________________
१२८ मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन जीवमाननमस्कारवद्वेति । तस्मारलक्षेपतोऽपि पञ्चविध एवं नमस्कारो, न तु द्विविधः भव्यापकत्वात् विस्तरतस्तु नमस्कारो न विधीयते अशक्यत्वात् ।
अर्थात् ~ साधुमात्रका कथन करनेसे माचार्य और उपाध्यायके गुणोंका स्मरण नहीं हो सकता है। क्योकि सामान्य कथनसे विशेषकी उपलब्धि नहीं हो सकती है। जिस प्रकार मनुष्य सामान्यको नमस्कार करनेसे अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुके गुणोका स्मरण नहीं हो सकता है और न तद्रूप बनने की प्रेरणा ही मिल सकती है। अतः पचपरमेष्ठीको नमस्कार करना आवश्यक है, परमेष्ठियोके नमस्कारसे कार्य नहीं चल सकता है। जो अनन्त परमेष्ठियोको नमस्कार करनेकी बात कही गयी है, उसका समाधान 'सन्द' पदके द्वारा हो जाता है। यह पद सभी परमेष्ठियोके साथ जोडा जा सकता है, जिससे अनन्त अर्हन्त, अनन्त सिद्ध, अनन्त आचार्य, अनन्त उपाध्याय और अनन्त साधुओका ग्रहण हो ही जाता है । शक्ति सीमित होनेके कारण पृथक् अनन्त परमेप्ठियोका निरूपण नहीं किया गया है। सामान्यके अन्तर्गत विशेप भेदीका भी ग्रहण हो गया है।
क्रमद्वार -किसी भी वस्तुका विवेचन क्रमसे किया जाता है । णमोकार १. पुव्वाणुपुचि न कमो, नेव य पच्छाणुपुम्बिए स भवे । सिद्धाहया पढमा ।
विश्याए साहुणो पार ॥३२१०॥ इह क्रमस्तावत् विविधः - पूर्वानुपूर्वी वा पश्चानुपूर्वी वेति । अत्रानुपूर्वी किल क्रम एव न भवति असलमत्त्वात् । तपायमझ्दादिक्रम पूर्वानुपूर्वी न भवति, सिद्धानामादावनभिधानादेव न्तिकृतकृत्वेन । अहन्नमस्कार्यम्वेन सिद्धानां प्रधानत्वात्, प्रधानस्य चाभ्यहितलेन पूर्वाभिधानादिति भावार्थः । तथा नैव च पश्चानुपूर्वी, एप कमो मवेत साधूनां प्रथममनमिधानात्, हाप्रधानत्वात्सर्वपाश्चात्त्या हि साधवः । ततश्च तानादो प्रतिपाय यदि पर्यन्ते सिद्धामिधान स्यात् तदा भवेत्पश्चानुपू । तामात् प्रथमाया: सिद्धादित्वात्, द्वितीयायास्तु सावादित्वात् नेय पूर्वानुपूर्वी, नापि पश्चानुपूर्वी । दति चेन्न - ३६ तावदय पूर्वानुपूर्वी क्रम एव । यतोऽईदुपदेशेनैव सिद्धा अपि शायन्ते । - नियुक्ति