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मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन
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पारसमणिका सान्निध्य प्राप्त कर लेनेमात्र मे ही उसके लौह- परमाणु स्वर्ण - परमाणुओमे परिवर्तित हो जाते हैं । अथवा जिस प्रकार दीपकको प्रज्वलित करने के लिए अन्य जलते हुए दीपको के पास रख देनेके पश्चात् नही जलनेवाले दीपककी बत्ती जलते हुए दीपककी लोसे लगा देने मात्रसे वह नही जलनेवाला दीपक प्रज्वलित हो उठता है, उसी प्रकार ससारी विषयकषाय सलग्न आत्मा उत्कृष्ट मंगलवाक्यमे निरूपित आत्माओ, जो कि सामान्य सग्रह नयकी अपेक्षा एक परमात्मारूप है, का सान्निध्य शरण भाव प्राप्त कर तत्तुल्य वन जाता है । अतएव मानव जीवनके उत्थानमे मगलमूत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
जैन आगममे भावोकी अपेक्षासे आत्माके तीन भेद बताये गये हैं - वहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । राग-द्वेषको अपना स्वरूप सम झना, पर पर्यायमे लीन शरीरादि पर वस्तुओआत्मा के भेद और को अपना मानना एव वीतराग निर्विकल्प भगळ-वाक्य समाधिसे उत्पन्न हुए परमानन्द सुखामृतसे वचित रहना आत्माकी वहिरात्म अवस्था है । बताया गया है-' देह जीवको एक गिनै बहिरात तत्व मुधा है।" अर्थात् शरीर और आत्माको एक समझना, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभसे युक्त होना और मिथ्याबुद्धिके कारण शारीरिक सम्बन्धोको आत्मा के सम्बन्ध मानना बहिरात्मा है | इस बहिरात्म अवस्थामे रागभाव उत्कट रूपसे वर्तमान रहता है, अतः स्वसवेदन ज्ञान - स्वानुभवरूप सम्यग्ज्ञान इस अवस्थामे नही रहता । हरात्मा मंगलवाक्य के स्मरण और चिन्तनसे दूर भागता है, उसे णमोकार मन्त्र- जैसे पावन भगलवाक्योपर श्रद्धा नही होती; क्योंकि राग वुद्धि उसे आस्तिक बनाने से रोकती है । जवतक आस्तिक्य वृत्ति नही, तबतक उन्नत आदर्श सामने नही आ सकेगा । कर्मोंका क्षयोपशम होनेपर ही णमोकार मन्त्रके ऊपर श्रद्धा उत्पन्न होती है तथा इसके स्मरण, मनन, और चिन्तनसे अन्तरात्मा बननेकी ओर प्राणी अग्रसर
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