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THE FREE INDOLOGICAL
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ర
ॐ
जैन पूजांजलि
रचयिता : कविवर राजमल पवैया
प्रकाशक :
श्री दिगम्बर जैन मुमुक्षु मंडल
भोपाल ( म०प्र०)
न्योछावर : रु. ४-५०
প
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प्रकाशक:
श्री दिगम्बर जैन मुमुक्षु मण्डल जैन मन्दिर मार्ग, चौक, भोपाल
* लागत मूल्य रु० ५-५० * विक्रय मूल्य रु० ४-५०
पुस्तक मंगाने का पता : श्री बदामीलाल जैन फर्म : कन्हैयालाल वदामीलाल जैन ८४, इब्राहीमपुरा, भोपाल
४६२००१ (म.प्र.)
सर्वाधिकार सबको समर्पित किसी भी रचना का उपयोग करते समय कृपया लेखक का नाम
लिखना न भूलें
पूजांजलि पर अपने विचार एवं सुझाव भेजने का पताश्री राजमल पवैया, ४४ इब्राहीमपुरा, भोपाल-४६२ ००१ (म. प्र.)
प्रथम संस्करण ४००० सहारनपुर (उ. प्र.) द्वितीय परिवर्धित संस्करण ५००० भोपाल (म. प्र.) ( श्री महावीर निर्वाण महोत्सव २५१०, सन् १९८३ )
मुद्रक : दिवाकर प्रिन्टर्स एण्ड पब्लिशर्स
३५, जेल रोड, जहांगीराबाद, भोपाल
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प्राक्कथन
भोपाल के प्रसिद्ध साहित्यकार, सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक सेवाभावी कार्यकर्ता कविवर श्री राजमल जी पवैया द्वारा रचित ४४ आध्यात्मिक पूजनों का संग्रह "जैन पूजाजलि" का द्वितीय संस्करण प्रस्तुत करते हुए हमें हर्ष है। पूजांजलि का प्रथम संस्करण ३८ पूजनों का श्री हेमचन्द्र जी (जैन इंजीनियरिंग कं०) के सद प्रयत्न से दि० जैन स्वाध्याय मंडल सहारनपुर (उ. प्र.) से गत वर्ष ४००० छपा था जिसका अल्पावधि में ही विक्रय हो गया।
पवैया जी सन १९३२ से ही लिखते आ रहे हैं। गीत, कहानी, व्यंग, कविता, लेख सभी विषयों पर आपने लिखा है। चीन - भारत युद्ध के समय सन १९६२ में वीर-रस पूर्ण १५४ कविताओं का संग्रह 'जीवन दान” छपा जिसकी देश के महान नेताओं पं० जवाहरलाल नेहरू श्रीमती इन्दिरा गांधी, मुरारजी देसाई डॉ. जाकिर हुसेन, श्री लाल बहादुर शास्त्री, यशवन्तराव चह्वाण, बाबू तखतमल जैन, मोहनलाल सुखाड़िया, डॉ० ह० वि० पाटसकर, विख्यात ज्योतषी पं० सूर्यनारायण व्यास, डॉ. शंकरदयाल शर्मा आदि ने एवं दैनिक नव भारत टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान आदि अनेकों समाचार पत्रों ने बड़ी प्रशंसा की। आध्यात्मिक पुरुष पूज्य श्री कानजी स्वामी के निकट संपर्क में भाने के बाद रुचि बदली और आप आध्यात्मिक गीत लिखने लगे। प्रथम आध्यात्मिक रचना "कब मुझे समकित मिलेगा" सन्मति संदेश में छपी। सन् १९६३ में महात्मा गांधी के आध्यात्मिक गुरु श्रीमद् राजचन्द्र जी के गुजराती काव्य - "अपूर्व अवसर" का हिन्दी पद्यानुवाद किया, जो पूज्य श्रीकानजी. स्वामी को इतना भाया कि पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं में तप कल्याणक के अवसर पर वे इसका ही पाठ करके प्रवचन करते थे।
सन् १९६४ में आपकी प्रथम पूजन "पंच परमेष्ठी" छपी जिसे भारतीय ज्ञानपीठ ने अपनी ज्ञानपीठ पूजांजलि में स्थान दिया। तब से अब तक यह पूजन अनेक संग्रहों में एक लाख से अधिक छप चुकी है। इसी प्रकार बाहुबलि पूजन भी पचास हजार से अधिक छप चुकी है। वैसे तो पवैया जी की २०-२५ छोटी-मोटी पुस्तकें छप चुकी हैं। सन १९३४-३५ में "जगदुद्धारक भगवान महावीर" "जैन धर्म वीरों का धर्म है" "जैन धर्म-सार्वधर्म" आदि छपी हैं जिनकी प्रशंसा उस समय जैन धर्म भूषण ब्र० शीतलप्रसाद जी एवं विद्यावारिधि बैरिस्टर चंपतराय जी आदि विद्वानों ने की थी।
अभी तक आपने सभी तीर्थंकरों, तीर्थ क्षेत्रों तथा नैमित्तिक एवं विशेष पों आदि की १०८ पूजन और १५०० से अधिक आध्यात्मिक गीत लिखे हैं । समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में आपके गीत छपते रहते हैं। ५ पूजनो का विमोचन तो पूज्य श्री कानजी स्वामी के करकमलों द्वारा हुआ था। यह विचित्र
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संयोग है कि सन १९३२ में लिखित प्रथम गीत "दशलक्षण धर्म" था जो जैनमित्र में उस समय छपा और वही गीत आज 'दशलक्षण पूजन' का आधार बन गया। सन १९३४ में प्रकाशित गीत भी "महावीर जयन्ती" पूजन की जयमाला बन गया है। आपने पंचसहस्त्रनाम, संपूर्ण चतुविशंति जिनस्तोत्र, पंच परमेष्ठी विधान, पंच कल्याणक विधान एवं दशभक्ति आदि भी लिखे हैं।
आपकी रचनाओं की प्रशंसा आचार्य श्री समन्तभद्र जी कुम्भोज बाहुवलि एलाचार्य मुनि श्री विद्यानन्द जी, मुनि श्री शान्ति सागर जी, मुनि श्री निर्वाण सागर जी, श्री जिनेन्द्र वर्णी (स्व० मुनि श्री सिद्धान्त सागर जी), सुप्रसिद्ध विद्वान स्व० श्री ए. एन. उपाध्ये, पं० श्री फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री, पं० श्री कैलाश चन्द्र जी शास्त्री, पं० श्री जगन्मोहन लाल जी शास्त्री, पं० श्री बाबू भाई मेहता पं० श्री दरवारी लाल जी कोठिया, ब्र. केशरीचन्द जो धवल, पं० पन्नालालजी महित्याचार्य, पं० प्रकाश हितैषी आदि विद्वानों ने की है। आपका लेखन निःस्वार्थ भाव से जिनवाणी के प्रचार प्रसार हेतु सतत् प्रवाहित हो रहा है। हमें आशा है इन पूजनों का विशेष प्रचार होगा। विशिष्ट सभी धार्मिक पर्वो पर लिखी गई पूजनों को उन-उन पर्वो पर करने से पर्वो के महत्व का ज्ञान होगा।
___ भोपाल दिगम्बर जैन समाज एवं मुमुक्ष मंडल के भाइयों ने इसके प्रकाशन और मूल्य कम करने में जो सहयोग दिया है वह प्रशंसनीय है। इस पुस्तक की लागत ५)५० रु. से भी अधिक आई है किन्तु प्रचार-प्रसार की दृष्टि से ४)५० रु. न्योछावर रखी गई है।
दिवाकर प्रिन्टर्स के श्री बी० एल० दिवाकर एवं श्री राकेश दिवाकर ने इसे तत्परता से सुन्दर छापा है, अत: धन्यवाद । 'पूजांजलि' के छापने में सावधानी बरती है। फिर भी यदि भूलें रह गई हों तो सुधारने की कृपा करें।
दो वर्ष पूर्व पू. श्री जिनेन्द्र वर्णी जी के भोपाल चतुर्मास के अवसर पर उन्होंने इन पूजनों को देखकर हार्दिक प्रसन्नता प्रगट की थी तथा भूमिका के रूप में 'मंगल कामना' में अपने विचार प्रगट किये हैं जिसके लिये हम उनके आभारी है।
पूजांजलि के प्रत्येक पृष्ठ पर पवैया जी द्वारा रचित लगभग २०० काव्य सूक्तियां एक एक करके दी गई हैं जो अपने आप में अनुपम हैं तथा प्रत्येक पूजा के अन्त में जाप्य मन्त्र भी दिया है।
हमारी आकांक्षा है कि आपकी सभी आध्यात्मिक रचनाओं का प्रकाशन शीघ्र ही हो जाय । इत्यलम् !
पंडित राजमल जैन बी. काम. १०, ललवानी गली, भोपाल म. प्र.
ज्योतिपर्व, वीर सं० २५१०
राजमल जैन बी. काम.
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मंगल कामना
आज के इस क्रान्तिकारी युग में तत्व ज्ञान की चर्चा प्रत्येक शास्त्र सभा में सुनने को मिलती है। इस अध्यात्म विकास के मार्ग में ये युग क्रान्ति कोई छोटी बात नहीं है। एक क्षण में तो एक आम्र फल भी प्राप्त नहीं होता फिर जो फल जीवन विकास के साथ सम्बन्धित हैं उसकी प्राप्ति एक क्षण में कैसे हो सकती है ? सोपान दर सोपान ऊपर चढ़ना ही तो विकास है। फिर कुछ काल पश्चात वह एकदम बदला सा प्रतीत होता है। इसी प्रकार यह अध्यात्म की क्रान्ति का युग है।
परन्तु क्या यह क्रान्ति यहाँ तक आकर ही बस हो जायेगी ? क्रान्ति रुक सकती है परन्तु विकास नहीं, वह तो विकास है। वह अवश्य ही आगे चलेगा. चलता रहेगा। अपनी चरम सीमा तक और अगर यह सिद्धान्त सत्य है तो हम आश्वस्त रहना चाहिए कि अध्यात्म का, भक्ति का तथा धर्म का, कवित्व का यह प्रवाह निरन्तर प्रवाहित रहेगा।
__ भक्ति जिसकी अभिव्यक्ति पूजा के द्वारा होती है पाद प्रक्षालन स्मरण. चिन्तन, आह्वानन, सन्निधिकरण, अर्चन भजन, कीर्तन गायन, नर्तन आदि न जाने कितने अङ्ग इसके विस्तार में समाये हुए हैं। इस सवका अवसान वास्तव में आत्मार्पण में होता है। यदि आत्मार्पण न हो तो पूजा एक शुभ क्रिया मात्र रह जाती है परन्तु आत्मार्पण हो जाने पर वह अनुभव साक्षात रूप से मोक्ष का कारण बन जाता है।
भोपाल निवासी श्री राजमल जी पवैया इसके एक उदाहरण हैं यद्यपि अभी आत्मार्पण वाली अवस्था दूर है तथापि भक्ति युक्त कवित्व के अकल्पित प्रवाह में उनकी लेखनी से अब तक एक हजार से अधिक आध्यात्मिक गीत और लगभग एक सौ पूजायें निकल चुकी हैं फिर भी लेखनी झक नहीं रही है। गीत पूजाओ की रचना करते रहना ही मानो उनका व्यसन बन गया है। मन १६६२ में उनका यह स्रोत बरावर बह रहा है और बहता रहेगा। पूजा के क्षेत्र में कोई भी विषय उन्होंने नहीं छोड़ा है। क्या पंच परमेष्ठी देव शास्त्र गुरु, चतु विशनि तीर्थङ्कर, सीमंधर प्रभु गौतम स्वामी बाहुबलि क्या पच बालयति, कुन्द कुन्द आचार्य तथा सरस्वती माता समयसार तथा पर्व पूजाये आदि सब ही तो समेट लिया है उन्होंने अपनी परधि में।
प्रत्येक पूजा अध्यात्म रस से ओत-प्रोत है और इस युग के अनुमार समयसार के रङ्ग में रङ्गी हुई है। व्यवहार भूमि पर पसन्द भी बहुत की जा रही हैं ।
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भले ही उन्हें आज तक प्रकाशित होने का सौभाग्य प्राप्त न हुआ हो परन्तु वे उनके भीतर तो प्रकाशित ही थीं यदि वहां प्रकाशित न होती तो बाहर आती कसे? अध्यात्म के इस युग में इस प्रकार के उदाहरण नित्य बनते जा रहे है।
प्रकाश में आने पर इनकी यह कला इस युग को क्या प्रदान करेगी यह तो युग बतायेगा। मेरी तो प्रभु से यह प्रार्थना है कि इनके भीतर उदित यह कला चन्द्रमा की एक एक कला की भाँति दिन दिन बढ़ती हुई पूर्ण हो जाए और इस विश्व पर अमृत बरसा कर सर्वत्र शान्ति रस का प्रसार करे। उनकी इस 'पूजाँजलि' का प्रचार अधिकाधिक हो इस मङ्गल कामना के साथ ।
जिनेन्द्र वर्णी
8 गुरु बिन कौन गति मेरी » भव विकट वन मैं लगाऊँ प्रति समय फेरी ॥ गुरू० ॥ कर्म वदरी ने मुझे हर बार है घेरी ।
नाव मेरी डूबने में है न अब देरी ॥ गुरू० ॥ शद्ध मन की भावना से है विनय मेरी।
बाँह थामो लाज राखो मैं शरण तेरी ॥ गुरू० ॥
" हमारे गुरु मंगलदातार 3 पंच महाव्रत साधे, अट्ठाईस मूलगुण धार । सव जीवों को अभयदान दें, सव विधि हिंसा टार ॥ हमारे० ॥ हित मित सत्य वचन प्रिय बोलें, सजे शील सिंगार ।। नाहीं अंतर बाह्य परिग्रह, निज से ही बस प्यार ॥ हमारे० ॥ निज स्वरूप ही प्रतिपल चिन्तत, निर्मल संयम धार । स्वयं तरें औरों को तारें, ले जाएं भव पार ॥ हमारे० ॥
8 आज मेरो नोंद नसानी होx गुरू चरणन में बैठ सुनी, मैंने जिनवाणी हो ॥ आज० ॥ भव भव व्याकुल होय फिरी, निज सूध बिसरानी हो। उपजत नसत देह को अब तक, अपनी जानी हो ॥ आज० ॥ श्रत उपदेश ग्रहण करते ही, राह दिखानी हो। निज पर भेद लख्यो मैंने ज्यों, पय अरु पानी हो ॥ आज.।।
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पाठ
२७
३४
१२४
०
०
१७५
पूजांजलि सूची क्रमांक नाम पृ० सं० | क्रमांक नाम पृ० सं०
नेमिनाथ
२८- पार्श्वनाथ चतुर्विशंति जिन स्तोत्र २- अभिषेक पाठ
वर्धमान
| २६३-
३ -
१०३ अभिषेक स्तुति
शान्तिकुन्थु अरनाथ पूजा पीठिका
विशेष पूजाएं मंगल विधान ६-
१०७ ३१- सस्वस्ति मंगल
बाहुबली पूजन ३२- गौतमस्वामी
१११ नित्यपूजन
जिनवाणी
१२० ७- देवशास्त्र गुरू
समयसार ८- पंच परमेष्ठी
कुन्दकुन्दाचार्य
१२६ - विद्यमान वीस तीर्थकर १३ |
णमोकार मंत्र पूजन १६७ १०सीमंधर
भक्तामर पूजन
१७२ ११- कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय २३ ।
नवदेव १२- सिद्ध पूजन २५ नित्यनियम
१७६ १३- तीर्थकर निर्वाण क्षेत्र ११६ जिनेन्द्र पंचकल्याणक १८२
त्रिकालचौवीमी
१८७ नैमित्तिक
इन्द्रध्वज
४२१४- षोडशकारण
४३- समस्त सिद्ध क्षेत्र १६६ पंचमेरू १५१६- नंदीश्वर
पर्व पूजाएं २७-. दशलक्षण
४४क्षमावणी
१३४ १८- रत्नत्रय
दीपावली
१४० तीर्थकर पूजाएं
महावीर जयंती
१४६ १६- वर्तमान चौबीसी पूजन
४७अक्षयतृतीया
१५० ऋषभदेव
श्रु त पंचमी
१५४ २१
१५८ पदमप्रभु
वीरशासन जयंती
१६२ चंद्रप्रभु
६६ | ५०२३- शीतलनाथ
महा अर्घ
२०१ २४- वासुपूज्य ७५ | ५२- शान्तिपाठ
२०२ अनन्तनाथ ५३- विसर्जन
२०३ २६- शान्तिनाथ
भजन आदि २०४ से २०८
१६१
।
।
४८
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४९
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२२
रक्षाबंधन
२५
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प्रभु जो मैंने लाखों यतन करे सम्यक दर्शन के बिन मैंने भव के भ्रमण करे ॥ प्रभु० ॥ तत्व चिन्तवन कबहुं न कोनो, शास्त्र हु श्रवण करे। एक बार रुचि पूर्वक नाही, उर जिन वचन घरे ।। प्रभु० ॥ कोटिक वर्षों तक प्रभु मैने, तप भी गहन करे। बिन त्रिगुप्ति के स्वामी, मैने कर्म न हनन करे । प्रभु० ॥ क्रिया कान्ड में धर्म मानकर, पर के भजन करे। निजस्वरूप को कियो न चिन्तन, भवदुख सहन करे।। प्रभु० ॥
ज्ञान की निर्मल ज्योति जली तत्त्व प्रतीति होत ही सगरी मिथ्या बुद्धि टली ॥ ज्ञान० ॥ अनतानुबंधी की माया में निज बुद्धि छली । दृष्टि बदलते ही प्रभु मेरी दिशा आज बदली ।। ज्ञान० ॥ निज परिणति रसपान करत ही मन की खिली कली। मिथ्या भ्राति मिटी क्षण भर में जो था सदा पलो ।। ज्ञान० ॥
जो तू आत्म ध्यान चित धरतो यह दुर्लभ मनुष्य भव तेरो, छिन में अरे सुधरतो ॥ जो० ॥ विषय कपाय कीच से बाहर, ले वैराग्य निकरतो। आपा पर को भेद जानतो, सम्यक निर्णय करतो ॥ जो० ॥ पंच महाव्रत धारण करके, जो संयम आदरतो । रत्नत्रय की नाव बैठकर, जल्दी पार उतरतो ।। जो० ॥ ज्ञानपवन से अष्ट कर्म रज, नेक समय में हरतो । सादि अनंत समाधि प्राप्त कर सुख अनंत तू भरतो ॥ जो० ॥
निज प्रातम सिंगार सबेरे । समकित मुकुट, ज्ञान को कुन्डल, कंगन चारित केरे । निज० । संयम तिलक हार सामायिक, फिर निज रूप निहेरे । निज दर्पण में निज को देखे, पर की ओर न हेरे । निज० । निज को दर्शन निज को पूजन, निज को जाप जपेरे। निज चिन्तन निज मनन मिटावत, जनम जनम के फेरे। निज० ।
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ॐ
श्री
जैन पूजांजलि
ॐ नमः सिद्धेभ्यः
चतुर्विशंति जिन स्तोत्र प्रथम जिनेन्द्र तीर्थ कर प्रभु, ऋषभदेव को सविनय वंदन । वृषभ जिनेश्वर आदिनाथ विभ, आदिब्रह्म भवकष्ट निकंदन ॥१॥ अजितनाथ अजितंजय अविकल, अजर अमर अनुपम अविनाशी। वीतराग सर्वज्ञ हितंकर, ज्ञान ज्योतिमय स्वपर प्रकाशी ॥२॥ संभवनाथ सौख्य के सागर, सर्वगुणों के आश्रयदाता । लोकालोक प्रकाशक जिनरवि, जो भी ध्याता शिवसुख पाता ॥३॥ अभिनदन आनंदसिंधु प्रभु, अविनश्वर अविकारी ज्ञायक । आधि ब्याधि पर की उपाधि के, क्षयकर्ता आनंदप्रदायक ॥४॥ सुमति जिनेन्द्र सुमति के दाता, दुर्नय तिमिर निवारण कारण । सहजानंदी शुद्ध स्वरूपी, परम पूज्य भवसागर तारण ॥५॥ पद्मनाथ प्रभु पदम ज्योतिधन, उद्योतित त्रिभुवन में नामी । पदमरागमणि प्रभा दग्ध में, जैसे व्यापे अंतर्यामी ॥६॥ हे सुपार्श्व स्वामी शत इन्द्रों से, वंदित हैं चरण तुम्हारे । एक सहस्र अष्टनामों से, थुति करके इन्द्रादिक हारे ॥७॥ चद्रनाथ चदाप्रभुके चरणाम्बुज, ध्याते ऋषि-मुनि-गणधर । कोटिक चंद्र सूर्य लज्जित हैं, ऐसे ज्योतिर्मय जगदीश्वर ॥८॥ पुष्पदंत परिपूर्ण ज्ञानमय, सुविधिनाथ शिवनाम तुम्हारा। पावन परम प्रकाशमयी प्रभ, परमतेजमय जीवन सारा ।। शोतलनाथ शील के सागर, शुचिमय शीतल सिंधु सरल हो। नाम-मात्र से अमृत होता, चाहे जैसा तीव्र गरल हो ॥१०॥ श्री श्रेयांसनाथ श्रेयस्कर, श्रेयस पद की मुझे चाह है। जो भी शरण आपकी आता, होती उसे न राग दाह है ॥११॥ वासुपज्य वागीश्वर विघ्नविनाशक विश्वभूप सुखकारी । सुर नर पशु नारक गतियों से, तुम्हीं बचाते भवदुखहारी ॥१२॥
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जैन पूजांजलि सच्ची श्रद्धा-ज्ञान सहित आचरण करने वाला सच्चा श्रावक विमलनाथ विमलेश विवेकी, कर्मघाति घननाशनहारे । समवशरण में विमल ज्ञान रवि, किरण मनोज्ञ प्रकाशन हारे ॥१३।। हे अनंत जिन नाथ महाप्रभु, गुण अनंत तुमने प्रगटाए । अनुभव रस बिन अब तक हमने कष्ट अनंतानंत उठाए ॥१४॥ धर्म नाथ प्रभु धर्म धुरंधर, ध्यान ध्येय ध्याता विख्याता। धर्मचक्रधारी हो जाता, जो भी तुम्हें हृदय से ध्याता ॥१५॥ शान्तिनाथ सुख-शांति विधाता, शान्ति सिन्धु समता के सागर । परम शान्त रस वर्षा करते, तीन लोक में नाम उजागर ॥१६।। कुन्थुनाथ षट काया रक्षक, कृपा समुद्र कृतान्त कर्महर । रोग-शोक-दुख-हानि-मरण-भय, अपयश बंधनहर्ता सुखकर ॥१७॥ अरहनाथ अरिकर्म जयी, जो भी भव से आतंकित होता ।। चरण कमल की शरण प्राप्त कर, भवपीड़ा से वंचित होता ॥१८॥ मल्लिनाथ की महा कृपा से, मोहमल्ल को चूर करू मैं । मिथ्यातम हर समकित पाऊ', अष्टकर्मरज दूर करूं मैं ।।१६।। मुनि सुब्रत जिनवत के अधिपति, महामोक्ष मंगल के दायक । सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित मय, मोक्षमार्ग के श्रेष्ठ विधायक ॥२०॥ नमि जिनवर के चरण पखारू, निनिमेष अविरल छवि निरखू। भेद ज्ञान-विज्ञान सूर्य पा, निज को निज पर को पर परखू। २१॥ नेमिनाथ निर्द्वन्द, निराकुल, निर्मल निविकार गुण धामी। केवल ज्ञान-प्रकाश ज्योति दो, यही विनय है अन्तर्यामी ॥२२॥ पार्श्वनाथ पावन परमेश्वर, संकटमोचन परम सुखमयी । पूर्णानंद स्वरूप ज्ञानघन, नाश करो संसार दुखमयी ॥२३॥ महावीर सन्मति जिन स्वामी, वर्धमान अतिवीर वीर प्रभु । अन्तिम तीर्थकर वैशालिक, परम पुनीत सुवीर धीर प्रभु ॥२४॥ लौकिक सुख की नहीं कामना, केवल शिव सुख की अभिलाषा। भव अटवो से शीघ्र उबारो, स्वामी पूर्ण करो यह आशा ॥२५॥ यह स्तोत्र चतुर्विंशति जिन, जो भी पढ़ता भाव भक्ति से । मुक्ति लक्ष्मी का पति बनता, सिद्ध लोक जा आत्मशक्ति से ॥२६॥
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जैन पूजांजलि धर्म वही है, जो जीव को उत्तस सुख प्रदान करे।
अभिषेक पाठ मैं परम पूज्य जिनेन्द्र प्रभु को भाव से वंदन करू। मन, वचन, काय त्रियोगपूर्वक शीष चरणों में धरू । सर्वज्ञ केवल ज्ञान धारी की सु छवि उर में ध। निर्ग्रन्थ पावन वीतराग महान की जय उच्चर ॥ उज्ज्वल दिगम्बर वेश दर्शन कर हृदय आनंद महें। प्रति विनयपूर्वक नमन करके सफल यह नर भव करू ॥ मैं शुद्ध जल के कलश प्रभु के पूज्य मस्तक पर करूं। जल धार देकर हर्ष से अभिषेक प्रभू जी का करूं। मैं न्हवन प्रभु का भाव से कर सकल भव पातक हरू। प्रभु चरण कमल पखारकर सम्यकत्व की सम्पत्ति वरू॥
अभिषेक स्तुति मैंने प्रभु के चरण पखारे।।
जनम, जनम के संचित पातक तत्क्षण ही निरवारे । प्रासुक जल के कलश श्री जिन प्रतिमा ऊपर ढारे। . .
वीतराग अरिहंत देव के गूंजे जय जयकारे ॥ चरणाम्बुज स्पर्श करत ही छाये हर्ष प्रपारे... पावन तन, मन, नयन भये सब दूर भये अंधियारे ॥
पूजा पीठिका : . . : . ॐ जय, जय, जय । नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु, . . अरिहंतों को नमस्कार है, सिद्धों को सावर बंदत। प्राचार्यों को नमस्कार है, उपाध्याय को है. वंदन ॥...
और लोक के सर्व साधुनों को है. विनय सहित वंदन । पंच परम परमेष्ठी प्रभु को बार बार मेरा वंदन ॥ ॐ ह्रीं अनादि मूल मन्त्रेभ्यो नमः पुष्पाञ्जलिं क्षिपामि ।
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जैन पूजांजलि
साधुजन मोहभाव नष्ट कर ज्ञायक भावमयी निश्चय स्तुति को प्राप्त हैं । मङ्गल चार, चार, हैं उत्तम चार शरण में जाऊ मै । मन, वच, काय, त्रियोगपूर्वक शुद्ध भावना भाऊँ मैं ॥ श्री अरिहंत देव मङ्गल हैं, श्री सिद्ध प्रभु हैं मङ्गल। श्री साधु मुनि मंगल हैं, है केवलि कथित धर्म मंगल ॥ श्री अरिहंत लोक में उत्तम, सिद्ध लोक में है उत्तम । साधु लोक में उत्तम हैं, है केवलि कथित धर्म उत्तम ।। श्री अरिहंत शरण में जाऊँ, सिद्ध शरण में मैं जाऊ । साधु शरण में जाऊं, केवलि कथित धर्म शरणा जाऊं ॥ ॐ नमो अर्हते स्वाहा, पुष्पांजलि क्षिपामि ।
मंगलविधान णमोकार का मन्त्र शाश्वत इसकी महिमा अपरम्पार । पाप ताप संताप क्लेश हर्ता भव भयनाशक सुखकार ॥ सर्व प्रमङ्गल का हर्ता है सर्वश्रेष्ठ है मंत्र पवित्र । पाप पुण्य आश्रव का नाशक संवरमय निर्जरा विचित्र ॥ बन्ध विनाशक मोक्ष प्रकाशक वीतराग पद दाता मित्र । श्री पंचपरमेष्ठी प्रभु के झलक रहे हैं इसमें चित्र ॥ इसके उच्चारण से होता विषय कषायों का परिहार । इसके उच्चारण से होता अन्तर मन निर्मल अविकार ॥ इसके ध्यान मात्र से होता अन्तर द्वन्द्वों का प्रतिकार । इसके ध्यान मात्र से होता वाह्यान्तर प्रानन्द अपार ॥ णमोकार है मन्त्र श्रेष्ठतम सर्व पाप नाशनहारी। सर्व मङ्गलों में पहला मङ्गल पढ़ते ही सुखकारी ॥ यह पवित्र अपवित्र दशा सुस्थिति दुस्थिति में हितकारी। निमिषमात्र में जपते ही होता विलीन पातक भारी॥
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जैन पूजांजलि
देव दर्शन द्वारा भव्य जीव आत्मानुभूति प्राप्ति कर लेते हैं। सर्व विघ्न बाधा नाशक है सर्व संकटों का हौं । अजर, अमर, अविकल, अविकारी अविनाशी सुख का कर्ता ॥ कर्माष्टक का चक मिटाता, मोक्ष लक्ष्मी का दाता । धर्मचक्र से सिद्धचक्र पाता जो ओम नमः ध्याता ॥ प्रोम शब्द में गमित पांचों परमेष्ठी निज गुण धारी । जो भी ध्याते बन जाते परमात्मा पूर्ण ज्ञान धारी। जय, जय, जयति पंच परमेष्ठी जय, जय, एमोकार जिन मंत्र । भव बन्धन से छुटकारे का यही एक है मंत्र स्वतन्त्र ॥ इसको अनुपम महिमा का शब्दों में कैसे हो वर्णन । जो अनुभव करते हैं वे ही पा लेते हैं मुक्ति गगन ।।
-अर्घजल गंधाक्षत पुष्प सुचरु ले दीप धूप फल अर्घ्य धरू। जिन गृह में जिन प्रतिमा सम्मुख सहस्रनाम को नमन करूं ॥ ॐ ह्रीं भगवत् जिन, सहस्रनामेभ्यो अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा ।
(स्वस्ति मङ्गलम्) मङ्गलमय भगवान् वीर प्रभु मंगलमय गौतम गणधर मंगलमय श्री कुन्द कुन्द मुनि मङ्गल जैन धर्म सुखकर मंगलमय श्री ऋषभदेव प्रभु, मंगलमय श्री अजित जिनेश मंगलमय श्री सम्भव जिनवर, मंगल अभिनन्दन परमेश मंगलमय श्री सुमति जिनोत्तम मंगल पद्मनाथ सर्वेश मंगलमय सुपाश्र्व जिनस्वामी मंगल चन्दा प्रभु चन्द्रेश मंगलमय श्री पुष्पदन्त प्रभु, मंगल शीतलनाथ सुरेश मंगममय श्रेयांसनाथ जिन मंगल वासु पूज्य पूज्यश
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जैन पूजांजलि वीतरागी शान्त-मुद्रा के दर्शन से आत्मा में शांति प्रगट होती। मंगलमय श्री विमलनाथ विभु, मंगल अनन्तनाथ महेश मंगलमय श्री धर्मनाथ प्रभ, मंगल शान्तिनाथ चक्रेश मंगलमय श्री कुन्थुनाथ जिन मंगल श्री प्ररनाथ गुणेश मंगलमय श्री मल्लिनाथ प्रभु मंगल मुनिसुव्रत सत्येश मंगलमय नमिनाथ जिनेश्वर मंगल नेमिनाथ योगेश मंगलमय श्री पार्श्वनाथ प्रभु, मंगल वर्धमान तीर्थोश मंगलमय अरिहंत महाप्रभु मंगल सर्व सिद्ध लोकेश मंगलमय श्री सर्वसाधुगण, मंगल जिनवाणी उपदेश मंगलमय सीमन्धर आदिक, विद्यमान जिन वीस परेश मंगलयय त्रैलोक्य जिनालय मंगल जिन प्रतिमा भव्येश मंगलमय त्रिकाल चौबीसी मंगल समवशरण सविशेश मंगल पंचमेरु जिन मन्दिर, मंगल नन्दीश्वर द्वीपेश मंगल सोलह कारण दशलक्षण, रत्नत्रय व्रत भव्येश मंगल सहस्र कूट चैत्यालय मंगल मानस्तम्म हमेश मंगलमय केवल श्रुत केवलि मंगल ऋद्धिधारी विधेश मंगलमय पांचों कल्याणक, मंगल जिन शासन उद्देश मंगलमय निर्वाण मूमि, मंगलमय अतिशय क्षेत्र विशेष सर्व सिद्धि मंगल के दाता हरो अमंगल हे विश्वेश जब तक सिद्ध स्वपद ना पाऊँ तब तक पूजू हे ब्रह्मश
9 श्री देव शास्त्र गुरु पूजन , वीतराग अरिहंत देव के पावन चरणों में वन्दन । द्वादशांग श्रुत श्री जिनवाणी जग कल्याणी का अर्चन ॥
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जैन पूजांजलि
अभिषेक करते समय साक्षात अरहंत के स्पर्श जैसा भाव होता है ।
द्रव्य भाव संयममय मुनिवर श्री गुरु को मैं करूं नमन । देव शास्त्र गुरु के चरणों का बारम्बार करु पूजन ।। ॐ ह्री श्री देव शास्र गुरु समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री देव शास्र गुरु समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्री देव शास्र गुरु समूह अत्र मम् सन्निहितोभव भव वषट् । प्रावरण ज्ञान पर मेरे है, है नन्म मरण से सदा दुखी। जब तक मिथ्यात्व हृदय में है यह चेतन होगा नहीं सुखी ॥ ज्ञानावरणी के नाश हेतु चरणों में जल करता अर्पण । देव शास्त्र गुरु के चरणों का बारम्बार करुं पूजन ॥
ॐ ह्रीं देव शास्र गुरुभ्यो ज्ञानावरण कर्म विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा । दर्शन पर जब तक छाया है संसार ताप तब तक ही है । जब तक तत्वों का ज्ञान नहीं मिथ्यात्व पाप तब तक ही है । सम्यक् श्रद्धा के चन्दन से मिट जायेगा दर्शनावरण । देव शास्त्र गुरु के चरणों का बारम्बार करूं पूजन ॥
ॐ ह्रीं श्री देव शास्र गुरुभ्यों दर्शनावरण कर्म विनाशनाय चंदनं नि० । निज स्वभाव चेतन्य प्राप्ति हित जागे उर में अन्तरबल । अक्षय सुख अनन्त का घाता वेदनीय है कर्म प्रबल ॥ अक्षत चरण चढ़ाकर प्रभुवर वेदनीय का करू दमन ।देव०।
ॐ ह्री श्री देव शास्र गुरुभ्यो वेदनीय कर्म विनाशनाय अक्षतम् नि । मोहनीय के कारण यह चेतन अनादि से भटक रहा। निज स्वभाव तज पर द्रव्यों की ममता में ही अटक रहा। मेवज्ञान की खड्ग उठाकर मोहनीय का करूं हनन ॥देव॥ ॐ ह्री देव शास्र गुरुभ्यो मोहनीय कर्म विनाशनाय पुष्पम् नि ।
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जन पूजांजलि वीतरागी का स्पर्श करते ही रागादि भाव नष्ट हो जाते हैं। प्रायु कर्म के बंध उदय में सदा उलझता प्राया हूँ। चारों गतियों में डोला हूं निज को ज.न न पाया हूँ ॥ अजर अमर अविनाशी पद हित प्राय कर्म का करू शमन ।देव.।।
ॐ ह्रीं श्री देव शास्र गुरुभ्यो आयु कर्म विनाशनाय नैवेद्यम् नि । नाम धर्म के कारण मैंने जैसा भी शरीर पाया। उस शरीर को अपना समझा निव चेतन को विसराया ॥ ज्ञान दीप के चिर प्रकाश से नाम कर्म कह दमन । देव शास्त्र गुरु के चरणों का बारम्बार कह पूजन ॥
ॐ ह्री श्री देव शास्र गुरुभ्यो नाम कर्म विनाशनाय दीपम् नि० । उच्च नीच कुल मिला बहुत पर निज कुल जान नहीं पाया। शुद्ध बुद्ध चैतन्य निरंजन सिद्ध स्वरूप न उर भाया । गोत्र कर्म का धूम्र उड़ाऊं निज परणति में कह रमण।देव शास्त्र.
ॐ ह्री देव शास्र गुरुभ्यो गोत्र कर्म विनाशनाय धूपम् नि० । दान लाभ भोगोपभोग बल मिलने में जो बाधक है। अन्तराय के सर्वनाश का आत्मज्ञान ही साधक है ॥ दर्शन ज्ञान अनन्त वीर्य सुख पाऊ निज पाराधक बन देव शास्त्र.
ॐ ह्रीं देव शास्त्र गुरुभ्यो अन्तराय कर्म विनाशनाय फलम् नि । कर्मोदय में मोह रोष से करता है शुभ अशुभ विभाव । पर में इष्ट अनिष्ट कल्पना रागद्वेष विकारी भाव ।। भाव कम करता जाता है जीव मूल निज प्रात्मस्वभाव । द्रव्यकर्म बंधते हैं तत्मण शाश्वत सुख का करें प्रभाव ॥ चार घातिया चउ प्रघातिया प्रष्टकर्म का करूं हनन । देव शास्त्र गुरु के चरणों का बारम्बार करू पूजन ॥ ॐ ह्री देव शास्त्र गरुभ्यो सम्पूर्ण अष्टकर्म विनाशनाय अर्घम् निः ।
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जन पूजांजलि रागादि भावों को नष्ट करना ही सच्चा प्रक्षालन है।
(जयमाला) हे जगबन्धु जिनेश्वर तुमको अब तक कभी नहीं ध्याया । श्रो जिनवाणी बहुत सुनी पर नहीं कभी श्रद्धा लाया ॥ परम वीतरागी सन्तों का भी उपदेश न मन भाया । नरक त्रिययंच देव नर गति में भ्रमण किया बहु दुख पाया। पाप पुण्य में लीन हुआ निज शुद्ध भाव को विसराया। इसीलिये प्रभुवर अनादि से भव अटवी में भरमाया । आज तुम्हारे दर्शन कर प्रभु मैंने निज दर्शन पाया । परम शुद्ध चैतन्य ज्ञानघन का बहुमान हृदय आया ॥ दो आशीष मुझे हे जिनवर जिनवाणी गुरदेव महान । मह महातम शीघ्र नष्ट हो जाये करू आत्म कत्याण ॥ स्वपर दिनेक जगे अन्तर में दो सम्यक् श्रद्धा का दान । क्षायक हो उपशम हो हे प्रभु क्षयोपमशम सदर्शन ज्ञान ॥ सात तत्व पर श्रद्धा करके देव शास्त्र गुरु को मान । निज पर भेद जानकर केवल निज में ही प्रतीत ठानं ॥ पर द्रव्यों से मैं ममत्व तज आत्म द्रव्य को पहचान । आत्म द्रव्य को इस शरीर से पृथक् भिन्न निर्मल जानूं ॥ समकित रवि की किरणें मेरे उर अन्तर में करें प्रकाश । सम्यक ज्ञान प्राप्त कर स्वामी पर भावों का करू विनाश ।। सम्यक् चारित को धारण कर निज स्वरूप का करूं विकास । रत्नत्रय के अवलम्बन से मिले मुक्ति निर्वाण निवास ॥
दोहा जय जय जय अरहन्त देव जय, जिनवाणी जग कल्याणी । जय निर्ग्रन्थ महान् सुगुरु, जय जय शाश्वत शिव सुखदानी।
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जन पूजांजलि देव-शास्त्र गुरु का सच्चा श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये पूर्णाम् निर्वपामीति स्वाहा।
देव शास्त्र गुरु के वचन भाव सहित उरधार । मन वच तन जो पूजते वे होते भवपार ।
इत्यार्शीवाद: जाप्य-ॐ श्री ह्रीं श्री देव शास्त्रा गुरुभ्यो नमः
श्री पंचपरमेष्ठी पूजन प्ररहन्त, सिद्ध, आचार्य नमन, हे उपाध्याय हे साधु नमन । जय पंच परम परमेष्ठी जय, भव सागर तारणहार नमन। मन वच काया पूर्वक करता हूं शुद्ध हृदय से आह्वानन् । मम हृदय विराजो तिष्ठ तिष्ठ सन्निकट होउ मेरे भगवन् ॥ निज आत्म तत्व की प्राप्ति हेतु ले अष्ट द्रव्य करता पूजन। तुव चरणों की पूजन से प्रभु निज सिद्ध रूप का हो दर्शन ॥
ॐ ह्रीं अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु पंच परमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर संवोषट् ।
ॐ ह्री अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाय्याय, सर्वसाधु पंच परमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ, तिष्ठ, ठः ठः ।
ॐ ह्री अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु पंच परमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहितों भव भव वषट । मैं तो अनादि से रोगी हूं उपचार कराने आया हूँ । तुम सम उज्ज्वलता पाने को उज्ज्वल जल भरकर लाया हूँ॥ मैं जन्म जरा मृतु नाश करूं ऐसी दो शक्ति हृदय स्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु भव दुख मेटो अन्तरयामी ॥ ___ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि
[११ अरिहंत को द्रव्य, गुण पर्याय से जानने वाला आत्मा को पहिचानता है। संसार ताप से जल जल कर मैंने अगणित दुख पाये हैं। निज शान्त स्वभाव नहीं भाया पर के ही गीत सुहाये हैं। शीतल चन्दन है भेट तुम्हें संसार ताप नाशो स्वामी। हे पंच परम परमेष्ठी प्रभु भव दुख मेटो अन्तरयामी ॥
ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो संसार ताप विनाशनाय चन्दम् नि०स्वाहा। दुखमय अथाह भव सागर में मेरी यह नौका भटक रही। शुभ अशम भाव को भंवरों में चैतन्य शक्ति निज अटक रही। तन्दुल हैं धवल तुम्हें अपित अक्षय पद प्राप्त करूं स्वामी।हे पंच
ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि । मैं काम व्यथा से घायल हूँ सुख की न मिली किंचित् छाया। चरणों में पुष्प चढ़ाता हूँ तुमको पाकर मन हर्षाया ॥ मैं काम भाव विध्वंस करूं ऐसा दो शील हृदय स्वामी। हे पंच
ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो काम वाण, विध्वंसनाय पुष्पम् नि० स्वाहा मैं क्षुधा रोग से व्याकुल हूँ चारों गति में भरमाया हूँ। जग के सारे पदार्थ पाकर भी तृप्त नहीं हो पाया हूँ॥ नैवेद्य समपित करता हूँ यह क्षुधा रोग मेटो स्वामी । हे पंच
ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् निः । मोहान्य महा अज्ञानी मैं निज को पर का कर्ता माना। मिथ्यातम के कारण मैंने निज प्रात्म स्वरूप न पहिचाना॥ मैं दोप समर्पण करता हूँ मोहान्धकार क्षय हो स्वामी। हे पंच
ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि । कर्मों को स्वाला बधक रही संसार बढ़ रहा है प्रतिपल । संवर से प्राश्रध को रोकू निर्जरा सुरभि महके पल पल ॥ मैं धूप चढ़ाकर अब पाठों कर्मों का हनन करू स्वामी । हे पंच ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो अष्ट कर्म दहनाय घूपम् निर्वपामीति स्वाहा
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१२]
जैन पूजांजलि
जिनेन्द्र देव के बताये मार्ग पर चलना ही मच्ची विनय है। निज आत्म तत्व का मनन करूं चितवन करूं निज चेतन का। दो श्रद्धा ज्ञान चरित्र श्रेष्ठ सच्चा पथ मोक्ष निकेतन का ॥ उतम फल चरण चढ़ाता हूं निर्वाण महाफल हो स्वामी। हे पंच
ॐ ह्रीं श्री पंच परमेष्ठिभ्यो मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि० जल चन्दन, अक्षत, पुष्प, दीप नैवेद्य, धूप, फल लाया हूँ। अब तक के संचित कर्मो का मैं पुञ्ज जलाने पाया हूं। यह अर्घ समर्पित करता हूँ अविचल अनर्घ पद दो स्वामी। हे पंच ॐ ह्रीं पंच परमेष्ठिभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा ।
* जयमाला : जय वीतराग सर्वज्ञ प्रभो निज ध्यान लीन गुणमय अपार । अष्टादश दोष रहित जिनवर अरहन्त देव को नमस्कार ॥ अविचल अविकारी अविनाशी निज रूप निरञ्जन निराकार। जय अजर अमर हे मुक्ति कन्त भगवन्त सिद्ध को नमस्कार । छतीस सुगुण से तुम मण्डित निश्चय रत्नत्रय हृदय धार । हे मुक्ति वधू के अनुरागी आचार्य सुगुरु को नमस्कार ॥ एकादश प्रङ्ग पूर्व चौदह के पाठी गुण पच्चीस धार । बाह्यान्तर मुनि मुद्रा महान श्री उपाध्याय को नमस्कार ॥ वत समिति गुप्ति चारित्र धर्म वैराग्य भावना हृदय धार । हे द्रव्य भाव संयममय मुनिवर सर्वसाधु को नमस्कार ॥ बहुपुण्य संयोग मिला नरतन जिनश्रुत जिनदेव चरण दर्शन। हो सम्यक् वर्शन प्राप्त मुझे तो सफल बने मानव जीवन ॥ निज पर का भेद जानकर मैं निज को ही निज में लीन करू। अब भेद नान के द्वारा मैं निज प्रात्म स्वयं स्वाधीन करू ॥ निज में रत्नत्रय धारणकर निज परिणति को ही पहचान । पर परणति से हो विमुख सदा निज ज्ञान तत्व को ही जानें ॥
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जैन पूजांजलि
[१३
जो व्यक्ति पंचपरमेष्ठी की शरण लेता है, उसका कल्याण होता है। जब ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता विकल्प तज शुल्क ध्यान मैं ध्याऊँगा । तब चार घातिया क्षय करके अरहन्त महापद पाऊँगा ॥ है निश्चित सिद्ध स्वपद मेरा हे प्रभु कब इसको पाऊँगा । सम्यक् पूजा फल पाने को अब निज स्वभाव में आऊंगा। अपने स्वरूप की प्राप्ति हेतु हे प्रभु मैंने को है पूजन । तब तक चरणों में ध्यान रहे जब तक न प्राप्त हो मुक्ति सदन ।
ॐ ह्रीं श्री अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु पच परमेष्ठिभ्यो अर्घम् निर्वामीति स्वाहा। हे मङ्गल रूप अमङ्गल हर मङ्गलमय मङ्गल गान करू। मङ्गल में प्रथम श्रेष्ठ मङ्गल नवकार मन्त्र का ध्यान करूं।
॥ इत्याशीर्वादः ॥ जाप्य-ॐ ह्रीं श्री अ सि. आ उ. साय नमः
-- x -- श्री विद्यमान बीस तीर्थकर पूजन सीमंधर, युगमंधर, बाहु, सुबाहु, सुजात स्वयंप्रभु देव । ऋषभानन, अनन्तवीर्य, सौरी प्रभु विशाल कोति सुदेव ॥ श्री वज्रधर, चन्द्रानन् प्रभु चन्द्रबाहु, भुजङ्गम् ईश । जयति ईश्वर जयति नेमप्रभु वीरसेन महाभद्र महीश ॥ पूज्य देवयश अजितवीर्य जिन बीस जिनेश्वर परम महान । विचरण करते हैं विदेह में शाश्वत तीर्थङ्कर भगवान ॥ नहीं शक्ति जाने की स्वामी यहीं वन्दना करूं प्रभो। स्तुति पूजन अर्चन करके शुद्ध भाव उर भरू प्रभो ॥१॥
ॐ ह्रीं श्री विदेह क्षेत्र स्थित विद्यमान बीस तीर्थङ्कर जिन समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ___ ॐ ह्रीं श्री विदेह क्षेत्र स्थित विद्यमान बीस तीर्थङ्कर जिन समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
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१४]
जैन पूजांजलि
णमोकार मन्त्र के स्मरण से सब पापों का नाश होता है । ___ ॐ ह्रीं श्री विदेह क्षेत्र स्थित विद्यमान बीस तीर्थङ्कर जिन समूह अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । निमल सरिता का प्रासुक जल लेकर चरणों में आऊ । जन्म जरादिक क्षय करने को श्री जिनवर के गुण गाऊं ॥ सोमंधर, युगमंधर, आदिक अजित वीर्य को नित ध्याऊ । विद्यमान बीसों तीर्थङ्कर की पूजन कर हर्षाऊं ॥२॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमान बीस तीर्थङ्कराय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा । शोतल चन्दन दाह निकन्दन लेकर चरणों में पाऊँ । भव सन्ताप दाह हरने को श्री जिनवर के गुण गाऊँ ॥ सोमंधर, युगमंधर, प्रादिक अजित वीर्य को नित ध्याऊ । विद्यमान बीसों तीर्थङ्कर की पूजन कर हर्षाऊ ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमान बीस तीर्थङ्कराय भवताप विनाशनाय चंदनं नि० । स्वच्छ अखण्डित उज्वल तंदुल लेकर चरणों में पाऊँ । अनुपम अक्षय पद पाने को श्री जिनवर के गुण गाऊँ ॥ सोमंधर, युगमंधर, आदिक अजित वार्य को नित ध्याऊ । विद्यमान बीसों तीर्थङ्कर की पूजन कर हर्षाऊ ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमान बीस तीर्थङ्कराय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि० । शुभ्र शील के पुष्प मनोहर लेकर चरणों में पाऊँ । काम शत्रु का दर्ण नशाने श्री जिनवर के गुण गाऊँ ॥ सोमंधर, युगमंधर, प्रादिक अजित वीर्य को नित ध्याऊँ। विद्यमान बोसों तीर्थकंकर की पूजन कर हर्षाऊं ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमान बीस तीर्थङ्कराय काम वाण विध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा। परम शुद्ध नैवेद्य भाव उर लेकर चरणों में पाऊँ। भुधा रोग का मूल मिटाने श्री जिनवर के गुण गाऊँ ॥
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१.
