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२१६ मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन समष्टि हो जानेसे सासारिक प्रलोभन अपनी ओर खीच नही पाते हैं। द्रव्य और पर्याय उभय दृष्टिसे शुद्ध परमात्मस्वरूप ये आत्मा होते हैं।। जैन संस्कृतिका मुख्य उद्देश्य निर्मल आत्मतत्त्वको प्राप्त कर शाश्वत सुख-निर्वाण लाभ है। शुद्धात्माओका आदर्श सामने रहने से तथा । शुद्धात्माओके आदर्शका स्मरण, चिन्तन और मनन करनेसे शुद्धत्वको । प्राप्ति होती है, जीवन पूर्ण अहिंसक बनता है। स्वामी समन्तभद्रने अपने बृहत्स्वयंभूस्तोत्रमे शीतलनाथ भगवान्की स्तुति करते हुए कहा है -
सुखामिलापानलदाहमूच्छितं मनो निजं ज्ञानमयामृताम्बुमिः । व्यदिध्ययस्व विपदाहमोहितं यथा मिषग्मन्त्रगुणैः स्वविग्रहम् ॥ रूपजीविते कामसुखे च सृष्णया दिवा श्रमार्ता निशि शेरते प्रजाः । स्वमार्य नक्तदिवमप्रमत्तवानजागरेवात्मविशुद्धवर्मनि ।।
अर्थात् - जैसे वैद्य या मन्त्रवित् मन्त्रोंके उच्चारण, मनन और ध्यानसे सर्पके विपसे सन्तप्त मूर्छाको प्राप्त अपने शरीरको विषरहित कर देता है, वैसे ही आपने इन्द्रिय-विषयसुखकी तृष्णारूपी अग्निकी जलनसे मोहित, हेयोपादेयके विचारशून्य अपने मनको आत्मज्ञानमय अमृतकी वर्षासे शान्त कर दिया है। संसारके प्राणी अपने इस जीवनको बनाये रखने और इन्द्रियसुखको भोगनेकी तृष्णासे पीडित होकर दिनमें तो नाना प्रकारके परिश्रम कर थक जाते हैं और रात होनेपर विश्रामकरते हैं। किन्तु हे प्रभो । आप तो रात-दिन प्रमादरहित होकर आत्माको शुद्ध करनेवाले मोक्षमार्गमे जागते ही रहते हैं।
उपर्युक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि पचपरमेष्ठीका स्वरूप शुद्धात्मा. मय है अथवा शुद्धात्माकी उपलब्धिके लिए प्रयत्नशील आत्माएँ हैं । इनकी समस्त क्रियाएँ आत्माधीन होती हैं, स्वावलम्बन इनके जीवनमे पूर्णतया आ जाता है क्योकि कर्मादिमलसे छूटकर अनन्तज्ञानादि गुणोके स्वामी होकर आत्मानन्दमे नित्य मग्न रहना, यही जीवनका सच्चा प्रयोजन है। पच