आवरण विलकुल नष्ट हो जाते हैं तो आत्मा अपनी मूल शुद्ध अवस्यामें आ जाता है। प्रथम अवस्थाको अविकसित अवस्था या अघ पतनकी अवस्था तथा अन्तिम अवस्थाको निर्वाण कहा जाता है। इस तरह आध्यात्मिक विकासमे प्रथम अवस्था - मिथ्यात्वभूमिसे लेकर अन्तिम अवस्था - निर्वाणभूमि तक मध्यमे अनेक आध्यात्मिक भूमियोंका अनुभव करना पड़ता है; जैनागमोक्त ये ही आध्यात्मिक भूमियां गुणस्थान हैं। इन्हीका क्रमश. जीव आरोहण करता है। ___समस्त कर्मोमे मोहनीय कर्म प्रधान है, जबतक यह बलवान् और नीत रहता है, तबतक अन्य कर्म सवल बने रहते हैं । मोहके निर्वल या शिथिल होते ही अन्य कर्मावरण भी निवल या शिथिल हो जाते हैं । अतएव आत्माके विकासमे मोहनीय कर्म बाधक है। इसकी प्रधान दो शक्तियां हैं - दर्शन और चारित्र । प्रथम शक्ति आत्मस्वरूपका अनुभव नहीं होने देती है और दूसरी आत्मस्वरूपका अनुभव और विवेक हो जानेपर भी तदनुसार प्रवृत्ति नहीं होने देती है। आत्मिक विकासके लिए प्रधान दो कार्य करने होते हैं - प्रथम स्व-परका यथार्थ दर्शन अर्थात् भेद-विज्ञान करना और दूसरा स्वरूपमे स्थित होना । मोहनीय कर्मकी दूसरी शक्ति प्रथम शक्तिकी अनुगामिनी है अर्थात् प्रथम शक्तिके वलवान होनेपर द्वितीय शक्ति कभी निर्बल नही हो सकती है; किन्तु प्रथम शक्तिके मन्द, मन्दतर और मन्दतम होते ही, द्वितीय शक्ति भी मन्द, मन्दतर और मन्दतम होने लगती है । तात्पर्य यह है कि मात्माका स्वरूपदर्शन हो जानेपर स्वरूप-लाभ हो ही जाता है। कर्मसिद्धान्त इस स्वरूपदर्शन और स्वरूपलाभका विस्तृत विवेचन करता है। मात्मा किस प्रकार स्वरूपलाम करती है तथा इसका स्वरूप किस प्रकार विकृत होता है, यह तो कर्म-सिद्धान्तका प्रधान प्रतिपाद्य विषय है।