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जैन पूजांजलि
[१५ जिनदेव की पूजा के भावो से पुण्य बन्ध होता है। सोमंधर, युगमंधर, आदिक, अजित वीर्य को नित ध्याऊ । विद्यमान बीसों तीर्थङ्कर की पूजन कर हर्षाऊं ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमान बीस तीर्थङ्कराय क्षुघा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् । जग मग अन्तर दीप प्रज्ज्वलित लेकर चरणों में पाऊँ । मोह तिमिर अज्ञान हटाने श्री जिनवर के गुण गाऊँ ॥ सीमंधर, युगमंधर, प्रादिक अजित वीर्य को नित ध्याऊँ । विद्यमान बोसों तीर्थङ्कर की पूजन कर हर्षांऊँ ।
ॐ ह्रीं श्री विद्यमान बीस तीर्थङ्कराय मोहांधकार विनाशनाय दीपम् नि. कर्म प्रकृतियों का ईधन प्रब लेकर चरणों में आऊं । ध्यान अग्नि में इसे जलाने श्री जिनवर के गुण गाऊं ॥ सोमंधर, युगमंधर, प्रादिक अजित वीर्य को नित ध्याऊँ । विद्यमान बीसों तीर्थकर की पूजन कर हर्षाऊं ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमान बीस तीर्थङ्कराय अष्टकर्म दहनाय घपम नि० । निर्मल सरस विशव भाव फल लेकर चरणों में पाऊं ॥ परम मोक्ष फल शिव सुख पाने श्री जिनवर के गुण गाऊँ ॥ सोमंधर, युगमंधर, आदिक अजित वीर्य को नित ध्याऊँ । विद्यमान बीसों तीर्थकंर की पूजन कर हर्षाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री विद्यमान बीस तीर्थङ्कराय मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि० । अर्घ पुञ्ज वैराग्य भाव का लेकर चरणों में आऊ । निज अनर्घ पदवी पाने को श्री जिनवर के गुण गाऊं ॥ सोमंधर, युगमंधर, आदिक अजित वीर्य को नित ध्याऊँ । विद्यमान बोसों तीर्थकर को पूजन कर हर्षाऊ ॥ ॐ ह्रीं श्री विद्यमान बीस तीर्थङ्कराय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि० ।
(जयमाला) मध्यलोक में असंख्यात सागर अरु असंख्यात हैं द्वीप । जम्बू द्वीप धातको खण्ड अरु पुष्करा यह ढाई द्वीप ॥
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जैन पूजांजलि
जिनदेव की पहचान से अपनी आत्मा की पहिचान होती है ।
ढाई द्वीप में पंचमेरु हैं तोनों लोकों में अति ख्यात । मेरु सुदर्शन, विजय, अचल, मंदर विद्युन्माली विख्यात ॥ एक एक में हैं बत्तीस विदेह क्षेत्र प्रतिशय सुन्दर । एक शतक अरु साठ क्षेत्र हैं, चौथा काल जहां सुखकर ।। पाँच भरत प्ररु पंच ऐरावत कर्म भूमियाँ दस गिनकर । एक साथ हो सकते हैं तीर्थकर एक शतक किन्तु न्यूनतम बोस तीर्थकर विदेह में होते हैं । विद्यमान सर्वज्ञ जिनेश्वर होते हैं ।
सत्तर ॥
सदा शाश्वत
एक मेरु के चार विदेहों में रहते तीर्थकर चार । बीस विदेहों में तीर्थकर बीस सदा ही मङ्गलकार ॥ कोटि पूर्व की श्रायु पूर्ण कर होते पूर्ण सिद्ध भगवान् । तभी दूसरे इसी नाम के होते हैं अरहन्त 'महान् ॥ श्री जिनदेव महा मङ्गलमय वीतराग सर्वज्ञ प्रधान । भक्ति भाव से पूजन करके मैं चाहूँ अपना कल्याण ॥ विरहमान श्री बोस जिनेश्वर भाव सहित गुण गान करूँ । जो विदेह में विद्यमान हैं उनका जय जय गान करूं ॥ सीमन्धर को वन्दन करके मैं अनादि मिथ्यात्व हरू । जुगमन्धर की पूजन करके समकित अङ्गीकार करूँ ॥
१६]
श्री बाहु को सुमिरण करके अविरति हर व्रत ग्रहण करूं । श्री सुबाहु पद प्रर्चन करके तेरह विधि चारित्र धरूं ॥ प्रभु सुजात के चरण पूजकर पंच प्रमाद अभाव करूँ । देव स्वयंप्रभ को प्रणाम कर दुखमय सर्व विभाव हरू ॥ ऋषभानन की स्तुति करके योग कषाय निवृति करूँ । पूज्य अनन्त वीर्य पद वन्दू पथ निर्ग्रन्थ प्रवृत्ति करूं ॥
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जैन पूजाँजलि
[१७
ज्ञानी भक्त संसार के सुखों की कामना नहीं करता है।
देव सौरिप्रभ चरणाम्बुज दर्शन कर पांचों बन्ध हरू। परम विशाल कोति को जय हो निज को पूर्ण अबंध करू॥ श्री वज्रधर सर्व दोष हर सब संकल्प विकल्प हरू। चन्द्रानन के चरण चित्त धर निविकल्पता प्राप्त करूं। चन्द्रबाहु को नमस्कार कर पाप पुण्य सब नाश करू । श्री भुजङ्ग पद मस्तक धरकर निज चिद्रूप प्रकाश करूं ॥ ईश्वर प्रभु की महिमा गाऊँ प्रात्म द्रव्य का भान करूं। श्री नेमि प्रभु के चरणों में चिदानन्द का ध्यान करूं॥ वीरसेन के पद कमलों में उर चंचलता दूर करूं। महाभद्र को भव्य सुछवि लख कर्म घातिया चूर करूं। श्री देवयश सुयश गान कर शुद्ध भावना हृदय धरूं। अजितवीर्य का ध्यान लगाकर गुण अनंत निज प्रगट करूं। बीस जिनेश्वर समवशरण लख मोहमयो संसार हरू। निज स्वभाव साधन के द्वारा शीघ्र भवार्णव पार करू। स्वगुण अनन्त चतुष्टय धारी वीतराग को नमन करूं। सकल सिद्धि मङ्गल के दाता पूर्ण अर्घ के सुमन धरू ॥ ॐ ह्रीं श्री विद्यमान विशति तीर्थकरेभ्यो पूर्णाय॑म् नि ।
दोहा जो विदेह के बोस जिनेश्वर की महिमा उर में धरते। भाव सहित प्रभु पूजन करते मोक्ष लक्ष्मी को वरते ॥
8 इत्याशीर्वादः ४ ॐ ह्रीं श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्यो नमः
जाप्य
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१८]
जैन पूजांजलि
सिद्ध समान परम पद अपना, यह निश्चय कब लाओगे। द्रव्यदृष्टि बन निज स्वरूप को, कव तक अरे मजाओगे ॥
श्री सीमन्धर जिन पूजन जय जयति जय श्रेयांस नृपसुत सत्य देवी नन्दनम् । चऊ घाति कर्म विनष्ट कर्ता ज्ञान सूर्य निरञ्जनम् ॥ जय जय विदेही नाथ जय जय धन्य प्रभु सीमन्धरम् । सर्वज्ञ केवल ज्ञान धारी जयति जिन तीर्थङ्करम् ॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धर जिन अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री सीमन्धर जिन अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्री श्री सीमन्धर जिन अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । यह जन्म मरण का रोग, हे प्रभु नाश करूं। दो समरस निर्मल नीर, प्रात्म प्रकाश करू ॥ शाश्वत जिनवर भगवन्त, सीमन्धर स्वामी । सर्वज्ञ देव अरहन्त, प्रभु अन्तरयामी ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यू विनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ।
चन्दन हरता तनताप, तुम भवताप हरो । निज सम शीतल हे नाथ, मुझको आप करो। शाश्वत जिनवर भगवन्त, सीमन्धर स्वामी ॥ सर्वज्ञ देव अरहन्त, प्रभु अन्तरयामी ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय संसारताप बिनाशनाय चन्दनम् नि० । इस भव समुद्र से नाथ, मुझको पार करो । अक्षय पद दे जिनराज, अब उद्धार करो ॥ शाश्वत जिनवर...
ॐ ह्री श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि० स्वाहा। कन्दर्प दर्प हो चूर, शील स्वभाव जगे । भवसागर के उस पार, मेरी नाव लगे ॥ शाश्वत जिनवर. .. ॐ ह्रीं श्री सीमन्धर जिनेन्द्रीय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि० ।
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जन पूजांजलि
[१९
आत्म स्वरूपवलंबन भावों, से विभाव परिहार करो। रत्नत्रय का वैभय पाकर, भव दुख सागर पार करो ॥
यह क्षुधा ज्वाल विकराल, हे प्रभु शान्त करू । चरु चरण चढ़ाऊं देव, मिथ्या भ्रान्ति हरू ॥ शाश्वत जिनवर...
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि । मद मोह कुटिल विषरूप, छाया अंधियारा । दो सम्यक् ज्ञान प्रकाश, फैले उजियारा ॥ शाश्वत जिनवर...
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि । कर्मों की शक्ति विनष्ट, अब प्रभुवर करदो । मैं धूप चढ़ाऊँ नाथ, भव बाधा हरदो ॥ शाश्वत जिनवर भगवन्त, सीमन्धर स्वामी । सर्वज्ञ देव अरिहन्त, प्रभु अन्तरयामी ॥
ॐ ह्रीं श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय अष्टकर्म विनाशनाय धूपम् नि०स्वाहा। फल चरण चढ़ाऊँ नाथ, फल निर्वाण मिले । अन्तर में केवल ज्ञान, सूर्य महान खिले॥ शाश्वत जिनवर... ॐ ह्रीं श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि० स्वाहा । जब तक अनर्घ पद प्राप्त, हो न मुझे सत्वर । मैं अर्घ चढ़ाऊँ नित्य, चरणों में प्रभुवर ॥ शाश्वत जिनवर... ॐ ह्रीं श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि० स्वाहा ।
गर्भ जम्बूदीप सुमेरु सुदर्शन पूर्व दिशा में क्षेत्र विदेह । देश पुष्कलावती राजधानी है पुण्डरीकिणी गेह । रानी सत्यवती माता के उर में स्वर्ग त्याग पाये। सोलह स्वप्न लखे माता ने रत्न सुरों ने वर्षाये ।। ॐ ह्रीं गर्भ मङ्गल प्राप्ताय श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा।
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२०]
जैन पूजाँजलि
संवरभाव जगाओगे तो, आस्रव बंध रुकेगा ही। भाव निर्जरा अपनायी तो, कर्म निर्जरित होगा ही।
नृप श्रेयांसराय के गृह में तुमने स्वामी जन्म लिया। इंद्र सुरों ने जन्म महोत्सव कर निच जीवन धन्य किया ॥ गिरि सुमेरु पर पांडुक वन में रत्न शिलासुविराजित कर। क्षीरोदधि से न्हवन किया प्रभु दसों दिशा अनुरंजित कर॥
ॐ ह्रीं जन्म मङ्गल प्राप्ताय श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा । एक दिवस नभ में देखा बादल क्षण भर में हुए विलीन । बस अनित्य संसार जान वैराग्य भाव में हुए सुलीन ॥ लौकान्तिक देवर्षि सुरों ने आकर जय जयकार किया । अतुलित वैभव त्याग आपने वन में जा तप धार लिया।
ॐ ह्रीं तपो मङ्गल मण्डिताय श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय अर्घम् नि० । प्रात्म ध्यानमय शुक्ल ध्यान धर कर्म घातिया नाश किया। प्रेसठ कर्म प्रकृतियाँ नाशी केवल ज्ञान प्रकाश लिया ॥ समवशरण को गन्ध कुटी में प्रत्तरीक्ष प्रभु रहे विराज। मोक्षमार्ग सन्देश दे रहे भव्य प्राणियों को जिनराज ॥ ॐ ह्री श्री केवल ज्ञान मण्डिताय श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय अर्घम् नि ।
" जयमाला 0 शाश्वत विद्यमान तीर्थङ्कर सीमन्धर प्रभु दया निधान । दे उपदेश भव्य जीवों को करते सदा आप कल्याण ॥ कोटि पूर्व की आयु पांच सौ धनुष स्वर्ण सम काया है । सकल ज्ञेय ज्ञाता होकर भी निज स्वरूप ही भाया है । देव तुम्हारे दर्शन पाकर जागा है उर में उल्लास । चरण कमल में नाथ शरण दो सुनो प्रभो मेरा इतिहास । मैं अनादि से था निगोद में प्रति पल जन्म मरण पाया । अग्नि, भूमि, जल, वायु, वनस्पति कायक थावर तन पाया ॥
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जैन पूजाँजलि
[२१
शुद्धातम ही परमज्ञान है, शुद्धातम पवित्र दर्शन । यही एक चारित्र परम है, यही एक निर्मल तप धन ।।
दो इन्द्रिय त्रस हआ भाग्य से पार न कष्टों का पाया । जन्म तोन इन्द्रिय भी धारा दख का अन्त नहीं आया ।। चौ इन्द्रिय धारी बनकर मैं विकलत्रय में भरमाया । पचेन्द्रिय पशु सैनी और असैनी हो बहु दुख पाया। बड़े भाग्य से प्रबल पुण्य से फिर मानव पर्याय मिली । मोह महामद के कारण हो नहीं ज्ञान की कली खिली ।। अशभ पाप आश्रव के द्वारा नर्क आय का बंध सहा । नारकीय बन नरको में रह ऊष्ण शीत दुख द्वन्द सहा ।। शभ पुण्याश्रव के कारण मैं स्वर्ग लोग तक हो आया। प्रैवेयक तक गया किन्तु शाश्वत सुख चैन नहीं पाया ।। देख दूसरे के वैभव को अर्तरौद्र परिणाम किया । देव आयु क्षय होने पर ऐकेन्द्रिय तक में जन्म लिया । इस प्रकार धर धर अनन्त भव चारों गतियों में भटका। तीव्र मोह मिथ्यात्व पाप के कारण इस जग में अटका ।। महापुण्य के शुभ सँयोग से फिर यह नर तन पाया है। देव आपके चरणों को पाकर यह मन हर्षाया है ।। जनम जनम तक भक्ति तुम्हारी रहे हृदय में हे जिनदेव । वीतराग सम्यक् पथ पर चल पाऊँ सिद्ध स्वपद स्वयमेव ॥ भरत क्षेत्र से कुन्द कुन्द मुनि ने विदेह को किया प्रयाण । प्रभो तुम्हारे समवशरण के दर्शन कर हो गये महान ।। आठ दिवस चरणों में रहकर ओंकार ध्वनि सुनी प्रधान । भरत क्षेत्र में लौटे मुनिवर सुनकर वीतराग विज्ञान ।। करुणा जागी जीवों के प्रति रचा शास्र श्री प्रवचन सार । समयसार पचास्तिकाय श्रुत नियमसार प्राभृत सुखकार ।। रचे देव चौरासी पाहड़ प्रभु वाणी के ले आधार । निश्चयनय भूतार्थ बताया अभूतार्थ सारा व्यवहार ॥ पाप पुण्य दोनों बन्धन हैं जग में भ्रमण कराते हैं । राग मात्र को हेय जान जानी निज ध्यान लगाते हैं । निज का ध्यान लगाया जिसने उसको प्रगटा केवल ज्ञान । परम समाधि महा सुखकारी निश्चय पाता पद निर्वाण ॥
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२२]
जन पूजांजलि __दर्शनीय श्रवणीय आत्मा, वंदनीय मननीय महान ।
शान्ति सिन्धु सुख सागर अनुपम, नव तत्वों में श्रेष्ठ प्रधान ॥
इस प्रकार इस भरत क्षेत्र के जीवों पर अनन्त उपकार । हे सीमन्धर नाथ आपके, करो देव मेरा उद्धार । समकित ज्योति जगे अन्तर में हो जाऊँ मैं आप समान । पूर्ण करो मेरी अभिलाषा हे प्रभु सीमन्धर भगवान ॥ ॐ ह्री श्री सोमन्धर जिनेन्द्राय पूणाय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ।
सीमन्धर प्रभु के चरण भाव सहित उरधार । मन वच तन जो पूजते वे होते भवपार ।।
x इत्याशीर्वादः ४ जाप्य- ॐ ह्रीं श्री सीमन्धर नाथ जिनेन्द्राय नमः
श्री कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय पूजन तीन लोक के कृत्रिम प्रकृत्रिम जिन चैत्यालय को वंदन । ऊर्ध्व मध्य पाताल लोक के जिन भवनों को करूं नमन ॥ हैं अकृत्रिम पाठ कोटि अरु छप्पन लाख परम पावन । संतानवें सहस्र चार सौ इक्यासी गृह मन भावन ॥ कृत्रिम प्रकृत्रिम जो असंख्य चैत्यालय हैं उनको वंदन । विनय भाव से भक्तिपूर्वक नित्य करू मैं जिन पूजन ॥
ॐ ह्रीं तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिन बिम्ब समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं तीन लोंक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालस्थ जिन बिम्ब समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।
ॐ ह्रीं तीन लोकसंबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालस्थ जिन बिम्ब समूह अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् ।
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जैनपूजिलि
[२३
भव बीजांकुर पैदा करने वाला, राग द्वेष हरलू । वीतराग बन साम्यभाव से, इस भव का अभाव करल ॥
सम्यक् जल को निर्मल उज्ज्वलता से जन्म जरा हरलू । मूल धर्म का सम्यक् दर्शन हे प्रभु हृदयंगम करलू ॥ तीन लोक के कृत्रिम प्रकृत्रिम चैत्यालय वंदन करलूँ । ज्ञान सूर्य को परम ज्योति पा भव सागर के दुख हरलूं ।
ॐ ह्रीं तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालस्थ जिन बिम्बेभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा । सम्यक् चंदन की पावन शीतलता से भव भय हरलूँ । वस्तु स्वभाव धर्म है सम्यक् ज्ञान प्रात्मा में भरा ॥ तोन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वंदन करलूँ । ज्ञान सूर्य को परम ज्योति पा भव सागर के दुख हरलूँ ॥
ॐ ह्रीं तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो संसार ताप विनाशनाय चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक् चारित की अखंडता से अक्षय पद प्रादरलूं । साम्यभाव चारित्र धर्म पा वीतरागता को वरलूँ॥ तीन लोक...
ॐ ह्रीं तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् निर्वपामीति स्वाहा।। शील स्वभावी पुष्प प्राप्त कर काम शत्रु को क्षय करलूँ । प्रणवत शिक्षावत गुणवत धर पंच महाव्रत आचरलूं ॥ तीन लोक...
ॐ ह्रीं तीन लोक संबंधो कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि। संतोषामृत के चर लेकर क्षुधा व्याधि को जय करलूं । सत्य शौचतप त्याग क्षमा से भाव शुभाशुभ सब हरलूं ।तीन लोक
ॐ ह्रीं तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि ।
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२४]
जन पूजांजलि
पापों की जड़ पर प्रहार कर, पुण्य मूल भी छेद करो ।
मोक्ष हेतु संवर के द्वारा, आश्रव का उच्छेद करो ॥ ज्ञान दीप के चिर प्रकाश से मोह ममत्व तिमिर हरलं । रत्नत्रय का साधन लेकर यह संसार पार करतूं ॥ तीन लोक... ___ॐ ह्रीं तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिन विम्वेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि। ध्यान अग्नि में कर्म धूप धर अष्टकर्म अघ को हरलू। धर्म श्रेष्ठ मंगल को पा शिवमय सिद्धत्व प्रात्त करलू ॥तीन... ____ॐ ह्रीं तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालस्थ जिन विम्वेभ्यो अष्ट कर्म विध्वंसनाय धूपम् नि । भेद ज्ञान विज्ञान ज्ञान से केवल ज्ञान प्राप्त करलू । परम भाव संपदा सहजशिव महा मोक्षफल को वरलू ॥ तीन... ___ॐ ह्रीं तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि० । द्वादश विधितप अर्ध संजोकर जिनवर पद अनर्घ वरलू। मिथ्या, अविरति, पंच प्रमाद, कषाय योग बंधन हरलू ॥ तीन.. ___ ॐ ह्रीं तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालस्थ जिन बिम्बेभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि० ।
जयमाला 8 इस अनंत आकाश बीच में तीन लोक है पुरुषाकार । तीनों वातवलय से वेष्टित, सिंधु बीचज्यों बिंदु प्रसार ॥ ऊर्ध्व लोक छह, अधोसात है, मध्य एक राजू विस्तार । चौदह राजु उतंग लोक है, असनाड़ी स का आधार ॥ तीन लोक में भवन प्रकृत्रिम आठ कोटि अरु छप्पन लाख । संतानवे सहस्र चार सौ इक्यासी जिन आगम साख ॥ ऊर्ध्व लोक में कल्पवासियों के जिन गृह चौरासी लक्ष । संतानवे सहस्र तेईस जिनालय हैं शाश्वत प्रत्यक्ष ॥
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जैन पूजाँजलि
बार बार तू डूब रहा है, बैठ उपल की नावो में । शिव सुख सुवा समुद्र स्वयं में, खोज रहा पर भावों में ।।
[२५
श्रधो लोक में भवन वासी के लाख बहात्तर, करोड़ सात । मध्य लोक के चार शतक अट्ठावन चैत्यालय विख्यात ॥ जंबू घातक पुष्करार्ध में पंचमेरु के जिन गृह ख्यात । जंबूवृक्ष शाल्मलितरु अरु विजयारध के अति विख्यात ॥ वक्षारों गजदंतो इष्वाकारों के पावन जिनगेह | सर्वकुला चल मानुषोत्तर पर्वत के वंदू धरनेह ॥ नंदीश्वर कुन्डलवर द्वीप रुचकवर के जिन चैत्यालय । ज्योतिष व्यंतर स्वर्ग लोक प्ररु भवन वासि के जिन श्रालय ॥ एक एक में एक शतक अरु आठ आठ जिन मूर्ति प्रधान । अष्ट प्राप्तिहार्यो वसु मंगल द्रव्यों से प्रति शोभा वान ॥ कुल प्रतिमा नौ सौ पच्चीस करोड़ तिरेपन लाख महान । सत्ताईस सहस्र अरु नौ सौ अड़तालीस अकृत्रिम जान ॥ उन्नत धनुष पांच सौ पदमासन हैं रत्नमयी वीतराग श्रहंत मूर्ति को है पावन अचिन्त्य श्रसंख्यात, संख्यात जिन भवन तीन लोक में इन्द्रादिक सुर नर विद्याधर मुनि वंदन कर देव रचित या मनुज रचित हैं मध्य जनों द्वारा कृत्रिम प्रकृत्रिम चैत्यालय को पूजन कर मैं हूँ ढाइद्वीप में भूत भविष्यत वर्तमान के पंचवर्ण के मुझे शक्ति दे मैं निज पद पाऊँ जिन गुण संपत्ति मुझे प्राप्त हो परम समाधि मरण हो नाथ । सकल कर्म क्षय हों प्रभु मेरे बोधि लाभ हो हे जिननाथ ॥
प्रतिमा ।
ॐ ह्रीं तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो पूर्णाम् नि० ।
महिमा || शोभित हैं ।
मोहित हैं ॥
वंदित |
हर्षित ||
तीर्थङ्कर । जिनवर ॥
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२६]
जैन पूजांजलि
ज्ञानी स्वगुण चिन्तवन करता, अज्ञानी पर का चिन्तन । ज्ञानी आत्म मनन करता है, अज्ञानी विभाव मंथन ।
कृत्रिम प्रकृत्रिम जिन भवन भाव सहित उर धार । मनवचतन जो पूजते वे होते भव पार ॥
४ इत्याशीर्वादः ४ ॐ ह्रीं णमोकार मंत्र ।
जाप्य
श्री सिद्ध पूजन हे सिद्ध तुम्हारे बन्दन से उर में निर्मलता प्राती है। भव भव के पातक कटते हैं पुण्यावलि शीश झुकाती है । तुम गुण चिन्तन से सहज देव होता स्वभाव का भान मुझे । हे सिद्ध समान स्वपद मेरा हो जाता निर्मल ज्ञान मुझे ॥ इसलिये नाथ पूजन करता, कब तुम समान मैं बन जाऊँ । जिस पथ पर चन तुम सिद्ध हुए, मैं भी चल सिद्ध स्वपद पाऊँ ।। ज्ञानावरणादिक अष्ट कर्म को नष्ट करूं ऐसा बल दो। निज अष्ट स्वगुण प्रगटें मुझमें, सम्यक् पूजन का यह फल हो।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठन् अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । कर्म मलिन हूँ जन्म जरा मृतु को कैसे कर पाऊँ क्षय । निर्मल आत्म ज्ञान जल दो प्रभु जन्म मृत्यु पर पाऊं जय ॥ अजर, अमर, अविकल, अविकारी, अविनाशी अनंत गुण धाम। नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञान स्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा।
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जैन पूजांजलि
[२७
मिथ्यातम के जाए बिन, सच्ची सुख शान्ति नहीं होती।
सम्यक् दर्शन हो जाने पर, फिर भव भ्रान्ति नहीं होती। शीतल चंदन ताप मिटाता, किन्तु नहीं मिटता भव ताप । निज स्वभाव का चंदन दो प्रभु मिटे राग का सब सन्ताप ॥प्रजर
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् संसार ताप विनाशनाय च दनं नि । उलझा हूं संसार चक्र में कैसे इससे हो उद्धार । अक्षय तन्दुल रत्नत्रय दो हो जाऊँ भव सागर पार ॥ अजर...
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् अक्षय पद प्राप्तये अक्षतान नि० । काम ब्यथा से मैं घायल हूँ कैसे करूं काम मद नाश । विमल दृष्टि दो ज्ञान पुष्प दो काम भाव हो पूर्ण विनाश ॥जर ___ ॐ ह्रीं गमों सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् काम, वाण विध्वंसनाय पुष्पं नि. । क्षुधा रोग के कारण मेरा तृप्त नहीं हो पाया मन । शुद्ध भाव नैवेद्य मुझे दो सफल करूं प्रभु यह जीवन ॥ अजर अमर अविकल अविकारी, अविनाशी अनन्त गुण धाम । नित्य निरंजन भव दुख भंजन ज्ञान स्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥ ___ॐ ह्रीं णमो सिद्धाण सिद्ध परमेष्ठिन् क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् । मोह रूप मिथ्यात महातम अन्तर में छाया घनघोर । ज्ञान दीप प्रज्वलित करो प्रभु प्रकटे समकित रवि का भोर ॥अजर. ___ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्टिन् मोहान्धकार विनाशनाय दीपं । कर्म शत्रु निज सुख के घाता इनको कैसे नष्ट करूं । शुद्ध धूप दो ध्यान अग्नि में इन्हें जला भव कष्ट हरू ॥ अजर. ___ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् अष्ट कर्म विध्वंशनाय.धूपम् निः । निज चैतन्य स्वरूप न जाना कैसे निज में प्राऊंगा। भेद ज्ञान फल दो हे स्वामी स्वयं मोक्ष फल पाऊँगा ॥ अजर...
ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् मोक्ष फल प्राप्तये फलम् । नि. ।
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२८]
जैन पूजांजलि सह अस्तित्व समन्वय होंगा, संयममय अनुशासन से ।
सत्य अहिंसा अपरिग्रह, अस्तेय शील के शासन से । अष्ट द्रव्य का अर्घ चढ़ाऊँ प्रष्ट कर्म का हो संहार । निज अन पद पाऊँ भगवन् सादि अनन्त परम सुखकार ॥अजर. ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि ।
जयमाला 8 मुक्तिकन्त भगवन्त सिद्ध को मन वच काया सहित प्रणाम । अर्ध चन्द्रसम सिद्ध शिला पर प्राप विराजे आठों याम ॥ ज्ञानावरण दर्शनावरणी, मोहनीय अन्तराय मिटा । चार घातिया नष्ट हुए तो फिर अरहन्त रूप प्रगटा ॥ वेदनीय अरु आयु नाम अरु गोत्र कर्म का नाश किया । चऊ अघातिया नाश किये तो स्वयं स्वरूप प्रकाश किया । प्रष्ट कर्म पर विजय प्राप्त कर प्रष्ट स्वगुण तुमने पाये। जन्म मृत्यु का नाश किया निज सिद्ध स्वरूप स्वगुण भाये ।। निज स्वभाव में लोन विमल चैतन्य स्वरूप अस्पो हो। पूर्ण ज्ञान हो पूर्ण सुखी हो पूर्ण बली चिद्रूपी हो ॥ वीतराग हो सर्व हितैषी राग द्वेष का नाम नहीं। चिदानन्द चैतन्य स्वभावी कृतकृत्य कुछ काम नहीं ॥ स्वयं सिद्ध हो स्वयं बुद्ध हो स्वयं श्रेष्ठ समकित प्रागार । गुरण अनन्त दर्शन के स्वामी तुम अनन्त गुण के भण्डार ॥ तुम अनन्त बल के हो धारी ज्ञान अनन्तानन्त अपार । बाधा रहित सूक्ष्म हो भगवन् अगुरुलघु अवगाह उदार ॥ सिद्ध स्वगुण के वर्णन तक की मुझ में प्रभुवर शक्ति नहीं। चलूँ तुम्हारे पथ पर स्वामी ऐसी भी तो भक्ति नहीं ॥ देव तुम्हारा पूजन करके हृदय कमल मुसकाया है । भक्ति भाव उर में जागा है मेरा मन हर्षाया है ॥
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जैन पूजांजलि
[२६
निज में जागरूक रह पंच प्रमादो पर तुम जय पाओ। अप्रमत्त बन निज वैभव से सहज पूर्णता को लाओ।
तुम गुण का चिन्तवन करे जो स्वयं सिद्ध बन जाता है। हो निजात्म में लीन दुखों से छुटकारा पा जाता है । अविनश्वर अविकारी सुखमय सिद्ध स्वरूप विमल मेरा । मुझ में है मुझ से ही प्रगटेगा स्वरूप अविकल मेरा ॥ ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं परमेष्ठिने पूर्घिम् नि० स्वाहा ।
शुद्ध स्वभावी प्रात्मा निश्चय सिद्ध स्वरूप । गुण अनन्तयुत ज्ञानमय है त्रिकाल शिवभूप ।।
॥ इत्याशीर्वादः ॥ ॐ ह्रीं श्री अनंतानंत सिद्ध परमेष्ठिभ्यो नमः ।
जाप्य
श्री षोडश कारण पूजन षोडश कारण पर्व धर्म का करू धर्म आराधना । मुक्ति सुनिश्चित यदि इस व्रत की हो निजात्म में साधना ॥ दुखी जगत के जीव मात्र का हित हो निज कल्याण हो। प्रविनश्वर लक्ष्मी से परिणय मोक्ष प्रकाश महान हो । पूर्ण ज्ञान कैवल्य अनन्तानंत गुणों का वास हो। तीर्थकर पद दाता सोलह कारण धर्म विकास हो ।
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणानि अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणानि अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणानि अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् ।
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३०]
जैन पूजांजलि जो निवृत्ति की परम भक्ति में रहता है तल्लीन सदा।
सिद्ध वधू के दिव्य मुकुट पर होता है आसीन सदा ।। -~जल की उज्ज्वल निर्मलता से मिथ्या मैल न धो सका। माकुलता मय जन्म मरण से रहित न अब तक हो सका । निर्विकल्प अविकल सुखदायक सोलह कारण भावना । जय जय तीर्थङ्कर पद दायक सोलह कारण भावना ॥ ___ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणेभ्यो जन्म मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा। भाव मरण प्रति समय किया है मैंने काल अनादि से। भव सन्ताप बढ़ाया चलकर उल्टी चाल अनादि से निर्विकल्प.. ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणेभ्यो संसारताप विनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा । मुक्त नहीं हो पाया अब तक पर भावों के जाल से । यह संसार चक्र मिट जाये धर्म चक्र की चाल से ॥ निर्विकल्प... ___ॐ ह्रीं दर्शन विगुद्धियादि पोडश कारणेभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् निर्वपामीति स्व हा। काम वेदना भव पीड़ा मय पर परणति दुखदायिनी । काम विनाशक निज चेतन पद निज परणति सुखदायिनी॥निवि०
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि पोडश कारणेभ्यो कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम निर्वपामीति स्वाहा । जग तृष्णा को व्याधि हजारों प्राकुल करती हैं मुझे। क्षुधा रोग को माया नागिन भव भव डसती है मुझे ॥ निविल्प० ___ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणेभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा । प्रात्म ज्ञान रवि ज्योति प्रकाशित हो अब स्वपर प्रकाशिनी। शुद्ध परम पद प्राप्ति भावना तम नाशक भव नाशिनी ॥निवि०
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा।
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जैन पूजांजलि
[३१
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संयम तप वैराग्य न जागा तो फिर तत्त्व मनन कैसा। निज आतम का भानु न जागा तो फिर निज चितन कैसा ॥
- . --- --- एक भूल कर्मों की सङ्गति भव वन में उलझा रही । अग्नि लौह की सङ्गति करके घन को चोटें खा रही निविकल्प. __ ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणेभ्यो अष्ट कर्म विध्वंसनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।। निज स्वभाव बिन हुई सदा ही अष्ट कर्म को जीत हो । महा मोक्ष फल पाने का पुरुषार्थ किया विपरीत हो । निविल्प
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणेभ्यो मोक्ष फल प्राप्तये फलम् । जल फलादि वसु द्रव्य अर्घ का अर्थ कभी आया नहीं। अविचल अविनश्वर अनर्घ पद इसीलिये पाया नहीं ॥निविकल्प. ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणेभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताये अर्घम् ।
8 जयमाला ४ भव्य भावना षोडश कारण विमल मुक्ति निर्वाण पथ । तीर्थकर पदवी पाने का द्रुत गतिवान प्रयाण रथ ॥ रागादिक मिथ्यात्व रहित समकित हो निज को प्रीतिमय। दोष रहित दर्शन विशुद्धि भावना मुक्ति सङ्गीतमय ॥ मन वच काया शुद्धिपूर्वक रत्नत्रय पाराध लें। तप का आदर परम विनय सम्पन्न भावना साध लें। पंच व्रत सहित शील स्वगुण परिपूर्ण शीलमय आचरण । निरतिचार भावना शील व्रत दोष हीन अशरण शरण ॥ शास्त्र पठन गुरु नमन पाठ उपदेश स्तवन ध्यानमय । दो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना हृदय में ज्ञानमय ॥ मित्र भ्रात पत्नी सुत प्रादिक और विषय संसार के । इनमे पूर्ण विरक्ति रखें संवेग भावना धार के ॥ हम उत्तम मध्यम जघन्य सत् पात्रों को पहिचान ले। चार दान दे नित्य शक्तितस्त्याग भावना जान लें।
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३२]
जैन पूजांजलि निज स्वरूप में थिर होना ही है सम्यक् चारित्र प्रधान । परम ज्योति आनंद पूर्णतः है सम्यक चारित्र महान ॥
मुक्ति प्राप्ति हित प्रात्म प्राचरण शक्ति भक्ति अनुरूप हो। द्वादश विधि से तपश्चरण भावना शक्ति तप रूप हो॥ इष्ट वियोग अनिष्ट योग उपसर्ग मरण या रोग हो। साधु समाधि भावना अनुपम कभी न दुखमय योग हो । रोगी मुनि की भक्तिपूर्वक सेवा सुश्रुषा करें। भव्य भावना वैयावृत्यकरण मन मंजूषा भरें ॥ मन वच काया से विजयी हो करें भक्ति अरिहन्त की। निर्मल प्रर्हद भक्ति भावना शुद्ध रूप भगवन्त की ॥ गुरु निर्ग्रन्थ चरण बन्दन पूजन नित विनय प्रणाम हो। नमस्कार आचार्य भक्ति भावना हृदय वसु याम हो । लोकालोक प्रकाशक जिन श्रुत व्याख्यान अनुरूप हो। बहु श्रु त भक्ति भावना मन में उपाध्याय मुनि रूप हो । सप्त तत्व पंचास्तिकाय छह द्रव्य आदि सत् जान लें। जिन आगम का पढ़ना प्रवचन भक्ति भावना मान लें। कार्योत्सर्ग प्रतिक्रमण समता स्वाध्याय वन्दन विमल । देव स्तुति षट कृत्य भावना आवश्यक निर्मल सरल ॥ जिन अभिषेक नृत्य गीतों वाद्यों से पूजन अर्चना । श्रुत प्रवचन मार्गप्रभावना जिनालयों की चर्चना ॥ शीलवान चारित्रवान जिन मुनियों का आदर करें। मृदुल भावना प्रवचनवत्सल मुनि चरणों में शीश धरें। इनके वाह्य आचरण ही से स्वर्ग सम्पदा झिलमिले। आभ्यन्तर आचरण किया तो मोक्ष लक्ष्मी फल मिले ॥ जितना अंश शुद्धि का होगा उतनी प्रात्म विशुद्धि रे । सतत जाग्रत हो निजात्म में मुक्ति प्राप्ति की बुद्धि रे ॥
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जैन पूजांजलि
वीतराग प्रभु की उपासना भव वासना मिटाती है । विषय भोग भौतिक सुख की याचना सदा भटकाती है ॥
पूर्ण शुद्धि होगी निजात्म में तब ज्ञानानन्दो गुण अनन्तमय स्वयं ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणेभ्यो सोलह कारण भावना हरे जगत तीर्थंकर पद प्राप्त कर करो सदा आनन्द ॥
दुख द्वन्द ।
होगा
सिद्ध
जाप्य
[३३
निर्वाण रे ।
भगवान रे ॥
पूर्णार्धम् नि० स्वाहा ।
इत्यार्शीवाद : ¤
ॐ ह्रीं श्री षोडश कारण भावनाभ्यो नमः pox
श्री पंचमेरु पूजन
मध्यलोक में ढाई द्वीप के पंचमेरु को करूँ प्रणाम । मेरु सुदर्शन विजय, प्रचल, मन्दिर, विद्युन्माली श्रभिराम ॥ मेरु सुदर्शन एक लाख योजन ऊँचा है महिमावान । शेष मेरु योजन चौरासी सहस्र उच्च हैं दिव्य महान ॥ पांचों मेरु श्रनादि निधन हैं स्वर्णमयी सुन्दर सुविशाल । इन पर अस्सी जिन चैत्यालय वन्दू सदा झुकाऊ भाल ॥ इनका पूजन वन्दन करके मैं अनादि अघ तिमिर हरु । मन वच काया शुद्धिपूर्वक श्री जिनवर को नमन करूं ॥
ॐ ह्रीं पंचमेरु सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिन प्रतिमा समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं पंचमेरु सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिन प्रतिमा समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ।
ॐ ह्रीं पंचमेरु सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिन प्रतिमा समूह अत्र मम् सन्निहितो भव भव बषट् ।
यह अथाह भव सागर जल पीकर भी तृषा न शान्त हुई । जन्म मरण के चक्कर में पड़कर मेरी मति भ्रान्त हुई ॥
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३४]
जैन पूजांजलि चिदानंद चैतन्य भाव ही एक जगत में सार है ।
आर्त रोद्र ध्यानों से पूरित यह संसार असार है। पंचमेरु के अस्सी जिन चैत्यालय को बन्दन करलू । भक्तिभाव से पूजन करके मैं भव सागर दुख हरलू ॥
ॐ ह्रीं श्री सुदर्शन, विजय, अचल मन्दिर विद्युन्माली, पंचमेरु सम्बन्धी जिन चैन्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो जलम् निर्वपामोति थ्वाहा। भव दावानल को भीषण ज्वाला में जल जल दुख पाया। ताप निकंदन निज गुण चन्दन शोतलता पाने आया |पंचमेरु...
ॐ ह्रीं पंचमेम सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिन विम्वेभ्यो चन्दनम् नि०। भव समुद्र को चारों गतिमय भंवरों में गता खाया। प्रक्षय पद पाने को हे प्रभु ! कभी न अक्षत गुण भाया ॥पंचमेरु०
ॐ ह्री पंचमेरु सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिन विम्बेभ्यो अक्षतम् निः। काम भाव से भव दुख को श्रृङ्खला बढ़ाता हो पाया। महाशील के सुमन प्राप्त करने को देवशरण पाया ॥ पंचमेरु...
ॐ ह्रां पंचमेरु सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिन विम्वेभ्यो पुष्पम् नि । जग के अनगिनती द्रव्यों को पाकर तृप्त न हो पाया। इसीलिये निर्लोभ वृत्ति नैवेद्य प्राप्त करने प्राया ॥पंचमेरु...
ॐ ह्रीं पंवमेरु सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो नैवेद्यम् नि। अन्धकार में मार्ग भूलकर भटक भटक अति दुख पाया। सम्यक् ज्ञान प्रकाश प्राप्त करने को यह दीपक लाया |पंचमेरु .
ॐ ह्री पंचमेरु सम्बन्धा जिन चैःयालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो दीपम् नि । विकट जगत जंजाल कर्ममय इसको तोड़ नहीं पाया। प्रात्म ध्यान को ध्यान अग्नि में कर्म जलाने मैं प्राया ॥चमेरु...
ॐ ह्रीं पंचमेरु सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिन विम्वेभ्यो धूपम् नि । भव अटवो में अटका अब तक नहीं धर्म का फल पाया। चिदानन्द चैतन्य स्वभावो मोक्ष प्राप्त करने आया ॥ पंचमेरु...
ॐ ह्री पंचमेरु सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो फलम् नि।
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जैन पूजांजलि
एक समय की सामायिक में कितनी शक्ति भरी। अल्पकाल में मुक्ति प्राप्त हो ऐसी युक्ति खरी ।।
क्षमा शील संयम व्रत तप शुचि विनय सत्य उर में लाया। निज अनन्त सुख पाने को प्रभु मैं वसु द्रव्य अर्घ लाया ।। पंचमेरु के प्रस्सी जिन चैत्यालय को बन्दन करलूँ । भक्तिभाव से पूजन करके मैं भव सागर दुख हरलूँ ॥ ___ॐ ह्रीं पंचमेरु सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो अर्घम् नि। जम्बूद्वीप सुमेरु सुदर्शन परम पूज्य प्रति मन भावन । भू पर भद्रशाल बन पाँच शतक योजन पर नन्दन वन ॥ साढ़े बासठ सहस्र योजन ऊंचा है सौमनस सुवन । फिर छत्तीस सहस्त्र योजन को ऊँचाई पर पाण्डुक बन ॥ चारों वन की चार दिशा में एक एक जिन चैत्यालय । सोलह चैत्यालय हैं अनुपम विनय सहित नन्दू जय जय ॥
ॐ ह्रीं जम्बूदीप सुदर्शन मेग सम्बन्धी पोडश जिन चैत्यालयस्थ जिन विम्बेभ्यो अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा । खण्ड घातकी पूर्व दिशा में बिजय मेरु पर्वत पावन । भू पर भद्रशाल बन पाँच शतक योजन पर नन्दन बन ॥ साढ़े पचपन सहस्त्र योजन ऊंचा है सौमनस सुवन । अट्ठाईस सहस्त्र योजन की ऊँचाई पर पाण्डुक बन ॥चारों.. ___ॐ ह्रीं धातकी खण्ड पूर्व दिशा विजय मेरु सम्बन्धी पोडश जिन चन्यालयस्थ जिन विम्बेभ्यो अर्घम् नि० स्वाहा। खण्ड धातको पश्चिम रिशि में अचल मेरा पर्वत सुन्दर । विजय मेरु सम इस पर भी हैं सोलह चैत्यालय मनहर ॥ प्रातिहार्य पाठों वस मङ्गल द्रव्यों से जिन गृह शोभित । देव इन्द्र विद्याधर चक्री दर्शन कर होते हर्षित ॥ चारों...
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३६]
जैन पूर्णांजलि
वीतराग विज्ञान ज्ञान का रस पीलो तत्काल । पाप पुण्य शुभ अशुभ आश्रव के हर डालो जाल ।।
ॐ ह्रीं धातकी खण्ड पश्चिम दिशा अचल मेरु सम्बन्धी पोडश जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो अर्धम् नि० स्वाहा । पुष्करार्ध की पूर्व दिशा में मन्दिर मेरु महासुखमय । विजय मेरु सम इसकी रचना सोलह चैत्यालय जय जय ॥ चन्द्र सूर्य सम कान्ति सहित हैं रत्नमयी प्रतिमा से युक्त । दस प्रकार के कल्पवृक्ष की मालाओं से है संयुक्त ॥ चारों... ॐ ह्रीं पुष्करार्ध पूर्व दिशा मन्दिर मेरु सम्वन्धी षोडश जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो अर्धम् नि० स्वाहा पुष्करार्ध की पश्चिम दिशि में विद्युन्माली मेरु महान । विजय मेरु सम ही रचना है सोलह चैत्यालय छविमान । सुर विद्याधर असुर सदा हो पूजन करने आते हैं । चारण ऋद्धि धारि मुनि भी दर्शन को आते जाते हैं । चारों... ॐ ह्रीं पुष्करार्ध पश्चिम दिशा विद्युन्माली मेरु सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो अर्धम् नि० स्वाहा |
जयमाला
एक लाख योजन का जम्बूदीप लोक के मध्य प्रधान । चार लाख योजन का सुन्दर द्वीप धातकी खण्ड महान ॥ सोलह लाख सु योजन का है पुष्कर दीप अपूर्व ललाम । इनमें पंचमेरु हैं अनुपम परम सुहविन है शुभ नाम ॥
सतत
प्रणाम ।
धाम ॥
सूर्य चन्द्र देते प्रदक्षिणा करते निशदिन एक मेरु सम्बन्धी सोलह पंचमेरु अस्सी जिन एक शतक श्ररु अर्ध शतक योजन लम्बे चौड़े जिन धाम । पौन शतक योजन ऊंचे हैं बने प्रकृत्रिम भव्य ललाम ॥
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जैन पूजांजलि
[३७
पुण्य कर्म का पक्षपात अज्ञानी जन को होता है । शुद्ध भाव का अवलंबन तो ज्ञानी जन को होता है।
एक एक में बिम्ब एक सौ आठ विराजित हैं मनहर । आठ सहस्त्र छः सौ चालिस हैं श्री प्रहन मूति सुन्दर ॥ धनुष पांच सौ पद्मासन हैं गूज रहा है जय जय गान । नृत्य वाद्य गीतों से झंकृत दसों दिशायें महिमावान ॥ तीर्थकर के जन्मोत्सव की सदा गूञ्जती जय जयकार । धन्य धन्य श्री जिन शासन की महिमा जग में अपरम्पार॥ नहीं शक्ति हममें जाने की यहीं भाव पूजन करते। पुष्पाञ्जलि व्रत की महिमा से भव भव के पातक हरते॥ पंचमेरु की पूजा करके निज स्वभाव में आ जाऊँ । भेद ज्ञान को नवल ज्योति से सम्यक् दर्शन प्रगटाऊँ ॥ सम्यक् ज्ञान चरित्र धार मुनिबन स्वरूप में रम जाऊँ । वसु कर्मो का सर्वनाश कर सिद्ध शिला पर जम जाऊँ ॥
ॐ ह्रीं ढाई द्वीप सम्बन्धी सुदर्शन, विजय, अचल, मन्दिर विद्युन्माली पंचमेरु सम्बन्धी अस्सी जिन चैत्यालयस्थ जिन विम्बेभ्यो पूर्णाघम् नि ।
पंचमेरु जिन धाम की महिमा अगम अपार । पुष्पांजलि व्रत जो करें हो जायें भव पार ।।
५ इत्याशीर्वादः 8 ॐ ह्रीं श्री पंचमेरु जिन चैत्यालयेभ्यो नम.
