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परिशिष्ट नं०३ पञ्चपरमेष्ठी नमस्कार-स्तोत्र अरिहाण नमो पुवं, अरहताणं रहस्स रहियाणं ।।
पयओ परमिटिं, अरहताणं धुभ-रयाणं ॥३॥ समस्त संसारके ज्ञाता सर्वज्ञ, सुरेन्द्र-नरेन्द्रसे पूजित, जन्म-मरणसे रहित, कर्मरूपी रजके विनाशक, परमेष्ठीपदके धारी महन्त भगवान्को के नमस्कार हो ॥१॥
निहट्ट-भट्ठ-कम्भिधणाण घरनाण - दंसण - घराणं ।
मुत्ताण नमो सिद्धाणं परम - परमिटि - भूयाणं ॥२॥ जिन्होंने आठ कर्मरूपी इंधनको जलाकर भस्म कर दिया है, जो क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक ज्ञानसे युक्त हैं, समस्त कोंसे रहित । परमेष्ठी स्वरूप हैं, ऐसे सिद्ध भगवानको नमस्कार हो ॥२॥
आयर-धराणं नमो, पचविहायार-सुटियाणं च । वाणीणायरियाणं, मायारुवएसयाण सया ॥३॥ जो ज्ञानाचार, वीर्याचार आदि पांच प्रकारके आचारमे अच्छी तरह, स्थित हैं, ज्ञानी है और सदा आचारका उपदेश करनेवाले हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठीको नमस्कार हो ||३||
वारसविहं अपुज्वं, दिट्ठाण सुझं नमो सुभहराणं च ।
सययमुज्झार्ण, सम्नाय - ज्झाण - जुत्ताणं ॥४॥' वारह प्रकारके श्रुत, ग्यारह अंग और चौदह पूर्वका उपदेश करने.. वाले, श्रुतज्ञानी, स्वाध्याय और ध्यानमे तत्पर उपाध्याय परमेष्ठीको :सतत नमस्कार हो ॥४॥
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