________________
मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
४१
होती है, जिसने समस्त प्रारणी इनके उपदेशका अनुसरण कर अपना कल्याण करते हैं । अरहन्त परमेष्ठी मे ४६ मूल गुण होते हैं - दस अतिशय जन्म समयके, दस अतिशय केवलज्ञानके, चौदह अतिशय देवोके द्वारा निर्मित, आठ प्रातिहार्य और चार अनन्तचतुष्टय | इनमे प्रभुताके अनेक चिह्न वर्तमान रहते हैं तथा ऐसे अनेक अतिशय और नाना प्रकार के वैभवका सयोग पाया जाता है, जिनसे लौकिक जीव आश्चर्यान्वित हो जाते हैं । अर्हन्तोके मूल दो भेद हैं - सामान्य अर्हन्त और तीर्थंकर अर्हन्त | अतिशय और धर्म तीर्थका प्रवर्तन तीर्थंकर अर्हन्तमे ही पाया जाता है । अन्य विशेषताएँ दोनोकी समान होती है । कोई भी मात्मा तपश्चरण द्वारा घातिया कर्मोंको नष्ट करनेपर अर्हन्तपदको प्राप्त कर सकता है
प्रत्येक अर्हन्त भगवान्मे अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, क्षायिक सम्यवत्व, क्षायिकदान, क्षायिक लाभ, क्षायिकभोग और क्षायिक उपभोग आदि गुणोके प्रकट हो जाने से सिद्ध स्वरूपकी झलक आ जाती है, राग, द्वेष और मोहरूप त्रिपुरको नष्ट करनेके कारण त्रिपुरारी, ससारमे शान्ति करनेके कारण शकर, तीनो नेत्रो - नेत्रद्वय और केवलज्ञानसे ससारके समस्त पदार्थों को देखनेके कारण त्रिनेत्र एव कामविकारको जीतने के कारण कामारि कहलाते हैं ।'
१
आविर्भूतानन्तज्ञानदर्शन सुखवीर्य विरतिक्षायिकसम्यक्त्वदानलाभभोगोपभोगाधनन्तगुणत्वादि हे वात्मसात्कृ] सिद्धस्वरूपाऽस्फटिकर्माणमहोधरगर्भोद्भूतादित्यवि - भ्ववदेदीप्यमानाः स्वशरीरपरिमाया अपि ज्ञानेन विश्वरूपाः स्वास्थिताशेष प्रमेयत्वतः प्राप्तविश्वरूपाः निर्गताशेषामयत्वतो निरामयाः विगता शेषपापालनपुअत्वेन निरञ्जनाः दोपकलातीतत्वतो निष्कलाः । तेभ्योऽर्हद्द्भ्यो नम इति यावत् ।
गिद्ध - मोहतरुणो
वित्थिण्या पाण- सायरुत्तिया । णिहय-णिय- विग्ध-वग्गा बहु-वार - विणिग्गया अयला ॥