-: :
श्री नन्दीश्वर द्वीप पूजन अष्टम द्वीप श्री नन्दीश्वर आगम में वर्णित पावन । चार दिशा में तेरह तेरह जिन चैत्यालय हैं बावन ॥ एक एक में बिम्ब एक सौ पाठ रतनमय है अति भव्य । प्रातिहार्य हैं प्रष्ट मनोहर पाठ पाठ हैं मङ्गल द्रव्य ॥
जाप्य
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३८]
जन पूजांजलि
आत्म भ्रान्ति के महारोग की औषधि है यथार्थ श्रद्धान । सम्यक् दर्शन के बिन होता कभी न जीवों का कल्याण ॥
पाँच सहस्र अरु छः सौ सोलह प्रतिमानों को करूं प्रणाम । धनुष पांच सो पद्मासन अरिहन्त देव मुद्रा अभिराम ॥ अष्टान्हिका पर्व में इन्द्रादिक सुर जा करते पूजन । भाव सहित जिन प्रतिमा दर्शन से होता सम्यक् दर्शन ॥
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्वि पंवाशज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमा अत्र अवतर अवतह संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वोपे द्वि पच.ज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमा अत्र निष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्री नन्दोश्वर द्वीपे द्वि पंचाशज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमा अत्र मम् सनिहितो त्रव भव बपट् । समकित जल को पावन धारा निज उर अन्तर में लाऊँ। मिथ्या भ्रम को धूल हटाऊ निज स्वरूप को चमकाऊँ ॥ नन्दीश्वर के बावन जिन चैत्यालय बन्दू हर्षाऊ । अष्टम द्वीप मनोरम जिन प्रतिमायें पूजू सुख पाऊँ ।
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे पूर्व पश्चिमोत्तर दक्षिण दिशासुद्वि पंचाश जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीनि स्वाहा । क्षमा भाव का शुचिमय चन्दन उर अन्तर में भर लाऊँ। क्रोध कषाय नष्ट करके मैं शान्ति सिन्धु प्रभु बन जाऊँ नन्दी० ___ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्वि पंचाश जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो भवताप विनाशनाय चन्दनम् नि० स्वाहा । मार्दव भाव परम उपकारी भाव पूर्ण प्रक्षत लाऊं। मान, कषाय नष्ट करके मैं शुद्धातम के गुण गाऊं ॥ नन्दी०
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वी द्विपे पंचाशज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि. स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि
तत्वज्ञान पूर्वक निजात्मा का यथार्थ श्रद्धान करो । तत्वज्ञान कर महामोक्ष मंगल पथ पर अभियान करो ||
[३६
शुद्ध आर्जव भाव पुष्ष से सजा हृदय को मैं श्राऊ । सर्वनाश माया कषाय का करू सरलता को पाऊँ ॥ नन्दी०
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीप द्वि पंवाशज्जिनालयस्य जिन प्रतिमाभ्यो कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि० स्वाह् । । सत्य, शौच मय भाव भक्ति नैवेद्य हृदय में भर लाऊँ । लोभ कषाय नाश करने को सन्तोषामृत पी जाऊ ॥ नन्दी ० ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीप द्वि पंच शज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि० स्वाहा । द्रव्य भाव संयम तप ज्योति जगा आतम में रम जाऊँ । मैं अनादि प्रज्ञान नाश कर सम्यक् ज्ञान रत्न पाऊँ ॥ नन्दी ० ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीप द्वि पंचाशञ्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि० स्वाहा । त्याग भाव आकिंचन पाऊ शुद्ध स्वभाव धूप लाऊँ । पर विभाव परणति को क्षय कर निज पररगति वैभव पाऊँ ॥ नन्दी ० ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीप द्वि पंचाशज्जिनालयश्थ जिन प्रतिमाभ्यो अष्ट कर्म विध्वंसनाय धूपम् नि० स्वाहा । ब्रह्मचर्य का फल पाने को रत्नत्रय पथ पर श्राऊँ । निज स्वरूप में चर्या करके महा मोक्ष फल को पाऊँ ॥ नन्दी ० ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीप द्वि पंचाशज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यां मोक्ष फल प्राप्तये फलम् fTo ० स्वाहा । संबर और निर्जरा द्वारा कर्म रहित मैं हो जाऊँ ॥ आश्रव बंध नाश कर स्वामी मैं श्रनधं नन्दीश्वर के बावन जिन चैत्यालय भ्रष्टम द्वीप मनोरम जिन प्रतिमायें पूजूं सुख
पदवी पाऊँ ॥
बन्दू
हर्षाऊँ ।
पाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे पूर्व पश्चिमोत्तर दश्चिमोत्तर दक्षिण दिशा द्वि पंचाशज्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्धम् नि० ।
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जन पूजांजलि एक बार भी निज आतम का वैभव देख नहीं पाया। इसीलिए नो भव अटवी में भ्रम भ्रम कर अति सुख पाया ॥
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जयमाला x मध्य लोक में एक लाख योजन का जम्बू द्वीप प्रथम । द्वीप धातको खण्ड दूसरा तीजा पुष्करवर अनुपम । चौथा द्वीप वारुणीवर है द्वीप क्षीरवर है पंचम । षष्टम् घृतवर द्वीप मनोहर द्वीप इक्षुवर है सप्तम ॥ अष्टम द्वीप श्री नन्दीश्वर अद्वितीय शोभा धारी। योजन कोटि एक सौ बेसठ लख चौरासी विस्तारी ॥ पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशि में हैं अंजन गिरि चार। इनके भव्य शिखर पर जिन चैत्यालय चारों हैं सुखकार ॥ चहुँ दिशि चार चार वापी हैं लाख लाख योजन जलमय । इनमें सोलह दधि मुख पर्वत जिन पर सोलह चैत्यालय ॥ सोलह वापी के दो कोणों पर इक इक रतिकर पर्वत । इन पर हैं बत्तीस जिनालय जिनकी है शोभा शाश्वत ॥ कृष्ण वर्ण अञ्जन गिरि चौरासी सहस्त्र योजन ऊँचे । श्वेत वर्ण के दधि मुख पर्वत दस सहस्र योजन ऊंचे ॥ लाल वर्ण के रतिकर पर्वत एक सहस्त्र योजन ऊंचे। सभी ढोल सम गोल मनोहर पर्वत हैं सुन्दर ऊँचे ॥ चारों दिशि में महा मनोरम कुल जिन चैत्यालय बावन । सभी प्रकृत्रिम अति विशाल हैं उन्नत परम पूज्य पावन ॥ जिन भवनों का एक शतक योजन लम्बाई का पाकार । अर्ध शतक चौड़ाई पचहत्तर योजन ऊंचा विस्तार ॥ !सठ बन की सुषमा से शोभित है अनुपम नन्दीश्वर । है अशोक सप्तछद चम्पक आम्र नाम के बन सुन्दर ।
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जैन पूजांजलि
प्राण जांय पर धर्म न जाए यह जिनकुल की रीत है। जिन आज्ञा अनुसार चले जो उसे धर्म से प्रीत है।
इन सब में अवतंस प्रादि रहते हैं चौंसठ देव प्रबल । गाते नन्दीश्वर को महिमा अरिहंतों का यश उज्ज्वल ॥ देव देवियाँ नृत्य वाद्य गीतों से करते जिन पूजन । जय ध्वनि से आकाश गजाते थिरक थिरक करते नर्तन ॥ कार्तिक फागुन अरु अषाढ़ में इन्द्रादिक सुर पाते हैं। अन्तिम आठ दिवस पूजन कर मन में अति हर्षाते हैं । दो दो पहर एक इक दिशि में पाठ पहर करते पूजन । धन्य धन्य नन्दीश्वर रचना धन्य धन्य पूजन अर्चन ॥ ढाई द्वीप तक मनुज क्षेत्र है पागे होता नहीं गमन । ढाई द्वीप से आगे तो जा सकते हैं केवल सुरगण ॥ शक्तिहीन हम इसीलिये करते हैं यहीं भाव पूजन । नन्दीश्वर की सब प्रतिमानों को है भाव सहित वन्दन । भव भव के अघ मिटें हमारे प्रात्म प्रतीति जगे मन में। शुद्ध भाव अभिवृद्धि सहज हो समकित पायें जीवन में। यही विनय है यही प्रार्थना यही भावना है भगवन । नन्दीश्वर की पूजन करके करें प्रात्मा ही का ध्यान ॥ आत्म ध्यान की महाशक्ति से वीतराग अरिहन्त बनें। घाति अघाति कर्म सब भयकर मुक्ति कंत भगवन्त बनें।
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशासु द्वि पंचाग्जिनालयस्थ जिन प्रतिमाभ्यो पूर्णाय॑म् ।
भाव सहित नन्दीश्वर को पूजन से होता है कल्याण । स्वर्ग मोक्ष पद मिल जाता है धर्म ध्यान से सहज महान ।।
xइत्याशीर्वादः ४ जाप्य- ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर संज्ञाय नमः
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४२]
जैन पूजांजलि
शुद्धातम के अवलोकन से होती प्रकट शुद्ध पर्याय । द्रव्य दृष्टि जब होती है तो होता भेद ज्ञान सुखदाय ॥
श्री दशलक्षण धर्म पजन उत्तम क्षमा प्रात्मा का गुण उत्तम मार्दव विनय स्वरूप । उत्तम प्रार्जव माया नाशक उत्तम शौच लोभहर भूप ॥ उतम सत्य स्वभाव ज्ञानमय उत्तम संयम संवर रूप । उत्तम तप निर्जरा कर्म को उत्तम त्याग स्वरूप अनूप ॥ उत्तम प्राकिंचन विरागमय उत्तम ब्रह्मचर्य चिद्रूप । धन्य धन्य दश धर्म परम पद दाता सुखमय मोक्ष स्वरूप ॥
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य शौच, संयम, तप, त्याग आकिंचन ब्रह्मचर्य दशलक्षण धर्म अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्म अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्म अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । जल स्वभाव शीतल निर्मल पोकर भी प्यास न बुझ पाई। जन्म मरण का चक्र मिटाने आज धर्म की सुधि पाई ॥ उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव शौच सत्य संघम तप त्याग । आकिंचन ब्रह्मचर्य धर्म के दशलक्षण से हो अनुराग ॥ ___ॐ ह्रीं उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्माय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा । वाह निकन्दन चन्दन पाकर भी तो दाह न मिट पाई। राग आग को ज्वाल बुझाने आज धर्म की सुधि आई ॥उत्तम०
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्माय संसारताप विनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा। शुभ्र अखन्डित तन्दुल पाकर भी निज रुचि न सुहा पाई। अजर अमर प्रक्षय पद पाने प्राजधर्म की सुधि पाई ॥ उत्तम
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्माय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि ।
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जैन पूजांजलि
[४३
आत्म भान के बिना न होता है सम्यक् व्यवहार भी। आत्म ज्ञान के बिना न होता निज आतम से प्यार भी।
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अगणित पुष्प सुवासित पाकर काम व्याधि ना मिट पाई। अब कन्दपं दपं हरने को आज धर्म की सुधि पाई ॥ उत्तम० __ॐ ह्रीं उत्तम क्षमादि दश धर्माय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि । जड़ की रुचि के कारण अब तक निज को तृप्ति न हो पाई। सहज तृप्त चेतन पद पाने आज धर्म की सुधि पाई ॥ उत्तम __ ॐ ह्रीं उत्तम क्षमादि दश धर्माय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्य नि० । मिथ्या भ्रम की चकाचौंध में दृष्टि शुद्ध ना हो पाई। मोह तिमिर का अन्त कराने प्राज धर्म की सुधि आई ॥ उत्तम०
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमादि दश धर्मागाय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि० । आत रौद्र ध्यानों में रहकर धर्म ध्यान छवि ना भाई। अष्ट कर्म विध्वंस कराने आज धर्म की सुधि आई ॥ उत्तम
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमादि दश धर्मागाय अष्ट कर्म विध्वंसनाय धूरम् नि० । राग हेय परिणति फल पाकर निज परिणति ना मिल पाई। फल निर्वाण प्राप्त करने को आज धर्म की सुधि प्राई ॥ उत्तम०
ॐ ह्रीं उत्तम क्षमादि दश धर्मा गाय मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि० । चौरासी के क्रूर चक्र में उलझा शान्ति न मिल पाई। निज अमरत्व प्राप्त करने को प्राज धर्म की सुधि आई ॥ उत्तम क्षमा मार्दव आजव शौच सत्य संयम तप त्याग । आकिंचन्य ब्रह्मचर्य धर्म के दशलक्षण से हो अनुराग ॥ ॐ ह्रीं उत्तम क्षमादि दश धर्मा गाय अनर्घ्य पद प्राप्तये अर्घ्यम् नि ।
उत्तम क्षमा उत्तम क्षमा धर्म है सुख का सागर तीन लोक में सार। जन्म मरण दुख का अभाव कर शीघ्र नाश करता संसार।
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४]
जैन पूजांजलि
रागादिक हिंसादि भाव हैं यह दृढ़ निश्चय लो उरधार ।
रागादिल भव दुख के कारण रागादिक से है संसार । क्रोध कषाय विनाशक दुर्गति नाशक मुनियों द्वारा पूज्य । व्रत संयम को सफल बनाता सुगति प्रदाता है अति पूज्य ॥ जहां क्षमा है वहीं धर्म है स्वपर दया का भूल महान । जय जय उत्तम क्षमा धर्म की जो है जग में श्रेष्ठ प्रधान ॥ ॐ ह्रीं उत्तम क्षमा धर्मा गाय अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा ।
उत्तम मार्दव उत्तम मार्दव धर्म ज्ञानमय वसु मद रहित परम सुखकार । मान कषाय नष्ट करता है विनय गुणों का है भण्डार । विनय बिना तत्वों का हो सकता न कभी सम्यक् श्रद्धान। दर्शन ज्ञान चरित्र विनय तप बिना न होता सम्यक् ज्ञान । जहां मार्दव वहीं धर्म है वही मोक्ष नगरी का द्वार । उत्तम मार्दव धर्म हमारा विनय भाव की जय-जयकार । ॐ ह्रीं उत्तम मार्दव धर्मा गाय अर्घम् नि० स्वाहा ।
उत्तम आर्जव उत्तम आर्जव धर्म कुटिलता से विरहित ऋजुता से पूर्ण । निज आतम का परम मित्र है करता माया शल्य विचूर्ण ॥ लेश मात्र भी मायाचारी कुगति प्रदायक अति दुखकार । सरल भाव चेतन गुणधारी टंकोत्कीर्ण महा सुखकार ॥ शिवमय शाश्वत मोक्ष प्रदाता मङ्गलमय अनमोल परम । उत्तम प्रार्जव धर्म आत्म का अभय रूप निश्चल अनुपम ॥ ॐ ह्रीं उत्तम आर्जव धर्मा गाय अर्घ्यम् नि० ।
उत्तम शौच उत्तम शौच धर्म सुखकारी मन वच काया करता युद्ध । लोभ कषाय नाश कर देता समकित होता परम विशुद्ध।
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जैन पूजांजलि
[४५ सकल जगत के नो पदार्थ में सारभूत है आत्मा ।
अलख अरूपी अमित तेजमय ज्ञानभूत है आत्मा ॥ ऋद्धि सिद्धि का लोभ न किंचित इसके कारण हो पाता। जो सन्तोषामृत पीता है वही आत्मा को ध्याता ॥ शौच धर्म पावन मङ्गलमय से हो जाता है निर्वाण । उत्तम शौच धर्म ही जग में करता है सबका कल्याण ॥ ॐ ह्रीं उत्तम शौच धर्मा गाय अध्यम् नि ।
उत्तम सत्य उत्तम सत्य धर्म हितकारी निज स्वभाव शीतल पावन । वचन गुप्ति के धारी मुनिवर हो पाते हैं मुक्ति सदन ॥ सब धर्मों में यह प्रधान है भव तम नाशक सूर्य समान । सुगति प्रदायक भव सागर से पार उतरने को जलयान ॥ सत्य धर्म से प्रणुवत और महावत होते है निर्दोष ॥ जय जय उत्तम सत्य धर्म त्रिभुवन में गूज रहा जयघोष ॥ ॐहीं उत्तम सत्य धर्मागाय अय॑म् नि०।
उत्तम संयम उत्तम संयम तीन लोक में दुर्लभ सहज मनुज गति में। दो क्षण को पाने की क्षमता देवों में ना सुरपति में ॥ पंचेद्रिय मन वश करना बस स्थावर की रक्षा करना । अनुकम्पा आस्तिक्य प्रशम संवेगधार मुनिपद धरना ॥ धन्य धन्य संयम की महिमा तीर्थङ्कर तक अपनाते । उत्तम संयम धर्म जयति जय हम पूजन कर हर्षात ॥ ॐ ह्रीं उत्तम संयम धर्मा गाय नमः अर्घ्यम् नि०।
उत्तम तप उत्तम तप है धर्म परम पावन स्वरूप का मनन जहाँ । यही सुतप है अष्ट कर्म की होती है निर्जरा यहाँ ।
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४६]
जैन पूजांजलि
प्रथम अनादिकाल के मिथ्या भ्रम को ध्वंस करो । पीछे तुम रागादिक भाव का गढ़ विध्वंस करो ॥
पंचेन्द्रिय का दमन सर्व इच्छात्रों का निरोध करना । सम्यक् तप धर निज स्वभाव से भाव शुभाशुभ को हरना ॥ धन्य धन्य बाह्यान्तर तप द्वादश विधि धन्य धन्य मुनिराज । उत्तम तप जो धारण करते हो जाते हैं श्री जिनराज ॥ ॐ ह्रीं उत्तम तप धमांगाय नमः अर्ध्यम् नि० ।
उत्तम त्याग
उत्तम त्याग धर्म है अनुपम पर पदार्थ का निश्चय त्याग । अभय शास्त्र प्रौषधि अहार है चारों दान सरल शुभ राग ॥ सरल भाव से प्रेमपूर्वक करते हैं जो चारों दान । एक दिवस गृह त्याग साधु हो करते हैं निज का कल्याण ॥ होदान की महिमा तीर्थङ्कर प्रभु तक लेते हैं आहार । उत्तम त्याग धर्म की जय जय जो है स्वर्ग मोक्ष दातार ॥ ॐ ह्रीं उत्तम त्याग धर्मा गाय नमः अर्ध्यम् नि० । उत्तम आकिचन
से दूर ।
उत्तम प्राकिंचन है धर्म स्वरूप ममत्व भाव चौदह अन्तरंग दश बाहर के हैं जहां परिग्रह चूर ॥ तृष्णाओं को जीता पर द्रब्यों से राग नहीं किंचित | सर्व परिग्रह त्याग मुनीश्वर विचरें वन में आत्माश्रित ॥ परम ज्ञानमय परम ध्यानमय सिद्ध स्वपद का दाता है । उत्तम प्राकिंचन व्रत जग में श्रेष्ठ धर्म विख्याता है ॥ ॐ ह्रीं उत्तम आकिंचन धर्मागाय नमः अर्घ्यम् नि० । उत्तम ब्रम्हचर्य
उत्तम ब्रह्मचर्य दुर्धर व्रत है सर्वोत्कृष्ट जग में । काम वासना नष्ट किये बिन नहीं सफलता शिवमग में ॥
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जन पूजांजलि
[४७
अनतानुबंधो के क्षय बिन कैसा व्रत संयम । सम कत के विन कसे जा सकता है मिथ्यातम ।।
विषय भोग अभिलाषा तज जो प्रात्म ध्यान में रम जाते। शोल स्वभाव सजा दुर्मतिहर काम शत्रु पर जय पाते ॥ परम शोल की पवित्र महिमा ऋषि गणधर वर्णन करते । उत्तम ब्रह्मचर्य के धारी हो भव सागर से तिरते ॥ ॐ ह्रीं ब्रह्मचर्य धमां गाय नमः अर्घ्यम नि० ।
8 जयमाला 8 उत्तम क्षमा धर्म को धारूं क्रोध कषाय विनाश करूं। पर पदार्थ को इष्ट अनिष्ट न मानूं प्रात्म प्रकाश करूं। उत्तम मादव धर्म ग्रहण कर विनय स्वरूप विकास करूं। पर कर्तृत्व मानता त्यागू अहङ्कार का नाश करूं ॥ उत्तम आर्जव धर्मधार माया कषाय संहार करू । कपट भाव से रहित शुद्ध प्रातम का सदा विचार करूं॥ उतम शौच धर्म धारण कर लोभ कषाय विनष्ट करूं। शुचिमय चेतन से अशुद्ध ये चार घातिया कर्म हरू । उतम सत्य धर्म से निर्मल निज स्वरूप को सत्य करूं। हित मित प्रिय सच बोलू नित निज परिणित के सङ्ग नृत्य करूं। उतम संयम धर्म सभी जीवों के प्रति करुणा धार। समिति गुप्ति व्रत पालन करके निज प्रातम गुण विस्तारूं ॥ उतम तप धर शुक्ल ध्यान से प्राठों कर्मों को जारू। अन्तरङ्ग बहिरङ्ग तपों से निज प्रातम को उजियारू॥ उतम त्याग पांच पापों का सर्व देश में त्याग करू। योग्य पात्र को योग्य दान दे उर में सहज विराग भरू।
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जैन पूजांजलि
है मंयोग शरीर आत्मा का पर दोनों भिन्न हैं।
एक क्षेत्र अवगाही रहकर निज से सदा अभिन्न हैं। उतम आकिंचन रागादिक भावों का परिहार कह। सर्व परिग्रह से विमुक्त हो मुनिपद अङ्गीकार करू । उतम ब्रह्मचर्य उर धारूं आत्म ब्रह्म में लीन रहूं। कामवाण विध्वंस करूं मैं शील स्वभावाधीन रहे। दशलक्षण व्रत की महिमा का नित प्रति जय जय गान कह। दश धर्मो का पालन करके महामोक्ष निर्वाण वरू॥
ॐ हीं उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य दशधर्मभ्यो पूर्णाघम निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री दशलक्षण धर्म की महिमा अगम अपार । जो भी इनको धारते वे होते भव पार ॥
इत्याशीर्वादः 8 जाप्य-ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा मार्दवार्जव शौच सत्य संयम तपस्त्यागाकिचन्य
ब्रह्मचर्य धाङ्गय नमः ।
श्री रत्नत्रय धर्म पूजन जय जय सम्पदर्शन पावन मिथ्या भ्रमनाशक श्रद्धान । जय जय सम्यक्ज्ञान तिमिर हर जय जय वीतराग विज्ञान । जय जय सम्यक्चरित सु निर्मल मोह क्षोभ हर महिमावान। अनुपम रत्नत्रय धारण कर मोक्ष मार्ग पर करू प्रयाण ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्म अत्र अवतर अतवर संवौषट् । ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्म अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम ।
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्म अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । सम्यक् सरित सलिल जल द्वारा मिथ्या भ्रम प्रभु दूर हटाव । जन्म मरण का क्षय कर डालूं साम्य भाव जल मुझे पिलाव ।।
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जैन पूजांजलि
[४६ कष्टों से भरपूर सर्वथा यह संसार असार है।
निज स्वभाव के द्वारा मिलता शिव सुख अपरंपार है । दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय की पूजन करके राग द्वेष का करूं प्रभाव ॥ ___ ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्याय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् नि० । शुभ भावों का चन्दन घिस-२ निज से किया सदा अलगाव । भव ज्वाला शीतल हो जाये ऐसी प्रात्म प्रतीत जगाव ॥दर्शन __ ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्म संसारताय विनाशनाय चन्दनम् नि० । भव समुद्र की भंवरों में फंस टूटो अब तक मेरी नाव । पुण्योदय से तुमसा नाविक पाया मुझको पार लगाव ॥ दर्शन० ___ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्माय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि० स्वाहा । काम क्रोध मद मोह लोभ से मोहित हो करता पर भाव । दृष्टि बदल जाये तो सृष्टि बदल जाये यह सुमति जगाव ॥दर्शन० ___ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्माय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि० म्वाहा । पुण्य भाव को रुचि में रहता इच्छाओं का सदा कुभाव । क्षुधा रोग हरने को केवल निज की रुचि ही श्रेष्ठ उपाव ॥दर्शन०
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्माय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि० । जान ज्योति बिन अन्धकार में किये अनेकों विविध विभाव । आत्म ज्ञान को दिव्य विभा से मोह तिमिर का करू अभाव ॥दर्शन
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्माय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि० । घाति कर्म ज्ञानावरणादिक निज स्वरूप घातक दुर्भाव । ध्र व स्वभावमय शुद्ध दृष्टि दो प्रष्ट कर्म से मुझे बचाव ॥दर्शन ___ ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्माय अष्ट कर्म विध्वसनाय घूपम् नि स्वाहा । निज श्रद्धान ज्ञान चारित मय निज परिणति से पा निज ठाँव । पहामोक्ष फल देने वाले धर्म वृक्ष की पाऊँ छाँव ॥ दर्शन
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्माय मोक्षफल प्राप्तये फलम् नि० स्वाहा ।
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५०]
जैन पूजांजलि भावलिंग विन द्रलिंग का तनिक नहीं कुछ मूल्य है ।
अविरत चौथा गुणस्थान भी शिव पथ में बहु मूल्य है ।। दुर्लभ नर तन फिर पाया है चूक न जाऊँ अन्तिम दाँव । निज अनर्घ पद पाकर नाश करूंगा मैं अनादि का घाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय को पूजन करके राग द्वेष का करू प्रभाव ॥ ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्माय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि० स्वाहा ।
सम्यक दर्शन आत्म तत्व को प्रतीति निश्चय सप्त तत्व श्रद्धा व्यवहार । सम्यक् दर्शन से हो जाते भव्य भव जीव सागर पार ॥ विपरीता भिनिवेश रहित अधिगमज निसर्गज समकित सार। औपशमिक क्षायिक क्षयोपशम होता है यह तीन प्रकार ॥ पार्ष, मार्ग, बीज, उपदेश, सूत्र, संक्षेप, अर्थ, विस्तार । समकित है अवगाढ़ और परमावगाढ़ दश भेद प्रकार ॥ जिन वरिणत तत्वों में शङ्का लेश नहीं निःशङ्कित अङ्ग। सुर पद या लौकिक सुख बांछा लेश नहीं निःकांक्षित अङ्ग॥ प्रशुचि पदार्थों में न ग्लानि हो शुचिमय निविचिकित्सा प्रङ्ग। देव शास्त्र गुरु धर्मात्माओं में रुचि अमढ़ दृष्टि अङ्ग ॥ पर दोषों को ढकना स्वगुण वृद्धि करना उपगूहन अङ्ग । धर्म मार्ग से विचलित को थिर रखना स्थितिकरण सुप्रङ्ग। साधर्मों में गौ बछड़े सम पूर्ण प्रीति है वात्सल अङ्ग । जिन पूजा तप दया दान मन से करना प्रभावना प्रङ्ग । पाठ अङ्ग पालन से होता है सम्यक् दर्शन निर्मल । सम्यक् ज्ञान चरित्र उसी के कारण होता है उज्ज्वल ॥ शङ्काकांक्षा विचिकित्सा अरु मूढ़ दृष्टि अन उपगूहन । अस्थितिकरण प्रवात्सल्य अप्रभावना बसु दोष सघन ॥
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जैन पूजाँजलि
दष्टि अपेक्षा से तो सम्यक् दृष्टि सदा ही मुक्त है । शुद्ध त्रिकाली ध्रुव स्वरूप निज गुण अनंत से युक्त है ॥
[ ५१
श्रनायतन ।
कुगुरु कुदेव कुशास्त्र और इनके सेवक छः देव मूढ़ता गुरू मूढ़ता लोक मूढ़ता तीन जघन ॥ जाति रूपकुल ऋद्धि तपस्या पूजा श्रौर ज्ञान मद प्राठ । मूल दोष सम्यक् दर्शन के यह पच्चीस तजों मद श्राठ ॥ जय जय सम्यक् दर्शन प्राठों प्रङ्ग सहित अनुपम सुखकार । यही धर्म का सुदृढ़ मूल है इसकी महिमा अपरम्पार ॥
ॐ ह्रीं अप्टांग सम्यक् दर्शनाय अनघ पद प्राप्तये अर्धमें नि० स्वाहा । सम्यक ज्ञान निज अभेद का ज्ञान सुनिश्चय प्राठ भेद सब हैं व्यवहार । सम्यक् ज्ञान परम हितकारी शिव सुख दाता मङ्गलकार ॥ अक्षर पद वाक्यों का शुद्धोच्चाररण है व्यञ्जन प्राचार | शब्दों के यथाथं अर्थ का अवधारण है प्रर्थाचार || शब्द अर्थ दोनों का सम्यक् जान पना है उभयाचार | योग्य काल में जिन श्रुत का स्वाध्याय कहाता कालाचार ॥ नम्र रूप रह लेश न उद्धत होना ही है विनयाचार | सदा ज्ञान का प्राराधन, स्मरण सहित उपध्यानाचार ॥ शास्त्रों के पाठी अरु श्रुत का आदर है बहु मानाचार | नहीं छुपाना शास्त्र और गुरु नाम अनिन्हव है प्राचार ॥ आठ अङ्ग हैं यही ज्ञान के इनसे दृढ़ हो सम्यक् ज्ञान । पाँच भेद हैं मति श्रुत श्रवधि मन पर्यय अरु केवल ज्ञान ॥ मति होता है इन्द्रिय मन से तीन शतक चौरासी भेद । के प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं चउ श्रनुयोग सु भेद ॥ द्वादशांग चौदह पूरव परिकर्म अक्षर और अनक्षरात्मक भेद अनेकों हैं
श्रुत
चूलिका
प्रकीर्णक ।
सम्यक् ॥
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५२]
जन पूर्जाजनि
केवल निज परमात्म तत्त्व की श्रद्धा ही कर्तव्य है।
आत्म तत्व श्रद्धानी का ही तो उज्जवल भवितव्य है ।। अवधि जान त्रय देशावधि परमावधि सविधि जानों। भव प्रत्यय के तीन और गुण प्रत्यय के छह पहिचानों ॥ मनःपर्यय ऋजुमति विपुलमति उपचार अपेक्षा से जानों। नय प्रमाण से जान ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष पृथक् मानों॥ जय जय सम्यक् ज्ञान अष्ट अङ्गों से युक्त मोक्ष सुखकार। तीन लोक में विमल ज्ञान को गूज रही है जय जयकार । ___ॐ ह्रीं सम्यक् ज्ञानाय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि० स्वाहा।
सम्यक चारित्र निज स्वरूप में रमण सुनिश्चय दो प्रकार चारित व्यवहार। श्रावक त्रेपन क्रिया साधु का तेरह विधि चारित्र अपार ।। पंच उदम्बर त्रय मकार तज, जीव दया निशि भोजन त्याग। देव वन्दना जल गालन निशि भोजी त्यागी श्रावक ज्ञान । दर्शन ज्ञान चरित्रमयो ये वेपन क्रिया सरल पहिचान । पाक्षिक नैष्ठिक साधक तीनों, श्रावक के हैं भेद प्रधान ॥ परम अहिंसा षट कायक के जीवों की रक्षा करना। परम सत्य है हित मित प्रिय वच सरल सत्य उर में धरना॥ परम प्रचौर्य, बिना पूछे तृण तक भी नहीं ग्रहण करना । पंच महावत यही साधु के पूर्ण देश पालन करना ॥ ईर्या समिति सु प्रासुक भू पर चार हाथ मू लख चलना। भाषा समिति चार विकथाओं से विहीन भाषण करना । श्रेष्ठ ऐषणा समिति अनुद्देषिक माहार शुद्धि करना । है आदान निक्षेपण संयम के उपकरण देख धरना ॥ प्रतिष्ठापना समिति देह के मल मू देख त्याग करना । पंच समिति पालन कर अपने राग द्वेष को क्षय करना ॥
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जैन पूजांजलि
[५३
वस्तु त्रिकाली निवारण निर्दोष सिद्ध सम शद्ध है।
द्रव्य दृष्टि बनने वाला ही होता परम बिशुद्ध है ।। मनोगुप्ति है सब विभाव भावों का हो मन से परिहार । वचन गुप्ति है आत्म चितवन ध्यान अध्ययन मौन संवार ।। काय गुप्ति है काय चेष्टा रहित भाव मय कायोत्सर्ग। तीन गुप्ति धर साधु मुनीश्वर पाते हैं शिवमय अपवर्ग ॥ षट आवश्यक द्वादश तप पंचेन्द्रिय का निरोध अनुपम । पंचाचार विनय पाराधन द्वादश व्रत प्रादिक सुखतम ॥ अट्ठाईस मूल गुण धारण सप्त भयों से रहना दूर । निज स्वभाव प्राश्रय से करना पर विभाव को चकनाचूर ॥ निरतिचार तेरह प्रकार का है चारित्र महान् प्रधान । इसके पालन से होता है सिद्ध स्वपद पावन निर्वाण ॥ श्रेष्ठ धर्म है श्रेष्ठ मार्ग है श्रीष्ठ साधु पद शिव सुखकार। सम्बक चारित बिना न कोई हो सकता भव सागर पार ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदश विधि सम्यक् चारित्राय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि० ।
जयमाला प्रष्ट अङ्गयुत निर्मल सम्यक् दर्शन मैं धारण करलूँ । आठ अङ्गयुत निर्मल सम्यक् ज्ञान आत्मा में वरलूं ॥ तेरह विधि सम्यक् चारित के मुक्ति भवन में पग धरलूँ। श्री अरहंत सिद्ध पद पाऊँ सादि अनन्त सौख्य भरलं ॥ निज स्वभाव का साधन लेकर मोक्ष मार्ग पर प्रा जाऊं। शुद्ध भाव धर भाव शुभाशुभ परिणामों पर जय पाऊं ॥ एक शुद्ध निज चेतन शाश्वत दर्शन ज्ञान स्वरूपी जान । ध्रुब टंकोत्कीर्ण चिन्मय चित्चमत्कार चिद्रूपी मान ॥ इसका ही प्राश्रय लेकर मैं सदा इसी के गुण गाऊँ। द्रव्य दृष्टि बन निज स्वरूप को महिमा से शिव सुख पाऊँ।
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५४ ]
जैन पूजांजलि
जो चारित्र भ्रष्ट है वह तो एक दिवस तर सकता है । पर श्रद्धा से भ्रष्ट कभी भव पार नहीं कर सकता है |
रत्नत्रय को वन्दन करके शुद्धात्म का ध्यान करूं । सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित से परम स्वपद निर्वाण वरूं ॥ ॐ ह्रीं सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र मयीं रत्नत्राय पूर्णाम् निर्वपामीति स्वाहा ।
रत्नत्रय व्रत श्रेष्ठ की महिमा अगम जो व्रत को धारण करे हो जाये भव ॥ इत्याशीर्वादः ॥
जाण्य
अपार ।
पार ॥
ॐ ह्रीं सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्रभ्यो नमः |
¤
श्री वर्तमान चौबीसी पूजन
भरत क्षेत्र को वर्तमान जिन चोबीसी को करूं नमन । वृषभादिक श्री वीर जिनेश्वर के पद पंकज में वन्दन ॥ भक्ति भाव से नमस्कार कर विनय सहित करता पूजन । भव सागर से पार करो प्रभु यही प्रार्थना है भगवन ||
ॐ ह्रीं श्री वृपभादि महावीर पर्यन्त चतुविशति जिन समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्री वृपभादि महावीर पर्यन्त चतुविशति जिन समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि महावीर पर्यन्त चतुविंशति जिन समूह अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् ।
श्रात्म ज्ञान वैभव के जल से यह भव तृषा बुझाऊँगा । जन्म जरा हर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति
जगाऊंगा ॥
वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पर द्रव्यों से दृष्टि हटाकर अपनी ओर
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेम्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
पखारूंगा ।
निहारूंगा ॥
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जैन पूजांजलि
चौरासी के चक्कर से बचना है तो निज ध्यान करो। नव तत्वों की श्रद्धापूर्वक स्वपर भेद विज्ञान करो।।
आत्म ज्ञान वैभव के चन्दन से भवताप नशाऊँगा। भव बाधा हर चिदानन्द चिन्मय को ज्योति जगाऊँगा ॥ वृष०
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरातेभ्यो संसारताप विनाशनाय चन्दनम् नि । आत्म ज्ञान वैभव के अक्षत से अभय पद पाऊंगा। भव समुद्र तिर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जगाऊंगा ॥ वष० ___ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि० स्वाहा । आत्म ज्ञान वैभव के पुष्पों से मैं काम नशाऊँगा । शीलोदधि पा चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जगाऊँगा ॥ वृष०
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि । आत्म ज्ञान वैभव के चरु ले क्षुधा व्याधि हर पाऊंगा। पूर्ण तृप्ति पा चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जगाऊँगा ॥ वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पखारूंगा। पर द्रव्यों से दृष्टि हटाकर अपनी ओर निहारूंगा ।। ___ ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि । आत्म ज्ञान वैभव दीपक से भेद ज्ञान प्रगटाऊंगा । मोह तिमिर हर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जगाऊँगा ॥ वृष० ___ ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि । आत्म ज्ञान वैभव की निज में शुचिमय धूप चढ़ाऊंगा। अष्ट कर्म हर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जगाऊंगा ॥ वृष०
ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीर तेभ्यो अष्ट कर्म विध्वसनाय धूपम् नि० । आत्म ज्ञान वैभव के फल से शुद्ध मोक्ष फल पाऊंगा। राग द्वेष हर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जगाऊँगा ॥ वृष. ___ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि० स्वाहा। प्रात्म ज्ञान वैभव का निर्मल अर्घ अपूर्व बनाऊँगा । पा अनर्घ पद चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जगाऊँगा ॥
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५६]
जैन पूजांजलि
भेदज्ञान के बिना न मिलता मिथ्या भ्रम का अंतरे । भेदज्ञान से सिद्ध हुए हैं जीव अनंतानंतरे ॥
वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पखारूगा । पर द्रव्यों से दृष्टि हटाकर अपनी पोर निहारूंगा। ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अय॑म् नि ।
जयमाला भव्य दिगम्बर जिन प्रतिमा नासाग्र दृष्टि निज ध्यानमयी। जिन दर्शन पूजन अघ नाशक भव भव में कल्याणमयी ॥ वृषभदेव के चरण पखालं मिथ्या तिमिर विनाश करू। अजित नाथ पद वन्दन करके पंच पाप मल नाश करूं॥ सम्भवजिन का दर्शन करके सम्यक दर्शन प्राप्त करूं। अभिनन्दन प्रभु पद अर्चन कर सम्यक् ज्ञान प्रकाश करू॥ सुमति नाथ का सुमिरण करके सम्यक् चारित हृदय धरूं। श्री पद्म प्रभु का पूजन कर रत्नत्रय का वरण करूं ॥ श्री सुपाश्वं को स्तुति करके मोह ममत्व प्रभाव करूं। चन्दा प्रभु के चरण चित्त धर चार कषाय कुभाव हरू। पुष्पदन्त के पद कमलों में बारम्बार प्रणाम करू । शीतल जिनका सुयश गान कर शाश्वत शीतल धाम बरूं। प्रभु श्रेयांस नाथ को बन्द श्रेयस पद की प्राप्ति करू । वास पूज्य के चरण पूज कर मैं अनादि को भ्रान्ति हरू। विमल जिनेश मोक्ष पद दाता पंच महाव्रत ग्रहण करूं। श्री अनन्त प्रभु के पद वन्दू पर परणति का हरण करूं ॥ धर्मनाथ पद मस्तक धर कर निज स्वरूप का ध्यान करूं। शान्तिनाथ को शान्त मूति लख परमशान्त रस पान करूं। कुन्थनाथ को नमस्कार कर शुद्ध स्वरूप प्रकाश करू । अरहनाथ प्रभु सर्वदोष हर अष्ट कर्म अरि नाश कह।
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जैन पूजांजलि
जीव स्वयं ही कर्म बांधता कर्म स्वयं फल देता है। जीव स्वयं पुरुषार्थ शक्ति से कर्म बंध हर लेता है।
मल्लिनाथ की महिमा गाऊँ मोह मल्ल को चूर करूं। मुनिसुव्रत को नित प्रति ध्याऊँ दोष अठारह दूर करूं ॥ नमि जिनेश को नमन करूं मैं निज परणति में रमण करूं। नेमिनाथ का नित्य ध्यान घर भाव-शुभाशुभ शमन करूं। पार्श्वनाथ प्रभु के चरणाम्बुज दर्शन कर भव भार हरू। महावीर के पथ पर चलकर मैं भव सागर पार करूं । चौबीसों तीर्थङ्कर प्रभु का भाव सहित गुणगान करू। तुम समान निज पद पाने को शुद्धातम का ध्यान करू॥ ॐ ह्रीं श्री वृषादि वीरांतेभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि० स्वाहा ।
श्री चौबीस जिनेश के चरण कमल उर धार । मन, वच, तन जो पूजते वे होते भव पार ॥
__ इत्याशीर्वादः ॐ ह्रीं श्री चतुर्विणति तीर्थङ्करेभ्यो नमः
जाप्य
श्री ऋषभदेव पूजन जय प्रादिनाथ जिनेन्द्र जय जय प्रथम जिन तीर्थङ्करम् । जय नाभि सुत मरुदेवि नन्दन ऋषभ प्रभु जगदीश्वरम् ॥ जय जयति त्रिभुवन तिलक चूडामणि वृषभ विश्वेश्वरम् । देवाधि देव जिनेश जय जय महाप्रभु परमेश्वरत ॥
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ट ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र अत्र मम मन्निहितो भव भव वषट् । समकित जल दो प्रभु आदि निर्मल भाव भाव भरू। दुख जन्म मरण मिट जाय जल से धार कह ॥
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५८]
जैन पूजांजलि
पुण्य मार्ग तो सदा बहिर्मुख धर्म मार्ग अंतर्मुख है।
पुण्यो का फल जगत भ्रमण दुख और धर्म फल शिव सुख है ।। जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता । तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। समकित चन्दन दो नाथ भव सन्ताप हरू । चरणों में मलय सुगन्ध हे प्रभु भेंट करूं ॥ जय ऋषभ०
ॐ ह्रीं श्री ऋपभदेव जिनेन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चन्दनम् नि । समकित तन्दुल की चाह मन में मोद भरे । अक्षत से पूजू देव प्रक्षय पद पद संवरे ॥ जय ऋषभ० ___ॐ ह्री श्री ऋपभदेव जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि। समकित के पुष्प सुरम्य दे दो हे स्वामी । यह काम भाव मिट जाय हे अन्तर्यामो ॥ जय ऋषभ० __ ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पमं नि० । समकित चर करो प्रदान मेरी भूख मिटे । भव भव की तृष्णा ज्वाल उर से दूर हटे ॥ जय ऋषभ. __ ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि । समकित दीपक को ज्योति मिथ्यातम भागे । देखू निज सहज स्वरूप निज परणति जागे ॥ जय ऋषभ० __ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि । समकित को धूप अनूप कर्म विनाश करे । निज ध्यान अग्नि के बीच आठों कर्म जरे ॥ जय ऋषभ०
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपम् नि० स्वाहा। समकित फल मोक्ष महान् पाऊं आदि प्रभो । हो जाऊ सिद्ध समान सुखमय ऋषभ विभो ॥ जय ऋषभ०
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि० स्वाहा ।
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जन पूजांजलि
[५६
राग आग में जल जल नूने कष्ट अनंत उठाए है।
भाव शुभाशुभ के बंधन में आंसू सदा बहाए हैं । वसु द्रव्य अर्घ जिनदेव चरणों में अपित । पाऊँ अनर्घ पद नाथ अविकल सुख गभित ॥ जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता । तुम सम हो जाता है स्वयं को जो ध्याता ॥ ___ॐ ह्रीं श्री ऋपभदेव लिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्तये अर्धम् नि० स्वाहा ।
श्री पंच कल्याणक शुभ आषाढ़ कृष्ण द्वितिया को मरुदेवी उर में आये । देवों ने छह मास पूर्व से रत्न प्रयोध्या बरसाये ॥ कर्म भूमि के प्रथम जिनेश्वर तज सरवार्थ सिद्धि प्राये। जय जय ऋषभनाथ तीर्थङ्कर तीन लोक ने सुख पाये ॥ ___ॐ ह्रीं आपाढ़ कृष्ण द्वितिया दिने गर्भ मङ्गल प्राप्ताये ऋपभदेव
जिनेन्द्राय अर्धम् नि० स्वाहा। चैत्र कृष्ण नवमी को राजा नाभिराय गृह जन्म लिया। इन्द्रादिक ने गिरि सुमेरु पर क्षीरोदधि अभिषेक किया । नरक त्रियं च सभी जीवों ने सुख अन्तमुहूर्त पाया । जय जय ऋषभनाथ तीर्थङ्कर जग में पूर्ण हर्ष छाया ॥ ॐ ह्रीं चैत्र कृष्ण नवमी दिने जन्म मङ्गल प्राप्ताये ऋपभदेव जिनेन्द्राय
अर्घम् नि० स्वाहा। चैत्र कृष्ण नवमी को ही वैराग्य भाव उर छाया था। लौकान्तिक सर इन्द्रादिक ने तप कल्यारण मनाया था ॥ पंच महाव्रत धारण करके पंच मुष्टि कच लोच किया। जय प्रभु ऋषभदेव तीर्थङ्कर तुमने मुनि पद धार लिया। ॐ ह्रीं चैत्र कृष्ण नवमी दिने तप मङ्गल प्राप्ताये ऋपभदेव जिनेन्द्राय
अर्धम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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६०]
जैन पूजांजलि
आत्म स्वरुप अनूप अनूठा इसकी महिमा अपरंपार । इसका अवलंबन लेते ही मिट जाता अनंत संसार ॥
एकादशी कृष्ण फागुन को कर्म घातिया केवल ज्ञान प्राप्त कर स्वामी वीतराग उत्कृष्ट दर्शन ज्ञान अनन्त वीर्य सुख पूर्ण चतुष्टय को जय प्रभु ऋषभदेव जगती ने समवशरण लख सुख पाया ॥
ॐ ह्रीं फाल्गुन वदी एकादशी ज्ञान मङ्गल प्राप्ताये ऋषभदेव जिनेन्द्राय अर्धम् निर्वपामीति स्वाहा ।
माघ बदी की चतुदशी को गिरि कैलाश हुआ पावन । आठों कर्म विनाशे पाया परम सिद्ध पद भावन ॥
मन
निर्वाण
हुआ ।
मोक्ष लक्ष्मी पाई गिरि कैलाश शिखर, जय जय ऋषभदेव तीर्थङ्कर भव्य मोक्ष
हुआ ॥
ॐ ह्रीं माघ वदी चतुर्दशी मोक्ष मङ्गल प्राप्ताये ऋअभदेव जिनेन्द्राय अर्धम निर्वपामीति स्वाहा । * जयमाला
नष्ट हुए ।
हुए ॥
पाया ।
कल्याण
जम्बू दीप सु भरत क्षेत्र में नगर अयोध्यापुरी विशाल । नाभिराय चौदहवें कुलकर के सुत मरुदेवी के सोलह स्वप्न हुए माता को पन्द्रह मास रत्न तुम आये सरवार्थ सिद्धि से माता उर मङ्गल मति श्रुत अवधिज्ञान के धारी जन्मे हुए जन्म कल्यारण । इन्द्र सुरों ने हर्षित पाण्डुक शिला किया अभिषेक महान ।। राज्य अवस्था में तुमने जन जन के कष्ट मिटाये थे । प्रसि मसि कृषि वाणिज्य शिल्प विद्या षट् कर्म सिखाये थे ।। एक दिवस जब नृत्य लोन सुरि नीलांजना विलीन हुई । है पर्याय अनित्य श्रायु उसकी पल भर में क्षीण तुमने वस्तु स्वरूप विचारा जागा उर वैराग्य कर चितवन भावना द्वादश त्यागा राज्य और
हुई ॥
प्राधार । परिवार ॥
लाल ॥
बरसे ।
सरसे ॥
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जैन पूजांजलि
मोह कर्म का जब उपशम हो भेद ज्ञान कर लो।
भाव शुभाशुभ हेय जानकर संवर आदर लो।। लौकान्तिक देवों ने प्राकर किया आपका जय जयकार । प्राश्रव हेय जानकर तुमने लिया हृदय में संबर धार ॥ बन सिद्धार्थ गये वट तरु नोचे वस्त्रों को त्याग दिया। ॐ नमः सिद्धेभ्यः कहकर मौन हुए तप ग्रहण किया । स्वयं बुद्ध बन कर्म भूमि में प्रथम सुजिन दीक्षाधारी। ज्ञान मनः पर्यय पाया धर पंच महाव्रत सुखकारी ॥ धन्य हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने दान दिया। एक वर्ष पश्चात इक्षुरस से तुमने पारणा किया ॥ एक सहस्र वर्ष तप कर प्रभु शुक्ल ध्यान में हो तल्लीन । पाप पुण्य प्रश्रिव विनाश कर हुए प्रात्म रस में लवलीन ॥ चार घातिया कर्म विनाशे पाया अनुपम केवल ज्ञान । दिव्य ध्वनि के द्वारा तुमने किया सकल जग का कल्याण ॥ चौरासी गणधर थे प्रभु के पहले वृषभसेन गणधर । मुख्य प्रायिका श्री ब्राह्मी श्रोता मुख्य भरत नृपवर ॥ भरत क्षेत्र के प्रार्य खण्ड में नाथ प्रापका हुआ विहार । धर्मचक्र का हुअा प्रवर्तन सुखी हुमा सारा संसार ॥ अष्टापद कैलाश धन्य हो गया तुम्हारा कर गुणगान । बने अयोगी कर्म अघातिया नाश किये पाया निर्वाण ॥ प्राज तम्हारे दर्शन करके मेरे मन आनन्द प्रा । जोवन सफल हुआ हे स्वामी नष्ट पाप दुख द्वन्द हुप्रा । यही प्रार्थना करता हूँ प्रभु उर में ज्ञान प्रकाश भरो। चारों गतियों के भव सङ्कट का, हे जिनवर ! नाश करो। तुम सम पद पा जाऊँ मैं भी यही भावना भाता हूँ। इसीलिये यह पूर्ण प्रर्घ चरणों में नाथ चढ़ाता हूँ॥ ॐ ह्रीं ऋषभदेव जिनेन्द्राय महार्ण्यम् नि० ।
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६२]
जैन पूजांजलि
निज तत्वोपलब्धि के बिन सम्यक्त्व नहीं होता । सम्यक्त्वोपलब्धि के बिन सिद्धत्व नहीं होता ॥ वृषभ चिह्न शोभित चरण ऋषभदेव उर धार। मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ॥
इत्याशीर्वादः ४ जाप्य ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय नमः ।
श्री पद्मप्रभ जिन पूजन जय जय पद्म जिनेश पद्मप्रभ पावन पद्माकर परमेश । वीतराग सर्वज्ञ हितंकर पद्मनाथ प्रभु पूज्य महेश ॥ भवदुख हर्ता मंगलकर्ता षष्टम तीर्थङ्कर पद्मश । हरो अमंगल प्रभु अनादि का पूजन का है यह उद्देश ।।
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री पदमप्रभ जिनेन्द्राय अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । शुद्ध भाव का धवल नीर लेकर जिन चरणों में पाऊँ । जन्म मरण की व्याधि मिटाऊँ नाचू गाऊँ हर्षाऊँ ॥ परम पूज्य पावन परमेश्वर पनाथ प्रभु को ध्याऊँ । रोग शोक संताप क्लेश हर मंगलमय शिवपद पाऊँ । ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम्
निर्वपामीति स्वाहा । शुद्ध भाव का शीतल चंदन ले प्रभु चरणों में पाऊँ । भव प्राताप व्याधि को नाशं नाचूं गाऊँ हर्षाऊँ । परम० ___ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चंदनम् नि । शुद्ध भाव के उज्ज्वल अक्षत ले जिन चरणों में आऊँ। अक्षय पद अखंड मैं पाऊँ नाचूं गाऊँ हर्षाऊं ॥ परम०
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्ताये अक्षतम् नि ।
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जैन पूजांजलि
जड़ को जड़ समझो बिन चेतन ज्ञान नहीं होता।
