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१०८ मगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन अपने भीतर सकुचित कर लेता है, वैसे ही स्पर्श, रसना आदि इन्द्रियोंको प्रवृत्तिको आत्मरूपमें लोन करना प्रत्याहारका कार्य है। राग-द्वेप आदि विकासोसे मन दूर हट जाता है । कहा गया है
सम्यक्समाधिसिद्ध्यर्थं प्रत्याहार प्रशस्यते । प्राणायामेन विक्षिप्तं मन स्वास्थ्यं न विन्दति ॥ प्रत्याहृतं पुनः स्वस्थं सर्वोपाधिविवर्जितम् । चेत. समत्वमापनं स्वस्मिन्नेव लयं ब्रजेत् ॥ वायो संचारचातुर्यमणिमाघनसाधनम् ।
प्रायः प्रत्यूहवीजं स्यान्मुनेर्मुक्तिममीप्ससः ॥ अर्थात्-प्राणायाममें पवनके साधनसे विक्षिप्त हुआ मन स्वास्थ्यको प्राप्त नहीं करता, इस कारण समाधि सिद्धि के लिए प्रत्याहार करना आवश्यक है। इसके द्वारा मन राग-द्वेषसे रहित होकर आत्मामें लय हो जाता है। पवनसाधन शरीर-सिद्धिका कारण है, अत: मोक्षकी वाछा करनेवाले साधकके लिए विघ्नकारक हो सकता है। अतएव प्रत्याहार-द्वारा रागद्वेषको दूर करनेका प्रयत्न चाहिए ।
धारणा-जिसका ध्यान किया जाये, उस विषय में निश्चलरूपसे मनको लगा देना, धारणा है। धारणा-द्वारा ध्यानका अभ्यास किया जाता है।
ध्यान भऔर समाधि-योग, ध्यान और समाधि ये प्राय एकार्थवाचक हैं । योग कहनेसे जैनाम्नायमें ध्यान और समाधिका हो वोष होता है। ध्यानकी चरम सीमाको समावि कहा जाता है। ध्यानके सम्बन्धमें ध्यान, ध्याता, ध्येय और फल इन चारो बातोंका विचार किया गया है। ध्यान चार प्रकारका है-आतं, रौद्र, धर्म और शुक्ल। इनमें आर्त और रौद्र ध्यान दुर्यान है एव धर्म और शुक्ल ध्यान शुभ ध्यान है। इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, शारीरिक वैदना आदि व्यथाओको दूर करनेके लिए सकल्प विकल्प करना आर्तध्यान और हिंसा, झूठ, चोरी अब्रह्म और