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१३४ मगलमन्त्र णमोकार . एक अनुचिन्तन अपने विशुद्ध परिणामोके कारण इस अवस्थामे पहुंचनेपर आत्माको शान्ति मिलती है तथा अन्तर आत्मा बनकर व्यक्ति अपने भीतर स्थित सूक्ष्म सहज परमात्मा - शुद्धात्माका दर्शन करने लगता है । तात्पर्य यह है कि णमोकार मन्त्रकी साधना मिथ्यात्व भूमिको दूर कर परमात्मभावरूप देवका दर्शन कराता है। इस चतुर्थगुणस्थानसे आगेवाले गुणस्थान -आध्यात्मिक विकासको भूमियां सम्यग्दृष्टिकी हैं, इनमे उत्तरोत्तर विकास तथा दृष्टिकी शुद्धि अधिकाधिक होती है। पांचवें गुणस्थानमे देश-सयमकी प्राप्ति हो जाती है, णमोकारमन्त्रकी आराधनासे परिणामोमे विरक्ति आती है, जिससे जीव चारित्रमोहको भी शिथिल करता है। इस गुणस्थानका व्यक्ति उक्त महामन्त्रकी आराधनाका अभ्यासी स्वभावत. हो जाता है ।
छठे गुणस्थानमे स्वरूपाभिव्यक्ति होती है और लोककल्याणकी भावनाका विकास होता है, जिससे महानतोका पूर्ण पालन साधक करने लगता है। इस आध्यात्मिक भूमिमे णमोकार मन्त्र ही आत्माका एकमात्र आराध्य बन जाता है। विकासोन्मुखी मात्मा जब प्रमादका भी त्याग करता है और स्वरूप-मनन, चिन्तनके सिवा अन्य सव व्यापारोका त्याग कर देता है तो व्यक्ति अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थानका धारी समझा जाता है, प्रमाद आत्मसाधनाके मार्गसे विचलित करता है, किन्तु यह साधना णमोकारमन्त्रके सिवा अन्य कुछ भी नहीं है, क्योकि णमोकार मन्त्रके प्रतिपाद्य आत्मा शुद्ध और निर्मल हैं। इस आध्यात्मिक भूमिमे पहुंचकर साधक अपनी शक्तिका विकास करता है, मानवके कारणोको रोकता है और अवशेष मोहनीयकी प्रकृतियोको नष्ट करनेकी तैयारी करता है । इससे आगे अपूर्वकरणके परिणामो-द्वारा आत्माका विकास करता है और णमोकारमन्त्रकी आराधनामे आत्माराधनाका दर्शन और तादात्म्यकरण करता है तथा मोहके सस्कारोके प्रभावको क्रमशः दबाता हुआ आगे बढता है और अन्त में उसे विलकुल ही उपशान्त कर देता है । कोई-कोई साधक ऐसा भी होता है, जो मोहभावको नाश करता है। आठवें गुणस्थानसे आगे णमोकारमन्त्र