पूर्ण शुद्धता हुए बिना कल्याण नहीं होता। शुद्ध भाव के पुष्प सुरभिमय ले प्रभु चरणों में पाऊँ । कामवाण को व्याधि नशाऊँ नाचूं गाऊँ हर्षाऊ ॥ परम० ___ ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय कामवाण विघ्वंसनाय पुष्पम् नि । शुद्ध भाव के पावन चरु लेकर प्रभु चरणों में आऊँ । क्षुधा व्याधि का बीज मिटाऊँ नाचूँ गाऊँ हर्षाऊँ । परम० ___ ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय क्षधारोग विनाशनाय नवद्यम नि । शुद्ध भाव को ज्ञान ज्योति लेकर प्रभु चरणों में आऊँ। मोहनीय भ्रम तिमिर नशाऊँ नाचूं गाऊँ हर्षांऊ ॥ परम०
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपम् नि । शुद्ध भाव को धूप सुगंधित ले प्रभु चरणों में आऊँ । अष्टकर्म विध्वंस करूं मैं नाचूं गाऊँ हर्षाऊँ ॥ परम० __ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अप्ट कर्म दहनाय धूपम् नि० स्वाहा । शुद्ध भाव सम्यक्त्व सुफल पाने प्रभु चरणों में आऊँ। शिवमय महामोक्ष फल पाऊँ नाचूं गाऊँ हर्षांऊँ ॥ परम०
ॐ ह्री श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताये फलम् नि० स्वाहा । शुद्ध भाव का अर्घ अष्टविध ले प्रभु चरणों में पाऊँ । शाश्वत निज अनर्घ पद पाऊँ नाचूं गाऊ हर्षाऊ ॥ परम० ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्ताये अर्घम् नि० म्वाहा ।
श्री पंच कल्याणक शदिन माघ कृष्ण षष्ठी को मात सुसीमा हर्षाए । उपरिम अवेयक विमान प्रीतिकर तज उर में आए । नव बारह योजन नगरी रच रत्न इन्द्रने बरसाए । जयश्री पद्मनाथ तीर्थङ्कर जगती ने मंगल गाए ॥ ॐ ह्रीं माघ कृष्ण षष्ठी दिने गर्भा गम मंगल प्राप्ताये थी पद्मप्रभ
जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा ।
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६४]
जैन पूजांजलि
पण्य धूल के लिए बावरे हीरा जनम गंवाता।
रत्नराख के लिए जलाता फिर भवभव पछताता ।। कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी को कौशाम्बी में जन्म लिया। गिरि सुमेरु पर इन्द्रादिक ने क्षीरोदधि से नव्हन किया । राजा धरणराज आंगन में सुर सुरपति ने नृत्य किया। जय जय पद्मनाथ तीर्थङ्कर जग ने जय जय नाद किया । ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्णात्रयोदश्याम् तपो मंगल प्राप्ताये श्री पद्मप्रभ
जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा । कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को तुमको जाति स्मरण हुमा । जागा उर वैराग्य तभी लौकान्तिक सुर आगमन हुआ । तरु प्रियंगु मनहर वन में दीक्षा धारी तप ग्रहण हुमा । जय जय पद्मनाथ तीर्थङ्कर अनुपम तप कल्याण हुमा ॥ ॐ ह्री कार्तिक कृष्णात्रयोदश्याम् तपो मंगल प्राप्ताये श्री पद्मप्रभ
जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा । चैत्र शुक्ल पूर्णिमा मनोहर कर्म घाति अवसान किया। कौशाम्बी वन शुक्ल ध्यान धर निर्मल केवल ज्ञान लिया। समवशरण में द्वादश सभा जुड़ो अनुपम उपदेश दिया। जय जय पद्मनाथ तीर्थङ्कर जग को शिव संदेश दिया। ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ल पूर्णिमायां ज्ञान मंगल प्राप्ताये श्री पद्मप्रभ जिने
न्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा। मोहन कूट शिखर सम्मेदाचल से योग विनाश किया। फागुन कृष्ण चतुर्थों को प्रभु भव बंधन का नाश किया ॥ अप्टकर्म हर ऊर्ध्व गमन कर सिद्ध लोक आवास लिया। जयति पद्म प्रभु जिन तीयश्वर शाश्वत आत्म विकास किया। . ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्ण चतुर्थ्या मोक्ष मंगल प्राप्ताये श्री पदमप्रभ ___जिनेन्द्राय अर्घ्यम् नि० स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि
[६५
देह अपावन जड़ पुदगल है तू चेतन चिद्रू पी । गुद्धबुद्ध अविरुद्ध निरंजन नित्य अनप अरूपी ।।
४ जयमाला x परम श्रेष्ठ पावन परमेष्ठी पुरुषोत्तम प्रभु परमानंद । परम ध्यानरत परमब्रह्ममय प्रशान्तात्मा पद्मानंद ।। जय जय पद्मनाथ तीर्थङ्कर जय जय जय कल्याण मयी। नित्य निरंजन जनमन रंजन प्रभु अनंत गुण ज्ञान मयी। राजपाट प्रतुलित वैभव को तुमने क्षण में ठकराया। निज स्वभाव का अवलंबन ले परम शुद्ध पद को पाया। भव्य जनों को समवशरण में वस्तुतत्त्व विज्ञान दिया। चिदानंद चैतन्य प्रात्मा परमात्मा का ज्ञान दिया । गणधर एक शतक ग्यारह थे मुख्य वज्रचामर ऋषिवर । प्रमुख रात्रिषेणा सुमार्या श्रोता पशुनर सुर मुनिवर ॥ सात तत्त्व छह द्रव्य बताए मोक्षमार्ग संदेश दिया। तीन लोक के भूले भटके जीवों को उपदेश दिया । निःशंकादिक अष्ट अंग सम्यक् दर्शन के बतलाए । अप्ट प्रकार ज्ञान सम्यक बिन मोक्षमार्ग ना मिलपाए । तेरह विधि सम्यक् चारित का सत्स्वरूप है दिखलाया। रत्नत्रय हो पावन शिव पथ सिद्ध स्वपद को दर्शाया ॥ हे प्रभु यह उपदेश ग्रहणकर मैं निज का कल्याण करू । निज स्वरूप को सहज प्राप्ति कर पद निर्गथ महान वरू॥ इप्ट अनिष्ट संयोगों में मैं कभी न हर्ष विषाद करू। साम्यभाव धर उर अंतर में भव का वाद विवाद हरू ॥ तीन लोक में सार स्वयं के आत्मद्रव्य का भान कह। पर पदार्थ की ममता त्यागं सखमय भेद विज्ञान करूं।
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६६]
जैन पूजांजलि
सम्यक दर्शन ज्ञान चरित रत्नत्रय अपना लो।
अप्टम वसुधा पंचम गति में सिद्ध स्वपद पा लो॥ द्रव्य भाव पूजन करके मैं प्रात्म चितवन मनन करू। नित्य भावना द्वादश भाऊँ रागद्वेष का हनन करूं॥ तुव पूजन से पुण्यसातिशय हो भव भव तुमको पाऊँ। जब तक मुक्ति स्वपद ना पाऊँ तब तक चरणों में पाऊँ। संबर और निर्जरा द्वारा पाप पुण्य सब नाश करूं । प्रभु नव केवल लब्धि रमा पा आठों कर्म विनाश करूं। तुम प्रसाद से मोक्ष लक्ष्मी पाऊँ निज कल्याण करू । सादि अनंत सिद्ध पद पाऊँ परम शुद्ध निर्वाण वरू॥ ॐ ह्रीं श्री पदमप्रभ जिनेन्द्राय गर्भ गर्भ जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष पंच
कल्याण प्राप्ताये पूर्य्यिम निर्वपामीति स्वाहा । कमल चिन्ह शोभित चरण, पद्मनाथ उरधार । मन वच तन जो पूजते, वे होते भव पार ।।
४ इत्यार्शीवाद: ४ जाप्य ॐ ह्रीं श्री पदमप्रभ जिनेन्द्रायनमः नि० स्वाहा।
- x
श्री चंद्र प्रम जिन पूजन महासेन नपनंद चंद्रप्रभ चंद्रनाथ जिनवर स्वामी । मान लक्ष्मणा के प्रियनंदन जग उद्धारक प्रभु नामी । निज आत्मानुभूति से पाई मोक्ष लक्ष्मी सुखधामी ॥ वीतराग सर्वज्ञ हितैषी करुणामय शिव पुरगामी ॥
ॐ ह्री श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्र अत्र अवतर अतवर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेन्द्र अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् ।
पुष्पांजलि क्षिपामि
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जैन पूजांजलि
इस भव वन में उलझे रहते तो जिनवर अरहंत न होते । ज्ञाता दृष्टा शुद्ध स्वरूपी मुक्तिकंत भगवंत न होते ॥
तनको प्यास बुझाने वाला यह निर्मल जल लाया हूँ। प्रात्मज्ञान की प्यास बुझाने प्रभु चरणों में पाया हूँ॥ चंद्र जिनेश्वर चंद्रनाथ चंद्रेश्वर चंदा प्रभु स्वामी । रागद्वेष परिणति के नाशक मंगलमय अन्तर्यायो । ॐ ह्रीं श्री चंदप्रभ जिनेन्द्राय विविधताय विनाशनाय जलम्
निर्वपामीति स्वाहा। तन का ताप मिटाने वाला शीतल चंदन लाया हूँ। राग आग की दाह मिटाने प्रभु चरणों में प्राया हूँ॥ चंद्र०
ॐ ह्रीं श्री चंदप्रभ जिनेन्दाय संसार ताप विनाशनाय चंदनन नि । परम शुद्ध अक्षय पद पाने उज्ज्वल प्रक्षत लाया हूँ। भव समुद्र से पार उतरने प्रभु चरणों में पाया हूँ ॥ चंद्र०
ॐ ह्रीं श्री चंदप्रभ जिनेन्दाय अक्षय पद प्राप्ताये अक्षतम् निम्बा।। कामवाण से घायल होकर पुष्प मनोहर लाया हूँ। महाशील शोलेश्वर बनने प्रभु चरणों में आया हूँ॥ चंद्र०
ॐ ह्रीं श्री चंदप्रभ जिनेन्दाय कामवाण विध्वंसाय पुष्पम् नि स्वाहा । पर द्रव्यों से भूख न मिट पाई तो प्रभु चरु लाया हूं। प्रात्म तत्त्व की भूख मिटाने प्रभु चरणों में पाया हूं ॥ चंद्र०
ॐ ह्रीं श्री चंदप्रभ जिनेन्दाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवद्यम् नि० । अन्धकारतम हरने वाला दीप प्रभामय लाया हूं। आत्म दीप की ज्योति जलाने प्रभु चरणों में पाया हूं ॥ चंद्र०
ॐ ह्रीं श्री चंदप्रभ जिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपम् नि० । पर परिणति का धुवां उड़ाने धूप सुगंधित लाया हूं। प्रष्ट कर्मपरि पर जय पाने प्रभु चरणों में आया हूं ॥ चंद्र०
ॐ ह्रीं श्र चंदप्रभ जिनेन्द्राय अप्ट कर्म दहनाय धूपम् नि० स्वाहा ।
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६८]
जैन पूजांजलि
जिनवाणी में निश्चय नय भूतार्थ बताया । अभूतार्थ व्यवहार कथन उपचार जताया ।।
पर विभाव फल से पीड़ित होकर नूतन फल लाया हूं। अपना सिद्ध स्वपद पाने को प्रभु चरणों में आया हूं। चंद्र० ___ॐ ह्रीं श्री चंदप्रभ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताये फलम् नि० स्वाहा । प्रष्ट द्रव्य का प्रघं मनोरम हर्षित होकर लाया हूं। चिदानन्द चिन्मय पद पाने प्रभु चरणों में पाया हूं। चंद्र० ___ॐ ह्रीं श्री चंदप्रभ जिनेन्द्राय अनर्ध पद प्राप्ताये अर्घ्यम् नि ।
श्री पंच कल्याणक चैत्र कृष्ण पंचमी मात उर वैजयंत तज कर पाए। सोलह स्वप्न हुए माता को रत्न सुरों ने बरसाए । मात लक्ष्मणा स्वप्न फलों को जान हृदय में हर्षाए । हुमा गर्भ कल्याण महोत्सव घर घर में प्रानंद छाए ॥ ___ॐ ह्रीं चैत्र कृष्ण पंचम्यां गर्भ मंगल प्राप्ताये श्री चंदप्रभ जिनेन्द्राय
अर्घ्यम् नि। पौष कृष्ण एकादशमी को चंद्रनाथ का जन्म हुना। मेरु सुदर्शन पर मंगल उत्सव कर सुरपति धन्य हुमा ॥ चंद्रपुरी में बजी बधाई तीन लोक में सुख छाया। महासेन राजा के गृह में देवों ने मंगल गाया ॥ ॐ ह्रीं पौष कृष्णकादश्याम जन्म मंगल प्राप्ताये श्री चंदप्रभ
जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा । पौष कृष्ण एकादशमी को राज्य आदि सब छोड़ दिया। यह संसार असार जानकर तप से नाता जोड़ दिया । पंच महाव्रत धारण करके वस्त्राभूषण त्याग दिए। तप कल्याण मनाया देवों ने जिनवर अनुराग लिए । ॐ ह्रीं पौष कृष्णकादश्यां निःक्रमण महोत्सव मंडिताय श्री चंदप्रभ
जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि
निश्चयनय भूतार्थ आश्रय उपादेय है ।
अभूतार्थ व्यवहार कथन तो अरे हेय है ।। तीन मास छमस्थ रहे प्रभु उग्र तपस्या में हो लोन । प्रतिमा योग धार चंदा प्रभु शुक्ल ध्यान में हुए स्वलीन॥ ध्यान अग्नि से सठ कर्म प्रकृतियों का बल नाश किया। फागुन कृष्ण सप्तमी के दिन केवल ज्ञान प्रकाश लिया । ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्ण सप्त्यां केवल ज्ञान मंडिताय श्री चदप्रभ
जिनेन्द्राय अर्घ्यम नि० स्वाहा।। शेष प्रकृति पच्चासी का भी अन्त समय अवसान किया। फागुन शुक्ल सप्तमी के दिन प्रभु ने पद निर्वाण लिया ॥ ललित कूट सम्मेद शिखर से चंदा प्रभु जिन मुक्त हुए। ऊर्ध्व गमन कर सिद्ध लोक में मुक्ति रमा से युक्त हुए । ॐ ह्रीं फाल्गुन शुक्ल सप्त्यां मोक्ष मंगल प्राप्ताये चदप्रभ जिनेन्द्राय अर्धम नि० स्वाहा ।
(जयमाला) चंद्र चिन्ह चित्रित चरण चंद्रनाथ चित धार ॥ चितामणि श्री चद्रप्रभ चंद्रामृत दातार ॥ चंद्रपुरी के न्यायवान श्री महासेन राजा बलवान । देवि लक्ष्मणा रानी उर से जन्मे गंद्रनाथ भगवान ॥ इन्द्रशचो सुर किन्नर यक्ष सभी ने गाए मंगलगान । तीर्थङ्कर का जन्म जानकर धरती में भी आए प्राण ।। बड़े हए प्रभ राजकाज में न्याय पूर्वक लीन हुए। जग के भौतिक भोग भोगते सिंहासन पासीन हुए ॥ इक दिन नभ में बिजली चमकी, नष्ट हुई तो किया विचार । नाशवान पर्याय जान छाया तत्क्षण वैराग्य अपार ॥ वन सर्वार्थ नागतरु नीचे परिजन परिकर धन सब त्याग । पंच मुष्टि से केश लोचकर किया महाव्रत से अनुराग ॥
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७०]
जैन पूजांजलि
मिथ्यातत्व जगत में भ्रमण कराता है | सम्यक्त्व मुक्ति से रमण कराता है ||
हुए तपस्यालीन ग्रात्मा का ही प्रतिपल करते ध्यान । शाश्वत निव स्वरूप आश्रय ले पाया तुमने केवल ज्ञान ॥ थे तिरानवे गणधर जिनमें प्रमुख दत्त स्वामी ऋषिवर । मुख्य श्राधिका वरुणा, श्रोता दानवीर्य आदिक सुरनर ॥ समवशरण में तुमने प्रभुवर वस्तु तत्त्व उपदेश दिया । उपादेय है एकश्रात्मा यह अनुपम संदेश दिया ॥ ज्ञाता दृष्टाबने जीव तो रागद्वेष मिट जाता है । जो निजात्मा में रहता है वही परम पद पाता है ॥ हो अयोग केवली आपने हे स्वामी पाया निर्वारण | अर्ध चंद्र सम सिद्ध शिला पर पहुँचे चंदा प्रभु भगवान ॥ श्रर्ध चंद्र शोभित चरणों में भ्रष्टम तीर्थङ्कर स्वामी । जन्म मरण का चक्र मिटाने प्राया हूं अन्तर्यामी ॥ ॐ ह्रीं श्रीं चंदप्रभ जिनेन्द्राय गर्भ जन्म तप ज्ञान मोक्ष पंच कल्याण प्राप्ताये पूर्णार्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा । चंदा प्रभु के पद कमल भाव सहित उरधार । मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार | * इत्याशीर्वादः
ॐ ह्रीं श्री चंदप्रभ जिनेन्द्राय नमः
¤✡
जाप्य
-
श्री शीतलनाथ जिन पूजन
शीलेश ।
महेश ||
जय प्रभु शीतजनाथ शील के सागर शील सिन्धु कर्म जाल के शीतल कर्ता केवल ज्ञानी महा कालिक ज्ञायक स्वभाव ध्रुव के आश्रय से हुए जिनेश । मुझको भी निज सम शीतल कर दो है विनय यही परमेश ॥
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जैन पूजांजलि
[७१ आत्म ज्ञान वैभव यदि हो तो सदाचार शोभा पाता है । पंचपरावर्त्तन अभाव कर चेतन मुक्ति गीत गाता है । ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।। ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । निर्मल उज्ज्वल जलधार चरणों में सोहे। यह जन्म रोग मिट जाय निज में मन मोहे ॥ हे शीतलनाथ जिनेश शीतलता धारी । हे शील सिन्धु शीलेश सब सङ्कट हारी ।। ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय जन्म जरा मत्यु विनाशनाय जलं
निर्वपामीति स्वाहा । चन्दन सी सरस सुगन्ध मुझ में भी पाये । भव ताप दूर हो जाय शीतलता छाये ॥ ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चन्दम् नि । निज अक्षय पद का भान करने आया हूँ। हर्षित हो शुभ्र प्रखण्ड तन्दुल लाया हूँ॥हे शीतल. ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि । कन्दर्प काम के पुष्प अब मैं दूर करूं। पर परिणति का व्यापार प्रभु चकचूर करूं ॥ हे शीतल. ॐ ह्री श्रींशीतलनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुप्पम् नि । चरु सेवन रुचि दुखकार भव पीड़ा दायक । है क्षुधा रहित निज रूप सुखमय शिवनायक ॥ हे शीतल. ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम नि० । प्रज्ञान तिमिर घन घोर उर में पाया है। रवि सम्यक् ज्ञान प्रकाश मुझको भाया है । हे शीतल. ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम्
निर्वपामीति स्वाहा।
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७२]
जैन पूजांजलि
देह तो अपनी नहीं है देह से फिर मोह कैसा ॥ जड़ अचेतन रूप पुद्गल द्रव्य से व्यामोह कैसा ।
चारों कषायों का सङ्ग हे प्रभु हट जाये। हो कर्म का चक्र का ध्वंस भव दुख मिट जाये ॥ हे शीतल. ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अप्ट कर्म विध्वंसनाय धूपम नि० । निर्वाण महा फल हेतु चरणों में पाया। दुख रूप राग को जान अब निज गुण गाया ॥ हे शीतल. ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि । प्रात्नानुभूति की प्रीति निज में है जागी। पाऊँ अनर्घ पद नाथ मिथ्या मति भागी॥ हे शीतलनाथ जिनेश शीतलता धारी । हे शील सिन्यु शीलेश सब सङ्कट हारी ॥ ॐ ह्री श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्ताये अर्घम् नि० ।
श्री पंच कल्याणक चैत्र कृष्ण अष्टमी स्वर्ग अच्युत को तज कर तुम आये। दिक्कुमारियों ने हषित हो मात सुनन्दा गुण गाये ॥ इन्द्र प्राज्ञा से कुबेर नगरी रचना कर हर्षाये । शीतल जिन के गर्भोत्सव पर रत्न सुरों ने बरसाये ।। ॐ ह्री श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय चैत्र कृष्णा अष्टमी गर्भ कल्याणक
प्राप्ताये अर्घम् नि० स्वाहा। भहिलपुर में राजा दृढ़रथ के गृह तुमने जन्म लिया। माघ कृष्ण द्वादशी इन्द्र सुर ने निज जीवन धन्य किया। गिरि सुमेरु पर पाण्डुक वन में क्षीरोदधि से हवन किया। एक सहस्त्र अष्ट कलशों से हर्षित हो अभिषेक किया । ॐ ह्री श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय माघ कृष्ण द्वादशी जन्म मङ्गल
मण्डिताय अर्घम् नि० स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि
[७३
ज्ञायक स्वभाव के सन्मुख हो पुरुषार्थ जीव जब करता है ।
जड़ कर्मों की छाया तक को अंतर्मुहूर्त में हरता है ।। शरद् मेघ परिवर्तन लख कर उर छाया वैराग्य महान । लौकान्तिक देवों ने प्राकर किया प्रापका तप कल्याण ॥ सकल परिग्रह त्याग तपस्या करने वन को किया प्रयाग । माघ कृष्ण द्वादशी सहेतुक वन में गूजा जय जय गान । ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय माघ कृष्ण द्वादशी तप कल्याणक
प्राप्ताये अय॑म् नि० स्वाहा। पौष कृष्ण की चतुर्दशी को पाया स्वामी केवल ज्ञान । समवशरण की रचना कर देवों ने गाये मङ्गल गान ॥ सकल विश्व को वस्तु तत्व उपदेश प्रापने दिया महान । भद्दिलपुर में गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान हुए चारों कल्याण ॥ ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनन्द्राय पौष कृष्ण चतुर्दशी ज्ञान कल्याणक
प्राप्ताये अर्घ्यम नि० स्वाहा । पाश्विन शुक्ल अष्टमी को हर अष्ट कर्म पाया निर्वाण । विद्युत कूट श्री सम्मेद शिखर पर हुआ मोक्ष कल्याण ॥ शेष प्रकृति पच्चासी हर कर कर्म प्रघाति अभाव किया। निज स्वभाव के साधन द्वारा मोक्ष स्वरूप स्वभाव लिया ॥ ॐ ह्रीं आश्विन शुक्ल अष्टमी श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष कल्याणक प्राप्ताये अर्धम् नि० स्वाहा ।
जयमाला जय जय शीतलनाथ शीलमय शील पुञ्ज शीतल सागर । शुद्ध रूप जिन शुचिमय शीतल शील निकेतन गुण आगर ।। दशम् तीर्थङ्कर हे जिनवर परम पूज्य शीतल स्वामी। तुम समान मैं भी बन जाऊं विनय सुनो त्रिभुवन नामो॥ साम्य भाव के द्वारा तुमनें निज स्वरूप का वरण किया। पंच महाव्रत धारण कर प्रभु पर विभाव का हरण किया।
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७४]
जैन पूजांजलि
कर्म बंध का रूप जानकर शुद्धातम का ज्ञान करो । पाप पुण्य की प्रकृति विनाशो निग स्वरूप का ध्यान करो॥
पुरो अरिष्ट पुनर्वसु नृप ने विधिपूर्वक आहार दिया। प्रभु कर में पय धारा दे भव सिन्धु सेतु निर्माण किया। तीन वर्ष छद्मस्थ मौन रह प्रात्म ध्यान में लीन हुए। चार घातिया का विनाश कर केवल ज्ञान प्रवीण हुए। ज्ञानावरण वर्शनावरणी अन्तराय अरु मोह रहित । दोष अठारह रहित हुए तुम छयालीस गुण से मण्डित ।। क्षुधा तृषा,रति,खेद, स्वेद, अरु जन्म जरा चिन्ता विस्मय । राग,द्वेष,मद,मोह,रोग,निद्रा, विषाद अरु मरण न भय ॥ शुद्ध बुद्ध प्ररहंत अवस्था पाई तुम सर्वज्ञ हुए। देव अनन्त चतुष्टय प्रगटा निज में निज मर्मज्ञ हुए। इक्यासी गणधर थे प्रभु के प्रमुख कुन्थ ज्ञानी गणधर । मुख्य प्रायिका श्रेष्ठ धारिणी श्रोता थे नृप सीमंधर ॥ तुम दर्शन करके हे स्वामी आज मुझे निज भान हुआ। सिद्ध समान सदा पद मेरा अनुपम निर्मल ज्ञान हा ॥ भक्ति भाव से पूजा करके यही कामना करता हूँ। राग द्वेष परणति मिट जाये यही भावना करता हूँ। निर्विकल्प प्रानन्द प्राप्ति को प्राज हृदय में लगी लगन । सम्यक् पूजन फल पाने को तुम चरणों में हआ मगन ॥ निज चैतन्य सिंह अब जागे मोह कर्म पर जय पाऊँ । निज स्वरूप प्रवलम्बन द्वारा शाश्वत शीतलता पाउँ॥ ॐ ह्रीं श्रीं शीतलनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाय॑म् ।
कल्पवृक्ष शोभित चरण शीतल जिन उर धार । मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ॥
x इत्याशीर्वादः ४ जाप्य- ॐ ह्रीं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय नमः ।
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जन पूजांजलि
[७५
नरक त्रियंच देव नर गति के काटे चक्र अनंती बार । रहा सदा पर्याय दृष्टि ही ध्रुव का किया नहीं सत्कार ।।
__ श्री वासु पूज्यदेव पूजन जय श्री वासुपूज्य तीर्थङ्कर सुर नर मनि पूजित जिनदेव । ध्रव स्वभाव निज का अवलम्बन लेकर सिद्ध हुए स्वयमेव ।। घाति अघाति कर्म सब नाशे तीर्थङ्कर द्वादशम् सुदेव । पूजन करता हूँ अनादि की मेटो प्रभु मिथ्यात्व कुटेव ॥
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः।
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्र अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । जल से तन बार बार धोया पर शुचिता कभी नहीं आई। इस हाड-मांस मय चर्म देह का जन्म-मरण प्रति दुखदाई ॥ त्रिभुवन पति वासु पूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो। चारों गतियों के सङ्कट हर हे प्रभु मुझको निज सम करलो॥ ॐ ह्री श्री वासपूज्य जिनेन्द्राय त्रिविध ताप ताप विनाशनाय जलम्
निर्वपामीति स्वाहा । गुण शीतलता पाने को मैं चन्दन चचित करता आया। भव चक्र एक भी घटा नहीं सन्ताप न कुछ कम हो पाया॥ त्रिभु० ___ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चन्दनम् नि० । मुक्ता सम उज्ज्वल तन्दुल से नित देह पुष्ट करता आया। तन की जर्जरता रुकी नहीं भव कष्ट व्यर्थ भरता आया॥ त्रिभु० ___ ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्ताये अक्षतम् नि० । पुष्षों को सुरभि सुहाई प्रभु पर निज की सुरभि नहीं भाई । कंदर्प दर्प की चिर पीड़ा अब तक न शमन प्रभु हो पाई ॥त्रिभु०
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि । षट्रस मय विविध-२ व्यञ्जन जी भर-भर कर मैंने खाये। भव भूख तृप्त ना हो पाई दुख क्षुधा रोग के नित पाये॥ त्रिभ०
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि ।
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७६]
जैन पूजांजलि
श्री जिनराज मुझे निज समान कर लीजे । एक बस वीतरागता प्रदान कर दोजे ।
दोपक नित ही प्रज्ज्वलित किये अंतर तम अब तक मिटा नहीं। मोहान्धकार भी गया नहीं प्रज्ञान तिमिर भी हटा नहीं ॥ त्रिभु०
ॐ ह्रीं श्री वासपूज्य जिनन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि । शुभ अभुभ कर्म बन्धन भाया संवर का तत्त्व कभी न मिला। निर्जरित कर्म कैसे हों जब दुखमय आश्रव का द्वार खुला।त्रिभु० ___ ॐ ही श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय अष्ट कर्म विध्वंसनाय धूपम् नि० । भौतिक सुख की इच्छाओं का मैंने अब तक सम्मान किया। निर्वाण मुक्ति फल पाने को मैंने न कभी निज ध्यान किया।त्रिभु० ___ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनन्द्राय मोक्ष फल प्राप्ताये अय॑म् नि । जब तक अनर्घ पद मिले नहीं तब तक मैं अर्घ चढ़ाऊँगा । निज पद मिलते ही हे स्वामी फिर कभी नहीं मैं पाऊँगा। त्रिभवन पति वासु पूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो। चारों गतियों के सङ्कट हा हे प्रभु मुझको निज सम करलो॥ ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्रीय अनर्घ पद प्राप्ताये अर्घ्यम् नि० स्वाहा ।
श्री पंच कल्याणक त्यागा महा शुक्र का वैभव, माँ विजया उर में पाये । शुभ आषाढ़ कृष्ण षष्ठी को देवों ने मङ्गल गाये ॥ चम्पापुर नगरी की रचना, नव बारह योजन विस्तृत । वास पूज्य के गर्भोत्सव पर हुए नगर वासी हर्षित ।। ___ॐ ह्रीं आषाढ़ कृष्ण षष्टयां गर्भ मङ्गल प्राप्ताये श्री वासु पूज्य
___जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा। फागुन कृष्णा चतुर्दशी को नाथ आपने जन्म लिया । नृप वसुपूज्य पिता हर्षाये भरत क्षेत्र को धन्य किया ॥
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जंन पूजांजलि
[७७
जिसे सम्यक्त्व होता है उसे ही ज्ञान होता है ।
उसे चारित्र होता है उसे निर्वाण होता है ।। गिरि सुमेरु पर पाण्डुक वन में हुअा जन्म कल्याण महान। वासुपूज्य का क्षीरोदधि से हुआ दिव्य अभिषेक प्रधान ॥ ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्ण चतुर्दश्यां जन्म मङ्गल प्राप्ताये श्री वासुपूज्य
जिनेन्द्राय अर्घम नि० स्वाहा । फागुन कृष्णा चतुर्दशी को बन की ओर प्रयाण किया । लौकान्तिक देवर्षि सुरों ने पाकर तप कल्याण किया । ॐ नमः सिद्धेभ्यः कहकर प्रभु ने मुनि पद ग्रहण किया। वासु पूज्य ने ध्यान लीन हो इच्छाओं का दमन किया । ___ ॐ ह्रीं फाल्गुन कृष्ण चतुर्दश्यां तपो मङ्गल मण्डिताय श्री वासपूज्य
जिनन्द्राय अर्घ्यम नि० स्वाहा । माघ शुक्ल को दोज मनोरम वासुपूज्य को ज्ञान हुआ। समवशरण में खिरी दिव्य ध्वनि जीवों का कल्याण हुमा॥ नाश किये घन घाति कर्म सब केवल ज्ञान प्रकाश हुआ । भव्यजनों के हृदय कमल का प्रभु से पूर्ण विकास हुप्रा ॥ ॐ ह्रीं माघ शुक्ला द्वितीयां ज्ञान साम्राज्य प्राप्ताये श्री वासुपूज्य
जिन न्द्राय अर्घम नि० स्वाहा । अंतिम शुक्ल ध्यान धर प्रभु ने कर्म अघाति किये चकचूर । मुक्ति वधू के कंत हो गये योग मात्र कर निज से दूर ॥ भादव शुक्ल चतुर्दशी चम्पापुर से निर्वाण हुआ। मोक्ष लक्ष्मी वासु पूज्य ने पाई जय जय गान हुआ ॥ ॐ ह्रीं भाद्रपद शुक्ला चतुर्दश्यां मोक्ष मङ्गल प्राप्ताये श्री वासुपूज्य जिन द्राय अर्धम नि० स्वाहा ।
8 जयमाला वासु पूज्य विद्या निधि विघ्न विनाशक वागीश्वर विश्वेश । विश्व विजेता विश्व ज्योति विज्ञानी विश्व देव विविधेश ॥
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७८]
जैन पूर्जाजलि
पराए द्रव्य को अपना समझ कर दुख उठाता है । जगत की मोह ममता में स्वयं को भूल जाता है ।
चम्पापुर के महाराज वसुदेव पिता विजया माता । तुमको पाकर धन्य हुए हे वासुपूज्य मङ्गल दाता ॥ अष्ट वर्ष की अल्प आयु में तुमने अणुवत धार लिया। यौवन वय में ब्रह्मचर्य प्राजीवन अङ्गीकार किया । पंच मुष्टि कचलोच किया सब वस्त्राभूषण त्याग दिये। विमल भावना द्वादश भाई पंच महावत ग्रहण किये ॥ स्वयं बुद्ध हो नमःसिद्ध कह पावन संयम अपनाया। मति, श्रुति, अवधि जन्म से था अब ज्ञान मनः पर्यय पाया । एक वर्ष छदमस्थ मौन रह आत्म साधना की तुमने । उग्र तपस्या के द्वारा हो कर्म निर्जरा की तुमने ॥ श्रेणीक्षपक चढ़े तुम स्त्रामो मोहनीय का नाश किया । पूर्ण अनन्त चतुष्टय पाया पर अरहन्त महान लिया ॥ विचरण करके देश देश में मोक्ष मार्ग उपदेश दिया। जो स्वभाव का साधन साधे सिद्ध बने सन्देश दिया । प्रभु के छयासठ गणधर जिनमें प्रमुख श्री मन्दिर ऋषिवर । मुख्य प्रायिका वरसेना थीं नृपति स्वयंभू श्रोतावर ॥ प्रायश्चित व्युत्सर्ग, विनय, वैय्यावृत स्वाध्याय अरु ध्यान । अन्तरंग तप छह प्रकार का तुमने बतलाया भगवान ॥ कहा बाह्य तप छः प्रकार ऊनोदर कायक्लेश, अनशन । रस परित्याग सुव्रतपरिसंख्या, विविक्त शय्यासन पावन ।। ये द्वादश तप जिन मुनियों को पालन करना बतलाया। अणवत शिक्षाक्त गरगवत द्वादश व्रत श्रावक का गाया। चम्पापुर में हुए पंच कल्याण आपके मङ्गलमय । गर्भ, जन्म, तप,ज्ञान, मोक्ष कल्याण भव्य जन को सुखमय ॥
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जैन पूजांजलि
[७६ पुण्य से ही निर्जरा होती अगर तो।
हो गया होता अभी तक मोक्ष कबका ।। परम पूज्य चम्पापुर की पावन भू को शत-शत वन्दन । वर्तमान चौबीसी के द्वादशम् जिनेश्वर नित्य न मन ॥ मैं अनादि से दुखी, मुझे भी निज बल दो भव वास हरू । निज स्वरूप का अवलम्बन ले अष्ट कर्म अरि नाश करूं ॥ ॐ ह्रीं श्री वासपूज्य जिनेन्द्राय गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष कल्याण
प्राप्ताये अयम् नि० स्वाहा । महिष चिह्न शोभित चरण, वासु पूज्य उर धार । मन, वच, तन जो पूजते, वे होते भव पार ॥
* इत्याशीर्वादः ४ जाप्य- ॐ ह्मीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय नमः ।
श्री अनन्तनाथ जिन पूजन जय जय जयति अनन्तनाथ प्रभु शुद्ध ज्ञानाधारी भगवान् । परम पूज्य मङ्गलमय प्रभुवर गुण अनन्तधारी भगवान् ।। केवलज्ञान लक्ष्मी के पति भवभय दुखहारी भगवान् । परम शुद्ध अव्यक्त प्रगोचर भव भव सुखकारी भगवान् ।। जय अनन्त प्रभु प्रष्ट कर्म विध्वंसक शिवकारी भगवान् । महा मोक्ष पति परम वीतरागी जग हितकारी भगवान् ॥
ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवोप्ट । ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् । मैं अनादि से जन्म मरण की ज्वाला में जलता आया। सागर जल से बुझो न ज्वाला तो यह सम्यक् जल लाया ॥ जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया। गुण अनन्त पाने को पूजन करने चरणों में आया । ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जल
निर्वपामीति स्वाहा ।
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८०
जैन पूजांजलि
पुण्य से संवर अगर होता तनिक भी ।
तो भ्रमण का कष्ट फिर मिलता न भव का ॥ भव पीड़ा के दुष्कर वन्धन से न मुक्त प्रभु हो पाया । भवाताप को दाह मिटाने मलयागिरि चन्दन लाया ॥जय • ___ ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चन्दम नि । पर भावों के महाचक्र में फंसकर नित गोता खाया। भव समुद्र से पार उतरने निज अखण्ड तन्दुल लाया ॥ जय० ___ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिन द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम नि० । कामवाण को महा व्याधि से पीड़ित हो अति दुख पाया। सुदृढ़ भक्ति नौका में चढ़ कर शील पुष्प पाने आया ॥ जय० ___ ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम नि० । विविध भाँति के षटरस व्यञ्जन खाकर तृप्त न हो पाया। क्षुधा रोग से विनिमुक्त होने नैवेद्य भेंट लाया ॥ जय० __ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम नि० । पर परिणति के रूप जाल में पड़ निज रूप न लख पाया। मिथ्या भ्रम हर ज्ञान ज्योति पाने को नवल दीप लाया॥ जय० ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम्
नि. स्वाहा। नरक त्रिर्य च देव नर गति में भव अनन्त धर पछताया। चहुँगति का अभाव करने को निर्मल शुद्ध धूप लाया ॥ ___ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय अष्ट कर्म बिध्वंशनाय धूपम नि० । भाव शुभाशुभ दुख के कारण इनसे कभी न सुख पाया। संवर सहित निर्जरा द्वारा मोक्ष सुफल पाने आया ॥ जय०
ॐ ह्रीं श्री अनंतनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्ताये फलम नि० । देह भोग संसार राग में रहा विराग नहीं भाया । सिद्ध शिला सिंहासन पाने अर्घ सुमन लेकर आया ॥
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जन पूजांजलि
समकित का दीप जला अंधियारा दूर हुआ ।
अज्ञान तिमिर नाशा भ्रम तम चकचूर हुआ । जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया। गुण अनन्त पाने को दर्शन करने चरणों में आया । ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्रीय अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घ्यम् नि ।
श्री पंच कल्याणक कार्तिक कृष्णा एकम् के दिन हुमा गर्भ कल्याण महान । माता जय श्यामा उर प्राये पुष्पोत्तर का त्याग विमान ॥ नव बारह योजन की नगरी रची अयोध्या श्रेष्ठ प्रधान । जय अनन्त प्रभु मणि वर्षा की पन्द्रह मास सुरों ने प्रान ॥ ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय कार्तिक कृष्ण प्रतिप्रदा गर्भ कल्याणक
संयुक्ताय अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा । नगर अयोध्या सिंहसेन नृप के गृह गूजी शहनाई। ज्येष्ठ कृष्ण द्वादश को जन्मे सारी जगती हर्षायो । ऐरावत पर गिरि सुमेरु ले जा सुरपति ने न्हवन किया। जय अनन्त प्रभु सुर सुरांगनाओं ने मङ्गल नृत्य किया।
ॐ ह्रीं श्री अतन्तनाथ जिनेन्द्राय ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी जन्म कल्याण ___ मण्डिताय अर्घ्यम् नि० स्वाहा । उल्कापात देखकर तुमको एक दिवस वैराग्य हुआ। ज्येष्ठ कृष्ण द्वादश को स्वामी राज्य पाट का त्याग हुप्रा॥ गये सहेतुक वन में तरु अश्वत्थ निकट दीक्षा धारी। जय अनन्त प्रभु नग्न दिगम्बर वीतराग मुद्रा धारी ॥ ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी तप कल्याणक
प्राप्ताय अय॑म् नि० स्वाहा। एक मास तक प्रतिमा योग धार कर शुक्ल ध्यान किया। चार घातिया कर्म नाश कर तुमने केवल ज्ञान लिया ।
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८२]
जैन पूजांजलि
जिय कब तक उलझोगा संसार विजल्पो में ।
कितने भवबीत चुके संकल्प विकल्पों में । चैत्र मास को कृष्ण अमावस्या को शिव सन्देश दिया। जय अनन्त जिन भव्य जनों को परम श्रेष्ठ उपदेश दिया। ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय चैत्र कृष्ण अमावस्याम ज्ञा
कल्याणक प्राप्ताये अर्घम नि० स्वाहा । चैत्र कृष्ण की श्रेष्ठ प्रमावस्या तुमने निर्वाण लिया। कूट स्वयंभू सम्मेदाचल देवों ने जयगान किया । हो प्रयोग केवली योग का प्रथम समय में अन्त किया। जय अनन्त प्रभु निज सिद्धत्व प्रगट कर पद भगवन्त लिया।
ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय कार्तिक कृष्णा अमावस्याम् मोर ____मङ्गल मण्डिताय अर्घ्यम नि• स्वाहा ।
जयमाला 8 चतुर्दशम् तीर्थङ्कर स्वामी पूज्य अनन्तनाथ भगवान् । दिव्य ध्वनि के द्वारा तुमने किया भव्य जन का कल्याण ॥ थे पचास गणधर जिनमें पहिले गणधर थे जय मुनिवर । सर्वश्री थी मुख्य आयिका श्रोता भव्य जीव सुर नर ॥ चौदह जीव समास मार्गणा चौदह तुमने बतलाये । चौदह गुण स्थान जीवों के परिणामों के दर्शाये ॥ बादर सूक्ष्म जीव एकेन्द्रिय पर्याप्तक व अपर्याप्तक । दो इन्द्रिय त्रय इन्द्रिय चतुइन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्तक । संजी और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्तक । येही चौदह जीव समास जीव के जग में परिचायक ॥ गति इन्द्रिय कषाय अरु लेश्या वेद योग संयम सम्यक्त्व । काय अहार ज्ञान दर्शन पर हैं संजोत्व और भव्यत्व ॥
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जैन पूजांजलि
आत्म सूर्य को जो प्रगटाये उसे धर्म कहते है । भव बंधन में जो उलझाए उसे कर्म कहते है ।
यह चौदह मार्गणा जीव की होती है इनसे पहचान । पंचानवे भेद हैं इनके जीव सदा हैं सिद्ध समान ॥ गति हैं चार पाँच हैं इन्द्रिय छह लेश्या पच्चीस कषाय । वेद तीन सम्यकत्व भेद छह पन्द्रह योग और षट काय ॥ दो पाहार चार दर्शन हैं, संयम सात अष्ट हैं ज्ञान । दो संजोत्व और हैं दो भव्यत्व मार्गणा भेद प्रधान ॥ गुरण स्थान मार्गणा व जीव समास सभी व्यवहार कथन । निश्चय से यह नहीं चोव के इन सबसे प्रतीत चेतन ॥ मूल प्रकृतियां कर्म आठ ज्ञानावरणादिक होती हैं। उत्तर प्रकृति एक सौ अड़तालीस कर्म की होती हैं। गुण स्थान मिथ्यात्व प्रथम में एक शतक सत्रह का बन्ध । दूजे सासादन में होता एक शतक व एक का बन्ध । मित्र तीसरे गुण स्थान में प्रकृति चौहत्तर का हो बन्ध । चौये अविरत गुण स्थान में प्रकृति सतत्तर का हो बन्ध । पंचम देश विरत में होता सड़सठ कर्म प्रकृति का बन्ध । गुण स्थान षष्ठम् प्रमत्त में त्रेसठ कर्म प्रकृति का बन्ध । सप्तम् अप्रमत्त में होता उनसठ कर्म प्रकृति का बन्ध । अष्ट अपूर्व करण में हो अट्ठावन कर्म प्रकृति का बन्ध । नौं अनिवृत्तिकरण में होता है बाईस प्रकृति का बन्ध । दसर्वे सूक्ष्म साम्पराध में सतरह कर्म प्रकृति का बन्ध ॥ ग्यारवें उपशान मोह में एक प्रकृति साता का बन्ध । क्षीण मोह बारहवें में है एक प्रकृति साता का बन्ध ॥ है संयोग केवली त्रयोदश एक प्रकृति साता का बन्ध । है अयोग केवलो चतुर्दश किसी प्रकृति का कोई न बन्ध ।
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जैन पूजांजलि
भोतिक सुख की चकाचौंध में जीवन बीत रहा है ।
भावमरण प्रति समय हो रहा जीवन रीत रहा है ।। अष्टम् गुण स्थान में उपशम क्षपक श्रेणि होती प्रारम्भ । उपशय नौ,दस,ग्यारह तक है नव दस बारह क्षायक रम्य ॥ अविरत गुण स्थान चौथे में होता सात प्रकृति का क्षय। पंचम् षष्ठम् सप्तम् में होता है तीन प्रकृति का क्षय ॥ नवमें गुण स्थान में होता है छत्तीस प्रकृति का क्षय । दसवें गुण स्थान में होता केवल एक प्रकृति का क्षय ॥ क्षीण मोह बारहवे में हो सोलह कर्म प्रकृति का क्षय । इस प्रकार चौथे से बारहवे तक सठ प्रकृति विलय ॥ गुण स्थान तेरहवें में सर्वज्ञ अनंत चतुष्टयवान । जीवन मुक्त परम प्रौदारिक सकल ज्ञेय ज्ञायक भगवान ॥ चौदहवें में शेष प्रकृति पिच्चासी का होता है क्षय । प्रकृति एक सौ अड़तालीस कर्म को होती पूर्ण विलय ॥ ऊर्ध्व गमन कर देह मुक्त हो सिद्ध शिला लोकाग्र निवास। पूर्ण सिद्ध पर्याय प्रगट, होता है सादि अनंत प्रकाश ।। काल अनंत व्यर्थ ही खोये दुख अनंत अब तक छाये । द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भव परिवर्तन पांचों पाये ॥ पर भावों में मग्न रहा तो रही विकारी ही पर्याय । निज स्वभाव का आश्रय लेता होती प्रगट शुद्ध पर्याय ॥ प्रष्ट कर्म से रहित अवस्था पाऊं परम शुद्ध हे देव । शुद्ध त्रिकाली ध्रुव स्वभाव से मैं भी सिद्ध बन स्वयमेव ॥ इसीलिये हे स्वामी मैंने प्रष्ट द्रव्य से की पूजन । तुम समान मैं भी बन जाऊं ले निज ध्रुव का अबलम्बन ॥ ॐ ह्रीं अनन्तनाथ जिनेन्द्राय गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण कल्याणक
प्राप्ताय पूर्णाऱ्याम् नि० स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि
[८५
अचेतन द्रव्य जड़ संयोग सुख दुख के नहीं दाता।
संयोगी भाव करके तू स्वयं दुखवान होता है ।। सेही चिह्न चरण में शोभित श्री अनंत प्रभु पद उर धार । मन वच तम जो ध्यान लगाते हो जाते भव सागर पार ॥
४ इत्यार्शीवादः ४ जाप्य- ॐ ह्रीं श्री अनंतनाथ जिनेन्द्राय नमः ।
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श्री शान्तिनाथ पूजन शान्ति जिनेश्वर हे परमेश्वर परम शान्त मुद्रा अभिराम । पञ्चम चक्री शान्ति सिन्धु सोलहवें तीर्थङ्कर सुखधाम ॥ निजानन्द में लीन शान्ति नायक जग गुरु निश्चल निष्काम । श्री जिन दर्शन पूजन अर्चन वंदन नित प्रति करूं प्रणाम ॥
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् । जल स्वभाव शीतल मलहारी आत्म स्वभाव शुद्ध निर्मल । जन्म मरण मिट जाये प्रभु जब जागे निज स्वभाव का बल । परम शान्तिसुखदायक शान्तिविधायक शान्तिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति होश्री जिनवर दो यह वरदान ॥ ___ ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिने द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं
निर्वपामीति स्वाहा । शीतल चन्दन गुण सुगन्धमय निज स्वभाव अति हो शीतल। पर विभाव का ताप मिटाता निज स्वरूप का अन्तर्बल ॥परम ० ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चन्दनम्
निर्वपामीति स्वाहा । भव अटवी से निकल न पाया पर पदार्थ में अटका मन । यह संसार पार करने का निज स्वभाव हो है साधन ॥ परम०
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि ।
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जन पूजांजलि जिस घड़ी निज आत्म की अनुभूति होती है।
उस घड़ी सम्यक्त्व की सुविभूति होती है । कोमल पुष्म मनोरम जिनमें राग प्राग की दाह प्रबल । निज स्वरूप को महाशक्ति से काम व्यथा होती निर्बल ॥ परम० ___ॐ ह्रीं था शांतिनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि० । उर की क्षुधा मिटाने वाला यह चरु तो दुखदायक है। इच्छाओं को भूख मिटाता निज स्वभाव सुखदायक है ॥ परम०
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि० । अन्धकार में भ्रमते भ्रमते भव भव में दुख पाया है। निज स्वरूप के ज्ञान भानु का उदय न अब तक पाया है। परम०
ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम नि० । इष्ट अनिष्ट संयोगों में ही अब तक सुख दुख माना है। पूर्ण त्रि काली ध्र व स्वभाव का बल न कभी पहिचाना है ॥परम० ___ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथ जिनेन्द्र य अप्ट कर्म विनाशनाय धूपम् नि । शुद्ध भाव पीयूष त्याग कर पर को अपना मान लिया। पुण्य फलों में रूचि करके अब तक मैंने विष पान किया ॥परम० __ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि० स्वाहा । अवि नश्व र अनुपम अनर्घ पद सिद्ध स्वरूप महा सुखकार । मोक्ष भवन निर्माता निज चैतन्य रागनाशक अघहार ।। परम० ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्ताये अर्घम् नि० स्वाहा ।
श्री पंच कल्याणक भादव कृष्ण सप्तमी के दिन तज सर्वार्थ सिद्धि आये। माता ऐरा धन्य हो गई विश्वसेन नप हरषाये ॥ छप्पन दिककुमारियों ने नित नवल गीत मङ्गल गाये। शान्तिनाथ के गर्भोत्सव पर रत्न इन्द्र ने बरसाये ॥ ॐ ह्रीं भाद्रपद कृष्ण सप्तमी गर्भ मङ्गल मण्डिताय श्री शांतिनाथ
जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि
[८७
जब तक मिथ्यात्व हदय में है संसार न पल भर कम होगा। जब तक पर द्रव्यों से प्रतीति भव भार न तिल भर कम होगा।
नगर हस्तिनापुर में जन्मे त्रिभुवन में प्रानन्द हुआ। ज्येष्ठ कृष्ण को चतुर्दशी को सुरगिरि पर अभिषेक हुआ ॥ मङ्गल वाद्य नृत्य गीतों से गूंज उठा था पाण्डक वन । हुआ जन्म कल्याण महोत्सव शान्तिनाथ प्रभु का शुभ दिन ॥ __ॐ ह्रीं ज्येष्ठ वदी चतुर्दश्यां जन्म मङ्गल मण्डिताय श्री शांतिनाथ
जिनेन्द्राय अर्घ्यम् नि० स्वाहा । मेघ विलय लख इस जग की अनित्यता का प्रभु भान लिया। लौकान्तिक देवों ने प्राकर धन्य धन्य जय गान किया । कृष्ण चतुर्दशि ज्येष्ठ मास की अतुलित वैभव त्याग दिया। शान्तिनाथ ने मुनिव्रत धारा शुद्धातम अनुराग किया । ॐ ह्रीं जेष्ठ कृष्णा चतुर्दश्याम् तपो मङ्गल मण्डिताय श्री शान्तिनाथ
जिनेन्द्राय अर्घ्यम् नि० स्वाहा । पौष शुल्क दशमी को चारों घातिकर्म चकचूर किये । पाया केवल ज्ञान जगत के सारे सङ्कट दूर किये । समवशरण रचकर देवों ने किया ज्ञान कल्याण महान । शान्तिनाथ प्रभु की महिमा का गूजा जग में जय-जय गान॥ __ॐ ह्रीं पौष शुल्का दशम्यां केवल ज्ञान मण्डिताय श्री शांतिनाथ
जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा । ज्येष्ठ कृष्ण की चतुर्दशी को प्राप्त किया सिद्धत्व महान । कूट कुन्द प्रभ गिरि सम्मेद शिखर से पाया पद निर्वाण ॥ सादि अनन्त सिद्ध पद को प्रगटाया प्रभु ने धर निज ध्यान । जय-जय शान्तिनाथ जगदीश्वर अनुपम हुमा मोक्ष कल्याण ॥ ॐ ह्रीं ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दश्यां मोक्ष मङ्गल मण्डिताय श्री शांतिनाथ जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा ।
(जयमाला) शान्तिनाथ शिवनायक शान्ति विधायक शचिमय शुद्धात्मा। शुभ्र मूर्ति शरणागत वत्सल शील स्वभावी शान्तात्मा ॥
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८८]
जन पूजांजलि
विन समकित व्रत पूजन अर्चन जप तप सब तेरे निष्फल हैं।
संसार बंध के हैं प्रतीक भवसागर के ही दल दल हैं । नगर हस्तिनापुर के अधिपति विश्वसेन नृप के नन्दन । मां ऐरा के राजदुलारे सुर नर मुनि करते वन्दन ॥ कामदेव बारहवें पंचम चक्री तीन ज्ञान धारी । बचपन में अणुवत धर यौवन में पाया वैभव भारी॥ भरतक्षेत्र के षट खण्डों को जय कर हुए चक्रवर्ती । नवनिधि चौदह रत्न प्राप्त कर शासक हुए न्यायवर्ती ॥ इस जग के उत्कृष्ट भोग भोगते बहुत जीवन बीता। एक दिवस नभ मेंघन का परिवर्तन लख निज मन रोता ॥ यह संसार असार जानकर तप धारण का किया विचार। लौकान्तिक देव षि सुरों ने किया हर्ष से जय-जयकार ॥ वन में जाकर दीक्षा धारी पंच मुष्टि कचलोच किया। चक्रवति को अतुलसम्पदा क्षण में त्याग विराग लिया ॥ मन्दिर पुर के नप सुमित्र ने भक्तिपूर्वक दान दिया। प्रभुकर में पय धारा दे भव सिन्धु सेतु निर्माण किया ॥ उच्च तपस्या से तुमने कर्मों की कर निर्जरा महान । सोलह वर्ष मौंन तप करके ध्याया शुद्धातम का ध्यान ॥ श्रेणी क्षपक चढे स्वामी केवल ज्ञानी सर्वज्ञ हुए। दिव्य ध्वनि से जीवों को उपदेश दिया विश्वज्ञ हुए । गणधर थे छत्तीस आपके चक्रायुध पहले गणधर ॥ मुख्य आयिका हरिषेणाथों श्रोता पशु,नर,सुर, मुनिवर ॥ कर विहार जग में जगती के जीवों का कल्याण किया । उपादेय है शुद्ध प्रात्मा यह सन्देश महान दिया ॥ पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ प्राश्रव जग में भ्रमण कराते हैं । जो संवर धारण करते हैं परम मोक्ष पद पाते हैं ।
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जैन पूजांजलि
[८६
बैराग्य घटा घिर आई चमकी निजत्व की बिजली । अब जिय को नहीं सहाती पर के ममत्व की कजली ।।
सात तत्त्व को श्रद्धा करके जो भी समकित धरते हैं। रत्नत्रय का अवलम्बन ले मुक्ति वधू को बरते हैं। सम्मेदाचल के पावन पर्वत पर आप हुए प्रासीन । कूट कुन्दप्रभ से प्रघातिया कर्मों से भी हुए विहीन ॥ महा मोक्ष निर्वाण प्राप्त कर गुण अनन्त से युक्त हुए। शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध सिद्ध पद पाया भव से मुक्त हुए। हे प्रभु शान्तिनाथ मङ्गलमय मुझको भी ऐसा वर दो। शुद्ध प्रात्मा का प्रतीति मेरे उर में जाग्रत कर दो। पाप, ताप सन्ताप नष्ट हो जाये सिद्ध स्वपद पाऊँ । पूर्ण शान्तिमय शिव सुख पाकर फिर न लौट भव में पाऊँ।
ॐ ह्रीं श्री शानिनाथ जिनेन्द्राय महार्ण्यम् नि स्वाहा । चरणों में मृग चिह्न सुशोभित शान्ति जिनेश्वर का पूजन ।। भक्ति भाव से जो करते हैं वे पाते हैं मुक्ति गगन ॥
४ इत्याशीर्वादः ॐ ह्री श्री शांतिनाथ जिनेन्द्राय नमः ।
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__ श्री नेमिनाथ पूजन जय श्री नेमिनाथ तीर्थङ्कर बाल ब्रह्मचारी भगवान । हे जिनराज पर उपकारी करुणा सागर दया निधान ।। दिव्यध्वनि के द्वारा हे प्रभु तुमने किया जगत कल्याण । श्री गिरनार शिखर से पाया तुमने सिद्ध स्वपद निर्वाण ॥ आज तुम्हारे दर्शन करके निज स्वरूप का प्राया ध्यान । मेरा सिद्ध समान सदा पद यह दृढ़ निश्चय हुआ महान ॥
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अतवर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र अत्र मम् सन्निहितो भव भव वपट् ।
जाप्य
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जैन पूजांजलि
समकित का सावन आया समरस की लगी झडी रे ।
अंतरस की रोती सरिता भर आई उमड़ पड़ी रे॥ समकित जल को धारा से तो मिथ्या भ्रम धुल जाता है। तत्त्वों का श्रद्धान स्वयं को शाश्वत मङ्गल दाता है । नेमिनाथ स्वामी तुम पद पंकज को करता हूँ पूजन । वीतराग तीर्थङ्कर तुमको कोटि कोटि मेरा वन्दन ।। ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय मिथ्यात्व विनाशनाय जलम्
निर्वपामोति स्वाहा। सम्यक् श्रद्धा का पावन चन्दन भव ताप मिटाता है । क्रोध कषाय नष्ट होती है निज की अरुचि हटाता है। नेमि०
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय क्रोध कपाय विनाशनाय चन्दम् नि । माव शुभाशुभ का अभिमानी मान कषाय बढ़ाता है। वस्तु स्वभाव जान जाता तो मान कषाय मिटाता है ।। नेमि०
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय मान कषाय विनाशनाय अक्षतम् नि । चेतन छल से पर भावों का माया जाल बिछाता है। भव भव की माया कषाय को समकित पुष्प मिटाता है। नेमि०
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय माया कपाय विनाशनाय पुष्पम् नि । तृष्णा को ज्वाला से लोभी कभी नहीं सुख पाता है । सम्यक् चरु से लोभ नाश कर यह शुचिमय हो जाता है। नेमि०
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय लोभ कषाय विनाशनाय नैवेद्यम् नि । अन्धकार प्रज्ञान जगत में भव भव भ्रमण कराता है। समकित दीप प्रकाशित हो तो ज्ञान नेत्र खुल जाता है ।।, नेमि०
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपम् नि० । पर विभाव परिणति में फंसकर निज का धुवाँ उड़ाता है । निज स्वरूप की गन्ध मिले तो पर को गन्ध जलाता है। नेमि०
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय विभाव परणित विनाशनायधूपम् नि ।
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जैन पूजांजलि
[१
जब तक निज पर भेद न जाना तब तक ही अज्ञानी। जिस क्षण निज पर भेद जान ले उस क्षण ही तू ज्ञानी ॥
निज स्वभाव फल पाकर चेतन महा मोक्ष फल पाता है । चहुँगत के बन्धन कटते हैं सिद्ध स्वपद पा जाता है । नेमि० ___ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि । जल फलादि वसु द्रव्य पर्व से लाभ न कुछ हो पाता है। जब तक निज स्वभाव में चेतन मग्न नहीं हो जाता है ।। नेमिनाथ स्वामी तुम पद पंकज को करता हूं पूजन । वीतराग तीर्थकर तुमका कोटि कोटि मेरा वन्दन ॥ ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घम् नि० स्वाहा।
श्री पंच कल्याणक कार्तिक शुक्ला षष्ठी के दिन शिव देवी उर धन्य हुआ। अपराजित विमान से चलकर आये मोद अनन्य हुआ ॥ स्वप्न फलों को जान सभी के मन में अति प्रानन्द हुआ। नेमिनाथ स्वामी का गर्भोत्सव मंगल सम्पन्न हुआ । ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय कार्तिक शुक्ल षष्ठयाँ गर्भ मङ्गल
मण्डिताय अर्धम् नि। श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन शौर्यपुरी में जन्म हुमा । नृपति समुद्र विजय प्राँगन में सुर सुरपति का नृत्य हुप्रा ॥ मेरु सुदर्शन पर क्षीरोदधि जल से शुभ अभिषेक हुआ । जन्म महोत्सव नेमिनाथ का परम हर्ष अतिरेक हुआ ॥ ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय श्रावण शुक्ला षष्ठयां जन्म मङ्गल
मण्डिताय अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा । श्रावण शुक्ल षष्ठमी को प्रभु पशुओं पर करुणा आई। राजमती तज सहलान वन में जा जिन दीक्षा पाई ॥
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९२]
जैन पूजांजलि पुण्यों की जब तक मिठास है वीतरागता नहीं सुहातो । जड की रुचि में विन्मरति चिन्मरति की रुचि व भी न भाती।
इन्द्रादिक ने उठा पालको हर्षित मङ्गलचार किया । नेमिनाथ प्रभु के तप कल्याणक पर जय-जयकार किया । ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय श्रावण शुक्ल षष्ठयां तपो मङ्गल
मण्डिताय अर्घम् नि० स्वाहा । प्राश्विन शुक्ला एकम् को प्रभु हुमा ज्ञान कल्याण महान । उर्जयंत पर समवशरण में दिया भव्य उपदेश प्रधान ॥ ज्ञानावरण, दर्शनावरणी मोहनीय का नाश किया। नेमिनाथ ने अन्तराय क्षय कर कैवल्य प्रकाश लिया। ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय आश्विन शुक्ला प्रतिपदायाम् ज्ञान मङ्गल
मण्डिताय अर्घम् नि० स्वाहा। श्री गिरनार क्षेत्र पर्वत से महा मोक्ष पद को पाया। जगतो ने प्राषाढ़ शुक्ल सप्तमी दिवस मङ्गल गाया ॥ वेदनीय अरु आयु नाम पर गोत्र कर्म अवसान किया। प्रष्ट कर्म हर नेमिनाथ ने परम पूर्ण निर्वाण लिया । ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय आपाढ़ शुक्ला सप्तभ्यां मोक्ष मङ्गल मण्डिताय अर्घम् नि० स्वाहा।
जयमाला जय नेमिनाथ नित्योदित जिन, जय नित्यानन्द नित्य चिन्मय। जय निविकल्प निश्चल निर्मल, जय निविकार नीरज निर्भय॥ नृपराज समुद्र विजय के सुत माता शिव देवी के नन्दन । प्रानन्द शौर्यपुर में छाया जय-जय से गूजा पाण्डुक वन ॥ बालकपन में कीड़ा करते तुमने धारे अणुव्रत सुखमय । द्वारिका पुरी में रहे अवस्था पाई सुन्दर यौवन वय ॥ प्राभोद-प्रमोद तुम्हारे लख पूरा यादव कुल हनिा । तब श्रीकृष्ण नारायण ने जूनागढ़ से जोड़ा नाता ॥
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जैन पूजांजलि
[ER
वीतराग विज्ञान ज्ञान का अनुभव ज्ञान चेतना लाता। कर्म चेतना उड़ जाती है निज चैतन्य परम पद पाता ।
राजुल से परिणय करने को जूनागढ़ पहुंचे वर बनकर । जीवों की करुण पुकार सुनी जागा उर में वैराग्य प्रखर ॥ पशुत्रों को बन्धन मुक्त किया कङ्गन विवाह का तोड़ दिया। राजुल के द्वारे प्राकर भी स्वणिम रथ पोछे मोड़ लिया । रथ त्याग चढ़ गिरनारी पर जा पहुंचे सहस्राम्रवन में। वस्त्राभूषण सब त्याग दिये जिन दीक्षा धारी तन मन में ॥ फिर उग्र तपस्या के द्वारा निश्चय स्वरूप मर्मज्ञ हुए। घातिया कर्म चारों नाशे छप्पन दिन में सर्वज्ञ हुए ॥ तीर्थङ्कर प्रकृति उदय प्राई सुर हर्षित समवशरण रचकर। प्रभु गन्ध कुटी में अन्तरीक्ष आसीन हुए पद्मासन धर ॥ ग्यारह गणधर में थे पहले गणधर वरदत्त महा ऋषिवर । थी मुख्य प्रायिका राजमती श्रोता थे अगणित भव्य प्रवर ॥ दिव्य ध्यान खिरने लगी शाश्वत ओंकार घन गर्जन सो। शुभ बारह सभा बनी अनुपम सौन्दर्य प्रभा मणिकंचन सी ॥ जग जीवों का उपकार किया भूलों को शिव पथ बतलाया। निश्चय रत्नत्रय की महिमा का परम मोक्ष फल दर्शाया । कर प्राप्त चतुर्दश गुण स्थान योगों का पूर्ण अभाव किया। कर ऊर्ध्व गमन सिद्धत्व प्राप्त कर सिद्ध लोक आवास लिया। गिरनार शैल से मुक्त हुए तन के परमाणु उड़े सारे । पावन मङ्गल निर्वाण हुआ सरगण के गूंजे जयकारे ॥ नख केश शेष थे देवों ने माया मय तन निर्माण किया । फिर अग्नि कुमार सुरों ने आ मुकुटानल से तन भस्म किया। पावन भस्मी का निज निज के मस्तक पर सबने तिलक किया। मङ्गल वाद्यों को ध्वनि गूजो निर्वाण महोत्सव पूर्ण किया ।
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जन पूजांजलि यदि भव सागर दख से भय है तो तज दो पर भाव को।
करो चिन्तवन शुद्धातम का पालो सहज स्वभाव को। कर्मों के बन्धन टूट गये पूर्णत्व प्राप्त कर सुखी हुए। हम तो अनादि से हे स्वामी ! भव दुख वन्धन से दुखी हुए। ऐसा अन्तर बल दो स्वामी हम भी सिद्धत्व प्रात्त कर लें। तुम पद चिह्नों पर चल प्रभुवर शुभ अशुभ विभावों को हरलें। परिणाम शुद्ध का अर्चन कर हम अन्तर ध्यानी बन जावें । घातिया चार कर्मो को हर हम केवल ज्ञानी बन जावें ॥ शाश्वत शिव पद पाने स्वामी हम पास तुम्हारे आ जायें। अपने स्वभाव के साधन से हम तीन लोक पर जय पायें । निज सिद्ध स्वपद पाने को प्रभु हर्षित चरणों में पाया हूं। वसु द्रव्य सजा हे नेमीश्वर प्रभु पूर्ण अर्घ मैं लाया हूं ॥
ॐ ह्रीं श्री नमिनाथ जिनेन्द्राय पन्चकल्याणक प्राप्ताय पूर्णाघम् नि० । शङ्क चिह्न चरणों में शोभित जय-जय नेमि जिनेश महान । मन वच तन जो ध्यान लगाते वे हो जाते सिद्ध समान ॥
४ इत्याशीर्वादः ४ जाप्य- ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नमः
श्री पार्श्वनाथ पूजन तीर्थङ्कर श्री पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में करू नमन । अश्वसेन के राजदुलारे वामा देवी के नन्दन ॥ बाल ब्रह्मचारी भवतारी योगीश्वर जिनवर वन्दन । श्रद्धा भाव विनय से करता श्री चरणों का 'मैं अर्चन ॥
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट्
सन्निधिकरणं ।
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जैन पूजांजलि
१५ परिणाम बंध का कारण है।
परिणाम मोक्ष का कारण ॥ समकित जल से तो अनादि को मिथ्या भ्रान्ति हटाऊँ मैं । निज अनुभव से जन्म मरण का अंत सहज पा जाऊँ मैं ॥ चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं । सङ्कटहारी मङ्गलकारी श्री जिनवर गुण गाऊँ मैं ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं
निर्वपामीति स्वाहा । तन की तपन मिटाने वाला चन्दन भेंट चढ़ाऊँ मैं। भव प्राताप मिटाने वाला समकित चन्दन पाऊँ मैं ॥ चिन्ता० ___ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चन्दम् नि । अक्षत चरण समपित करके निज स्वभाव में आऊँ मैं । अनुपम शान्त निराकुल प्रक्षय अविनश्वर पद पाऊं मैं ॥ चिन्ता ___ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेद्राय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि० । अष्ट अङ्गयुत सम्यक् दर्शन पाऊँ पुष्प चढ़ाऊँ मैं। कामवाण विध्वंस करुं निज शील स्वभाव सजाऊँ मैं। चिन्ता
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि । इच्छाओं को भूख मिटाने सम्यक् पथ पर आऊँ मैं। समकित का नैवेद्य मिले तो क्षुधा रोग हर पाऊँ मैं ॥चिन्ता०
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि । मिथ्यातम के नाश हेतु यह दीपक तुम्हें चढ़ाऊँ मैं । समकित दीप जले अन्तर में ज्ञान ज्योति प्रगटाऊँ मैं ॥ चिन्ता० ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम्
निर्वपामोति स्वाहा । समकित धूप मिले तो भगवन् शुद्ध भाव में आऊं मैं । भाव शुभाशुभ धूम्र बन उड़ जायें धूप चढ़ाऊँ मैं । चिन्ता०
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अष्ट कर्म दहनाय धपम् नि० ।
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जन पूजांजलि
जीव गुद्ध है किन्तु विकारी है अजीव के सँग पर्याय ।
जड़ पुद्गल कर्मों की छाया में पाता भव दुख समुदाय ॥ उत्तम फल चरणों में अपित आत्म ध्यान ही ध्याऊँ मैं । समकित का फल महाम:क्ष फल प्रभु अवश्य पा.जाऊँ मैं। चिन्ता०
ॐ ह्रीं श्री पार्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् नि । अष्ट कर्म क्षय हेतु अष्ट द्रव्यों का अर्घ बनाऊँ मैं । अविनाशी अविकारी अष्टम वसुधापति बन जाऊँ मैं ॥ चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं। सङ्कटहारी मङ्गखकारी श्री जिनवर गुण गाऊँ मैं ॥ ॐ ह्री श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्रीय अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घ्यम् नि० स्वाहा ।
श्री पंच कल्याणक प्राणत स्वर्ग त्याग साये माता वामा के उर श्रीमान । कृष्ण दूज बैशाख सलोनी सोलह स्वप्न दिखे छविमान ॥ पन्द्रह मास रत्न बरसे नित मङ्गलमयी गर्भ कल्याण । जय जय पाव जिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जय जय दया निधान । ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनन्द्राय बैसाख कृष्ण द्वितिया गर्भ कल्याणक
प्राप्ताय अर्घ्यम नि० स्वाहा । पौष कृष्ण एकादशी को जन्मे, हुआ जन्म कल्याण । ऐरावत गजेन्द्र पर आये तब सौधर्म इन्द्र ईशान ॥ गिरि सुमेरु पर क्षीरोदधि से किया दिव्य अभिषेक महान । जय जय पाश्र्व जिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जय जय दया निघान ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय पौष कृष्णा एकादश्यां जन्म कल्याणक
प्राप्ताय अय॑म् नि० स्वाहा। बाल ब्रह्मचारी वत्तधारी उर छाया वैराग्य प्रधान । लौकान्तिक देवों ने प्राकर किया प्रापका जय जय गान ।
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जंन पूर्जाजलि
[६७
यह निकृष्ट पर परिर्णात तुझको, नर्क निगोद बताएगी। सर्वोत्कृष्ट स्वयं की परिणति, तुझे मोक्ष ले जाएगी।
पौष कृष्ण एकादशमी को हुआ प्रापका तप कल्याण । जय जय पाश्र्व जिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जय जय दया निधान । ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय पौष कृष्णा एकादश्याम् तपो कल्याण
प्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा। कमठ जीव ने अहि क्षेत्र पर किया घोर उपसर्ग महान् । हुए न विचलित शुक्ल ध्यान धर श्रेणी चढ़े हुए भगवान् ।। चैत्र कृष्ण को चौथ हो गई पावन प्रगटा केवल ज्ञान । जय जय पाश्र्व जिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जय जय दया निधान । ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय चैत्र कृष्ण चतुर्थी ज्ञान कल्याणक
प्राप्तये अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन बने अयोगी हे भगवान् । अन्तिम शुक्ल ध्यान घर सम्मेदाचल से पाया पद निर्वाण ॥ कूट सुवर्ण भद्र पर इन्द्रादिक ने किया मोक्ष कल्याण । जय जय पार्श्व जिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जय जय दया निधान ।। ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय श्रावण शुक्ल सप्तमी मोक्ष कल्याणक प्राप्तये अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला ४ तेईसवें तीर्थङ्कर प्रभु परम ब्रह्ममय परम प्रधान । प्राप्त महा कल्याणपंचकः पार्श्वनाथ प्रणतेश्वर प्राण ॥ वाराणसी नगर अति सुन्दर विश्वसेन नृप परम उदार । ब्राह्मी देवी के घर जन्मे जग में छाया हर्ष अपार ॥ मति श्रुति अवधि ज्ञान के धारी बाल ब्रह्मचारी विभुवान। अल्प आयु में दीक्षा धर के पंच महावत घरे महान ॥ चार मास छमस्थ मौन रह वीतराग अर्हन्त हुए। प्रात्म ध्यान के द्वारा प्रभु सर्वज्ञ देव भगवन्त हुए।
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६८]
जैन पूजांजलि
मैं निर्वकल्प हूँ शुद्ध बुद्ध, इतना तो अंगीकार करो।
शद्धपयोग मय परम पारिणामिक स्वभाव स्वीकार करो। बैरी कमठ जीव ने तुमको नौ भव तक दुख पहुंचाया। इस भव में भी संवर सुर हो महा विघ्न करने प्राया ॥ किया अग्निमय घोर उपद्रव भीषण झंझावात चला। जल प्लावित हो गयी धरा पर ध्यान प्रापका नहीं हिला॥ यक्षी पद्मावती यक्ष धरणेन्द्र विघ्न हरने पाये । पूर्व जन्म के उपकारों से हो कृतज्ञ तत्क्षण प्राये ॥ प्रभु उपसर्ग निवारण के हित शुभ परिणाम हृदय छाये। फण मण्डप अरु सिंहासन रच जय जय जय प्रभु गुण गाये ॥ देव आपने साम्य भाव धर निज स्वरूप को प्रगटाया। उपसर्गों पर जय पाकर प्रभु निज कैवल्य स्वपद पाया। कमठ जीव को भाया विनशी वह भी चरणों में आया । समवशरण रचकर देवों ने प्रभु का गौरव प्रगटाया ॥ जगत जनों को ओंकार ध्वनिमय प्रभु ने उपदेश दिया। शुद्ध बुद्ध भगवान् प्रात्मा सबको है सन्देश दिया । दश गणधर थे जिनमें पहले मुख्य स्वयंभू गणधर थे। मुख्य प्रायिका सुलोचना थीं श्रोता महासेन वर थे॥ जीव, अजीव, प्राश्रव, संवर, बन्ध निर्जरा मोक्ष महान । ज्यों का त्यों श्रद्धान तत्व का सम्यक् दर्शन श्रेष्ठ प्रधान ॥ जीव तत्व तो उपादेय है, अरु अजीव तो है सब ज्ञेय । आश्रव बन्ध हेय है साधन संवर निर्जर मोक्ष उपेय ॥ सात तत्व ही पाप पुण्य मिल नव पदार्थ हो जाते हैं। तत्व ज्ञान बिन जग के प्राणी भव भव में दुख पाते हैं । वस्तु तत्व को जान स्वयं के प्राश्रय में जो पाते हैं। प्रात्म चितवन करके वे ही श्रेष्ठ मोक्ष पद पाते हैं।
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जैन पूजांजलि
जो स्वरूप वेत्ता होता है, वही भावभु त जल पीता है।
सर्व द्रव्य गुण पर्यायों को, जान अमर जीवन जीता है। हे प्रभु ! यह उपदेश प्रापका मैं निज अन्तर में लाऊ । प्रात्म बोध को महाशक्ति से मैं निर्वाण स्वपद पाऊँ ॥ अष्ट कर्म को नष्ट करूं मैं तुम समान प्रभु बन जाऊं। सिद्ध शिला पर सदा विराजू निज स्वभाव में मुस्काऊँ। इसी भावना से प्रेरित हो हे प्रभु ! की है यह पूजन । तुव प्रसाद से एक दिवस मैं पा जाऊंगा मुक्ति सदन । ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण कल्याणक
प्राप्ताय पूर्णाय॑म् निर्वगमोति स्वाहा । सर्प चिह्न शोभित चरण पार्श्वनाथ उर धार । मन, वच, तन जो पूजते वे होते भव पार ।।
8 इत्याशीर्वादः ४ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नमः ।
जाप्य
श्री वर्धमान जिन पूजन वर्धमान सन्मति सुवीर प्रभु, महावीर मंगलदाता । वर्तमान चौबीसी के, प्रतिम तीर्थङ्कर विख्याता ॥ वीतराग सर्वज्ञ जिनेश्वर, त्रिभुवनपति भव दुख पाता। महामोक्ष कल्याण प्रदायक जगदुद्धारक जग त्राता ॥
ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौष्ट । ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिन न्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । नित चरण चढ़ाऊं देव निर्मल जल धारा । रागादिक मल का नाश मैं करदं सारा ॥
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१००]
जैन पूजांजलि धर्म ध्यान का क्रिया आचरण, अगर प्रशंसा के हित तो अज्ञानी जन को ठगने, में तू हआ दत्त चित
। ।
हे वर्धमान भगवान तुम पद ध्याता हूँ । हो जाऊं आप समान मन में भाता हूँ ॥ ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं
निर्वपामीति स्वाहा। चिर शीतलता के हेतु लाया हूं चंदन । हो आत्म शक्ति से नष्ट चहुँगति का क्रन्दन ॥ हे वर्धमान० ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चन्दनम् नि । शुभ अशुभ विकार विभाव आश्रव दुखदायक । हे शुद्ध भाव ही सार अक्षय सुख दायक ॥ हे वर्धमान० ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये नि० स्वाहा। दुखदायो मदन अनंग इसका गर्व हरू । सुखदायी शील अभंग हे प्रभु प्राप्त करूं ॥ हे वर्धमान० ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि० । जग के वैभव को भूख पर प्रब जय पाऊँ । तृष्णाओं का कर अंत निज वैभव ध्याऊँ ॥ हैं बर्धमान० ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि । सम्यक् प्रकाश से मोह मिथ्यातम भागे । अंतर में हो आलोक केवल रवि नागे ॥ हे वर्धमान ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि । पाठों ही कर्म विचित्र भव भव दुखकारी । हों ध्यान अग्नि में नष्ट लूं पब सुखकारी ॥ हे वर्धमान ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अष्ट कर्म विध्वंसनाय घपम् नि० । निर्वाण महाफल हेतु शुभफल ध्वान्त करूं । यह पुण्य पाप को प्राग हे प्रभु शान्त करूं । हे वर्धमान० ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलम् नि० स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि
[१०१
जोवन दृश्य बदल जाएगा, जब देखेगा निज की ओर । अघ के बादल विघट जाएंगे, हो जाएगी समकित भोर ॥
पाऊँ अनर्घ पद देव अविनश्वर अवचल । अविकारी अमल अनूप अजर अमर अविकल ॥हे वर्धमान. ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्यम् नि० ।
श्री पंच कल्याणक षष्ठी शुक्ल अषाढ़ की, हुई पवित्र महान । त्रिशला मां उर अवतरे, हुआ गर्भ कल्याण ॥ ॐ ह्रीं आषाढ़ शुक्ल षष्ठयाम् गर्भ मङ्गल मण्डिताय श्री वर्धमान
जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा । शुक्ल त्रयोदशि चैत्र की हुमा जन्म कल्याण । गिरि सुमेरु पर इन्द्र ने उत्सव किया महान ।। ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ल त्रयोदश्याम् जन्म मंगल मंडिताय श्री वर्धमान
जिनेन्द्राय अर्घ्यम् नि० । दशमी मगसिर कृष्ण की पावन तप कल्याण । भव तन भोग विरक्त हो लिया महाव्रत यान ॥ ॐ ह्रीं मार्गशीर्ष कृष्ण दश्याम् तपो मङ्गल मण्डिताय श्री वर्धमान
जिनन्द्राय अर्घ्यम नि० स्वाहा। शुक्ल दशम् वैशाख की पाया केवल ज्ञान । घाति कर्म क्षय कर हुए श्री प्ररहंत महान ॥ ॐ ह्रीं वैशाख शुक्ल दश्याम् ज्ञान मङ्गल मण्डिताय श्री वर्धमान
जिन द्राय अर्घम नि० स्वाहा । कृष्ण अमावस कार्तिकी ध्याया अन्तिम ध्यान । प्रष्ट कर्म अवसान कर हुए सिद्ध भगवान ।। ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्याम् मोक्ष मङ्गल मंडिताय श्री वर्धमान
जिनेन्द्राय अर्घम् नि० स्वाहा ।
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१०२]
जैन पूजांजलि जिस दिन तू मिथ्यात्व भाव को कर देगा पूरा विध्वंस । प्रकट स्वरूपाचरण करेगा पाकर पूर्ण ज्ञान का अंश ।
जयमाला 8 सुत सिद्धार्थ, जिनेश को वन्दू वारम्वार ।
वीतराग विज्ञान पा करूं प्रात्म उद्धार ॥ जय जय वर्धमान जिन स्वामी। महावीर प्रभु अंतर्यामी॥ जय अतिवीर वीर गुणधामी। वैशालिक सुवीर शिवनामी॥ चय जय सन्मति सन्मतिदाता । जय जगदीश्वर दृष्टाज्ञाता॥ जय सर्वेश मोक्ष सुखकारी। जय जिनेन्द्र जय दुर्गति हारी॥ बाल ब्रम्हचारी भवतारी । है त्रिकाल वन्दना हमारी ॥ चार कम घनघाति निवारक । अष्ट कर्म प्ररि के संहारक । स्वपर प्रकाशक केवल ज्ञानो। ध्यान ध्येय ध्याता विज्ञानी ॥ चिदानंद चैतन्य विलासी । मंगल मय चेतन अविनाशी ॥ निज स्वभाव साधन के द्वारा। स्वयं तरे पौरों को तारा॥ राग मात्र को हेय बताया। शुद्धातम ही श्रेय जताया ॥ भवतन भोग रोग अघनाशं । निज स्वरूप चैतन्य प्रकाशं ॥ पाप पुण्य आश्रव विनशाऊँ । संवर भाव सहज प्रगटाऊँ ॥ वस्तु स्वरूप करू हृदयंगम । तत्त्व भावना भाऊ हरदम ॥ निन शुदात्मतत्त्व को जानू । सर्वोत्कृष्ट स्वपद पहचानू ।। अब मैं सम्यक दर्शन पाऊँ । सम्यक् ज्ञान सहन उरलाऊं। सम्यक् चारित को विकसाऊँ। मोक्षमार्ग पर मैं माजाऊँ ॥ एक शुद्ध परिपूर्ण त्रिकाली । नायक मैं अनंत गुणशाली। सर्व कषाय भाव जय करलोमोहक्षीण कर निज पद बरलूं ॥ प्रभ पूजन का यह फल पाऊं फिर न लौटकर भव में आऊँ। यही विनय है त्रिभुवन नामी । तुम समान बन जाऊँ स्वामी। ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय महाय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
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जैन पूजलि
[१०३
जिनमत की परिपाटी में पहिले सम्यक दर्शन होता । फिर स्वशक्ति अनुसार जीवको व्रत संयम तप धन होता ।।
सिंह सुशोभित चरण में, वर्धमान जिनराज । मन बच तन जो पूजते पाते निज पद राज || इत्याशीर्वादः
जाप्य- ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नमः । -: ¤ :
श्री शांति कुन्यु अरनाथ जिन पूजन जय शांन्तिनाथ हे शांति मूर्ति जय कुन्थुनाथ श्रानन्द रूप । जय अरहनाथ श्ररि कर्मजयो तीनों तीर्थकर विश्वभूप ॥ तुम कामदेव अतिशय महान सम्राट चक्रवर्ती अनूप । भव भोग देह से हो विरक्त पाया निज सिद्ध स्वपद स्वरूप ॥
ॐ ह्रीं श्री शांतिकुन्यु अरनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौपट् । ॐ ह्रीं श्री शान्तिकुन्धु अरनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्री शांतिकुन्यु अरनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् । पावन निर्मलनीर समुज्ज्वल श्री चरणों में
श्रर्पित है । समर्पित है ॥
जन्म मरण नाशो हे स्वामी सादर हृदय शान्ति कुन्थु अरनाथ जिनेश्वर तीर्थकर कामदेव सम्राट चक्रवर्ती पद त्यागी बलिहारी ॥
मङ्गलकारी ।
ॐ ह्रीं श्री शांति कुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
तन का ताप विनाशक चन्दन श्री चरणों में अर्पित है । भव प्रताप मिटाओ स्वामी सादर हृदय समर्पित है ॥ शान्ति कुन्थु अरनाथ जिनेश्वर तीर्थंकर मंगलकारी ।
कामदेव सम्राट चक्रवर्ती पद
त्यागी
बलिहारी ॥
ॐ ह्री श्री शांति कुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय संसार ताप विनाशनाय
चंदनम् नि० स्वाहा |
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१०४]
जैन पूजांजलि
दिव्य ध्वनि की अविच्छिन्न धारा में आती है यह बात ।
ध्र व स्वभाव आश्रय से होता है प्रारंभ नवीन प्रभात ।। अक्षय तन्दुल पुज मनोहर श्री चरणों में अपित है। अनुपम अक्षय निज पद दो प्रभु सादर हृदय समर्पित है ॥ शान्ति कुन्थु अरनाथ जिनेश्वर तीर्थङ्कर मंगलकारी । कामदेव सम्राट चक्रवर्ती पद त्यागी बलिहारी ॥ ॐ ह्रीं श्री शांति कुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि० । अतिशय सुन्दर भाव पुष्प शुम श्री चरणों में अर्पित है। कामरोग विध्वंस करो प्रभु सादर हृदय समर्पित है । शान्ति ॐ ह्रीं श्री शानिकुन्यु अरनाथ जिनेन्द्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि । मन भावन नैवेद्य सुहावन श्री चरणों में अर्पित है। भुघा व्याधि नाशो हे स्वामी सादर हृदय समपित है ॥ शान्ति. ॐ ह्रीं श्री शतिकुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि। अन्धकार नाशक जड़दीपक श्री चरणों में अपित है। मोह तिमिर हरलो हे स्वामी सादर हृदय समर्पित है । शान्ति० ॐ ह्रीं श्रीं शांति कुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपं नि०, महा सुगन्धित धूप निशंकित श्री चरणों में अर्पित है। प्रष्ट कर्म परि ध्वंस करो प्रभु सादर हृदय समर्पित है । शान्ति० ॐ ह्रीं श्री शतिकुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय अष्ट व र्म विध्वंसनाय धूपम् नि०। पुण्य भाव का सारा शुभफल श्री चरणों में अपित है। परम मोक्षफल दो हे स्वामी सादर हृदय समपित है । शान्ति. ॐ ह्रीं श्री शांति कुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् नि। प्रष्ट द्रव्य का अर्घ अष्ट विधि श्री चरणों में अपित है। निज अनर्घ पद दो हे स्वामी सादर हृदय समपित है ॥ शान्ति कुन्थु प्ररनाथ जिनेश्वर तीर्थकर मंगलकारी। कामदेव सम्राट चक्रवर्ती पद त्यागी बलिहारी॥ ॐ ह्रीं श्री शांति कुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घ्यम् नि ।
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जैन पूजांजलि
[१०५
जीवन तरु आयु कर्म के बल पर ही हरियाता है।
जब आयु पूर्ण होती है तो फ्ल में मुरझाता है। नगर हस्तिनापुर के अधिपति विश्वसेन नृप परम उदार । माता ऐरा देवी के सुत शान्तिनाथ मंगल दातार । कामदेव बारहवें पंचम चक्री सोलहवें तीर्थेश । भरत क्षेत्र को पूर्ण विजयकर स्वामी आप हुए चक्रेश ॥ नभ में नाशवान बादल लख उर में जागा ज्ञान विशेष । भव भोगों से उदासीन हो ले वैराग्य हुए परमेश ॥ निज आत्मानुभूति के द्वारा वीतराग अर्हन्त हुए । मुक्त हुए सम्मेद शिखर से परम सिद्ध भगवन्त हुए । ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथ जिनेन्द्राय गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण पच
कल्याण प्राप्ताय अर्घम नि० स्वाहा। नगर हस्तिनापुर के राजा सूर्य सेन के प्रिय नन्दन । राज दुलारे श्रीमती देवी रानी के सुत वन्दन ॥ कामदेव तेरहवें तीर्थङ्कर सतरहवें कुन्थु महान । छठे चक्रवर्ती बन पाई षट खंडों पर विजय प्रधान ॥ भौतिक वैभव त्याग मुनीश्वर बन स्वरूप में लीन हुए। भाव शुभाशुभ का प्रभाव कर शुक्ल ध्यान तल्लीन हुए। ध्यान अग्नि से कर्म दग्ध कर केवल ज्ञान स्वरूप हुए। सिद्ध हुए सम्मेद शिखर से तीन लोक के भूप हुए ॥ ॐ ह्री श्री कुन्थु नाथ जिनेन्द्राय गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण
पंच कल्याण प्राप्ताय अर्घम नि० स्वाहा ।। नगर हस्तिनापुर के पति नृपराज सुदर्शन पिता महान । माता मित्रा देवी की आँखों के तारे हे भगवान । कामदेव चौदहवें सप्तम चक्री श्री अरनाथ जिनेश । अष्टादशम तीर्थङ्कर जिन परम पूज्य जिनराज महेश ॥
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१०६]
जैन पूजिलि
जब निज स्वभाव परिणित की धारा अजस्र बहती है। अन्तर्मन में सिद्धों की पावन गरिमा रहती है।
छहखंडों पर शासन करते करते जग अनित्य पाया। भव तन भोगों से विरक्तिमय उर वैराग्य उमड़ पाया ॥ पंच महावत धारण करके निज स्वभाव में हुए मगन । पा कैवल्य श्री सम्मेद शिखर से पाया मुक्ति गगन । ॐ ह्रीं श्री अरनाथ जिनेन्द्राय गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण पंच ___ कल्याण प्राप्ताय अर्घम् नि० स्वाहा।
४ जयमाला शान्ति कुन्थु अरनाथ जिनेश्वर के चरणों में नित वन्दन । विमल ज्ञान आशीर्वाद दो काट सकू मैं भव बन्धन ॥ सम्यक् दर्शन ज्ञान चरितमय लिया पंथ निर्ग्रन्थ महान । सोलह वर्ष रहे छद्मस्थ अवस्था में तीनों भगवान ॥ परम, तपस्वी परम संयमी मौनी महावती जिनराज । निज स्वभाव के साधन द्वारा पाया तुमने निज पद राज ।। शुक्ल ध्यान के द्वारा स्वामी पाया तुमने केवल ज्ञान । दे उपदेश भव्य जीवों को किया सकल जग का कल्याण ॥ मैं अनादि से दुखिया व्याकुल मेरे संकट दूर करो। पाप ताप संताप लोभ भय मोह क्षोभ चकचूर करो॥ सम्यक् दर्शन प्राप्त करू मैं निज परिणति में रमण करूं। रत्नत्रय का प्रवलम्बन ले मोक्ष मार्ग को ग्रहण करू । वीतराग विज्ञान ज्ञान को महिमा उर में छा जाए। भेद ज्ञान हो निज आश्रय से शुद्ध प्रात्मा दर्शाए । यही विनय है यही भावना विषय कषाय अभाव करू। तुम समान मुनि वन हे स्वामी निज चैतन्य स्वभाव बरू॥ ॐ ह्रीं श्री शांति कुन्थु अरनाथ जिन चरणाग्रेषु महाअय॑म् नि० ।
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जन पूजांजलि
[१०७
जाप्य
इस मनुष्य भव रूपी नंदन वन में रत्नत्रय के फूल ।
पर अज्ञानी चुनता रहता है अधर्म के दुखमय शूल ॥ मृग अज, मोन चिन्ह चरणों में प्रभु प्रतिमा जो करें नमन। जन्म जन्म के पातक क्षय हों मिट जाता भव दुख क्रन्दन ॥ रोग शोक दारिद्र प्रादि पापों का होता शीघ्र शमन । भव समुद्र से पार उतरते जो नित करते प्रभु पूजन ॥
* इत्याशीर्वादः ५ ॐ ह्रीं श्री शाति कुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय नमः ।
- :
श्री बाहुबली स्वामी पूजन जयति बाहुबलि स्वामी जय जय, करू वन्दना वारम्वार । निज स्वरूप का आश्रय लेकर आप हुए भव सागर पार ॥ हे त्रैलोक्य नाथ, त्रिभुवन में छाई महिमा अपरम्पार । सिद्ध स्वपद की प्राप्ति हो गई हुअा जगत् में जय जयकार॥ पूजन करने में पाया हूं अष्ट द्रव्य का ले प्राधार । यही विनय है चारों गति के दुख से मेरा हो उद्धार ॥
ॐ ह्रीं श्री जिन बाहुबली स्वामिन् अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री जिन बाहुबली स्वामिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्री जिन बाहुबली स्वामिन् अत्र मम सन्निहितो भवभव वषट् । उज्ज्वल निर्मल जल प्रभु पद पंकज में प्राज चढ़ाता हूं। जन्म मरण का नाश करू आनन्दकन्द गुण गाता हूं। श्री बाहुबलि स्वामी प्रभु चरणों में शोष झुकाता हूं। अविनश्वर शिव सुख पाने को नाथ शरण में प्राता हूं। ॐ ह्रीं श्री जिन बाहुबली स्वामिने जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं
निर्वपामीति स्वाहा ।
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१०८]
जैन पूजांजलि
पर द्रव्यों में कहीं न सुख है तज इनमें सुख की आशा। धन शरीर परिवार बध बाँध व सब दख की परिभाषा ।
शीतल मलय सुगन्धित पावन चन्दन भेंट चढ़ाता हूँ। भव प्राताप नाश हो मेरा ध्यान आपका ध्याता हूँ॥ श्री बाहु०
ॐ ह्रीं श्री बाहुबली स्वामिने संसार ताप विनाशनाय चन्दनम् नि । उत्तम शुभ्र अखण्डित तन्दुल हर्षित चरण चढ़ाता हूं। अक्षय पद को सहज प्राप्ति हो यही भावना भाता हूं ॥श्री बाहु०
ॐ ह्रीं श्री जिन बाहुबली स्वामिने अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम नि० । काम शत्रु के कारण अपना शील स्वभाव न पाता हूं। काम भाव का नाश करूं मैं सुन्दर पुष्प चढ़ाता हूं ॥ श्री बाहु० ___ॐ ह्रीं श्री जिन बाहुबली स्वामिने कामबाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि । तृष्णा को भीषण ज्वाला में प्रति पल जलता जाता हूं। क्षुधा रोग से रहित बनूँ मैं शुम नैवेद्य चढ़ाता हूं ॥ श्री बाहु० ___ ॐ ह्रीं श्री बाहुबली स्वामिने क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि० । मोह ममत्व आदि के कारण सम्यक् मार्ग न पाता हूं। यह मिथ्यात्व तिमिर मिट जाये प्रभुवर दीप चढ़ाता हूं॥श्री बाहुं०
ॐ ह्रीं श्री बाहुबली स्वामिने मोहान्धकार विनाशनाय दीपम नि० । है अनादि से कर्म बंध दुखमय न पृथक् कर पाता हूं। प्रष्ट कर्म विध्वंस करूं अतएव सु धूप चढ़ाता हूं ॥श्री बाहु० ___ॐ ह्रीं श्री बाहुबली स्वामिने अष्ट कर्म विनाशनाय धूपम् नि० । सहज सम्पदा युक्त स्वयं होकर भी भव दुख पाता हूँ। परम मोक्ष पद शीघ्र मिले उत्तम फल चरण चढ़ाता हूँ॥श्री बाहु०
ॐ ह्रीं श्री जिन बाहुबली स्वामिने मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि० । पुण्य भाव से स्वर्गादिक पद बार बार पा जाता हूँ। निज अनर्घ पद मिला न अब तक इससे अर्घ चढ़ाता हूँ।
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जैन पूजांजलि
[१०६
पूर्णा नंद स्वरूप स्वयं तू निज स्वरूप का कर विश्वास ।
ज्ञान चेतना में ही बसजा कर्म चेतना का कर नाश । श्री बाहुबलि स्वामी प्रभु चरणों में शीष हुकाता हूँ। अविनश्वर शिव सुख पाने को नाथ शरण में प्राता हूं। ॐ ह्रीं श्री जिन बाहुबली स्वामिने अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घम् नि० ।
(जयमाला) प्रादिनाथ सुत बाहुबली प्रभु मात सुनन्दा के नन्दन । चरम शरीरी कामदेव तुम पोदनपुरपति अभिनन्दन ॥ छह खण्डों पर विजय प्राप्त कर भरत चढ़े वृषभाचल पर । अगणित चक्री हुए नाम लिखने को मिला न थल तिल भर ।। मैं ही चक्री हुमा अहं का मान धूल हो गया तभी । एक प्रशस्ति मिटाकर अपनी लिखी प्रशस्ति स्वहस्त जभी ॥ चले अयोध्या किन्तु नगर में चक्र प्रवेश न कर पाया। ज्ञात हुआ लघु भ्रात बाहुबलि सेवा में न अभी प्राया ॥ भरत चक्रवर्ती ने चाहा बाहुबली प्राधीन रहे । ठुकराया आदेश भरत का तुम स्वतन्त्र स्वाधीन रहे। भीषण युद्ध छिड़ा दोनों भाई के मन सन्ताप हुए। दृष्टि, मल्ल, जल युद्ध भरत से करके विजयी प्राप हुए ॥ क्रोधित होकर भरत चक्रवर्ती ने चक्र चलाया है । तीन प्रदक्षिण देकर कर में चक्र आपके आया है ॥ विजय चक्रवर्ती पर पाकर उर वैराग्य जगा तत्क्षण । राजपाट तज ऋषभदेव के समवशरण को किया गमन ॥ धिक् धिक् वह संसार और इसको असारता को धिक्कार । तृष्णा को अनन्त ज्वाला में जलता पाया है संसार ॥ जग की नश्वरता का तुमने किया चितवन रारम्बार । देह भोग संसार आदि से हुई विरक्ति पूर्ण साकार ॥
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११०]
जैन पूजांजलि
पाप पुण्य तज जो निजात्मा को ध्याता है।
वही जीव परिपूर्ण मोक्ष सुख विलसाता है। आदिनाथ प्रभु से दीक्षा ले व्रत संयम को किया ग्रहण । चले तपस्या करने वन में रत्नत्रय को कर धारण ॥ एक वर्ष तक किया कठिन तप कायोत्सर्ग मौन पावन । किन्तु शल्य थी एक हृदय में भरत भूमि पर है आसन ॥ केवल ज्ञान नहीं हो पाया एक शल्य ही के कारण । परिषह शोत गोष्म वर्षादिक जय करके भी प्रटका मन। भरत चक्रवर्ती ने प्राकर श्री चरणों में किया नमन । कहा कि वसुधा नहीं किसी की मान त्याग दो हे भगवन् ॥ तत्क्षण शल्य विलीन हुई तुम शुक्ल ध्यान में लीन हुए । फिर अन्तरमुहूर्त में स्वामी मोह क्षीण स्वाधीन हुए। चार घातिया कर्म नष्ट कर आप हुए केवल ज्ञानी। जय जयकार विश्व में गूजा सारी जगती मुस्कानी । झलका लोका लोक ज्ञान में सर्व द्रव्य गुण पर्यायें । एक समय में भूत भविष्यत् वर्तमान सब दर्शायें ॥ फिर अघातिया कर्म विनाशे सिद्ध लोक में गमन किया। पोदनपुर से मुक्ति हुई तीनों लोकों ने नमन किया । महामोक्ष फल पाया तुमने ले स्वभाव का अवलम्बन । हे भगवान् बाहुबलि स्वामी कोटि कोटि शत् शत् वन्दन ॥ आज आपका दर्शन करने चरण शरण में आया हूँ। शुद्ध स्वभाव प्राप्त हो मुझको यही भाव भर लाया हूँ॥ भाव शुभाशुभ भव निर्माता शुद्ध भाव का दो प्रभु दान । निज परणति में रमण करू प्रभु हो जाऊँ मैं आप समान ॥ समकित दीप जले अन्तर में तो अनादि मिथ्यात्व गले । राग द्वेष पररगति हट जाये पुण्य पाप सन्ताप टले ॥
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जैन पूजांजलि
अन्तर्जल्पों में जो उलझा निज पद न प्राप्त कर पाता है । संकल्प विकल्प रहित चेतन निज सिद्ध स्वपद पा जाता है ॥
रहूं ।
त्रैकालिक ज्ञायक स्वभाव का आश्रय लेकर बढ़ जाऊँ । शुद्धात्मानुभूति के द्वारा मुक्ति शिखर पर चढ़ जाऊँ ॥ मोक्ष लक्ष्मी को पाकर भी निजानन्द रसलीन सादि श्रनन्त सिद्ध पद पाऊँ सदा सुखी स्वाधोग प्राज आपका रूप निरखकर निज स्वरूप का तुम सम बने भविष्यत् मेरा यह दृढ़ निश्चय हर्ष विभोर भक्ति से पुलकित होकर की है यह प्रभु पूजन का सम्यक् फल हो करें हमारे भव चक्रवति इन्द्रादिक पद की नहीं कामना है स्वामी । शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम पद पायें हे अन्तरयामी ॥ ॐ ह्रीं श्री जिन बाहुबली स्वामिने अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घ्यम् नि० । घर घर मङ्गल छाये जग में वस्तु स्वभाव धर्म जानें । वीतराग विज्ञान ज्ञान से शुद्धातम को पहिचानें ॥
जाप्य
इत्यार्शीवादः
ॐ ह्रीं श्री बाहुबली जिनाय नमः ।
-
* -
―
भान
ज्ञान
[१११
श्री गौतम स्वामी पूजन
रहूं ॥
हुआ ।
हुआ ॥
पूजन ।
बन्धन ||
जय जय इन्द्र भूति गौतम गणधर स्वामी मुनिवर जय जय । तीथंङ्कर श्री महावीर के प्रथम मुख्य गणधर जय जय ॥ द्वादशाङ्ग श्रुत पूर्ण ज्ञानधारी गौतम स्वामी जय जय । वीर प्रभु की दिव्यध्वनि जिनवाणी को सुन हुए श्रभय ॥ ऋद्धि सिद्धि मङ्गल के दाता मोक्ष प्रदाता गणधर देव । मङ्गलमय शिव पथ पर चलकर मैं भी सिद्ध बनूं स्वयमेव ॥
ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधर स्वामिन् अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधर स्वामिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधर स्वामिन् अत्र मम् सन्निहितोभव भव वषट् ।
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जैन पूजांजलि
अपने स्वरूप में रहता तो यह प्राणी परमेश्वर होता । ज्ञायक स्वभाव के आश्रय से यह जीव स्वभावेश्वर होता ।। मैं मिथ्यात्व नष्ट करने को निर्मल जल की धार करूँ । सम्यक् दर्शन पाऊँ जन्म मरण क्षय कर भव रोग हरु || गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन । देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥
विनाशनाय जलम्
११२]
ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधर स्वामिने जन्म जरा मृत्यु निर्वपामीति स्वाहा |
पंच पाप अविरति को त्यागूँ शीतल चन्दन चरण धरू । भव प्रताप नाश करके प्रभु मैं अनादि भव रोग हरू ॥ गौतम
ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधर स्वामिने संसारताप विनाशनाय चन्दम् नि० । पंच प्रमाद नष्ट करने को उज्ज्वल प्रक्षत भेंट करूँ । प्रक्षय पद की प्राप्ति हेतु प्रभु मैं अनादि भव रोग हरू ॥ गौतम ०
To 1
ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधर स्वामिने अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि० चार कषाय अभाव हेतु मैं पुष्प मनोरम भेट करू । काम वाण विध्वंस करू प्रभु मैं श्रनादि भव रोग हरू ॥ गौतम ० ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधर स्वामिने काम वाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि० मन वच काया योग सर्व हरने को प्रभु नैवेद्य धरूं । व्याधि का नाम मिटाऊ मैं अनादि भव रोग हरू ॥ गौतम ० ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधर स्वामिने क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि० । सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने को अन्तर दीप प्रकाश करूं । चिर अज्ञान तिमिर को नाशँ मैं अनादि भव रोग हरु | गौतम ० ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधर स्वामिने मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि० ।
क्षुधा
मैं
सम्यक् चारित्र ग्रहण कर अन्तर तप की धूप वरू 1 भ्रष्ट कर्म विध्वंस करू प्रभु मैं अनादि भव रोग हरु ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधर स्वामिने अष्ट कर्म विनाशनाय
| गौतम ०
धूपम् नि०
To l
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जैन पूजांजलि
[११३
एक दिन भी जी मगर तू ज्ञान बन कर जी।
तु स्वयं भगवान है भगवान वन कर जी॥ रत्नत्रय का परम मोक्ष फल पाने को फल भेंट करूं । शुद्ध स्वपद निर्वाण प्राप्त कर मैं अनादि भव रोग हरू ॥गौतम०
ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधर स्वामिने मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् नि । जल फलादि वसु द्रव्य अर्घ चरणों में सविनय भेंट करूं। पद अनर्घ सिद्धत्व प्राप्त कर मैं अनादि भव रोग हरू। गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन । देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करू नमन ॥ ___ ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधर स्वामिने अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घम् नि । श्रावण कृष्णा एकम् के दिन समवशरण में तुम आये । मानस्तम्भ देखते ही तो मान, मोह अघ गल पाये। महावीर के दर्शन करते ही मिथ्यात्व हुंपा चकचूर । रत्नत्रय पाते ही दिव्य ध्वनि का लाभ लिया भरपूर ॥
ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधर स्वामिने दिव्यध्वनि प्राप्ताय अर्घम् नि। कार्तिक कृष्ण अमावस्या को कर्म घातिया करके क्षय । सायङ्काल समय में पाई केवल ज्ञान लक्ष्मी जय ।। ज्ञानावरण दर्शनावरणी मोहनीय का करके अन्त । अन्तराय का सर्वनाश कर तुमने पाया पद भगवन्त ॥ ___ ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधर स्वामिने केवल ज्ञान प्राप्ताय अर्घम् नि । विचरण करके दुखी जगत् के जीवों का कल्याण किया। अन्तिम शुक्ल ध्यान के द्वारा योगों का अवसान किया । देव बानवे वर्ष अवस्था में तुमने निर्वाण लिया । क्षेत्र गुणावा करके पावन सिद्ध स्वरूप महान् लिया ।
ॐ ह्रीं श्री गौतम गणवर स्वामिने मोक्ष पद प्राप्ताय अर्घम् नि ।
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११४]
जैन पूजांजलि
धर्म को आज तक हमने जाना नहीं । राग की रागिनी हम बजाते रहे ॥
_ जयमाला x मगध देश के गौतमपुर वासी वसु भूति ब्राह्मण पुत्र । माँ पृथ्वी के लाल लाड़ले इन्द्र भूति तुम ज्येष्ठ सुपुत्र ॥ अग्नि भूति, अरु वायु भूति लघु भ्राता द्वय उत्तम विद्वान। शिष्य पाँच सौ साथ आपके चौदह विद्या ज्ञान निधान । शुभ बैसाख शुक्ल दशमी को हुआ वीर को केवल ज्ञान । समवशरण की रचना करके हुआ इन्द्र को हर्ष महान ॥ बारह सभा बनी अति सुन्दर गन्ध कुटी के बीच प्रधान । अन्तरक्षि में महावीर प्रभु बैठे पद्मासन निज ध्यान ॥ छयासठ दिन हो गये दिव्य ध्वनि खिरी नहीं प्रभु की यह जान। अवधि ज्ञान से लखा इन्द्र ने "गणधर की है कमी प्रधान" ॥ इन्द्रभूति गौतम पहले गणघर होंगे यह जान लिया। बुद्ध ब्राह्मण वेश बना, गौतम के गृह प्रस्थान किया । पहुँच इन्द्र ने नमस्कार कर किया निवेदन विनयमयी। मेरे गुरु श्लोक सुनाकर, मौन हो गये ज्ञानमयो । अर्थ भाव वे बता न पाये वही जानने आया हूँ। पाप श्रेष्ठ विद्वान् जगत में शरण पापको प्राया हूँ॥ इन्द्रभूति गौतम श्लोक श्रवण कर मन में चकराये । भूठा अर्थ बताने के भी भाव नहीं उर में आये ॥ मन में सोचा तीन काल, छै द्रव्य, जीव, षट् लेश्या क्या? नव पदार्थ, पंचास्ति काय,गति,समिति, ज्ञान,व्रत,चारित क्या? बोले गुरु के पास चलो मैं वहीं अर्थ बतलाऊंगा। अगर हुआ तो शास्त्रार्थ कर उन पर भी जय पाऊंगा ॥
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जैन पूजांजलि
[११५ अपनी शुद्धात्मा को तो माना नहीं ।
पुण्य के गोत ही गुनगुनाते रहे ॥ अति हषित हो इन्द्र हृदय में बोला स्वामी प्रभी चलें। शङ्काओं का समाधान कर मेरे मन की शल्य दलें ॥ अग्निभूति अरु वायुभूति दोनों भ्राता सङ्ग लिये जभी। शिष्य पाँच सौ सङ्ग ले गौतम साभिमान चल दिये तभी॥ समवशरण की सीमा में जाते ही हुमा गलित अभिमान । प्रभु दर्शन करते हो पाया सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान ॥ तत्क्षण सम्यक् चारित धारा मुनि बन गणधर पद पाया। प्रष्ट ऋद्धियाँ प्रगट हो गई ज्ञान मनःपर्यय छाया । खिरने लगी दिव्य ध्वनि प्रभु की परम हर्ष उर में आया। कर्म नाश कर मोक्ष प्राप्ति का यह अपूर्व अवसर पाया। प्रोंकार ध्वनि मेघ गर्जना सम होती है गुणशाली। द्वादशांग वाणी तुमने प्रतमुहूर्त में रच डाली ॥ दोनों भ्राता शिष्य पाँच सौ ने मिथ्यात तभी हर कर । हर्षित हो जिन दीक्षा ले ली दोनों भ्रात हुए गणधर ॥ राजगृही के विपुलाचल पर प्रथम देशना मङ्गलमय । महावीर सन्देश विश्व ने सुना शाश्वत शिव सुखमय ॥ इन्द्रभूति, श्री अग्निभूति, श्री वायुभूति, शुचिदत्त, महान् । श्री सुधर्म, मांडव्य, मौर्यसुत, श्री अकम्य, अति ही विद्वान् ॥ अचल और मेदार्य प्रभास यही ग्यारह गणधर गुरणवान् । महावीर के प्रथम शिष्य तुम हुए मुख्य गणधर भगवान् ।। छह छह घड़ी दिव्यध्वनि खिरती चार समय नित मङ्गलमय । वस्तु तत्त्व उपदेश प्राप्त कर भव्य जीव होते निजमय ॥ तीस वर्ष रह समवशरण में गूंथा श्री जिनवाणी को। देश देश में कर विहार फैलाया श्री जिनवाणी को॥
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११६]
जैन पूजांजलि
दर्शन ज्ञान चरित्र नियम है, जो कि नियम से करने योग्य । कारण नियम त्रिकाल शुद्ध ध्रुव, सहज स्वभाव आश्रय योग्य ।।
कार्तिक कृष्ण अमावस प्रातः महावीर निर्वाण हुआ। सन्ध्याकाल तुम्हें भी पावापुर में केवल ज्ञान हुआ । ज्ञान लक्ष्मी तुमने पाई और वीर प्रभु ने निर्वाण । दीप मालिका पर्व विश्व में तभी हुमा प्रारंभ महान ।। आयु पूर्ण जब हुई आपको योग नाश निर्वाण लिया। धन्य हो गया क्षेत्र गुणावा देवों ने जयगान किया ॥ आज तुम्हारे चरण कमल के दर्शन पाकर हर्षाया। रोम रोम पुलकित है मेरे भव का अन्त निकट प्राया ॥ मुझको भी प्रज्ञा छनी दो मैं निज पर में भेव करूं। भेद ज्ञान की महाशक्ति से दुखदायी भव खेद हरू॥ पद सिद्धत्व प्राप्त करके मैं पास तुम्हारे आ जाऊँ । तुम समान बन शिव पद पाकर सदा सदा को मुस्काऊं। जय जय गौतम गणधर स्वामी अभिरामो अन्तरयामी। पाप पुण्य पर भाव विनाशी मुक्ति निवासी सुखधामी । ॐ ह्रीं श्री गीतम गणधर स्वामिने अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घम् नि० । गौतम स्वामी के वचन भाव सहित उर धार । मन, वच, तन जो पूजते वे होते भव पार ॥
४ इत्याशीर्वादः जाप्य- ॐ ह्रीं श्री गौतम गणधराय नमः ।
- :श्री तीर्थ कर निर्वाण क्षेत्र पूजन अष्टापद कैलाश श्री सम्मेदाचल चम्पापुरधाम । उर्जयंत गिरनार शिखर पावापुर सबको करूं प्रणाम ॥
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जैन पूजजिलि
भावना भवनाशिनी ।
मोह भ्रम अज्ञानवश यह आत्मा भव वासिनी ॥
[ ११७
ऋषभादिक चौबीस जिनेश्वर मुक्ति वधू के कंत हुए । पंच तीर्थों से तीर्थङ्कर परम सिद्ध भगवन्त हुए || ॐ ह्रीं श्री तीर्थङ्कर निर्वाण क्षेत्र अत्र अवतर अतवर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री तीर्थङ्कर निर्वाण क्षेत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री तीर्थङ्कर निर्वाण क्षेत्र अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । जन्म मरण से व्यथित हुआ हूं भव प्रनादि से दुख पाया । परम पारिणामिक स्वभाव का निर्मल जल पाने आया ॥ भ्रष्टापद सम्मेद शिखर, चम्पापुर, पावापुर, चौबीसों तीर्थङ्कर की निर्वाण भूमि वन्दू
गिरनार । सुखकार ॥
ॐ ह्रीं श्री तीर्थङ्कर निर्वाण क्षेत्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
भव श्रातप से दग्ध हुआ मैं प्रतिपल दुख प्रनन्त पाया । परम पारिणामिक स्वभाव का निज चन्दन पाने श्राया ॥ अष्टा० ॐ ह्रीं श्री तीर्थङ्कर निर्वाण क्षेत्राय संसारताप विनाशनाय चन्द्रनम् fito भव समुद्र में चहुँ गति को भंवरों में डूबा उतराया । परम पारिणामिक स्वभाव से अक्षय पद पाने आया || अष्टाo ॐ ह्रीं श्री तीर्थङ्कर निर्वाण क्षेत्राय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि० । काम भोग बन्धन में पड़कर शील स्वभाव नहीं पाया। परम पारिणामिक स्वभाव के सहज पुष्प पाने प्राया ॥ अष्टा० ॐ ह्रीं श्री तीर्थङ्कर निर्वाण क्षेत्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि० I तृष्णा की ज्वाला में जल जल तृप्त नहीं मैं हो पाया । परम पारिणामिक स्वभाव के शुचिमय चरु पाने श्राया ॥ श्रष्टा० ॐ ह्रीं श्री तीर्थङ्कर निर्वाण क्षेत्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि० । सम्यक् ज्ञान बिना प्रभु अब तक निज स्वरूप ना लख पाया । परम पारिणामिक स्वभाव की दीप ज्योति पाने श्राया ॥ अष्टा० ॐ ह्रीं श्री तीर्थङ्कर निर्वाण क्षेत्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि० ।
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११८]
जैन पूजांजलि
राग पर का छूट जाए तो स्वयं का भान हो । ध्रुव अचल अनुपम स्वगति पा स्वयं ही भगवान हो।
अष्ट कर्म को क र प्रकृतियों में ही निज को उलझाया। परम पारिणामिक स्वभाव को सजल धूप पाने पाया॥ अष्टा०
ॐ ह्रीं श्री तीर्थङ्कर निर्वाण क्षेत्राय अष्ट कर्म विध्वंसनाय धूपम् नि० । मोक्ष प्राप्ति के बिना अाज तक सुख का एक न करण पाया। परम पारिणामिक स्वभाव के शिवमय फल पाने आया । अष्टा० ___ॐ ह्रीं श्री तीर्थङ्कर निर्वाण क्षेत्राय मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् नि । शुद्ध त्रिकाली अपना ज्ञायक प्रात्म स्वभाव न दर्शाया। परम पारिणामिक स्वभाव से पद अनर्घ पाने पाया ॥ अष्टापद सम्मेद शिखर, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार । चौबीसों तीर्थङ्कर को निर्वाण भूमि वन्दू सुखकार ॥ ॐ ह्रीं श्री तीर्थङ्कर निर्वाण क्षेत्राय पूर्णार्धम् नि ।
जयमाला 8 श्री चौबीस जिनेश को वन्दन करूं त्रिकाल । तीर्थङ्कर निर्वाण भू हरे कर्म जंजाल ॥ अष्टापद कैलाश आदि प्रभु ऋषभदेव पद करू प्रणाम। चम्पापुर में वासुपूज्य जिनवर के पद वन्दू अभिराम ॥ उजयन्त गिरनार शिखर पर नेमिनाथ पद में वन्दन । पावापुर में वर्धमान प्रभु के चरणों को करू नमन ॥ बीस तीर्थङ्कर सम्मेदाचल के पर्वत पर वन्दू । बीस टोंक पर बोस जिनेश्वर सिद्ध भूमि को अभिनन्दू॥ कूट सिद्धवर अजितनाथ के चरण कमल को नमन करूं। धवल कूट पर सम्भव जिन पद पूजं निज का मनन करूं।
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जैन पूजांजलि
अगर जगत में सुख होता तो तीर्थङ्कर क्यों इसको पुण्यो का आनंद छोड़कर निज स्वभाव चेतन क्यो
तजते ।
भजते ॥
[११९
बन्दू ॥
कमल ।
मैं श्रानन्द कूट पर अभिनन्दन स्वामी को करू नमन । अविचल कूट सुमति जिनवर के पद कमलों में है वन्दन ॥ मोहन कूट पदम प्रभु के चरणों में सादर करू नमन । कूट प्रभास सुपार्श्वनाथ प्रभु के मैं पूजूं भव्य चरन ॥ ललित कूट पर चन्दा प्रभु को भाव सहित सादर बन्बू । सुप्रभ कूट सुविधि जिनवर श्री पुष्पदन्त पद अभिनन्दू ॥ विद्युत कूट श्री शीतल जिनवर के चरण कमल पावन । संकुल कूट चरण श्रेयांसनाथ के पूजूं मनभावन ॥ श्री सुवीर कुल कूट भाव से विमलनाथ के पद बन्दू । चरण अनन्तनाथ स्वामी के कूट स्वयंभू पर कूट सुदत्त पूजता हूँ मैं धर्मनाथ के चरण नमू कुन्द प्रभु कूट मनोहर शान्तिनाथ के चरण विमल ॥ कुन्थुनाथ स्वामी को बन्दू कूट ज्ञान धर भव्य महान । नाटक कूट श्री अरहनाथ जिनेश्वर पद का ध्याऊँ ध्यान ॥ संबल कूट मल्लि जिनवर के निर्जर कूट श्री मुनि सुव्रत चरण पूजकर हर्षाऊं ॥ कूट मित्र घर श्री नेमिनाथ तीर्थङ्कर पद करूं प्रणाम । स्वर्ण भद्र श्री पार्श्वनाथ प्रभु को नित बन्दू भ्राठों याम ॥ तीर्थङ्कर निर्वारण भूमियाँ तीर्थ क्षेत्र कहलाती हैं । मुनियों को निर्वाण भूमियाँ सिद्ध क्षेत्र कहलाती हैं ॥ गर्भ जन्म तप ज्ञान भूमियाँ अतिशय क्षेत्र कहलाती हैं । इन सब तीर्थों की यात्रा से उर पवित्रता प्राती है ॥ अपना शुद्ध स्वभाव लक्ष्य में लेकर जो निज ध्यान धरू सादि ग्रनन्द समाधि प्राप्त कर परम मोक्ष निर्धारण वरूं ॥
चरणों की महिमा गाऊँ ।
ॐ ह्री श्री तीर्थङ्कर निर्वाण क्षेत्राय पूर्णार्घम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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१२०]
जैन पूजांजलि तत्त्वों के सम्यक् निर्णय का यह स्वणिम अवसर आया है। संसार दुखों का सागर है दिन दो दिन नश्वरकाया है । सिद्ध भूमि जिनराज की महिमा अगम अपार। निज स्वभाव जो साधते वे होते भव पार ॥
४ इत्याशीर्वादः ४ जाप्य- ॐ ह्री श्री तीर्थङ्कर निर्वाण क्षेत्राय नमः ।
श्री जिनवाणी पूजन जय जय श्री जिनवाणी जय जय, जग कल्याणी जय जय जय । तीर्थङ्कर को दिव्य ध्वनि जय, गुरु गणधर गुम्फित जय जय जय ॥
स्याद्वाद पीयूषमयो जय लोकालोक प्रकाशमयो । द्वादशांग श्रुत ज्ञानमयी जय वीतराग विज्ञानमयी ॥ श्री जिनवाणी के प्रताप से मैं अनादि मिथ्यात्व हरू। श्री जिनवाणी मस्तक धारू वारम्बार प्रणाम करूं ॥ ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भव सरस्वती वाग्वादिनि अत्र अवतर अवतर
संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भव सरस्वती वाग्वादिनि अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठाठः । ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भव सरस्वती वाग्वादिनि अत्र मम् सन्निहितोभव
भव वषट् । मिथ्यात्व कलुषता के कारण पाया न बिन्दु समता जल का। अपने ज्ञायक स्वभाव का भी अब तक प्रतिभास नहीं मलका। मैं श्री जिनवाणी चरणों में मिथ्यातम हरने आया हूँ। श्री महावीर की दिव्य व्वनि हृदयंगम करने आया हूँ॥
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भव सरस्वती देव्य जलम् निर्वपामीति स्वाहा । श्रद्धा विपरीत रही मेरी निज पर का ज्ञान नहीं भाषा । चम्दन सम शीतल सा मय हूँ इतना भी ध्यान नहीं आया। मैं०
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भव सरस्वती देव्यै चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि
[१२१
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श्रद्धा की वंदनवारें जिनमें विवेक की लड़ियाँ ।
संशय का लेश न किन्चित आई अनुभव की घड़ियाँ। यह प्राधि व्याधि पर की उपाधि भव भ्रमण बढ़ाती आई है। अक्षय अखंड निज की समाधि अब तक न कभी भी पाई है।।मैं०
ॐ ह्रीं श्रीं जिन मुखोद्भव सरस्वती देव्यै अक्षतम् नि० स्वाहा। एकत्व बुद्धि करके पर में कर्तापन का अभिमान किया। मैं निज का कर्ता भोक्ता है ऐसा न कभी भी भान किया ॥मैं० __ ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भव सरस्वती देव्यै पुष्पम् नि० स्वाहा। यह माया अनन्तानुबन्धी कषाय प्रति समय जाल उलझाती है । चारों कषाय को यह तृष्णा उलझन न कभी सुलभाती है । मैं०
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भव सरस्वती देव्यै नैवेद्यम् नि० स्वाहा। तत्त्वों के सम्यक् निर्णय बिन श्रद्धा को ज्योति न जल पाई। प्रज्ञान अन्धेरा हटा नहीं सन्मार्ग न देता दिखलाई ॥ मैं०
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोदभव सरस्वती देव्यै दीपम् निर्वपामीति स्वाहा । होकर अनन्त गुण का स्वामी, पर का ही दास रहा अब तक। निज गुण को सुरभि नहीं भाई भव दधि में कष्ट सहा अब तक ॥मैं० ___ ॐ ह्रीं श्री जिन मुग्वोद्भव सरस्वती देव्यै धूपम् नि० म्वाहा। मैं तीन लोक का नाथ पुण्य धूला के पीछे पागल हूँ। चिन्तामणि रत्न छोड़कर मैं रागों में प्राकुल-व्याकुल हूँ॥ ___ ॐ ह्रीं श्री जिन'मुखोदभव सरस्वती देव्यै मोक्षफल प्राप्ताय फलम् नि। अब तक का जितना पुण्य शेष हर्षित हो अर्पण करता हूँ। अनुपम अनर्घ पद पा जाऊँ मैं यही भावना भरता हूँ। मैं श्री जिनवाणी चरणों में मिथ्यातम हरने पाया हूँ। श्री महावीर की दिव्य ध्वनि हृदयंगम करने पाया हूँ ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भव सरस्वती देव्यै अर्घन निर्वपामीति स्वाहा।
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१२२]
जैन पूर्जाजलि
मिथ्यात्व बंध गति गति के करता है। सम्यक्त्व बंध गति गति के हरता है ॥
७ जयमाला 8 जय जय जय प्रकार दिव्य ध्वनि योगीजन नित करने ध्यान । मोह तिमिर मिथ्यात्व विनाशक ज्ञान प्रकाशक सूर्य समान ॥ वस्तु स्वरूप प्रदर्शक निज पर भेद ज्ञान की ज्योति महान । सप्तभङ्ग, स्याहाद नयाश्रित द्वादशांग श्रुत ज्ञान प्रमाण ॥ द्वादश अंग पूर्व चौदह परिकर्म सूत्र से शोभित है । पंच चूलिका चौ अनुयोग प्रकीर्णक चौदह मूषित है ॥ जय जय प्राचारांग प्रथम जय सूत्रकृतांग द्वितीय नमन । स्थानांग तृतीय नमन जय चौथा समवायांग नमन ।। जय व्याख्या प्रजस्ति पांचवा षष्टम् ज्ञातधर्मकथांग । उपासकाध्ययनांग सातवां अष्टम् अंतःकृतदशांग ॥ अनुत्तरोत्पादकदशांग नौ प्रश्न व्याकरणग्रङ्ग दशम् । जय विपाक सूत्रांग ग्यारहवाँ दृष्टिवाद द्वादशम् परम ॥ दृष्टिवाद के चौदह भेद रूप है चौदह पूर्व महान् । ग्यारह अङ्ग पूर्व नौ तक का द्रव्य लिगि कर सकता ज्ञान ॥ पहला है उत्पाद पूर्व दूजा अग्रायणीय नानो । तीजा है वीर्यानुवाद चौथा है अस्ति नास्ति नानो॥ पंचम ज्ञानप्रवाद कि षष्टम् सत्यप्रवाद पूर्व जानो। सप्तम् प्रात्म प्रवाद, आठवाँ कर्मप्रवाद पूर्व मानो ॥ नवमा प्रत्याख्यानप्रवाद सु दशवॉ विद्युनुवाद जान । ग्यारहवाँ कल्याणवाद बारहवाँ प्राणानुवाद महान ॥ तेरहवां क्रियाविशाल चौदहवाँ लोकबिन्दु है सार । प्रङ्ग प्रविष्ट अरु अङ्ग बाह्य के भेद प्रभेद सदा सुखकार ॥
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जैन पूजांजलि
[१२३
मिथ्यात्व मोह भ्रम त्यागो रे प्राणी ।
सम्यक्त्व सूर्य सम जागो रे प्राणी ।। दृष्टिवाद का भेद पांचवां पंच चूलिका नाम यथा। जलगत थलगत मायागत अरु रूपगता आकाशगता ॥ पाँच भेद परिकर्म उपांग के प्रथम चन्द्र प्रज्ञप्ति महान । दूजासूर्य प्रज्ञप्ति तीसरा जम्बु द्वीपप्रज्ञप्ति प्रधान ॥ चौथा द्वीप-समूह- प्रज्ञप्ति पंचम व्याख्या प्रज्ञप्ति जान । सूत्र प्रादि अनुयोग अनेकों हैं उपांग धन धन श्रुत ज्ञान ॥ तत्त्वों के सम्यक् निर्णय से होता सुद्धातम का ज्ञान । सरस्वती मां के आश्रय में होता है शाश्वत कल्याण ॥ इसीलिये जिनवाणी का अध्ययन चितवन मैं कर लूँ । काल लब्धि पाकर अनादि अज्ञान निविड़तम को हर लूँ ॥ नव पदार्थ छह द्रव्य काल त्रय सात तत्व को मैं जान तीन लोक पंचास्तिकाय छह लेश्याओं को पहचानें ॥ षटकायक को दया पालकर समिति गुप्ति व्रत को पा लू। द्रव्य भाव चारित्र धार कर तप संयम को अपना लू॥ निज स्वभाव में लीन रहे मैं निज स्वरूप में मुस्काऊं ॥ क्रम-क्रम से मैं चार घातिया नाश करूं निज पद पाऊँ ॥ प्राप्त चतुर्दश गुणस्थान कर पूर्ण अयोगी बन जाऊँ। निज सिद्धत्व प्रगट कर सिद्ध शिला पर सिद्ध स्वपद पाऊँ । यह मानव पर्याय धन्य हो जाये मां ऐसा बल दो। सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित रत्नत्रय पावन निर्मल दो। भव्य भावना जगा हृदय में जीवन मङ्गलमय कर दो। हे जिनवाणी माता मेरा अन्तर ज्योतिर्मय कर दो॥
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भव सरस्वती देव्य पूर्णा' यनि० स्वाहा ।
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१२४]
जैन पूजांजलि
वाह्यांतर में मुनि मुद्रा होगी निर्ग्रथ दिगंबर | चरणों में झुक जाएगा सादर विनीत भू अंबर ॥
जिनवाणी का सार है भेद-ज्ञान
जो अन्तर में
धारते हो जाते इत्याशीर्वादः
ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भूत श्रुत ज्ञानाय नमः ।
जाप्य
-::
श्री समयसार पूजन
सुखकार । भवपार ॥
जय जय जय ग्रन्थाधिराज श्री समयसार जिन श्रुत नन्दन । कुन्दकुन्द प्राचार्य रचित परमागम को सादर वन्दन ॥ द्वादशांग जिनवाणी का है इसमें सार परम पावन । आत्म तत्व की सहजप्राप्ति का है अपूर्व अनुपम साधन ॥ सीमंधर प्रभु की दिव्य ध्वनि इसमें गूञ्ज रही प्रतिक्षण । इसको हृदयंगम करते ही हो जाता संम्यक् दर्शन ॥ समयसार का सार प्राप्त कर सफल करू मानव जीवन । सब सिद्धों को वन्दन करके करता विनय सहित पूजन ।।
ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय पुष्पाञ्जलि क्षिपामि । निज स्वरूप को भूल आज तक चारों गति में किया भ्रमण । जन्म मरण क्षय करने को अब निज स्वरूप में करूँ रमण ॥ समयसार का करू अध्ययन समयसार का करू मनन । काररण समयसार को ध्याऊ समयसार को करू नमन ॥
ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय जन्म जरा मृन्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
भव ज्वाला में प्रतिपल जल जल करता रहा करुण क्रन्दन । निज स्वभाव ध्रुव का आश्रय ले काहूंगा जग के बन्धन || समय ० ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय संसारताप विनाशनाय चन्दनं नि० ।
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जैन पूजांजलि
[१२५
नर से अर्हन्त सिद्ध हो त्रैलोक्य पूज्य अविनाशो । संसार विजेता होगा जिसने निज ज्योति प्रकाशी ।।
पुण्य पाप के मोह जाल में बढ़ी सदा भव की उलझन । संवरभाव जगा उर में तो, भव समुद्र का हुआ पतन । समय० ___ ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि । काम भोग बन्धन की कथनी सुनी अनन्तों बार सघन । चिर परिचित जिन श्रुत अनुभूति न जागी मेरे अन्तर्मन ॥
ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय कामवाण विध्वंसनाय पुप्पम् नि० । क्षुधा रोग को औषधि पाने का न किया है कभी यतन । आत्मभान करते ही महका वीतरागता का उपवन ॥ समय ___ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय क्षुधा रोग विनाशनाय नंवेद्यम् नि। भ्रम अज्ञान तिमिर के कारण पर में माना अपनापन । सत्य बोध होते ही पाई ज्ञान सूर्य की दिव्य किरण ॥ समय०
ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय मोहान्धकार विनाशनाय दीपनि०। आर्त रौंद्र ध्यान में पड़कर पर भावों में रहा मगन । शुचिमय ध्यान धूप देखी तो धर्म ध्यान की लगी लगन ॥समय० ___ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय अष्टकर्म विध्वंसनाय धूपम् नि । भव तरु के विषमय फल खाकर करता आया भाव मरण । सिद्ध स्वपद की चाह जगी तो यह पर्याय हुई धन धन ॥ समय०
ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि । आश्रव बंधभाव के कारण मिटा राग का एक न कण । द्रव्य दृष्टि बनते हो पाया निज अनर्घ पद का दर्शन ॥ समयसार का करू अध्ययन समयसार का कर मनन । कारण समयसार को ध्याऊँ समयसार को करूं नमन ।
ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि ।
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१२६]
जैन पूजांजलि
जिया तुम निज का ध्यान करो । आर्त रोद्र दुर्ध्यान छोड़कर धर्मध्यान करो ॥
जयमाला : समयसार के ग्रन्थ की महिमा अगम अपार । निश्चय नय भूतार्थ है अभूतार्थ व्यवहार ॥ दुर्नय तिमिर निवारण कारण समयसार को करूं प्रणाम। हूं अबद्धस्पृष्ट नियत अविशेष अनन्य मुक्ति का धाम ॥ सप्त तत्व अरु नव पदार्थ का इसमें सुन्दर वर्णन है । जो भूतार्थ प्राश्रय लेता पाता सम्यक् दर्शन है। जीव अजीव अधिकार प्रथम में भेदज्ञान की ज्योति प्रधान । १"जो पस्सदि अप्पांण णियवं," हो जाता सर्वज्ञ महान ॥ कर्ता कर्म अधिकार समझकर कर्ता बुद्धि विनाश करूं। २"सम्मइंसण णाणं एसो" निज शुद्धात्म प्रकाश करूं। पुण्य पाप अधिकार जान दोनों में भेव नहीं मानें । ये विभाव परणति से हैं उत्पन्न बंधमय ही जानें ॥ ३"रत्तो बंधदि कम्म," जान, उर विराग ले कर्म हरू।
राग शुभाशुभ का निषेध कर निज स्वरूप को प्राप्त करूं। मैं पाश्रव अधिकार जानकर राग द्वेष अरु मोह हरू । भिन्न द्रव्य आश्रव से होकर मावाश्रव को नष्ट करूं। मैं संवर अधिकार समझकर संवरमय ही भाव करूं। ४"अप्पाणं झायंतो" दर्शन ज्ञानमयी निज भाव वरू॥
(१) स. सा. १५ - जो अपनी आत्मा को. नियत देखता है... (२) स. सा. १४४-....सम्यक दर्शन ज्ञान ऐसी संज्ञा मिलती है... (३) स. सा. १५०-....रागी जीव कर्म बांधता है.... (४) स. सा. १८६-... आत्मा को ध्याता हुआ...
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जैन पूजांजलि
वस्त्र पुराने सदा बदलते नए वस्त्र द्वारा । उसी भाँति यह देह बदलती जन्म मृत्यु द्वारा ॥
[१२७
मैं अधिकार निर्जरा जानू पूर्ण निर्जरावंत बनूँ । पूर्व उदय में सम रहकर मैं चेतन ज्ञायक मात्र बनूं ॥ 'अपरिग्गहो अरिच्छो भणिदो" सारे कर्म झराऊँगा । मैं रतिवंत ज्ञान में होकर शाश्वत शिव सुख पाऊँगा । बंध अधिकार बंध की हो तो सकल प्रक्रिया बतलाता । बिन समकित जप तप व्रत संयमबंध मार्ग है कहलाता ॥
राग द्वेष भावों से विरहित जीव बंध से रहता दूर । ६" णिच्छपणया सिदापूण मुणिणो " अष्टकर्म करता चकचूर ॥ जान मोक्ष अधिकार शीघ्र ही नष्ट करूं विषकुम्भ विभाव । श्रात्म स्वरूप प्रकाशित करके प्रगटाऊँ परिपूर्ण स्वभाव ॥ शुद्ध श्रात्मा ग्रहरण करू मैं सर्व बंध का कर छेदन । निशङ्कत होकर पाऊंगा मुक्ति शिला का सिंहासन ॥ सर्व विशुद्ध ज्ञान का है अधिकार अपूर्व अमूल्य महान । पर कर्तृत्व नष्ट हो जाता होता शिव पथ पर अभियान ।। कर्म फलों को मूढ़ भोगता ज्ञानी उनका ज्ञाता है । इसीलिये अज्ञानी दुख पाता ज्ञानी सुख पाता है ॥ भाव भासना नौ अधिकारों से कर निज में वास करू । "मिच्छतं अविरमरणं कषाय योग" की सत्ता नाश करूँ ॥
कुन्द कुन्द ने समयसार मन्दिर का किया दिव्य निर्माण । वीतराग सर्वज्ञ देव की दिव्यध्वनि का इसमें ज्ञान ॥
(५) स. सा. २१०-११-१२-१३- ... अनिच्छुक को अपरिगृही कहा हैं .... (६) स. सा. २७२ - ... निश्चय नयाश्रित मुनि मोक्ष प्राप्त करते हैं... (७) स. सा. १६४ - ... मित्थ्यात्व अविरति कषाय योग ये आश्रव है..
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१२८]
जैन पूजांजलि
जिया तुम निज को पहचानो । निज स्वरूप को पर स्वरूप से सदा भिन्न जानो।
सर्व चार सौ पन्द्रह गाथाएँ प्राकृत भाषा में जान । सारभूत निज समयसार का ही अनुभव ल भव्य महान । अमृतचन्द्राचार्य देव ने आत्म ख्याति टीका लिखकर । कलश चढ़ाये दो सौ अठहत्तर स्वणिम अनुपम सुन्दर ॥ श्री जयसेनाचार्य स्वामी को तात्पर्य वृत्ति टीका । ऋषि मुनि विद्वानों ने लिक्खा वर्णन समयसार जी का ॥ ज्ञानी ध्यानी मुनियों ने भी तोरण द्वार सजाये हैं। समयसार के मधुर गीत गा वन्दनवार चढ़ाये हैं। भिन्न भिन्न भाषाओं में इसके अनुवाद हुए सुन्दर । काव्य अनेकों लिखे गये हैं समयसार जी पर मनहर ॥ श्री कानजी स्वामी ने भी करके समयसार प्रवचन । समयसार मन्दिर पर सविनय हर्षित किया ध्वजारोहण ॥ समयसार पढ़ सम्यक दर्शन ज्ञान चरित प्रगटाऊंगा। ८"तिब्बं मंद सहावं" क्षयकर, वीतराग पद पाऊँगा । पंच परावर्तन प्रभाव कर सिद्ध लोक में जाऊँगा । काल लब्धि पाई है मेरी परम मोक्ष पद पाऊँगा ॥ भक्ति भाव से समयसार को मैंने पूजन की है देव । कारण समयसार की महिमा उर में जाग उठी स्वयमेव ॥ नमः समयसाराय स्वानुभव ज्ञान चेतनामयो परम । एक शुद्ध टंकोत्कीर्ण, चिन्मात्र पूर्ण चिद्रूप स्वयम् ॥ नय पक्षों से रहित प्रात्मा ही है समयसार भगवान । समयसार ही सम्यक् दर्शन सममसार ही सम्यक् ज्ञान ॥ ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय पूर्णार्घम् नि । (८) स. सा. २८८-...बन्धन के तीव्र मन्द स्वभाव को....
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जैन पूजांजलि
[१२६
प्राण मेरे तरसते हैं कब मुझे समकित मिलेगा। कब स्वयं से प्रीत होगी कब मुझे निज पद मिलेगा।
समयसार के भाव को जो लेते उर धार । निज अनुभव को प्राप्त कर हो जाते भव पार॥
x इत्याशीर्वादः जाप्य- ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय नमः ।
श्री कुन्द कुन्द आचार्य पूजन कुन्द कुन्द प्राचार्य देव के चरण कमल मैं करूं नमन । कुन्द कुन्द प्राचार्य देव की वाणी के उर धरू सुमन । कुन्द कुन्द आचार्य देव को भाव सहित करके पूजन । निज स्वभाव के साधन द्वारा मोक्ष प्राप्ति का करूं यतन ॥ १ "परिणामो बंधो परिणामो मोक्खो" करू आत्म दर्शन। सिद्ध स्वपद को प्राप्ति हेतु मैं निज स्वरूप में करूं रमन ॥ __ ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्द आचार्य देव चरणाग्रेषु पुष्पाञजलि क्षिपामि। समयसार वैभव के जल से उर में उज्ज्वलता लाऊँ । २ "दंसरण मूलो धम्मो" सम्यक् वर्शन निज में प्रगटाऊँ ॥ कुन्द कुन्द प्राचार्य देव के चरण पूज निज को ध्याऊँ। सब सिद्धों को वन्दन कर ध्रुव अचल सु अनुपम गति पाऊँ । ___ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्द आचार्य देवाय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा। समयसार वैभव चन्दन से निज सुगन्ध को विकसाऊ । ३ "वत्थु सहावो धम्मो" सम्यक् ज्ञान सूर्य को प्रगटाऊँ। कुन्द० ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्द आचार्य देवाय संसार ताप विनाशनाय चन्दननि०। (१) .. . परिणामों से बन्ध और परिणामों से मोक्ष होता है । (२) अष्ट. पा. २- धर्म का मूल सम्यक् दर्शन है। (३) . . वस्तु स्वभाव ही धर्म है ।
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१३०]
जैन पूजांजलि मैं ज्ञाता दृष्टा हूं चेतन चिद्र पी हूं ।
गुण ज्ञान अनंत सहित मैं सिद्ध स्वरूपी हूं। समयसार वैभव के उत्तम अक्षत गुण निज में लाऊँ। ४ "चारितं खलु धम्मो" सम्यक् चारित रथ पर चढ़ जाऊं ॥कुन्द०
ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्द आचार्य देवाय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि। समयसार वैभव के पावन पुष्पों में मैं रम जाऊ । ५ "दाणं पूजा मुख्खयसावयधम्मो" शील स्वगुण पाऊँ । कुन्द० ___ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्द आचार्य देवाय कामवाण विघ्नंसनाय पुष्पं नि० । समयसार वैभव के मनभावन नैवेद्य हृदय लाऊँ । ६ जो जाणदि अरिहन्तं" निज ज्ञायक स्वभाव प्राश्रय पाऊँ ।कुन्द०
ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्द आचार्य देवाय क्षुधा रोग विनाशनायनैवेद्य नि०। समयसार वैभव के ज्योतिर्मय दीपक उर में लाऊ । ७ "दसण भट्टा भट्टा" मिथ्या मोह तिमिर हर सुख पाऊँ ।कुन्द० ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्द आचार्य देवाय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि। समयसार वैभव की शुचिमय ध्यान धूप उर में ध्याऊँ । ८ "ववहारोऽभूयत्थो" निश्चय प्राश्रित हो शिव पद पाऊँ ।कुन्द० ___ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्द आचार्य देवाय अष्ट कर्म विध्वंसनाय धूपम् नि।। समयसार वैभव के भव्य अपूर्व मनोरम फल पाऊं। ६ "णियमं मोक्ख उवायो" द्वारा महा मोक्ष पद प्रगटाऊ ॥कुन्द०
ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्द आचार्य देवाय मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् नि० ।
(४) प्र. सा. ७ - चरित्न ही धर्म है । (५) र. सा. १०-श्रावक धर्म में दान पूजा मुख्य है। (६) प्र. सा. ८०-जो अरहन्त को - - जानता है । (७) अष्ट. पा. ३- जो पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं, वे भ्रष्ट हैं । (८) स. सा. ११ व्यवहार नय अभूतार्थ है । (९) नि. सा. ४ - (रत्नत्रय रूप) नियम मोक्ष का उपाय है।
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जैन पूजांजलि
पुण्याश्रव के द्वारा स्वर्गों के मला जब मुरझाई तो कितने
भोगे ।
सुख दुख भोगे ॥
समयसार वैभव का निर्मल भाव श्रर्घ उर में लाऊ । १० " अहमिक्को खलु सुद्धो" चिन्तन कर अनर्घ पद को पाऊँ ॥ कुन्दकुन्द श्राचार्य देव के चरण पूज निज को ध्याऊँ । सब सिद्धों को वन्दन कर ध्रुव प्रचल सु अनुपम गति गाऊं ॥
ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्द आचार्य देवाय अनघं पद प्राप्ताय अर्घ्यम् नि० । (जयमाला)
[१३१
मङ्गलमय भगवान् वीर प्रभु मङ्गलमय गौतम गणधर । मङ्गलमय श्री कुन्द कुन्द मुनि, मङ्गल जैन धर्म सुखकर ॥ कन्नड़ प्रान्त बड़ा दक्षिरण में कोण्डकुण्ड था ग्राम अपूर्व ।
वर्षों के
पूर्व ॥
लिया ।
कुन्द कुन्द ने जन्म लिया था दो सहस्र ग्यारह वर्ष प्रायु थी जब तुमने स्वामी वैराग्य श्रेष्ठ महाव्रत धारण करके मुनि पद का सौभाग्य लिया ॥ एक दिवस जङ्गल में बैठे घोर तपस्या में थे लीन । कंचन सी काया तपती थी आत्म ध्यान में थे उसी समय इक पूर्व जन्म का मित्र देव व्यंतर
तल्लीन ॥
आया ।
नाया ॥
खोली ।
देख तपस्या रत भू पर श्रा श्रद्धा से ध्यान पूर्ण होने पर मुनि ने जब अपनी देखा देव पास बैठा है बोले तब हित मित बोली ॥ धर्मं वृद्धि हो, धर्मं वृद्धि हो, धर्म वृद्धि हो, तुम हो कौन । हर्षित पुलकित गद्गद् होकर तोड़ा तब व्यन्तर ने मौन ॥
मस्तक
आँखें
नमस्कार कर भक्ति भाव से पूर्व जन्म का दे पिछले भव में परम मित्र थे क्षमा करें मेरी
(१०) स. सा. ३८, ७३ - मैं निश्चय से एक हूं शुद्ध हूं ।
परिचय |
अविनय ॥
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१३२]
जैन पूजांजलि
अंतरंग बहिरंग आश्रव से विरक्ति ही संयम है । सम्यक्दर्शन ज्ञान पूर्वक जो संवर है संयम है ||
आना ॥
किया ॥
हर्षाये ।
सीमंधर स्वामी के दर्शन को विदेह यही प्रार्थना चलें आप भी नम्र विनय मन चिर इच्छा साकार हुई मुनिवर ने स्वर्ण बोले श्री जिनवारणी सुनकर मुझे लौट भारत मुनि को साथ लिया उसने आकाश मार्ग से गमन किया । तोर्थङ्कर सर्वज्ञ देव को जा विदेह में नमन सीमंधर के समवशरण को देखा मन में जन्म जन्म के पातक क्षय कर अनुपम ज्ञान रत्न पाये ॥ सीमंधर प्रभु के चरणों में झुककर किया विनय वन्दन । प्रभु की शाँत मधुर छवि लखकर धन्य हुए भारत नन्दन ॥ प्रभु से प्रश्न हुआ लघु मुनिवर कौन कहाँ से आये हैं । खिरी दिव्य ध्वनि कुन्द कुन्द मुनि भरत क्षेत्र से आये हैं । सीमंधर ने दिव्य ध्वनि में कुन्द कुन्द का नाम लिया । भव भव के प्रघ नष्ट हो गये मुनि ने विनय प्रणाम किया ॥ विनयी होकर कुन्द कुन्द ने जिन वारणी का पान किया । भ्रष्ट दिवस रह समवशरण में द्वादशांग का ज्ञान लिया ॥ प्रक्षय ज्ञान उदधि मन में भर और हृदय में प्रभु का नाम । सीमंधर तीथंङ्कर प्रभु को करके बारम्बार प्रणाम ॥ फिर विदेह से चले और नम पथ से भारत में प्राये । तीर्थङ्कर वाणी का सागर मन मन्दिर में लहराये ॥ जो सुनकर श्राये जिनवाणी फिर उसको लिपि रूप दिया । जगत जीव कल्यारण करें निज ऐसा शास्त्र स्वरूप दिया ॥ राग मात्र को हेय बताया उपादेय निज शुद्धातम । भाव शुभाशुभ का प्रभाव कर होता चेतन परमातम ॥
मू जाता हूं । लाता हूं ॥
समय जाना ।
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जैन पूजांजलि
संयम के बिन यह भव प्राणी हो सकता है मुक्त नहीं । संयम बिन कैवल्य लक्ष्मी से हो सकता युक्त नहीं ॥
[१३३
सन्देश भरा ।
उपदेश भरा ॥
समयसार में निश्चय नय का पावन मय श्री पंचास्तिकाय को रचकर द्रव्य तत्व प्रवचन सार बनाया तुमने भेदज्ञान को बतलाया । मूलाचार लिखा मुनि जन हित साधु मार्ग को दर्शाया ॥ नियमसार की रचना श्रनुपम रयणसार गूंथा चितलाय । लघु सामायिक पाठ बनाया लिखा सिद्ध प्राभृत सुखदाय ॥ श्री अष्ट पाहुड़ षट्प्राभृत द्वादशानुप्रेक्षा के बोल । चौरासी पाहुड लिक्खे जो ज्ञात नहीं हमको अनमोल || ताड़ पत्र पर लिखे ग्रन्थ सब सफल हुई चिर अभिलाषा । जन जन को वारणी कल्याणी धन्य हुई प्राकृत भाषा ॥ जीवों के प्रति करुणा जागी मोक्ष मार्ग उपदेश दिया । और तपस्या भूमि बनाकर गिरि कुन्दाद्रि पवित्र किया || अमृतचन्द्राचार्य देव की टीका श्रात्म ख्याति विख्यात । पद्मप्रभ मलधारि देव को टीका नियमसार प्रख्यात ॥ श्री जयसेनाचार्य रचित तात्पर्य वृत्ति टीका पावन । श्री कानजी स्वामी के भी अनुपम समयसार प्रवचन ॥ पद्मनन्दि गुरु वत्रग्रीव मुनि ऐलाचार्य श्रापके नाम । गृद्धपृच्छ प्राचार्य यतीश्वर कुन्द कुन्द हे गुरण के धाम ।। हे प्राचार्य प्रापके गुण वर्णन करनेकी मुझमेंशक्ति नहीं । पथ पर चलें श्रापके ऐसी भी तो श्रमी विरक्ति नहीं ॥ भक्ति विनय के सुमन तुम्हारे चरणों में भव्य भावना यही एक दिन मैं सर्वज्ञ बनूं स्वयमेव ॥
प्रपित हैं देव ।
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१३४]
जैन पूजांजलि
चेतन आज संजोलो उर में पावन दीपावलियाँ ।
भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक नाशो कर्मावलियां ॥ ११"जोवादि सद्दहणं सम्मत्तं" पाऊँ प्रभु करूं प्रणाम । इन चरणों को पूजन का फल पाऊँ सिद्ध पुरी का धाम ।। ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्द आचार्य देवाय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्यम् ।
कुन्द कुन्द मुनि के वचन भाव सहित उरधार । निज प्रातम जो ध्यावते पाते ज्ञान अपार ॥
४ इत्यार्शीवाद: जाप्य- ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्दाचार्य देवाय नमः ।
श्री क्षमावणी पूजन क्षमावणी का पर्व सुपावन देता जीवों को सन्देश । उत्तम क्षमा धर्म को धारो जो अतिभव्य जीव का वेश ॥ मोह नींद से जागो चेतन प्रब त्यागो मिथ्याभिनिवेश । द्रव्य दृष्टि बन निज स्वभाव से चलो शीघ्र सिद्धों के देश ॥ क्षमा मार्दव प्रार्जव संयम शौच सत्य को अपनायो। त्याग, तपस्या, प्राकिंचन, व्रत ब्रह्मचर्य मय हो जाओ। एक धर्म का सार यही है समता मय ही बन जाओ। सब जीवों पर क्षमा भाव रख स्वयं क्षमा मय हो जाओ। क्षमा धर्म को महिमा अनुपम क्षमा धर्म हो जग में सार । तीन लोक में गूज रही है क्षमावणी की जय जयकार ॥ ज्ञाता दृष्टा हो समग्र को देखो उत्तम निर्मल भेष । रागों से विरक्त हो जाओ रहे न दुख का किंचित लेश ।।
ॐ ह्रीं श्रीं उत्तम क्षमा धर्म अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्म अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठःस्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्म अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । (११) स. सा. १५५-जीवादि पदार्थों का श्रिदान सम्यक दर्शन है।
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जैन पूजांजलि
समकित रवि की ज्योति प्राप्तकर नाशो गपावलियां । मोह कर्म सर्वथ । नाशकर नाशो पुण्यावलियां ||
[१३५
जीवादिक नव तत्त्वों का श्रद्धान यही सम्यक्त्व इनका ज्ञान ज्ञान है, रागादिक का त्याग चरित्र १ "संते पुग्वणिवद्धं जाणदि" वह अबंध का सम्यक् दृष्टि सुजीव आभव बंध रहित हो उत्तम क्षमा धर्म उर धारू जन्म मरण क्षय कर मानूँ । पर द्रव्यों से दृष्टि हटाऊं निज स्वरूप को पहचानूं ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मा गाय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वगमीति स्वाहा |
सप्त भयों से रहित निशङ्कित निज स्वभाव में सम्यक् दृष्टि । मिथ्यात्वादिक भावों में जो रहता वह है मिथ्यादृष्टि ॥ तीन मूढ़ता छह अनायतन तीन शल्य का नाम नहीं । प्राठ दोष समकित के श्ररु आठों मद का कुछ काम नहीं ॥ उत्तम०
प्रथम ।
परम ||
ज्ञाता है ।
जाता है ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मा गाय संसारताप विनाशनाय चन्दनम् नि। अशुभ कर्म जाना कुशील शुभ को सुशील मानता नहीं । जो संसार बंध का कारण वह सुशील जानता नहीं ॥ कर्म फलों के प्रति जिसकी श्राकांक्षा उर में रही नहीं ।
वह निःकांक्षित सम्यक दृष्टि भव की बाँछा रही नहीं ॥ उत्तम०
कारण है ।
तारण
है ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मा गाय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि० । राग शुभाशुभ दोनों ही संसार भ्रमण का शुद्ध भाव ही एकमात्र परमार्थ भवोदधि वस्तु स्वभाव धर्म के प्रति जो लेश जुगुप्सा करे नहीं । निवि चिकित्सक जीव वही है निश्चय सम्यक दृष्टि वही ॥ उत्तम० ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मा गाय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम्
नि० ।
(१) स. सा. १६६ - ( सम्यक दृष्टि ) सत्ता में रहे हुए पूर्व बद्ध कर्मों कोजानता है ।
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१३६ ]
जैन पूजांजलि
पर परिणति दुर्मति से आज विमूढ़ हुआ हूं । निज परिणति के रथ पर में आरूढ़ हुआ हू ॥
पाता है ॥
शुद्ध श्रात्मा जो ध्याता वह पूर्ण शुद्धता पाता है । जो अशुद्ध को ध्याता है वह ही अशुद्धता पर भावों में जो न मूढ़ है दृष्टि यथार्थ वह अमूढ़ दृष्टि का धारी सम्यक् दृष्टि
सदा जिसकी ।
सदा उसकी || उत्तम०
सभी ॥
जुड़ा ।
ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मा गाय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यग्नि० । राग द्वेष मोहादि आश्रव ज्ञानी को होते न कभी । ज्ञाता दृष्टा को ही होते उत्तम संवर शुद्धातम की भक्ति सहित जो पर मावों से उपगूहन का अधिकारी है सम्यक् दृष्टि महान् बड़ा ॥ उत्तम० ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मा गाय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि० । कर्म बन्ध के चारों कारण मिथ्या श्रवरति योग चेतयिता इनका छेदन कर करता है निर्वाण उपाय || जो उन्मार्ग छोड़कर निज को निज में सुस्थापित करता ।
कषाय ।
स्थिति करण युक्त होता वह सम्यक् दृष्टि स्वहित वरता ॥ उत्तम०
रहता दूर ।
ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मा गाय अप्टकर्म दहनाय धूपम नि०स्वाहा । पुण्य पाप मध सभी शुभाशुभ योगों से जो सर्व संग से रहित हुआ वह दर्शन ज्ञानमयी सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित धारी के प्रति गौ वत्सल भाव । वात्सल्य का धारी सम्यक् दृष्टि मिटाता पूर्ण विभाव || उत्तम ०
सुख पूर ॥
भाव
नहीं
ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मा गाय मोक्षफल प्राप्ताय फलम् नि० स्वाहा । ज्ञान बिहीन कभी भी पल भर ज्ञान स्वरूप नहीं बिना ज्ञान के ग्रहण किये कर्मों से मुक्त नहीं विद्या रूपी रथ पर चढ़ जो ज्ञान रूप रथ चलवाता वह जिन शासन की प्रभावना करता शिव पद दर्शाता ॥ उत्तम०
होता ।
होता ॥
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जैन पूर्जाजलि
[१३७
देह तो अपनी नहीं है देह से फिर मोह कैसा । जड़ अचेतन रूप पुद्गल द्रव्य से व्यामोह कैसा ॥
उत्तम क्षमा धर्म उर धारू पद अनर्घ पाकर मानूं । पर द्रव्यों से दृष्टि हटाऊँ निज स्वरूप को पहचान ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मागाय अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घम् नि स्वाहा ।
जयमाला 8 उत्तम क्षमा स्वधर्म को वन्दन कर त्रिकाल ।
नाश दोष पच्चीस सब काटूं भव जञ्जाल ॥ सोलह कारण पुष्पांजलि दश लक्षण रत्नत्रय वतपूर्ण । इनके सम्यक् पालन से हो जाते हैं वसुकर्म विपूर्ण ॥ भाद्र मास में सोलह कारण तीस दिवस तक होते हैं । शुक्ल पक्ष के दश लक्षण पंचम से दस दिन होते हैं । पुष्पांजलि दिन पांच पंचमी से नवमी तक होते हैं । पावन रत्नत्रय व्रत अन्तिम तीन दिवस के होते है । आश्विन कृष्णा एकम् उत्सव क्षमावणी का होता है । उत्तम क्षमा धार उर श्रावक मोक्ष मार्ग को जोता है ॥ भाद्र मास अरु माघ मास अरु चैत्र मास में आते हैं। तीन बार प्रा पर्व राज जिनवर सन्देश सुनाते हैं । १-"जीवे कम्मं बद्ध पुट्ठ" यह तो है व्यवहार कथन । है प्रबद्ध अपृष्ट कर्म से निश्चय नय का यही कथन ॥ जीव देह को एक बताना यह है नय व्यवहार प्ररे । जीव देह तो पृथक् पृथक हैं निश्चय नय कह रहा अरे । निश्चय नय का विषय छोड़ व्यवहार माहि करते वर्तन । उनको मोक्ष नहीं हो सकता और न ही सम्यकदर्शन । (१) स. सा. १४१-जीव कर्म से बंधा है तथा स्पर्शित है।
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१३८]
जैन पूजांजलि
चक्रवर्ती इन्द्र नारायण नहीं जीवित रहे हैं ।
समय जिसका आगया वे एक ही पल में ढहे हैं ।। २-"दोण्ह विणणाय मणियं जाणई" जो पक्षातिकान्त होता। चित्स्वरूप का अनुभव करता सकल कर्म मल को खोता॥ ज्ञानी ज्ञानस्वरूप छोड़कर जब अज्ञान रूप होता । तब अज्ञानी कहलाता है पुद्गल बन्ध रूप होता ॥ ३-"जह विस भुव भुज्जतोवेज्जो" मरण नहीं पा सकताहै। ज्ञानी पुद्गल कर्म उदय को भोगे बन्ध न करता है । मुनि अथवा गृहस्थ कोई भी मोक्ष मार्ग है कभी नहीं । सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित ही मोक्ष मार्ग है सही सही ॥ मुनि अथवा गृहस्थ के लिंगों में जो ममता करता है । मोक्ष मार्ग तो बहुत दूर भव अटवी में ही भ्रमता है ।। प्रतिक्रमण प्रतिसरण प्रादि आठों प्रकार के हैं विष कुम्भ। इनसे जो विपरीत वही है मोक्ष मार्ग के अमृत कुम्भ ॥ पुण्य भाव को भो तो इच्छा ज्ञानी कभी नहीं करता । पर भावों से अरति सदा है निज का ही कर्ता धर्ता ॥ कोई कर्म किसी को भी सुख दुख देने में है असमर्थ । जीव स्वयं ही अपने सुख दुख का निर्माता स्वयं समर्थ ॥ क्रोध, मान, माया, लोभादिक नहींनीव के किचित् मात्र । रूप, गंध, रस, स्पर्शशब्द भी नहीं जीव के किंचितमात्र।। देह संहनन संस्थान भी नहीं जीव के किचित्मात्र । राग द्वेष मोहादि भाव भी नहीं जीव के किंचित्मात्र । सर्व भाव से भिन्न त्रिकाली पूर्ण ज्ञानमय ज्ञायक मात्र । नित्य, प्रौव्य,चिद्रूप, निरंजन,दर्शन, ज्ञानमयो चिन्मात्र॥ (२) स. सा. १४३-दोनों ही नयों के कथन को मान जानता है । (३) स. सा. १९५-जिस प्रकार वैद्य पुरुष विष को भोगता, खाता हुआ भी...
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जन पूजांजलि
[१३६ शुद्ध आत्मा में प्रवृत्ति का एक मार्ग है निज चिन्तन ।
दुश्चिन्ताओ से निवृत्ति का एक मार्ग है निचिन्तन । वाक् जाल में जो उलझे वह कभी सुलझ ना पायेंगे । निज अनुभव रस पान किये बिन नहीं मोक्ष में जायेंगे । अनुभव हो तो शिवसमुद्र है अनुभव शाश्वत सुखका स्रोत । अनुभव परम सत्यशिव सुन्दरअनुभव शिव से प्रोतप्रोत॥ निज अनुभव ही निविकल्प है अनुभव है चैतन्यमयी । अनुभव परम तरण तारण है अनुभव है संसार जयो ॥ निज स्वभाव के सम्मुख होजा पर से दृष्टि हटा भगवान । पूर्ण सिद्ध पर्याय प्रगट कर आज अभी पा ले निर्वाण ॥ ज्ञान चेतना सिन्धु स्वयं तू स्वयं अनंत गुणों का भूप । त्रिभुवन पति सर्वज्ञ ज्योति मय चिन्तामणि चेतन चिद्रूप॥ यह उपदेश श्रवण कर हे प्रभु मैत्री भाव हृदय धारूं । जो विपरोत दृष्टि वाले हैं उन पर मैं समता धारू॥ धीरे धीरे पाप, पुण्य शुभ प्राश्रव संहारू । भव तन भोगों से विरक्त हो निज स्वभाव को स्वीकारू। दश धर्मों को पढ़ सुनकर अन्तर में आये परिवर्तन । व्रत उपवास तपादिक द्वारा करूं सदा ही निज चिन्तन ॥ राग द्वेष अभिमान पाप हर काम क्रोध को चूर करूं । जो संकल्प विकल्प उठे प्रभु उनको क्षण क्षण दूर करू॥ अणु भर भी यदि राग रहेगा नहीं मोक्ष पद पाऊंगा । तीन लोक में काल मनन्ता राग लिये भरमाऊंगा ॥ राग शुभाशुभ के विनाश से वीतराग बन जाऊंगा । शुद्धात्मानुभूति के द्वारा स्वयं सिद्ध पद पाऊंगा ॥ पर्युषण में दूषण त्यागं बाह्य क्रिया में रमे न मन । शिव पथ का अनुसरण करू मैं बन के नाथ सिद्ध नन्दन ।।
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१४०]
जैन पूजांजलि
सहज शुर निष्काम भाव से भव समुद्र को तरो तरो । आत्मोज्ज्वलता में बाधक, शुभ अशुभ राग को हरो हरो ॥
शिव पथ का अनुसरण करू प्रभु मैं व्यवहार धर्म पालू। निज शुद्धात्म पर करुणा कर निश्चय धर्म सहज पालूं ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मागाय पूर्णाऱ्याम् निर्वपामीति स्व हा ।
मोक्ष मार्ग दर्शा रहा क्षमा वरपी का पर्व । क्षमाभाव धारण करो राग द्वेष हर सर्व ॥
x इत्याशीर्वादः ॐ ह्रीं श्री उत्तम क्षमा धर्मा गाय नमः ।
जाप्य
श्री दीपमालिका पूजन महावीर निर्वाण दिवस पर महावीर पूजन कर लूं। वर्धमान अतिवीर वीर सन्मति प्रभु को वन्दन कर लूं ॥ पावापुर से मोक्ष गये प्रभु जिनवर पद प्रचंन कर लू । जगमग जगमग दिव्य ज्योति से धन्य मनुज जीवन करलू। कार्तिक कृष्ण अमावस्या को शुद्ध भाव मन में भर लू। दीपमालिका पर्व मनाऊँ भव भव के बन्धन हर लू॥ ज्ञान सूर्य का चिर प्रकाश ले रत्नत्रय पथ पर बढ़ लूं। पर भावों का राग तोड़कर निज स्वभाव में मैं अड़ लूँ॥
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्याम् मोक्ष मङ्गल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सवौषट् ।
ॐ ह्रों कार्तिक कृष्ण अमावस्याम् मोक्ष मङ्गल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्याम् मोक्ष मङ्गल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्र मत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । चिदानन्द चैतन्य अनाकुल निज स्वभाव मय जल भर लू। चन्म मरण का चक्र मिटाऊँ भव भव की पीड़ा हर लू॥
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जैन पूजांजलि
[१४१
क्षमा सत्य संतोष सरलता मृदुता लघुत। नम्रता ।
ब्रम्हचर्य तप गुप्ति त्याग समता उज्जवलता उच्चता ॥ दीपावलि के पुण्य दिवस पर वर्धमान पूजन कर ले। महावीर अतिवीर वीर सन्मति प्रभु को वन्दन कर लूं।
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्याम मोक्ष मङ्गल प्राप्ताय श्री वर्धमान जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम निर्वपामीति स्वाहा । अमल अखण्ड अतुल अविनाशी निज चन्दन उर में घर लूँ। चारों गति का ताप मिटाऊँ निज पंचम गति आदर लू ॥दीपा०
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्यान मोक्ष मङ्गल प्राप्ताय श्री वर्धमान जिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा । अजर अमर अक्षय अविकल अनुपम प्रभत पद उर धरलूं । भव सागर तर मुक्ति वधू से मैं पावन परिणय करलं ॥ दीपा०
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्याम मोक्ष मङ्गल पण्डिताय श्रीवर्धमान जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् निर्वपामीति स्वाहा । रूप गंध रस स्पर्श रहित निज शुद्ध पुष्प मन में भर लूं। कामवाण को व्यथा नाश कर मैं निष्काम रूप धर लूं ॥ दीपा०
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्याम मोक्ष मङ्गल मण्डिताय श्री वर्धमान जिनेन्द्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम, निर्वपामोति स्वाहा । प्रात्म शक्ति परिपूर्ण शुद्ध नैवेद्य भाव उर में धर लूं। चिर अतृप्ति का रोग नाश कर सहज तृप्त निज पद बरह्लादीपा०
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्याम मोक्ष मङ्गन मण्डिताय श्री वर्धमान जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा । पूर्ण ज्ञान कैवल्य प्राप्ति हित जान दीप ज्योतित कर लू। मिथ्या भ्रम तम मोह नाश कर निज सम्यकत्व प्राप्त कर लदीपा०
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्याम मोक्ष मङ्गल मण्डिताय श्री वर्धमान जिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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१४२]
जैन पूजांजलि
पाप तिमिर का पुन्ज नाश कर ज्ञान ज्योति जयवंत हुई।
नित्य शुद्ध अविरुद्ध शक्ति के द्वारा महिमावंत हुई ॥ पुण्य भाव की धूप जलाकर घाति अघाति कर्म हर लू। क्रोध मान माया लोभादिक मोह द्रोह सब क्षय कर लू ।दीपा०
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्याम, मोक्ष मङ्गल मण्डिताय श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अप्ट कर्म विध्वंसनाय घूपम् निर्वपामीति स्वाहा । अमिट अनन्त अचल अविनश्वर श्रेष्ठ मोक्ष पद उर घरलू। अष्ट स्वगुण से युक्त सिद्ध गति पा सिद्धत्व प्राप्त करनदीपा० __ॐ ह्री कार्तिक कृष्ण अमावस्याम, मोक्ष मङ्गल मण्डिताय श्री वर्धमान जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलम निर्वपामीति स्वाहा । गुण अनन्त प्रगटाऊँ अपने निज अनर्घ पद को वर लू । शुद्ध स्वभावी ज्ञान प्रभावी निज सौन्दर्य प्रगट कर लू॥ दीपावलि के पुण्य दिवस पर वर्धमान पूजन कर लूं। महावीर प्रतिवीर वीर सन्मति प्रभु को वन्दन कर लू॥
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्याम, मोक्ष फल मङ्गल मण्डिताय श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्तये अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री पंच कल्याणक शुभ आषाढ़ शुक्ल षष्ठी को पुष्पोत्तर तज प्रभु आये। माता त्रिशला धन्य हो गई सोलह सपने दरशाये ॥ पन्द्रह मास रत्न बरसे कुण्डलपुर में प्रानन्द हुआ। वर्धमान के गर्मोत्सव पर दूर शोक दुख द्वन्द हुआ ॥
ॐ ह्रीं आषाढ़ शुक्ला षष्ठयाम, गर्भ मङ्गल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अयम, निर्वपामीति स्वाहा । चैत्र शुक्ल की त्रयोदशी को सारी जगती धन्य हुई। सप सिद्धार्थराज हर्षाये कुण्डलपुरी अनन्य हुई ॥
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जैन पूजांजलि
[१४३
निज स्वभाव का साधन लेकर लो शुद्धात्म शरण ।
गुण अनंतपति, बनो सिद्धयति करके मुक्ति वरण ।। मेरु सुदर्शन पाण्डुक वन में सुरपति ने कर प्रभु अभिषेक । नृत्य वाद्य मङ्गल गीतों के द्वारा किया हर्ष अतिरेक ॥ __ ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ला त्रयोदश्याम जन्म मङ्गल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अर्घम निर्वपामीति स्वाहा । मगसिर कृष्णा दशमी को उर में छाया वैराग्य अपार । लौकान्तिक देवों के द्वारा धन्य धन्य प्रभु जय जयकार ॥ बाल ब्रम्हचारी गुलधारी वीर प्रभू ने किया प्रयाण । वन में जाकर दीक्षा धारी निज में लीन हुए भगवान ॥
ॐ ह्रीं मगसिर कृष्ण दशम्पाम् तपो मङ्गल प्राप्ताय श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। द्वादश वर्ष तपस्या करके पाया तुमने केवल ज्ञान । कर बैसाख शुक्ल दशमो को वेसठ कर्म प्रकृति अवसान ॥ सर्व द्रव्य गुण पर्यायों को युगपत एक समय में जान । वर्धमान सर्वज्ञ हुए प्रभु वीतराग अरिहन्त महान ॥
ॐ ह्रीं वैशाख शुक्ल दशम्याम् केवल ज्ञान मङ्गल प्राप्ताय श्री वर्षमान जिनेन्द्राय अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा । कार्तिक कृष्ण प्रमावस्या की वर्धमान प्रभु मुक्त हुए । सादि अनन्त समाधि प्राप्त कर मुक्ति रमा से युक्त हुए । अन्तिम शुक्ल ध्यान के द्वारा कर प्रघातिया का अवसान । शेष प्रकृति पच्चासी को भी क्षय करके पाया निर्वाण ॥
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्याम मोक्ष मङ्गल मण्डिताय श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अर्घ्यम् निर्वपामोति स्वाहा ।
जयमाला महावीर ने पावापुर से मोक्ष लक्ष्मी पाई थी। इन्द्र सुरों ने हषित होकर दीपावली मनाई थी ॥
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१४४]
जैन पूजांजलि
परम पूज्य भगवान आत्मा है अनंतगुण से परिपूर्ण ।
अंतरमुखाकार होते ही हो जाते सब कर्म विचूर्ण ।। केवल ज्ञान प्राप्त होने पर तीस वर्ष तक किया विहार । कोटि कोटि जीवों का प्रभु ने दे उपदेश किया उपकार ।। पावापुर उद्यान पधारे योग निरोध किया साकार । गुणस्थान चौदह को तजकर पहुंचे भव समुद्र के पार ॥ सिद्ध शिला पर हुए विराजित मिली मोक्ष लक्ष्मी सुखकार । जल थल नभ में देवों द्वारा गूज उठी प्रभु की जयकार ।। इन्द्रादिक सुर हर्षित आये मन में धारे मोद प्रपार । महामोक्ष कल्याण मनाया अखिल विश्व को मङ्गलकार ॥ अष्टादश गण राज्यों के राजानों ने जयगान किया । नत मस्तक होकर जन जन ने महावीर गुणगान किया ॥ तन कपूरवत उड़ा शेष नख केश रहे इस भू तल पर । माया मयी शरीर रचा देवों ने क्षण भर के भीतर ॥ अग्नि कुमार सुरों ने झुक मुकुटानल से तन भस्म किया। सर्व उपस्थित जन समूह सुरगण ने पुण्य अपार लिया । कार्तिक कृष्ण प्रमावस्या का दिवस मनोहर सुखकर था। उषाकाल का उजियारा कुछ तम मिश्रित अति मनहर था। रत्न ज्योतियों का प्रकाश कर देवों ने मङ्गल गाये । रत्न दीप को प्रावलियों से पर्व वीपमाला लाये ॥ सबने शोष चढ़ाई भस्मी पद्म सरोवर बना वहाँ । वही भूमि है अनुपम सुन्दर जल मन्दिर है बना जहां ॥ इसी दिवस गौतम स्वामी को सन्ध्या केवल ज्ञान हुआ । केवल ज्ञान लक्ष्मी पाई पद सर्वज्ञ महान हुआ ॥ प्रभु के ग्यारह गणधर में थे प्रमुख श्री गौतम स्वामी । क्षपक श्रेरिण चढ़ शुक्ल ध्यान से हुए देव अन्तर्यामी ।
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जैन पूजांजलि
[१४५
व्याकुल मत हो मेरे मनवा कट जाएगी दुख की रात । दिन के बाद रात आती है और रात के बाद प्रभात ॥
देवों ने प्रति हर्षित होकर रत्न ज्योति का किया प्रकाश । हुई दीपमाला द्विगुणित प्रानन्द हुआ छाया उल्लास ॥ प्रभु के चरणाम्बुज दर्शन कर हो जाता मन अति पावन । परम पूज्य निर्वाण भूमि शुभ पावापुर है मन भावन ॥ अखिल जगत में दीपावलि त्योहार मनाया जाता है। महावीर निर्वाण महोत्सव धूम मचाता प्राता है। हे प्रभु महावीर जिन स्वामी गुण अनन्त के हो धामी। भरत क्षेत्र के अन्तिम तीर्थङ्कर जिनराज विश्वनामी ॥ मेरी केवल एक विनय है मोक्ष लक्ष्मी मुझे मिले। भौतिक लक्ष्मी के चक्कर में मेरी श्रद्धा नहीं हिले ॥ भव भव जन्म मरण के चक्कर मैंने पाये हैं इतने । जितने रजकण इस भूतल पर पाये हैं प्रभु दुख उतने ॥ अवसर प्राज अपूर्व मिला है शरण आपको पाई है। भेद ज्ञान की बात सुनी है तो निज की सुधि आई है। अब मैं कहीं नहीं जाऊंगा जब तक मोक्ष नहीं पाऊँ। दो आशीर्वाद हे स्वामी नित्य नये मङ्गल गाऊं ॥
ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्याम् निर्वाण कल्याणक प्राप्ताय श्री वर्धमान जिनेन्द्राय पूर्णार्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
दीपमालिका पर्व पर महावीर उर धार । भाव सहित जो पूजते पाते सौख्य अपार ॥
卐 इत्याशीर्वाद ॐ ह्रीं श्री वर्धमान परम सिद्ध भ्यो नमः ।
-:x:
जाप्य
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१४६ ]
जैन पूजजलि
अपनी देह नहीं अपनी तो पर पदार्थ भी शुद्ध बुद्ध चिद्रूप त्रिकाली ध्रुव स्वभाव
सपना है । ही अपना है ।
श्री महावीर जयन्ती
लिया ।
पूजन महावीर की जन्म जयन्ती का दिन जग में है विख्यात । चैत्र शुक्ल की त्रयोदशी को हुम्रा विश्व में नवल प्रभात ॥ कुण्डलपुर वैशाली नृप सिद्धार्थराजगृह जन्म माता विशला धन्य हो गईं वर्धमान रवि इन्द्रादिक ने मङ्गल गाये गिरि सुमेरु पर एक सहस्र आठ कलशों से क्षीरोदधि से तीन लोक में आनन्द छाया घर घर मङ्गलचार दशों दिशायें हुई सुगन्धित प्रभु का जय जयकार दुखी जगत के जीवों का प्रभु के द्वारा उपकार निज स्वभाव जप मोक्ष गये प्रभु सिद्ध स्वपद साकार हुआ । मैं भी प्रभु के जन्म महोत्सव पर पुलकित हो गुण गाऊँ । प्रष्ट द्रव्य से प्रभु चरणों की पूजन करके हर्षाऊ ॥
ॐ ही चैत्र शुक्ल त्रयोदश्याम् जन्म मङ्गल प्राप्त श्री महावोर जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संत्रीषट् ।
उदय
कर
किया
हुआ ।
नर्तन ।
म्हवन ||
हुआ ।
हुआ ॥
हुप्रा ।
ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ल त्रयोदश्याम् जन्म मङ्गल प्राप्त श्री महावीर जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
लेकर
ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ल त्रयोदश्याम् जन्म मङ्गल प्राप्त भी महावीर जिनेन्द्र अत्र मम् सन्निहितो भवभव वषट् । क्षीरोदधि का क्षीर वर्ण सम भाव नीर प्रभु चरणों में भेंट चढ़ाऊ परम शान्त महावीर के जन्म दिवस पर महावीर प्रभु महावीर के पथ पर चल कर महावीर सम बन
जीवन
को
श्री महावीर
ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ल त्रयोदश्याम् जन्म मङ्गल प्राप्ताय जिनेन्द्र जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम निर्वपामीति स्वाहा ।
प्राऊ ।
पाऊ ॥
ध्याऊँ ।
जाऊं ॥
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जैन पूजांजलि
[१४ में एक शुद्ध चैतन्य मूर्ति शाश्वत ध्र व ज्ञायक हूँ अनूप।
निर्मलानंद अविकारी हूँ' अविचल हूँ ज्ञानानन्द रूप ॥ मलयागिरि चन्दन से उत्तम गन्ध स्वयं की प्रगटाऊँ। निज स्वभाव साधन से स्वामी शाश्वत शीतलता पाऊँ ॥महा०
ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ल त्रयोदश्याम् जन्म मङ्गल प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा। शुभ्र अखण्डित धवलाक्षत ले भाव सहित प्रभु गुण गाऊँ। निज स्वरूप की महिमा गाऊं नुपम अक्षय पद पाऊँ ॥महा०
ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ल त्रयोदश्याम जन्म मङ्गल प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् निर्वपामीति स्वाहा। कल्प वृक्ष के पुष्प मनोहर भावमयी लेकर आऊँ । पर परणति से विमुख बनूं निष्काम नाथ मैं बन जाऊँ॥ महा. ___ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ल त्रयोदश्याम जन्म मङ्गल प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामोति स्वाहा। षट रस मय नैवेद्य अनूठे भाव पूर्ण लेकर पाऊँ । निज परणति में रमण करूं मैं पूर्ण तप्त प्रभु बन जाऊं ॥महा० ___ॐ ह्रीं चैत्र शुक्न त्रयोदश्याम जन्म मङ्गल प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा। स्वर्ण थाल में रत्न दीप निज मावों का लेकर पाऊं। केवल ज्ञान प्रकाश सूर्य को ज्योति किरण निज प्रगटाऊं ॥ महा०
ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ल त्रयोदश्याम् जन्म मङ्गल प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा। दश गन्धों की दिव्य धूप में शुद्ध भाव को ही लाऊँ। वश धर्मों की परम शक्ति से प्रष्ट कर्म रज विघटाऊँ ।महा०
ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ल त्रयोदश्याम जन्म मङ्गल प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अष्ट कर्म दहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा।
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१४८]
जैन पूजांजलि
सफल हुआ सम्यक्त्व पराक्रम छाया भेद ज्ञान अनुपम । अतरवंद नष्ट होते ही क्षीण हो गया मिथ्यातम ।।
विविध भांति के सुर तर फल प्रभु परम भावना मय लाऊं। महा मोक्ष फल पाऊँ स्वामी फिर न लौट भव में पाऊँ ॥ महा०
ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ल त्रयोदश्याम, जन्म मङ्गल प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलम निर्वपामोति स्वाहा । जल फलादि वसु द्रव्य अर्घ शुभ ज्ञान भाव का ही लाऊं। साम्य भाव चारित्र धर्म पा निज अनर्घ पदवी पाऊं ॥ महावीर के जन्म दिवस पर महावीर प्रभु को ध्याऊँ। महावीर के पथ पर चल कर महावीर सम बन जाऊँ ॥ ___ॐ ह्रीं श्री चैत्र शुक्ल त्रयोदश्याम, जन्म मङ्गल प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
(जयमाला) जन्म दिवस श्री वीर का गाओ मङ्गल गान ।
आत्म ज्ञान को शक्ति से होता मोक्ष कल्याण ॥ इस अखिल विश्व में जब प्रभु हिंसा का राज्य रहा था। तब सत्य शान्ति सुख लय कर पापों का स्रोत बहा था। ले प्रोट धर्म को पापी प्रन्याय पाप करते प्रति । वे धर्म बताते थे "वैदिक हिंसा हिंसा न भवति" ॥ पशु बलि, जन बलि, यज्ञों में होती थी जब प्रति भारी। "त्री शौद्रनाधीयताम्" का प्राधिपत्य था भारी ॥ जगती तल पर होता था हिंसा का तांडव नर्तन । उत्पीड़ित विश्व प्रा लख पापों का मीषण गर्जन ॥ जब जग ने त्राहि त्राहि को अरु पृथ्वी कांपी थर थर। तब दिव्य ज्योति दिखलाई प्राशा के नभ मण्डल पर ॥
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[१४६
जैन पूजांजलि निज स्वभाव की महिमा आए बिना जीव भ्रमता जाता है।
पंच परावर्तन के द्वारा भवसमुद्र के दुख पाता है । भारत के स्वर्ण सदन में अवतरित हुए करुणामय । श्री वीर दिवाकर प्रगटे तब विश्व हुआ ज्योतिर्मय ॥ प्रागमन वोर का लखकर सन्तुष्ट हुआ जग सारा । अन्यायो हुए प्रकम्पित पापों का तजा सहारा ॥ पतितों दलितों दोनों को तब प्रभु ने शीघ्र उठाया । अरु दिव्य अलौकिक अनुपम जग को सन्देश सुनाया ॥ पापी को गले लगाना पर घृणा पाप से करना । प्रभु ने शुम धर्म बताया दुख कष्ट विश्व के हरना ॥ ये पुण्य पाप को छाया ही जग में सदा भ्रमाती । पर द्रव्यों की ममता ही चारों में गति में अटकाती ॥ अब मोह ममत्व विनाशो समकित निज उर में लायो। तप संयम धारण करके निर्वाण परम पद पाम्रो॥ है धर्म अहिंसा मय ही रागादि भाव हैं हिंसा । रत्नत्रय सफल तभी है उर में हो पूर्ण अहिंसा । निज के स्वरूप को देखो निज का ही लो आलम्बन । निज के स्वभाव से निश्चित कट जायेंगे भव बन्धन ॥ हैं जीव समान सभी ही एकेन्द्रिय या पंचेन्द्रिय । है शुद्ध सिद्ध निश्चय से चैतन्य स्वरूप अनिन्द्रिय ॥ "केवलि पणतं धम्मं शरणं पव्वजामी" से । जग हुमा मधुर गुजारित प्रभु की निर्मल वाणी से ॥ पर हाय सदा हम मूले उपदेश वीर के अनुपम । जाते अधर्म के पथ पर छाया अज्ञान निविड़तम ॥ हा रूढ़िवाद के बन्धन में जकड़े हुए खड़े हैं । अवनति के गहरे गड्ढे में बेसुध हुए पड़े हैं ।
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१५० ]
जैन पूजजलि
पूर्ण अहिसा व्रत संयम की जब निश्चय बांसुरी बजेगी । मोह क्षोभ की गति क्षय होगी शुद्धातम निज साज सजेगी ॥
इससे अब तो हम चेतें श्री वीर जयन्ती आई । सूमण्डल के जीवों को नूतन सन्देशा लाई ॥ चेतो चेतो हे वीरो अब समय नहीं सोने का श्रालस्य मोह निद्रा में अवसर है ना खोने का ॥ कर्तव्य धर्म मय पालो अरु त्यागो कर्म निरर्थक | तब वीर जयन्ति मनाना होगा अति अनुपम सार्थक ॥ श्री वर्धमान सन्मति को प्रतिवीर वीर को वन्दन । है महावीर स्वामी का प्रति विनय भाव से अर्चन ॥ श्राशीर्वाद दो हे प्रभु हम द्रव्य दृष्टि बन जायें । रागादि भाव को जय कर परमात्म परम पद पायें | ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ल त्रयोदश्याम जन्म मङ्गल प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय पूर्णाम् निर्वपामीति स्वाहा ।
वीर जयन्ती दे रही शुभ सन्देश महान । प्रारिण मात्र से प्रेम कर करो श्रात्म कल्याण ॥ XXX इत्याशीर्वादः Xx
ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय नमः ।
जाप्य
-
श्री अक्षय तृतीया पूजन अक्षय तृतिया पर्व दान का ऋषभ देव ने दान नृप श्रेयांस दान वाता थे, जगती ने यशगान अहो दान की महिमा, तीथंङ्कर भी लेते हाथ होते पंचाश्चर्य पुण्य का भरता है प्रपूर्व भण्डार ॥ मोक्ष मार्ग के महाव्रती को, भाव सहित जो देते दान | निज स्वरूप जप वह पाते हैं निश्चित शाश्वत पद निर्वाण ॥
पसार ।
लिया ।
किया ॥
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जैन पूजांजलि
शुद्धात्मसूर्य प्रकाश का निश्चय परम पुरुषार्थ है । घनघाति कर्म विनाश का आचरण ही परमार्थ है ॥
[ १५१
दान तीर्थ के कर्त्ता नृप श्रेयांस हुए प्रभु के गरणधर । मोक्ष प्राप्त कर सिद्ध लोक में पाया शिव पद अविनश्वर ॥ प्रथम जिनेश्वर आदिनाथ प्रभु तुम्हें नमन है वारम्बार । गिरि कैलाश शिखर से तुमने लिया सिद्ध पद मङ्गलकार ॥ नाथ आपके चरणाम्बुज में श्रद्धा सहित प्रणाम करूं । त्याग धर्म की महिमा पाऊँ, मैं सिद्धों का शुभ बैशाख शुक्ल तृतीया का दिवस पवित्र दान धर्म की जय जय गुञ्जी प्रक्षय पर्व
धाम
वरु ॥
महान् हुआ ।
प्रधान हुआ ॥
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्र अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । कर्मोदय से प्रेरित होकर विषयों का उपादेय को भूल हेय तत्वों से मैंने जन्म मरण दुख नाश हेतु मैं प्राविनाथ प्रभु को अक्षय तृतिया पर्व दान का नृप श्रेयांस सुयश
व्यापार
किया ।
प्यार
गाऊं ॥
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा |
करती है ।
मन वच काया की चंचलता कर्म आश्रव चार कषायों की छलना ही भव सागर दुख भरती है ॥ भाताप के नाश हेतु मैं श्राविनाथ प्रभु को ध्याऊं । अक्षय ०
किया ।
ध्याऊँ ।
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चन्दनम् नि० । इन्द्रिय विषयों के सुख क्षण भंगुर विद्युत सम चमक अथिर । पुण्य क्षीरण होते ही श्राते महा असाता के दिन फिर । पद प्रखण्ड की प्राप्ति हेतु में भाविनाथ प्रभु को ध्याऊं ॥ प्रक्षय०
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि०।
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१५२]
जैन पूजांजलि
आत्म सूर्य के ज्योति पुन्ज सेतिमिर रश्मियां हुई विकीर्ण । निज स्वरूप लक्षी होते ही हो जाता ममत्व सब क्षीण ॥
पुरुषार्थं
दुख
शोल विनय व्रत तप धारण करके भी यदि परमार्थ बाह्य क्रियाओं में ही उलझे वह सच्चा काम वाण के नाश हेतु मैं आदिनाथ प्रभु को ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय विषय लोलुपो भोगों की ज्वाला में जल जल मृग तृष्णा के पीछे पागल नर्क निगोदादिक क्षुधा व्याधि के नाश हेतु मैं प्रादिनाथ प्रम को ध्याऊँ । प्रक्षय० ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि० । ज्ञान स्वरूप श्रात्मा का जिसको श्रद्धान नहीं होता । भव वन में ही भटका करता है निर्वाण नहीं होता ॥ मोह तिमिर के नाश हेतु मैं आदिनाथ प्रभु को ध्याऊं । श्रक्षय० ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि
1
कर्म फलों को वेदन करके सुखी दुखी जो
होता है ।
होता है ॥
कर्म
भ्रष्ट प्रकार कर्म का बन्धन सदा उसी को शत्रु के नाश हेतु मैं आदिनाथ प्रभु को ॐ ह्रीं श्रीदिनाथ जिनेन्द्राय अष्ट कर्म विध्वंसनाय धूपम् नि० ।
घ्याऊँ । प्रक्षय०
जो बन्धों से विरक्त होकर बन्धन का अभाव प्रज्ञा छैनी ले बन्धन को पृथक् शीघ्र निज से मोक्ष फल प्राप्ति हेतु मैं प्रादिनाथ प्रभु को ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फलम् नि० । पर मेरा क्या कर सकता है मैं पर का क्या कर
करता । करता ॥ ध्याऊँ । प्रक्षय०
महा
सकता ।
यह निश्चय करने वाला ही भव अटवी के पद अन को प्राप्ति हेतु मैं आदिनाथ प्रभ अक्षय तृतिया पर्व दान का नृप श्रेयांस सुयश गाऊं ॥
ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्तये अर्धम् नि०
नहीं ।
नहीं ॥
ध्याऊं । प्रक्षय ०
दुख
को
पुष्पम् नि० 1
पाता ।
जाता ॥
हरता ॥
ध्याऊं ।
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जैन पूजांजलि
[१५३
जो विकल्प है आश्रव युत है निर्विकल्प ही आश्रव हीन । जो स्वरूप में थिर रहता है वही ज्ञान है ज्ञान प्रवीण ॥
8 जयमाला x चार दान दो जगत में जो चाहो कल्याण ।
प्रौषधि भोजन प्रभय अरु सद् शास्त्रों का ज्ञान । पुण्य पर्व अक्षय तृतिया का हमें दे रहा है यह ज्ञान । दान धर्म की महिमा अनुपम श्रेष्ठ दान दे बनो महान ॥ दान धर्म को गौरव गाथा का प्रतीक है यह त्यौहार । दान धर्म का शुभ प्रेरक है सदा दान की जय जयकार ॥ आदिनाथ ने अर्ध वर्ष तक किये तपस्या मय उपवास । मिली न विधि फिर अन्तराय होते होते बीते छः मास ॥ मुनि प्राहार दान देने की विधि थी नहीं किसी को ज्ञात। मौन साधना में तन्मय हो प्रभु विहार करते प्रख्यात ॥ नगर हस्तिनापुर के अधिपति सोम और श्रेयांस सुभ्रात । ऋषम देव के दर्शन कर कृत कृत्य हुए पुलकित अभिजात॥ श्रेयांस को पूर्व जन्म का स्मरण हुमा तत्क्षण विधिकार । विधिपूर्वक पड़गाहा प्रभु को दिया इक्ष रस का आहार ॥ पंचाश्चर्य हुए प्रांगण में हुमा गगन में जय जयकार । धन्य धन्य श्रेयांस दान का तीर्थ चलाया मङ्गलकार ॥ दान पुण्य की यह परम्परा हुई जगत में शुभ प्रारम्भ । हो निष्काम भावना सुन्दर मन में लेश न हो कुछ दम्म ॥ चार भेद हैं दान धर्म के औषधि शास्त्र अभय आहार । हम सुपात्र को योग्य दान दे बनें जगत् में परम उदार ॥ धन वैभव तो नाशवान है अतः करें जी भर कर दान । इस जीवन में दान कार्य कर करें स्वयं अपना कल्याण ॥
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१५४]
जन पूजांजलि
जाप्य
शुद्ध भाव ही मोक्ष मार्ग है इससे चलित नहीं होना ।
चलित हुए तो मुक्ति न होगी होगा कर्मभार ढोना ॥ अक्षय तृतिया के महत्व को यदि निज में प्रगटायेंगे । निश्चित ऐसा दिन आयेगा हम अक्षय फल पायेंगे । हे प्रभु आदिनाथ मङ्गलमय हम को भी ऐसा वर दो ॥ सम्यक् ज्ञान महान सूर्य का अन्तर में प्रकाश कर दो। ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्तये पूर्णार्घम, नि० ।
अक्षय तृतीया पर्व को महिमा अपरम्पार । त्याग धर्म जो साधते हो जाते भव पार ॥
४ इत्याशीर्वादः ४ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः ।
। श्री श्रुत पंचमी पूजन स्याद्वाद मय द्वादशांग युत माँ जिनवाणी कल्याणी । जो भी शरण हृदय से लेता हो जाता केवल ज्ञानी ॥ जय जय जय हितकारी शिव सुखकारी माता जय जय जय । कृपा तुम्हारी से ही हाता भेद ज्ञान का सूर्य उदय ॥ श्री धरसेनाचार्य कृपा से मिला परम जिन श्रुत का ज्ञान । भूतबली मुनि पुष्पदन्त ने षट्खंडाराम रचा महान ।। अंकलेश्वर में यह ग्रन्थ हुआ था पूर्ण आज के दिन । जिनवाणी लिपि बद्ध हुई थी पावन परम आज के दिन ॥ ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी दिवस जिन श्रुत का जय जयकार हुआ। श्रुत पंचमी पर्व पर श्री जिनवारणी का अवतार हुमा ॥
ॐ ह्रीं श्री परम श्र त पट् खण्डागम अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री परम श्रत षट् खण्डागम अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्री परम श्रुत षट् खण्डागम अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट्। शुद्ध स्वानुभव जल धारा से यह जीवन पवित्र कर लू । साम्य भाव पीयूष पान कर जन्म जरामय दुःख हर लूं ॥
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जन पूजांजलि
[१५५
भव भय को हरने वाला सम्यकदर्शन अति पावन । शिव सुख को करने वाला सम्यवत्व परम मन भावन ।
श्रुत पंचमी पर्व शुभ उत्तम जिन श्रुत को वन्दन कर लूं। षट् खण्डागम वल जय धवल महा धवल पूजन कर लूं ।
ॐ ह्रीं श्री परम श्र त पट् खण्डागमाय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा। शुद्ध स्वानुभव का उत्तम पावन चन्दन चचित कर लू। भव दावानल के ज्वालामय अघसंताप ताप हर लू॥ श्रुत० ___ ॐ ह्रीं श्री परमधु त षट खण्डागमाय संसारताप विनाशनाय चन्दननि० शुद्ध स्वानुभव के परमोत्तम अक्षत धवल हृदय धर लू। परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति से अनुपम अक्षय पद वर लूं ॥ श्रुत.
ॐ ह्रीं श्री परम श्रु त षट खण्डगमाय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि । शुद्ध स्वानुभव के पुष्पों से निज अन्तर सुरभित कर लू। महाशील गुण के प्रताप से मैं कन्दर्प दर्प हर लू ॥ श्रुत० ॐ ह्रीं श्री परम श्रुत पट खण्डागमायकामवाणविध्वंसनाय पुष्पम् नि। शुद्ध स्वानुभव के प्रति उत्तम प्रभु नैवेद्य प्राप्त कर लू। अमल अतन्द्रिय निज स्वभाव से दुखमय क्षुधा व्याधि हरलूं ॥ श्रुत.
ॐ ह्रीं श्रीं परम श्र तपट खण्डागमाय क्षुधा रोग विनाशनायनैवेद्य मनि०। शुद्ध स्वानुभव के प्रकाशमय दीप प्रज्वलित मैं कर लू। मोह तिमिर अज्ञान नाश कर निज कैवल्य ज्योति वर लू ॥श्रत. ॐह्रीं श्री परम श्रुत पट खण्डागमाय अज्ञानान्धकार विनाशनाय दीपंनिः। शुद्ध स्वानुभव गन्ध सुरभि मय ध्यान धूप उर में भर लू। संवर सहित निर्जरा द्वारा मैं वसु कर्म नष्ट कर लू॥ श्रुत.
ॐ ह्रीं श्री परम श्रुत पट खण्डागमाय अप्ट कर्म दहनाय धूपम् नि । शुद्ध स्वानुभाव का फल पाऊँ मैं लोकाग्र शिखर वर लू। अजर अमर अविकल अविनाशी पद निर्वाण प्राप्त कर लू॥श्रत.
ॐ ह्रीं श्री परम श्रुत षट, खण्डागमाय मोक्षफल प्राप्ताय फलम नि० ।
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१५६]
जन पूजांजलि
"अप्पा सो परमप्पा" जिनके उर में भाव समाया ।
पर पदार्थ से निमिष मात्र में उसने राग हटाया ।। शुद्ध स्वानुभव दिव्य अर्घ ले रत्नत्रय सु पूर्ण कर लूं। भव समुद्र को पार कर प्रभु निज अनर्घ पद मैं वर लू॥ श्रुत पंचमी पर्व शुभ उत्तम जिन श्रुत को वन्दन कर लूं। षट् खण्डागम धवल जयधवल महाधवल पूजन कर लू॥ ॐ ह्रीं श्री परम श्रु त षट खण्डागमाय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि ।
8 जयमाला : श्रुत पंचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का । गूंजा जय जयकार जगत् में जिन श्रुत जय जयकार का। ऋषभदेव की दिव्य ध्वनि का लाभ पूर्ण मिलता रहा। महावीर तक जिन वाणी का विमल वृक्ष खिलता रहा ॥ हुए केवली प्ररुथ तकेवलि ज्ञान अमर फलता रहा । फिर प्राचार्यों के द्वारा यह ज्ञान दीप जलता रहा ॥ भव्यों में अनुराग जगाता मुक्ति वधू के प्यार का । श्रत पंचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का ॥ गुरु परम्परा से जिनवाणी निर्झर सी भरती रही । मुमक्षत्रों को परम मोक्ष का पथ प्रशस्त करती रही । किन्तु काल की घड़ी मनुज को स्मरण शक्ति हरती रही। श्री धरसेनाचार्य हृदय में करुण टोस भरती रही । द्वादशांग का लोप हुआ तो क्या होगा संसार का । श्रुत पंचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का ॥ शिष्य भूतवलि पुष्पदन्त को हुई परीक्षा ज्ञान की । जिनवाणी लिपिबद्ध हेतु श्रुत विद्या विमल प्रदान को ॥ ताड़ पत्र पर हुई अवतरित वाणी जन कल्याण की । षट्सण्डागम महा ग्रन्थ करुणानुयोग जय ज्ञान की ।
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जैन पूजांजलि
[१५७
अंतर्मन निग्रंथ नहीं तो फिर सच्चा निग्रंथ नहीं । बाह्म क्रिया कांडों से होता इस भव दख का अत नहीं।
ज्येठ शुक्ल पंचमी दिवस था सरनर मङ्गलचार का । श्रुत पंचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का ॥ धन्य भूतवलि पुष्पदन्त जय श्री धरसेनाचार्य की । लिपि परम्परा स्थापित करके नई क्रांति साकार की ॥ देवों ने पुष्पों की वर्षा नभ से अगणित बार की । धन्य धन्य जिनवाणी माता निज पर भेद विचार की ॥ ऋणी रहेगा विश्व तुम्हारे निश्चय का व्यवहार का । श्रुत पंचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का ॥ धवला टीका वीरसेन कृत बहात्तर हजार श्लोक । जय धवला जिनसेन वीरकृत उत्तम साठ हजार श्लोक ॥ महा धवल है देव सेन कृत हैं चालीस हजार श्लोक । विजय धवल अरु अतिशय धवल नहीं उपलब्ध एकश्लोक । षट् खण्डागम टीकाएं पड़ मन होता भव पार का । श्रुत पंचमी पर्न अति पावन है श्रु त के अवतार का ॥ फिर तो ग्रन्थ हजारों लिक्खे ऋषि मुनियों ने ज्ञानप्रधान। चारों ही अनुयोग रचे जीवों पर करके करुणा दान ॥ पुण्य कथा प्रथमानुयोग द्रव्यानुयोग है तत्त्व प्रधान । ऐक्सरे करूणानुयोग चरणानुयोग कैमरा महान ॥ यह परिणाम नापता है वह बाह्य चरित्र विचार का। श्रुत पंचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का ।। जिनवाणी की भक्ति करें हम जिन श्रुत को महिमा गायें। सम्यक् दर्शन का वैमवले भेद ज्ञान निधि को पायें ।। रत्नत्रय का अवलम्बन लें निज स्वरूप में रम जायें। मोक्ष मार्ग पर चलें निरन्तर फिर न जगत में भरमायें ।
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१५८]
जन पूजांजलि
देवालय में देव नहीं है मनमंदिर में देव है ।
अंतर्मुख हो देख स्वय तू महादेव स्वयमेव है ॥ धन्य धन्य अवसर प्राया है अब निज के उद्धार का। श्रुत पंचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का ॥ गूजा जय जय नाद जगत् में जिन श्रु तजय जयकार का। ॐ ह्रीं श्री परम श्रु न पट खण्डागमाय पूर्णाघम् नि० ।
श्रत पंचमी सुपर्व पर करो तत्त्व का ज्ञान । आत्म तत्त्व का ध्यान कर पात्रो पद निर्वाण ॥
५ इत्याशीर्वादः ४ जाप्य- ॐ ह्रीं श्री परम श्रुतेभ्यो नमः ।
श्री वीर शासन जयन्ती पूजन वर्धमान प्रतिवीर वीर प्रभु सन्मति महावीर स्वामी । वीतराग सर्वज्ञ जिनेश्वर अन्तिम तीर्थङ्कर नामी ॥ श्री अरिहंत देव मङ्गलमय स्व पर प्रकाशक गुणधामी । सकल लोक के ज्ञाता दृष्टा महा पूज्य अन्तर्यामी । महावीर शासन का पहला दिन श्रावण कृष्णा एकम । शासन वीर जयन्ती आती है प्रतिवर्ष सुपावनतम ॥ विपुलाचल पर्वत पर प्रभु के समवशरण में मङ्गलकार । खिरी दिव्य ध्वनि शासन वीर जयन्ती पर्व हुआ साकार ॥ प्रभु चरणाम्बुज पूजन करने का आया उर में शुभ भाव । सम्यक् ज्ञान प्रकाश मुझे दो, राग द्वेष का करू प्रभाव ॥
ॐ ह्रीं श्री सन्मति वीर जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सवौषट् । ॐह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्र अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् ।
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जैन पूजांजलि
[१५६
आत्मिक रुचि हो तो अनंत सुख की है पावन साधना । परम शुद्ध चैतन्य ब्रह्म की सहज जगाती भावना ॥
भाग्यहीन नर रत्न स्वर्ण को जैसे प्राप्त नहीं करता। ध्यानहीन मुनि निज आतम का त्यों अनुभवन नहीं करता। शासन वीर जयन्ती पर जल चढ़ा वीर का ध्यान करूं। खिरी दिव्य ध्वनि प्रयन देशना सुन अपना कल्याण करू ॥ ___ॐ ह्रीं श्री सन्मति वीर जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वामीति स्वाहा। विविध कल्पना उठती मन में, वे विकल्प कहलाते हैं। बाह्य पदार्थों में ममत्व मन के सङ्कल्प रुलाते हैं। शासन वीर जयन्ती पर चन्दन अर्पित कर ध्यान करूं । खिरी० ___ ॐ ह्रीं श्री सन्मति वीर जिनेन्द्राय भवाताप विनाशनाय चन्दनम् नि। अन्तरंग बहिरंग परिग्रह त्यागं, मैं निर्ग्रन्थ बनें । जीवन मरण मित्र परि, सुख दुख लाभ हानि में साम्य बनूं ॥ शासन वीर जयन्ती पर, कर अक्षत भेंट स्व ध्यान करूं। खिरी० ___ॐ ह्रीं श्री सन्मति वीर जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि०। शुद्ध सिद्ध ज्ञानादिक गुणों से, मैं समृद्ध हूं देह प्रायाण । नित्य प्रसंख्यप्रदेशी निर्मल हूं प्रमूर्तिक महिमावान ॥ शासन वीर जयन्ती पर, कर भेंट पुष्प निज ध्यान करूं । खिरी०
ॐ ह्रीं श्री सन्मति वीर जिनेन्द्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पं नि । परम तेज हूं परम ज्ञान हूं परम पूर्ण हूं ब्रह्म स्वरूप । निरालम्ब हूं निविकार हूँ निश्चय से मैं परम अनूप ॥ शासन वीर जयन्ती पर नैवेद्य चढ़ा निज ध्यान करूं । खिरी०
ॐ ह्रीं श्री सन्मतिवीर जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि०। स्व पर प्रकाशक केवल ज्ञानमयी, निज मूर्ति प्रमूति महान् । चिदानन्द टंकोत्कीर्ण हूँ ज्ञान ज्ञय ज्ञाता भगवान् । शासन वीर जयन्ती पर दीप चढ़ा निज ध्यान करू । खिरी० ॐ ह्रीं श्री सन्मति वीर जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि।
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१६.]
जैन पूजांजलि
एक मात्र पुरुषार्थ यही है सम्यक् पथ पर आ जाओ। अंतस्तल की गहराई में आकर निज दर्शन पाओ ॥
द्रव्य कर्म ज्ञानावरणादिक देहादिक नोकर्म विहीन । भाव कम रागादिक से मैं पृथक् प्रात्मा ज्ञान प्रवीण ॥ शासन वीर जयन्ती पर मैं धूप चढ़ा निज ध्यान करू। खिरी० __ॐ ह्रीं श्री सन्मति वीर जिनेन्द्राय अष्ट कर्म विध्वंसनाय धूपम् नि। कर्म मल रहित शुद्ध ज्ञानमय, परम मोक्ष है मेरा धाम । भेद ज्ञान को महा शक्ति से, पाऊंगा अनन्त विश्राम ॥ शासन वीर जयन्ती पर फल चढ़ा शुद्ध निज ध्यान करू । खिरी०
ॐ ह्रीं श्री सन्मतिवीर जिनेन्द्राय मोक्षान प्राप्ताय फलम् निःस्वाहा । मात्र वासना जन्य कल्पना है पर द्रव्यों में सुख बुद्धि । इन्द्रिय जन्य सुखों के पीछे पाई किञ्चित नहीं विशुद्धि ॥ शासन वीर जयन्ती पर मैं अर्ज चढ़ा निज ध्यान कह। खिरी दिव्य ध्वनि प्रयम देशना सुन अपना कल्याण करूं। ॐ ह्रीं श्री सन्मतिवीर जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घ्यम् नि ।
जयमाला 8 विपुलाचल के गगन को वन्दू बारम्बार ।
सन्मति प्रभु की दिव्य ध्वनि जहां हुई साकार ॥ महावीर प्रभु दीक्षा लेकर मौन हुए तप संयम धार । परिषह उपसर्गो को जय कर देश देश में किया विहार ॥ द्वादश वर्ष तपस्या करके ऋजु कूला सरि तट पाये। क्षपक श्रेणि चढ़ शुक्ल ध्यान से कर्म घातिया विनसाये॥ स्व पर प्रकाशक परम ज्योतिमय प्रभु को केवल ज्ञान हुपा। इन्द्रादिक को समवशरण रच, मन में हर्ष महान् हुमा ।। बारह समा जुड़ो अति सुन्दर, सबके मन का कमल खिला। जन मानस को प्रभु को दिव्य ध्वनि का, किन्तु न लाभ मिला।
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जैन पूजांजलि
[१६१ ज्ञानदीप की शिखा प्रज्ज्वलित होते ही भ्रम दूर हुआ ।
सम्यक् दर्शन की महिमा से गिरि मिथ्यातम चूर हुआ। छयासठ दिन तक रहे मौन प्रभु, दिव्यध्वनि का मिला न योग। अपने आप स्वयं मिलता है, निमित्त नैमित्तिक संयोग । राजगृही के विपुलाचल पर, प्रभु का समवशरण पाया। अवधि ज्ञान से जान इन्द्र ने, गणधर का अभाव पाया ॥ बड़ी युक्ति से इन्द्रभूति गौतम ब्राह्मण को वह लाया। गौतम ने दीक्षा लेते ही ऋषि गणधर का पद पाया ॥ तत्क्षण खिरी दिव्य ध्वनि प्रभु की द्वादशांग मय कल्याणी। रच डाली अन्तर मुहूर्त में, गौतम ने श्री जिनवाणी ॥ सात शतक लघु और महा माषा अष्टादश विविध प्रकार। सब जीवों ने सुनी दिव्य ध्वनि अपने उपादान अनुसार ॥ विपुलाचल पर समवशरण का हुमा प्राज के दिन विस्तार। प्रभु की पावन वाणी सुनकर गूजा नभ में जय जयकार ।। जन जन में नव जाग्रति जागी मिटा जगत का हाहाकार । जियो और जीने दो का जीवन सन्देश हुआ साकार ॥ धर्म अहिंसा सत्य और अस्तेय मनुज जीवन का सार । ब्रह्मचर्य अपरिग्रह से ही होगा जीव मात्र से प्यार ॥ घृणा पाप से करो सदा ही किन्तु नहीं पापी से द्वेष । जीव मात्र को निज सम समझो यही वीर का था उपदेश । इन्द्रभूति गौतम ने गणधर बनकर भाषी जिनवाणी। इसके द्वारा परमात्मा बन सकता कोई भी प्राणी ॥ मेघ गर्जना करती श्री जिनवारणी का बह चला प्रवाह । पाप ताप संताप नष्ट हो गये मोक्ष की जागी चाह ॥ प्रथम, करणं, चरणं, द्रव्यं ये अनुयोग बताये चार । निश्चय नय सत्यार्थ बताया, असत्यार्थ सारा व्यवहार ॥
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१६२]
जैन पूजांजलि
अब प्रभु चरण छोड़ कित जाऊ । ऐसी निर्मल बुद्धि प्रभो दो शुद्धातम को ध्याउ ॥
श्रद्धा सार ।
तीन लोक षट द्रव्यमयी है सात तत्व को नव पदार्थ छह लेश्या जानो, पंच महाव्रत उत्तम धार ॥ समिति गुप्ति चारित्र पाल कर तप संयम धारो श्रविकार । परम शुद्ध निज आत्म तत्त्व, आश्रय से हो जाओ भव पार ॥ उस वाणी को मेरा वन्दन, उसकी महिमा अपरम्पार । सदा वीर शासन की पावन, परम जयन्ती जय जयकार ॥ वर्धमान प्रतिवीर वीर की पूजन का है हर्ष अपार । काल लब्धि प्रभु मेरी आई, शेष रहा थोड़ा ॐ ह्रीं श्रीं सन्मति वीर जिनेन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्तये दिव्य ध्वनि प्रभु वीर की देती सौख्य अपार । श्रात्म ज्ञान की शक्ति से, खुले मोक्ष का द्वार ॥ इत्यार्शीवादः
संसार ॥
अर्घ्यम् नि० ।
-
ॐ ह्रीं श्री संपूर्ण द्वादशांगाय नमः ।
जाप्य
-
श्री रक्षा बन्धन पर्व पूजन जय अकम्पनाचार्य श्रादि सात सौ साधु मुनिव्रत बलि ने कर नरमेध यज्ञ उपसर्ग किया भीषण जय जय विष्णु कुमार महा मुनि ऋद्धि विक्रिया किया शीघ्र उपसर्ग निवारण वात्सल्य करुणा
धारी ।
भारी ॥
के
धारी ।
धारी ॥
रक्षाबन्धन पर्व मना मुनियों का जय जयकार हुआ । श्रावण शुक्ल पूणिमा के दिन घर घर मङ्गलचार हुना ॥ श्री मुनि चरण कमल मैं पाऊँ प्रभु सम्यक दर्शन भक्ति भाव से पूजन करके निज स्वरूप में रहूं मगन ॥
1
ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनि अत्र अवतर अवतर संवौषट 1
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जैन पूजांजलि
[१६३
द्रव्य पर अणुमात्र भी तेरा नहीं इसलिएपर द्रव्य से मत रागकर । द्रव्य तेरा चेतन आत्म है इसलिए निज आत्म से अनुराग कर ॥
शुद्ध
ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनि अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनि अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् ।
जन्म मरण के नाश हेतु प्रासुक जल करता हूँ अर्पण | राग द्वेष परणति अभाव कर निज परणति में करूं रमण ॥ श्री अकम्पनाचार्य प्रादि मुनि सप्त शतक को करूं नमन । मुनि उपसर्ग निवारक विष्णु कुमार महा मुनि को वन्दन ॥
ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनिभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा । भव सन्ताप मिटाने को मैं चन्दन करता हूं अर्पण | देह भोग भव से विरक्त हो निज परणति में करूं रमण ॥ श्री०
ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनिभ्यो संसारताप विनाशनाय चन्दनम् नि०।
अक्षय पद अखण्ड पाने को अक्षत धवल करू प्रर्पण | हिंसादिक पापों को क्षय कर निज परगति में करूं रमण ॥ श्री० ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनिभ्यो अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् निर्वपामीति स्वाहा । काम वाण विध्वंस हेतु मैं सहज पुष्प करता अर्पण | क्रोधादिक चारों कषाय हर निज परणति में करूं रमण || श्री०
ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनिभ्यो कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा ।
क्षुधा रोग के नाश हेतु नैवेद्य सरस करता अर्पण | विषय भोग की आकांक्षा हर निज परणति में करूं रमण ॥ श्री०
ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त पातक मुनिभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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१६४]
जैन पूजांजलि
तीवराग को दुखमय समझा, मंदराग को सुखमय जाना । पाप पुण्य दोनो बंधन हैं वीतराग का कथन न माना ।
चिर मिथ्यात्व तिमिर हरने को दीप ज्योति करता अर्पण । सम्यक् दर्शन का प्रकाश पा निज परणति में करू रमण ॥ श्री० ___ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनिभ्यो मोहान्धकार विनाशनायदीपम् निर्वपामीति स्वाहा।। अष्ट कर्म के नाश हेतु यह धूप सुगन्धित है अर्पण । सम्यक् ज्ञान हृदय प्रगटाऊँ निज परणति में करूं रमण ॥ श्री. __ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एव अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनिभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपम निर्वपामीति स्वाहा । मुक्ति प्राप्ति हित उत्तम फल चरणों में करता हूं अर्पण । मै सम्यक् चारित्र प्राप्त कर निज परगति में करूं रमण ॥श्री०
ॐ ह्री श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनिभ्यो मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् निर्वप(मीति स्वाहा। शाचत पद अनर्घ पाने को उत्तम अर्घ कर अपरण । रत्नत्रय की तरणी खेऊँ निज परगति में कह रमण ॥ श्री अकम्पनाचार्य प्रादि मुनि सप्त शतक को करूं नमन । मुनि उपसर्ग निवारक विष्णु कुमार महा मुनि कोवन्दन ॥ ___ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनिभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घम् नि०स्वाहा ।
* जयमाला वात्सल्य के अङ्ग की महिमा अपरम्पार ।
विष्णु कुमार मुनीन्द्र की गूंनी जय नयकार ॥ उज्जयनी नगरी के नृप श्री वर्मा के थे मन्त्री चार । बलि,प्रहलाब,नमुचि,बृहस्पति चारों अभिमानीसविकार ॥ नब अकम्पनाचार्य संघ मुनियों का नगरी में पाया । सात शतक मुनि के दर्शन कर नूप श्री वर्मा हर्षाया ॥
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जैन पूजांजलि
[१६५ निज में निज पुरुषार्थ करूं तो भव बंधन सब कट जायेगे । निज स्वभाव में लीन रहं तो कर्मों के दख मिट जायेंगे ।
सब मुनि मौन ध्यान में रत, लख बलि आदिक ने निन्दा की। कहा कि मुनि सब मूर्ख, इसीसे नहीं तत्त्व को चर्चा की। किन्तु लौटते समय मार्ग में, श्रुत सागर मुनि दिखलाये । वाद विवाद किया श्री मनि से, हारे, जीत नहीं पाये ।। अपमानित होकर निशि में मुनि पर प्रहार करने पाये । खड्ग उठाते ही कोलित हो गये हृदय में पछताये ॥ प्रातः होते ही राजा ने आकर मुनि को किया नमन । देश निकाला दिया मन्त्रियों को तब राजा ने तत्क्षण ॥ चारों मन्त्री अपमानित हो पहुँचे नगर हस्तिनापुर । राजा पद्मराय को अपनी सेवाओं से प्रसन्न कर ॥ मुंह मांगा वरदान नृपति ने बलि को दिया तभी तत्पर। जब चाहूंगा तब ले लूंगा, बलि ने कहा नम्र होकर ॥ फिर अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियों सहित नगर पाये । बलि के मन में मुनियों की हत्या के भाव उदय आये ॥ कुटिल चाल चल बलि ने नप से आठ दिवस का राज्य लिया। भीषण अग्नि जलाई चारों ओर द्वेष से कार्य किया ॥ हाहाकार मचा जगती में, मुनि स्वध्यान में लीन हुए। नश्वर देह भिन्न चेतन से, यह विचार निज लीन हुए। यह नरमेघ यज्ञ रच बलि ने किया दान का ढोंगविचित्र। दान किमिच्छक देताथा, परमन था प्रतिहिंसक अपवित्र ।। पद्मराय नृप के लघु भाई, विष्णु कुमार महा मुनिवर । वात्सल्य का भाव जगा, मुनियों पर संकट का सुनकर ।। किया गमन प्राकाश मार्ग से, शीघ्र हस्तिनापुर प्राये । ऋद्धि विक्रिया द्वारा याचक, वामन रूप बना लाये ॥
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१६६]
जैन पूजांजलि
मोक्ष मार्ग पर चले निरंतर जग में सच्चा श्रमण वही है । ज्ञानवान है ध्यानवान है निज स्वरूप अतिक्रमण नहीं है ॥
बलि से मांगी तीन पांव भू, बलिराजा हंस कर बोला । जितनी चाहो उतनी ले लो, वामन मूर्ख बड़ा भोला ॥ हंस कर मुनि ने एक पांव में ही सारी पृथ्वी नापी । पग द्वितीय में मानुषोत्तर पर्वत की सीमा नापी ॥ ठौर न मिला तीसरे पग को, बलि के मस्तक पर रक्खा । क्षमा क्षमा कह कर बलि ने,मुनि चरणों में मस्तक रक्खा। शीतल ज्वाला हुई अग्नि को, श्री मुनियों की रक्षा की। जय जयकार धर्म का गंजा, वात्सल्य की शिक्षा दी । नवधा भक्तिपूर्वक सबने मुनियों को प्राहार दिया । बलि आदिक का हुमा हृदय परिवर्तन जय जयकार किया। रक्षा सूत्र बांध कर तब जन जन ने मङ्गलचार किये। साधर्मी वात्सल्य भाव से, प्रापस में व्यवहार किये ॥ समकित के वात्सल्य अङ्ग की महिमा प्रगटी इस जग में । रक्षा-बन्धन पर्व इसी दिन से प्रारम्म हुमा जग में ॥ श्रावण शुक्ल पूर्णिमा दिन था रक्षा सूत्र बंधा कर में । वात्सल्य को प्रभावना का आया अवसर घर घर में ॥ प्रायश्चित ले विष्णु कुमार पुनः व्रत ले तप ग्रहण किया । अष्ट कर्म बन्धन को हर कर इस भव से हो मोक्ष लिया। सब मुनियों ने भी अपने अपने परिणामों के अनुसार । स्वर्ग मोक्ष पद पाया जग में हुई धर्म की जय जयकार ।। धर्म भावना रहे हृदय में, पापों के प्रतिकूल चलूं । रहे शुद्ध प्राचरण सदा ही धर्म मार्ग अनुकूल चलूं ॥ प्रात्म ज्ञान रुचि जगे हृदय में, निज पर को मैं पहिचानें। समकित के पाठों अङ्गों की, पावन महिमा को जानूं ॥
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जैन पूजांजलि
[१६७
जग में नहीं किसी का कोई जग मतलब का मीत है।
भीतर तो है मायाचारी ऊपर झूठी प्रीत है ॥ तभी सार्थक जीवन होगा तभी सार्थक हो नर देह । अन्तर घट में जब बरसेगा पावन परम ज्ञान रस मेह ॥ पर से मोह नहीं होगा, होगा, निजात्मा से प्रति नेह । तब पायेंगे हम प्रखण्ड अविनाशी निज सुखमय शिव गेह । रक्षा-बन्धन पर्व धर्म की, रक्षा का त्यौहार महान । रक्षाबन्धन पर्व ज्ञान को, रक्षा का त्यौहार प्रधान ॥ रक्षा-बन्धन पर्व चरित की, रक्षा का त्यौहार महान । रक्षा-बन्धन पर्व आत्म की, रक्षा का त्योहार प्रधान ॥ श्री अकम्पनाचार्ग आदि मुनि सात शतक को करूं नमन । मुनि उपसर्ग निवारक विष्णु कुमार महा मुनि को वन्दन।
ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनिभ्यो पूर्णाय॑म् निर्वपामीति स्वाहा।
रक्षाबन्धन पर्व पर श्री मुनि पद उर धार । मन वच तन जो पूजते, पाते सौख्य अपार ॥
x इत्याशीर्वादः ४ जाप्य- ॐ ह्रीं श्री परम ऋषीश्वरेभ्यो नमः ।
श्री णमोकार मंत्र पजन ॐ णमो अरिहंताणं जप अरिहंतों का ध्यान करू । ॐ गमो सिद्धाणं जप कर सिद्धों का गुणगान करूं ॥ ॐ णमो प्रायरियाणं जप आचार्यों को नमन करू । ॐ नमो उवज्मायारणं जप उपाध्याय को नमन करूं ॥ णमो लोए सव्वसाहूणं जप सर्व साधुओं को वंदन । णमोकार का महा मंत्र जप मिथ्यातम को करूं वमन ॥
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१६८]
जैन पूजांजलि
एक देश संयम का धारी कहलाता है देशव्रती । पूर्णदेश संयम का धारी कहलाता है महाव्रती ।।
एमो पंच णमो यारो जप सर्व पाप अवसान करूं। सर्व मंगलों में पहिला मंगल पढ़ मंगल गान करूं ॥ णमो कार का मंत्र जपू में णमो कार का ध्यान करूं । णमोकार को महाशक्ति से निज आतम कल्याण कह ॥
ॐ ह्री श्री पंच नमस्कार मंत्र अत्र अवतर अवतर संवौषट । ॐ ह्रीं श्री पंच नमस्कार मंत्र पत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्री पंच नमस्कार मंत्र अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । ज्ञानावरणी कर्मनाश हित मिथ्यातम का करूं' प्रभाव । जन्म मरण दुख क्षय कर डालूं प्राप्त करूं निज शुद्ध स्वभाव ॥ णमोकार का मंत्र जपू मैं णमोकार का ध्यान करू । णमोकार को महाशक्ति से नाय आत्म कल्याण करू ॥
ॐ ह्रीं श्री पंच नमस्कार मत्राय ज्ञानावरणी कर्म विनाशनाय जलम निर्वपामीति स्वाहा । दर्शन आवरणी क्षय करने चिर प्रविरति का करू' अभाव । यह संसारताप क्षय करने प्राप्त करू निज शुद्ध स्वभाव ॥ णमो० ॐ ह्रीं श्री पच नमस्कार मत्राय दर्शनावरणी कर्मविनाशनाय चन्दननि०। वेदनीय की पीड़ा हरने करलूं पंच प्रमाद प्रभाव । अक्षय पद पाने को स्वामी प्राप्त करूं निज शुद्ध स्वभाव ॥णमो० ॐ ह्रीं श्री पंच नमस्कार मंत्राय वेदनीय कर्मनाशाय अक्षतम, नि०। मोहनीय का दर्प कुचलढूं कर पूर्ण कषाय प्रभाव । काम वाण की व्याधि मिटाऊं प्राप्त करू निज शुद्ध स्वाभाव ॥णमो० ___ॐ ह्रीं श्री पंच नमस्कार मंत्राय मोहनीय कर्म विध्वंसनाय पुष्पनि। प्राय फर्म के सर्वनाश हित शीघ्र करूय योग प्रमाव । क्षुध व्याधि का नाश करूं मैं प्राप्त कर निज शुद्ध स्वभाव ॥णमो०
ॐ ह्रीं श्री पंच नमस्कार मंत्राय आयुकर्म नाशाय नैवेद्य म् नि ।
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जैन पूजांजलि
संसार महामागर से समकिती पार हो जाता 1 मिथ्यामति सदा भटकता भव सागर में खो जाता ॥
[ १६९
नाम कर्म का मूल मिटा नष्ट करूं मैं सर्व विभाव | भ्रम प्रज्ञान विनाश करूं मैं प्राप्तकरू निज शुद्ध स्वभाव || णमो ०
ॐ ह्रीं श्रीं पच नमस्कार मंत्राय नामकर्म नाशाय दीपम् नि० । गोत्र कर्म को दग्ध करूँ मैं कर्म प्रकृति सब करूँ अभाव । भ्रष्ट कर्म विध्वंस करूं मैं प्राप्त करू निज शुद्ध स्वभाव ॥ णमो ० ॐ ह्रीं श्री पच नमस्कार मंत्राय गोत्र कर्मनाशाय धूपम् यि० अंतराय मूलोच्छेद कर सर्व बंध का करू प्रभाव । परम मोक्ष फल पाऊँ स्वामी प्राप्त करूं निज शुद्ध स्वभाव || णमो ० ॐ ह्रीं श्री पंच नमस्कार मंत्राय अंतराय कर्म नाशाय फलम नि० । परम भेद विज्ञान प्राप्त कर करलूं मैं संसार प्रभाव । पद न पाने को स्वामी प्राप्त करू निज शुद्ध स्वभाव ॥ णमोकार का मंत्र जपू मैं णमोकार का ध्यान करूँ । णमोकार की महाशक्ति से नाथ श्रात्म कल्याण करूं ॥ ॐ ह्रीं श्री पंच नमस्कार मंत्राय अन पद प्राप्ताय अर्ध्यम, नि० । (जयमाला)
णमोकार जिन मंत्र का जाप करूँ दिन रात । पाप पुण्य को नाश कर पाऊँ मोक्ष प्रभात ॥ छयालीस गुण धारी स्वामी नमस्कार अरिहंतो को । अष्ट स्वगुण धारी अनंत गुण मंडित बन्दू सिद्धों को ॥ हैं छत्तीस गुणों से मूषित नमस्कार आचार्यों को हैं पच्चीस गुणों से शोभित नमस्कार उपाध्यायों को ॥ अट्ठाईस मूल गुणधारी नमस्कार सब ॐ शब्द में गमित पांचों परमेष्ठी प्रभु
मुनियों को । गुणियों की ॥
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१७०]
जैन पूजांजलि
जड़ से प्रीत न की होती तो चेतन अगणित दुख न उठाता ।
भव पीड़ा कब की कट जाती मुक्ति वधू मिलती हर्षाता ।। सर्व मङ्गलों में सर्वोतम सर्वश्रेष्ठ मङ्गलदाता । ह्रीं शब्द में गभित चौबीसों तीर्थङ्कर विख्याता ॥ एमोकार पैंतिस अक्षर का मंत्र पवित्र ध्यान करलू । यह नवकार मंत्र अड़सठ अक्षर से युक्त ज्ञान करलू ॥ "अर्हत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुनमः" भज लू । सोलह अक्षर का यह पावन मंत्र जपूँ दुष्कृत तज ॥ छह अक्षर का मंत्र जपूं अरहंत सिद्ध को नमन करूं। असि पा उ सा पंचाक्षर का मंत्रजपू अघ शमन करू ॥ अक्षर चार मंत्र जप लूं अरहंत देव का ध्यान करूं । अर्हम अक्षर तीन, मंत्र जप स्वपर भेव विज्ञान करूं ॥ दो अक्षर का "सिद्ध" मंत्र जप सर्व सिद्धियां प्रगट करूं। प्रक्षर एक ॐ ही जपकर सब पापों को विघट करूं॥ सप्ताक्षर का मंत्र "णमो प्ररहंताणं" का जाप करूं। छह अक्षर का मंत्र "गमो सिद्धारणं" जप भव ताप हरू। सप्ताक्षर का मंत्र "णमो पाइरियाणं" जप हर्षांऊँ । सप्ताक्षर का "णमो उवज्ञायारणं" जप कर मुस्काऊँ ॥ नो प्रक्षर का "मंत्र णमो लोए सव्वसाहरणं" ध्याऊँ। "एसो पंच णमोयारो" जप सर्व पाप हर सुख पाऊं ॥ नव पद या नवकार पांच पद का मैं णमोकार ध्याऊँ । एक शतक सत्ताइस प्रक्षर का चत्तारि पाठ गाऊं ॥ "चत्तारि मङ्गलम्" श्रेष्ठ मङ्गल है जग में परम प्रधान । "अरिहंता मङ्गलम्" पाठ कर ग्राऊँ निज प्रातम के गान॥ "सिद्धामङ्गलम्" "साहू मङ्गलम्" का मैं भाव हृदय भर लूं। "केवलि पण्णत्तो धम्मो मङ्गलम्" स्वधर्म प्राप्त करलूं ॥
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[१७१
जैन पूजांजलि निज स्वभाव चेतन स्वरूप मय ।
पर विभाव अज्ञान रूपमय ॥ "चत्तारि लोगोत्तमा" ही सर्वोत्तम है परम शरण । "अरिहंता लोगोत्तमा" ही से होगा भव कष्ट हरण । "सिद्धा लोगोत्तमा" सु "साहू लोगोत्तमा" परम पावन । "केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगोत्तमा" मोक्ष साधन ॥ "चत्तारि शरणं पव्वज्जामि" का गूंजे जय जय गान । "अरिहंतेशरणं पव्वज्जामि" का हो प्रभु लक्ष्य महान ॥ "सिद्धेशरणं पवज्जामि" मोक्ष सिद्धि को मैं पाऊँ ॥ "साहूशरणं पन्वज्जामि" शुद्ध भावना हो भाऊ ॥ "केवली पण्णत्तो धम्मो शरणं पव्वज्जामि" है ध्येय । महा मोक्ष मङ्गल शिवदाता पाँचों परमेष्ठी प्रभु श्रेय ॥ महा मंत्र निःकांक्षित होकर शुद्ध भाव से नित ध्याऊ । पंच परम परमेष्ठी का सम्यक् स्वरूप उर में लाऊँ ॥ णमोकार का मंत्र जपू मैं णमोकार का ध्यान करूं। महा मंत्र को महाशक्ति पा नाथ प्रात्म कल्याण करूं। मह अर्ह अह जपकर निज शुद्धातम करलूं भान । नमः सर्व सिद्धेभ्यः जपकर मोक्ष मार्ग पर करूं प्रयाण ॥ ॐ ह्रीं श्री पंच नमस्कार मंत्राय पूर्णायम नि० ।
णमोकार के मंत्र की महिमा अगम अपार । भाव सहित जो ध्यावते हो जाते भव पार ॥
X इत्याशीर्वादः ४ जाप्य- ॐ ह्रीं श्री णमो अहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं,
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं ।
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१७२]
जैन पूजांजलि
निज स्वभाव शिव सूख का दाता । पर विभाव निज सख का घाता ।।
श्री भक्तामर स्तोत्र पूजन जय जयति जय स्तोत्र भक्तामर परम सुख कारणम् । जय ऋषभदेव जिनेन्द्र जय जय जय भवोदधितारणम् ॥ जय वीतराग महान जिनपति विश्ववंद्य महेश्वरम् । जय आदि देव सु महादेव सुपूज्य प्रभु परमेश्वरम् ॥ जय ज्ञान सूर्य अनंत गुणपति आदिनाथ जिनेश्वरन् । जय मानतुंग सुनीश पूजित प्रथम जिन तीर्थेश्वरम् ॥ मैं भाव पूर्वक करूं पूजन स्वपद ज्ञान प्रकाशकम् । दो भेद ज्ञान महान अनुपम प्रष्ट कर्म विनाशनम् ॥
ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्र अत्र मम् सन्निहितो भवभव वषट् । जन्म मरण भयहारी स्वामी, आदि नाथ प्रभु को वंदन । त्रिविध दोष ज्वर हरने को, चरणों में चल करता अर्पण ॥ ऋषभदेव के चरण कमल में, मन वच काया सहित प्रणाम। भक्तामर स्तोत्र पाठ कर, मैं पाऊँ निज में विश्राम ॥ ___ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वामीति स्वाहा । भव प्राताप विनाशक स्वामी आदिनाथ प्रभु को वंदन । भवदावानल शीतल करने चंदन करता हूं अर्पण ॥ ऋषभ
ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चन्दनम् नि । भव समुद्र उद्धारक स्वामी आदिनाथ प्रभु को वन्दन । अक्षय पद की प्राप्ति हेतु प्रभु अक्षत करता हूं अर्पण ॥ ऋषभ०
ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि।
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जन पूजांजलि
[१७३
ज्ञान ज्योति क्रीड़ा करती है प्रति पल केवलज्ञान से । ज्ञान कला विकसित होती है सहज स्वयं के भान से ॥
काम व्यथा संहारक स्वामी आदिनाथ प्रभु को वंदन। मैं कंदर्प दर्प हरने को सहज पुष्प करता अर्पण ॥ ऋषभ० ___ ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि। क्षुधा रोग के नाशक स्वामी प्रादिनाथ प्रभु को वंदन । अब अनादि की क्षुधा मिटाऊं प्रभु नैवेद्य करू अर्पण ॥ ऋषभ ___ ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनायनैवेद्यम् नि०। स्वपर प्रकाशक ज्ञान ज्योतिमय आदिनाथ प्रभु को वंदन । मोह तिमिर प्रज्ञान हटाने दीपक चरणों में प्रर्पण ॥ ऋषभ० ___ ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि० । कर्म व्यथा के नाशक स्वामी प्रादिनाथ प्रभु को वंदन । अष्ट कर्म बिध्वंस हेतु भावों को धूप करूँ अर्पण ॥ ऋषभ० ___ ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय अप्ट कर्म दहनाय धूपम् नि० । नित्य निरंजन महामोक्ष पति आदिनाथ प्रभु को वंदन । मोक्ष सुफल पाने को स्वामी चरणों में फल है अर्पण ॥ ऋषभ० ___ ॐ ह्री श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् नि० । जल गंधाक्षत पुष्प सुचर दीपक सुधूप फल अर्घ सुमन । पद अनर्घ पाने को स्वामी चरणों में सादर अर्पण ।। ऋषभदेवके चरण कमल में मन वच काया सहित प्रणाम । भक्तामर स्तोत्र पाठ कर मैं पाऊँ निज में विश्राम ॥ ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्यम् नि० ।
४ जयमाला वृषमांकित जिनराज पद वंदू बारम्बार । वषभदेव परमात्मा परम सौख्य आधार ॥
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१७४]
जन पूजांजलि रागद्वेष कर्मों का रस है यह तो मेरा नहीं स्वरूप ।
ज्ञान मात्र शुद्धोपयोग ही एक मात्र है मेरा रूप ॥ भक्तामर की यशो पताका फहराते हैं साधु भक्त जन । भाव पूर्वक पाठ मात्र से कट जाते सब संकट तत्क्षण ॥ भक्तामर रच मानतुंग ने निज परका कल्याण किया था । अड़तालीस काव्य रचना कर शुभ अमरत्व प्रदान किया था। नृपकारा से मुक्त हुए मुनि श्रुत उपदेश महान दिया था । प्रादिनाथ की स्तुति करके निज स्वरूप का ध्यान किया था। मैं भी प्रभु की महिमा गाकर भाव पुष्प करता हूँ अर्पण । त्रैलोक्येश्वर महादेव जिन प्रादिदेव को सविनय वन्दन । नाभिराय मरुदेवी के सुत प्रादिनाथ तीर्थङ्कर नामी । आज आपकी शरण प्राप्त कर प्रति हर्षित हूँ अन्तर्यामी ॥ मैंने कष्ट अनंतानंत उठाये हैं अनादि से स्वामी । प्रात्म ज्ञान बिन भटक रहा हूँ चारो गति में त्रिभुवननामी ।। नर सुर नारक पशुपर्यायों में प्रभु मैंने अति दुख पाये। जड़ पुदगल तन अपना माना निज चैतन्य गीत ना गाये ॥ कभी नर्क में कभी स्वर्ग में कभी निगोद आदि में भटका । सुखाभास की प्राकांक्षा ले चार कषायों में ही अटका ॥ एक बार भी कभी भूलकर निज स्वरूप का किया न दर्शन । द्रव्यलिंग भी धारा मैंने किन्तु न माया आत्म चिन्तवन ॥ प्राज सुअवसर मिला भाग्य से भक्तामर का पाठ सुन लिया। शब्द अर्थ भावों को जाना निज चैतन्य स्वरूप गुन लिया ॥ अब मुझको विश्वास हो गया भव का अन्त निकट आया है। भक्तामर का भाव हृदय में मेरे नाथ उमड़ पाया है ॥ भेद ज्ञान की निधि पाऊंगा स्वपर भेद विज्ञान करूंगा। शुद्धात्मानुभूति के द्वारा अष्ट कर्म अवसान करूंगा ॥
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जन पूजांजलि
[१७५
जब तक दृष्टि निमित्तों पर है भव दुख कभी न जाएगा। उपादान जाग्रत होते ही सब सकट टल जाएगा ।
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इस पूजन का सम्यक् फल प्रभु मुझको पाप प्रदान करो अब। केवल ज्ञान सूर्य की पावन किरणों का प्रभु दान करो अब ।। क्रोध मान माया लोभादिक सर्व कषाय विनष्ट करूं मैं । वीतराग निज पद प्रगटा भव बंधन के कष्ट हरू मैं ॥ स्वर्गादिक की नहीं कामना भौतिक सुख से नहीं प्रयोजन । एक मात्र ज्ञायक स्वभाव निज काही प्राश्रय लूहे भगवन । विषय भोग की अभिलाषाएं पलक मारते चूर करू मैं । शाबत निज प्रखंड पद पाऊँ पर भावों को दूर करूं मैं॥ मिथ्यात्वादिक पाप नष्ट कर सम्यक् दर्शन को प्रगटाऊ॥ सम्यक् ज्ञान चरित्र शक्ति से घाति अघाति कर्म विघटाऊँ। ॐ ह्रीं श्री वृषभ देव जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्ताय पूर्णाय॑म् नि० ।
भक्तामर स्तोत्र की महिमा अगम अपार । भाव भासना जो करें हो जाएं भव पार ।।
इत्यार्शीर्वादः जाप्य-ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अर्ह श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय नमः
श्री नव देव पूजन श्री अरहंत सिद्ध, आचार्योपाध्याय, मनि, साधु महान । जिनवाणी, जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, जिनधर्म, देव नव जान ।। ये नवदेव परम हितकारी रत्नत्रय के दाता हैं । विघ्न विनाशक संकटहर्ता तीन लोक विख्याता हैं । जल फलादि वसु द्रव्य सजाकर हे प्रभु नित्य करू पूजन । मङ्गलोत्तम शरण प्राप्त कर मैं पाऊं सम्यक् दर्शन ॥
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१७६]
जैन पूजांजलि
दुर्जय ज्ञान धनुर्धर चेतन जब संवर को अपनाता ।
समरांगण में आए मत्त आश्रव पर यह जय पाता ।। आत्म तत्त्व का अवलंबन ले पूर्ण अतीन्द्रिय सुख पाऊँ । नवदेवों की पूजन करके फिर न लौट भव में आऊं ॥
ॐ ह्रीं श्री अहं त सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्व साधु, जिनवाणी, जिन मंदिर, जिन प्रतिमा, जिनधर्म नवदेव अत्र अवतर अन्तर संवौषट
ॐ ह्रीं श्री अहंत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्व साध जिनवाणी,जिनमंदिर जिन प्रतिमा, जिनधर्म नवदेव अत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्री अर्हत मिद्ध आचार्योपाध्याय सर्व साधु, जिनवाणी,जिनमंदिर निज प्रतिमा, निजधर्म नवदेव अत्र अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । परम भाव जल की धारा से जन्म मरण का नाश करू । मिथ्यातम का गर्व चूर कर रवि सम्यक्त्व प्रकाश करू ॥ पंच परम परमेष्ठी जिनश्रुत जिनगृह जिनप्रतिमा जिनधर्म। नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥
ॐ ह्रीं श्री अहंत सिद्ध आचार्योपाध्याय जिनवाणी जिनमंदिर, जिनप्रतिमा जिन धर्म नव देवोभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनायजलम् निर्वपामीतिस्वाहा। परम भाव चंदन के बल से भव प्रातप का नाश करू। अन्धकार अज्ञान मिटाऊ सम्यक् ज्ञान प्रकाश करूं ॥ पंच०
ॐ ह्रीं श्री अर्हत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनवाणी, जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो संसारताप विनाशनाय चन्दनं नि । परम भाव अक्षत के द्वारा अक्षय पद को प्राप्त करूं। मोह क्षोभ से रहित बनूं मै सम्यक चारित व्याप्त करूं ॥पंच. ___ॐ ह्रीं श्री अर्हत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनवाणी जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नव देवेभ्यो अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि । परम भाव पुष्पों से दुर्धर काम भाव को नाश कह। तप संयम को महाशक्ति से निर्मल आत्म प्रकाश कह ॥ पंच.
ह्रीं श्री अर्हत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनवाणी जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि।
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जैन पूजांजलि
[१७७
परम ब्रम्ह हूँ परम तत्त्व हूँ परम ज्योतिमय परम स्वरूप ।
परम घ्यानमय परम ज्ञानमय परम शांतिमय परम अनूप ।। परम भाव नैवेद्य प्राप्त कर भुधा व्याधि का ह्रास कह। पंचाचार प्राचरण करके परम तृप्त शिव वास करूं ॥ पंच०
ॐ ह्रीं श्री अर्हत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्व साधु जिनवाणी जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि। परम भाव मय दिव्य ज्योति से पूर्ण मोह का नाश करूं। पाप पुण्य आश्रय विनाश कर केवल ज्ञान प्रकाश करूं ॥पंच०
ॐ ह्रीं श्री अर्हत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु, जिनवाणी, जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो मोहांधकार विनाशनाय दीपम् नि। परम भाव मय शुक्ल ध्यान से प्रष्ट कर्म का नाश करूं। नित्य निरंजन शिव पद पाऊँ सिद्ध स्वरूप विकास करू ॥पंच० ___ ॐ ह्रीं श्री अर्हत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाध जिनवाणी, जनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो अष्ट कर्म दहनाय घूपम् नि० । परम भाव संपत्ति प्राप्त कर मोक्ष भवन में वास करूं। रत्नत्रय फल मुक्ति शिला पर सादि अनंत निवास कम्॥पंच०
ॐ ह्रीं श्री अहं त सिद्ध आचायोपाध्याय सर्वसाधु जिनवाणी, जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो मोक्षफल प्राप्ताय फलम् नि । परम भाव के अर्घ चढ़ाऊँ उर अनर्घ पद व्याप्त कह। भेद ज्ञान रवि हृदय नगाकर शाश्वत जीवन प्राप्त करूं। पंच परम परमेष्ठी जिन श्रुत जिनगृह जिन प्रतिमा जिन धर्म। नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥
ॐ ह्रीं श्री अहं त सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनवाणी,जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्यम नि० ।
जयमाला नवदेवों को नमन कर कह आत्म कल्याण । शाश्वत सुख की प्राप्ति हित कह भेव विमान ।
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१७८ ]
जैन पूजांजलि
समति रूपी जल प्रवाह जब वहता है अभ्यंतर में । कर्मधूल आवरण नहीं रहता है लेश मात्र उर
में ॥
जय जय पंच परम परमेष्ठी जिनवारणी. जिन धर्म महान । जिन मंदिर जिन प्रतिमा नवदेवों को नित वन्दू घर ध्यान ॥ श्री अरहंत देव मङ्गलमय मोक्ष मार्ग के नेता हैं । सकल ज्ञ ेय के ज्ञातादृष्टा कर्म शिखर के भेत्ता हैं ॥ हैं लोकाग्र शिखर पर सुस्थित सिद्ध शिला पर सिद्ध अनंत । अष्ट कर्म रज से विहीन प्रभु सकल सिद्धि दाता भगवंत ॥ हैं छत्तीस गुरणों से शोभित श्री आचार्य देव भगवान । चार संघ के नायक ऋषिवर करते सबको शाँति प्रदान ॥ ग्यारह अङ्ग पूर्व चौदह के ज्ञाता उपाध्याय गुणवंत । जिन ग्रागम का पठन और पाठन करते हैं महिमा वंत ॥ अट्ठाईस मूल गुण पालक ऋषि मुनि साधु परम गुणवान । मोक्ष मार्ग के पथिक श्रमण करते जीवों को करुणादान ॥ स्यादवादमय द्वादशांग जिनवाणी है जग कल्याणी । जो भी शरण प्राप्त करना है हो जाता केवल ज्ञानी ॥ जिन मंदिर जिन समवशरणसम इसकी महिमा अपरम्पार । गंध कुटी में नाथ विराजे हैं अरहंत देव साकार ॥ जिन प्रतिमा अरहंतों की नासाग्र दृष्टि निज ध्यानमयी । जिन दर्शन से निज दर्शन हो जाता तत्क्षण ज्ञानमयी ॥ श्री जिन धर्म महा मङ्गलमय जीव मात्र को सुखदाता | इसकी छाया में जो श्राता हो जाता दृष्टा ज्ञाता ॥ ये नवदेव परम उपकारी वीतरागता के सागर । सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित से भर देते सबकी गागर ॥ मुकको भी रत्नत्रय निधि दो मैं कर्मों का भार क्षीण मोह जितराग जितेन्द्रिय हो भव सागर पार करूं ॥
हरु ।
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जैन पूजांजलि
जाग जाग रे जाग अभी तू निज आतम का करले भान । ཏྭཱ धर्म नहीं दुखरूप धर्म तो
परमानंद स्वरूप महान ||
सदासदा नवदेव शरण पा मैं अपना कल्याण करूं । जब तक सिद्ध स्वपद ना पाऊँ हे प्रभु पूजन ध्यान करूं ॥
ॐ ह्रीं श्री अर्ह तसिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनवाणी जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यां अनर्घ पद प्राप्ताय पूर्णार्धम् नि० । * इत्याशीर्वादः
मंगलोत्तम शरण हैं नव देवता महान । भावपूर्ण जिन भक्ति से होता दुख अवसान || ॐ ह्रीं श्री जिन नवदेवताय नमः ।
जाप्य
- ¤
―――
[ १७६
श्री नित्य नियम पूजन
करूँ
जय जय देव शास्त्र गुरु तीनों, मङ्गलदाता प्रभु पंच परम परमेष्ठी प्रभु के चरणों को मैं विद्यमान तीर्थङ्कर बोस विदेह क्षेत्र के करू तीन लोक के कृत्रिम अकीर्तम जिन चैत्यालय को परमोत्कृष्ट अनंत गुरण सहित सर्व सिद्ध प्रभु को वृषभादिक श्री वीर जिनेश्वर तीर्थङ्कर सब करूँ निज भावों की अष्ट द्रव्य ले सविनय नाथ करूँ पूजन । श्रद्धा पूर्वक भक्तिभाव से करता हूं जिन पद श्रर्चन ॥ ॐ ह्रीं श्री सर्व जिन चरणाग्र ेषु पुष्पांजलि क्षिपामि । अनंतानुबंधी कषाय का नाश करूँ दो यह श्राशीष । मोह रूप मिथ्यात्व नष्ट कर दूं मैं समकित जल से ईश ॥ देव शास्त्र गुरु पाँचों परमेष्ठी प्रभु विद्यमान जिन बीस । कृत्रिम अकीतंम जिनगृह वन्दूं सर्व सिद्ध जिनवर चौबीस ॥
ॐ ह्रीं श्री सर्व जिन चरणाग्रेषु जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम निर्वपामीति स्वाहा |
वंदन ।
नमन ॥
नमन ।
वंदन ॥
वन्दन ।
नमन ॥
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१८०]
जैन पूजांजलि
गगन मडलमें उड़जाऊं।
तीन लोक के तीर्थ क्षेत्र सब वंदन करआऊँ ॥ अप्रत्यख्याना वरणी कषाय का नाश करूं तत्काल । प्रविरति हर अणुवत लू, समकित चंदन से चमके निज भाल ॥देव० __ॐ ह्रीं श्री सर्व जिन चरणाग्रेषु भवताप विनाशनाय चन्दनम् नि० । मैं कषाय प्रत्यख्यानावरणी हर करूं प्रमाव प्रभाव । पंच महाव्रत ले समकित अक्षत से पाऊँ शुद्ध स्वभाव ॥ देव० ___ ॐ ह्रीं श्री सर्व जिन चरणाग्रेषु अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि । प्रभु कषाय संज्वलन नाश कर पाऊँ मैं निज में विश्राम । समकित पुप्प खिले अन्तर में मैं प्ररहंत बनूं निष्काम ॥ देव० __ॐ ह्रीं श्री सर्व जिन चरणाग्रेषु कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि। पाप पुण्य शुभ अशुभ प्राश्रव का निरोध करलूं संवर । समकित चर से कर्म निर्जरा कर मैं बंध हरू सत्वर ।। देव० ___ॐ ह्रीं श्री सर्व जिन चरणाग्रेषु क्ष धा रोग विनाशनाय नैवेद्यम नि०। राग द्वेष सब का प्रभाव कर नो कषाय का कह विनाश। सम्यक् ज्ञान दीप से स्वामी पाऊँ केवल ज्ञान प्रकाश ॥ देव०
ॐ ह्रीं श्री सर्व जिन चरणाग्रेषु मोहांधकार विनाशनाय दीपम् नि० । ज्ञानावरणादिक आठों कर्मों का नाश करू भगवंत । समकित धूप सुवासित हो उर भव सागर का कर, अन्त ॥ देव०
ॐ ह्रीं श्री सर्व जिन चरणाग्रेषु अष्ट कर्म दहनाय धूपम् नि । गुण स्थान चौदहवां पाकर योग अभाव करू स्वामी। समकित का फल महा मोक्ष पद पाऊं हे अन्तर्यामी ॥ देव० ____ॐ ह्रीं श्री सर्व जिन चरणाग्रेषु मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् नि० । बंध हेतु मिथ्यात्व असंयम और प्रमाद कषाय त्रियोग। समकित अर्ण मजा मंतर में पाऊ पद अनर्घ प्रवियोग । देव शास्त्र गुरु पांचों परमेष्ठी प्रभु विद्यमान जिन बीस। कृत्रिम प्रकृत्रिम जिनगृह वन्दू सर्व सिद्ध जिनवर चौबीस ॥
ॐ ह्रीं श्री सर्व जिन चरणाग्रेषु अनर्थ्य पद प्राप्ताय अर्घ्यम नि० ।
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बन पूजांजलि
[१८१
कर्म जनित सुख के समूह का जो भी करता है परिहार। वही भव्य निष्कम अवस्था को पाकर होता भव पार ।।
४ जयमाला 8 जिनवर पद पूजन कर नित्य नियम से नाथ ।
शुद्धातम से प्रीति कर मैं भी बनूं सनाथ ॥ तीन लोक के सारे प्राणी हैं कषाय प्रातप से तप्त । इन्द्रिय विषय रोग से मुखित भव सागर दुख से संतप्त ॥ इष्ट वियोग अनिष्ट योग से खेद खिन्न जग के प्राणी । उनको है सम्यक्त्व परम हितकारी प्रौषधि सुखदानी ॥ सर्व दुखों को परमौषधि पोते ही होता रोग विनष्ट । भवनाशक जिन धर्म शरण पाते ही मिट जाता भव कष्ट । है मिथ्यात्व असंयम और कषाय पाप की क्रिया विचित्र । पाप क्रियानों से निवृत्ति हो तो होता सम्यक् चारित्र ॥ घाति कर्म बंधन करने वाली शुभ प्रशुभ क्रिया सब पाप। महा पाप मिथ्यात्व सदा ही देता है भव भव संताप ॥ इसके नष्ट हुए बिन होता दूर असंयम कभी नहीं । इसके सम दुखकारी जग में और पाप है कही नहीं । मुनिव्रत धारण कर प्रेवेयक में अहमिन्द्र हुमा बहुबार । सम्यक् दर्शन बिन भटका प्रभु पाए जग में दुक्ख अपार॥ क्रोधाविक कषाय अनुरंजित हो भव सागर में डूबा । साता के चक्कर में पड़कर नहीं असाता से ऊबा ॥ पाप पुण्य दुखमयो जानकर यदि मैं शुद्ध दृष्टि होता। नष्ट विभाव भाव कर लेता यदि मैं द्रव्य दृष्टि होता ॥ मिथ्यातम के गए बिना प्रभु नहीं असंयम जाता है। जप तप व्रत पूजन अर्चन से जिय सम्यक्त्व न पाता है ॥
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१८२]
जैन पूजांजलि
सिद्ध दशा को चलो साधने सब सिद्धों को वंदन कर । सम्यक दर्शन की महिमा से आत्म तत्व का दर्शनकर ।।
जाप्य
इसीलिए मैं शरण आपकी आया हूं जिन देव महान । सम्यक् दर्शन मुझे प्राप्त हो, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान । नित्य नियम पूजन करके प्रभु निज स्वरूप का ज्ञान करूं। पर्यायों से दृष्टि हटा, बन द्रव्य दृष्टि निज ध्यान कर। ॐ ह्रीं श्री सर्व जिन चरणाग्रेषु पूर्णार्घम नि।
नित्य नियम पूजन करूं जिनवर पद उर धार। प्रात्म ज्ञान को शक्ति से हो जाऊँ भव पार ।।
॥ इत्याशीर्वाद ॐ ह्रो श्री सर्व जिनेभ्यो नमः ।
-: :श्री जिनेन्द्र पंच कल्याणक पूजन चौबीसों जिन के पांचों कल्याणक शुभ मंगलदायी। गर्भ जन्म तप ज्ञान मोक्ष कल्याणक पूजू सुखदायी ॥ ऋषभ अजित संभव अभिनंदन सुमति पद्म सुपार्श्व भगवंत। चंद्र सुविधि शीतलश्रेयांस जिन वासु पूज्य प्रभु विमल अनंत ॥ धर्म शांति प्रभु कुन्थु परहजिन मल्लि मुनिसुव्रत नमि गुणवंत । नेमि पाश्र्व प्रभु महावीर के पांचों मंगल जय जयगंत ॥ ___ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पंच कल्याणक समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पंच कल्याणक समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पंच कल्याणक समूह अत्र मम् सन्निहितो भवभव वपट् । शुभ्रनीर को तीन धार दे जन्म जरा मृतु हरण करू। सम्यक दर्शन को विभूति पा मोक्ष मार्ग को पहरण करू ॥ जिन तीर्थङ्कर के बत लाए रत्नत्रय को वरण करूं। गर्भ जन्म तप ज्ञान मोक्ष पाँचों कल्याणक नमन करूं।
ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पत्र कल्याणकेभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम निर्वपामीति स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि
[१६३
भवावर्त में कमी न भायों ऐसी भाओ भावना ।
भव अभाव के लिए मात्र निज ज्ञायक की हो साधना ॥ मलयागिर चंदन अपित कर भव का आतप हरण करूं। सम्यक ज्ञान प्राप्त कर मैं मी मोक्ष मार्ग का ग्रहण करू जिन० ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पच कल्याणकेभ्यः संसारताप विनाशनाय चन्दनम् नि । प्रक्षत से अक्षय पद पाऊँ भव सागर दुख हरण करूं। सम्यक् चारित के प्रभाव से मोक्ष मार्ग को ग्रहण करूं ॥जिन० ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पंच कल्याणकेभ्यो अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम नि०। सुन्दर पुष्प सुगंधित लाकर काम शत्रु मद हरण करूं। सम्यक् तप की महाशक्ति से मोक्ष मार्ग को ग्रहण करू ॥जिन० ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पंच कल्याणकेभ्यः कामवाणी विध्वंसनाय पुष्पम् नि । शुभ नैवेद्य भेंट कर स्वामी क्षुधा व्याधि को हरण करूं। शुद्ध ध्यान निज के प्रताप से मोक्ष मार्ग को ग्रहण करूं।जिन० ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पंच कल्याणकेभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैबेद्यम् नि । तमका नाशक दीप जलाकर मोह तिमिर को हरण करूं। निज अन्तर पालोकित करके मोक्ष मार्ग को ग्रहण करू' जिन ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पंच कल्याणकेभ्यो मोहांधकार विनाशनाय दीपम् नि। ध्यान अग्नि में धूप डालकर अष्ट कर्म को हरण करू। शुक्ल ध्यान की प्राप्ति हेतु मैं मोक्ष मार्ग को ग्रहण करूं। जिन ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पंच कल्याणकेभ्यो अप्ट कर्म विध्वंसनाय धूपम नि०। शुद्ध भाव फल लेकर स्वामी पाप पुण्य को हरण करू । परम मोक्ष पर पाने को मैं मोक्ष मार्ग को ग्रहण करू ॥ जिन० ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पंच कल्याणकेभ्यो मोक्षफल प्राप्ताय फलम् नि० । वस विधि अर्घ चढ़ाकर मैं अष्टम वसुधा को वरण करूं। निज अनर्थ पद प्राप्ति हेतु में मोक्ष मार्ग को ग्रहण करू ।
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१८४]
जैन पूजांजलि परम शद्ध निश्चय नय का जो विषय भूत है शुद्धातम ।
परम भाव ग्राही द्रव्याथिक नयको विषय वस्तु आतम ।। जिन तीर्थङ्कर के बतलाए रत्नत्रय को वरण कह। गर्भ जन्म तप ज्ञान मोक्ष पांचों कल्याणक नमन करू॥ ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पंच कल्याणकेभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घ्यम् नि ।
श्री पंच कल्याणक श्री जिन गर्भ कल्याण की महिमा अपरम्पार ।
रत्नों की बौछार हो घर घर मङ्गल चार ॥ गर्भ पूर्व छह मास जन्म तक नित नूतन मंगल होते। नव बारह योजन नगरी रच इन्द्र महा हर्षित होते ॥ गर्भ दिवस जिन माता को देखते हैं सोलह स्वप्न महान । बैल,सिंह, माला, लक्ष्मी, गज, रवि, शशि,सिंहासन,छविमान ।। मीन युगल, दो कलश, सरोवर, सरविमान, नागेन्द्र विमान। रत्न राशि, निर्ध मअग्नि सागर लहराता अतुल महान ।। स्वप्न फलों को सुन के हर्षित, होता है अनुपम प्रानंद । धन्य गर्भ कल्याण, देवियां सेवा करती हैं सानंद ॥ ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पच कल्याणकेभ्यो अर्घम, निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री जिन जन्म कल्याण की महिमा अपरम्पार ।
तीनों लोकों में हुआ प्रभु का जय जयकार ॥ जन्म समय तीनों लोकों में होता है प्रानंद अपार । सभी जीव अन्तर्मुहूर्त को पाते अति साता सुखकार ।। इन्द्र शची ऐरावत पर चढ़ धूम मचाते पाते हैं। जिन प्रभु का अभिषेक मेरु पर्वत के शिखर रचाते हैं। क्षीरोदधि से एक सहस्त्र अरु प्रष्ट कलश सुर भरते हैं। स्वर्ण कलश शुभ इन्द्र भाव से प्रभु मस्तक पर करते हैं।
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जैन पूजांजलि
ज्ञान चक्षु, को खोल देख तेरा स्वभाव दुख रूप नहीं । तीन काल में एक समय भी राग भाव सुख रूप नहीं ॥
मात पिता को सौंप इन्द्र करता है नाटक नृत्य महान । परम जन्म कल्याण महोत्सव पर होता है जय जयगान ॥ ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र जन्म कल्याणकेभ्यो अर्धम नि० ।
श्री जिन तप कल्याण की महिमा अपरम्पार । तप संयम की हो रही पावन जय जयकार ॥
कुछ निमित पा जब प्रभु के मन में आता वैराग्य अपार । भव्य भावना द्वादश भाते तजते राजपाट
संसार |
होते
धन्य
लौकान्तिक ब्रह्मर्षि एक भव अवतारी प्रभु वैराग्य सुदृढ़ ६. रने को कहते धन्य इन्द्रादिक प्रभु को शिविका पर ले जाते बाहर महाव्रती हो केश लोंचकर लय होते निज इन केशों को इन्द्र प्रवाहित क्षीरोदधि में तप कल्याण महोत्सव तप की विमल भावना ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र तप कल्याणकेभ्यो अर्धम् नि० । परम ज्ञान कल्याण की महिमा अपरम्पार । स्वपद प्रकाशक आत्म में झलक रहा संसार ॥ क्षपक श्रेणि चढ़ शुक्ल ध्यान से गुणस्थान बारहवां पा । चार घातिया कर्म नाश कर गुण स्थान तेरहवाँ पा ॥ केवल ज्ञान प्रगट होते ही होती परमोदारिक देह । अष्टा दश दोषों से विरहित छयालीस गुरण मंडित नेह ॥ समवशरण की रचना होती होते अतिशय देवोपम । शत इन्द्रों के द्वारा वंदित प्रभु की दिव्यध्वनि खिरती है सब जीवों का होता है परम ज्ञान कल्याण महोत्सव पर जिन प्रभु का ही यश गान ॥
छवि प्रति
सुन्दरतम ॥
कल्याण ।
ॐ ह्री श्री जिनेन्द्र ज्ञान कल्याणकेभ्यो अर्धम नि० ।
·
[१८५
पुलकित ।
हर्षित ॥
वन में
में ॥
चिंतन
1
करता है । भरता है ॥
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१८६]
जैन पूर्जाजलि
जब तक नहीं स्वभाव भाव है तब तक है संयोगी भाव । जब संयोगी भाव त्याग देगा तो होगा शुद्ध स्वभाव ॥
परम मोक्ष कल्याण की महिमा अपरम्पार ।
प्रष्ट कर्म को नाश कर नाथ हुए भव पार ॥ गुण स्थान चौदहवां पाकर योगों का निरोध करते । अन्तिम शुक्ल ध्यान के द्वारा कर्म अघातिया भी हरते ॥ अ, इ, उ, ऋ, ल उच्चारण में लगता है जितना काल । तीन लोक के शीष विराजित हो जाते हैं प्रभु तत्काल । तन कपूर वत उड़ जाता है नख अरु केश शेष रहते । मायामयी शरीर देव रच अन्तिम क्रिया अग्नि दहते ॥ मंगल गीत नृत्य वाद्यों की ध्वनि से होता हर्ष अपार । भव्य मोक्ष कल्याण मनाते सब जीवों को मङ्गलकार ।। ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र मोक्षफल कल्याणकेभ्यो अर्घम् नि ।
४ जयमाला 8 जिनवर पंच कल्याण की महिमा प्रगम अपार ।
गर्भ जन्म तप ज्ञान सह महा मोक्ष शिवकार ॥ वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के मंगल कल्याण महान । गर्भ जन्म तप ज्ञान मोक्ष पाँचों कल्याणक महिमावान ।। श्री पंच कल्याणक पूजन करके निज वैभव पाऊं। सोलह कारण भव्य भावना मैं भी हे जिनवर भाऊँ ॥ जिन ध्वनि सुनकर मेरेमन में रहा नहीं प्रभु भय का लेश। पूर्ण शुख ज्ञायक स्वरूप मय एक मात्र है उज्ज्वल वेश । संयोगी भावों के कारण भटक रहा भव सागर में। जिन प्रभु का उपदेश सुना पर मिला नहीं निज गागर में। अवसर आज अपूर्व मिल गया प्रभु चरणों की पूजन का। सम्यक दर्शन माज मिला है फल पाया नर जीवन का ।।
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जैन पूजांजलि
ज्ञान चक्ष ओं को खोलो अब देखो निज चैतन्य निधान । देह और वाणी मन से भी पार विराजित निज भगवान |
हे प्रभु मुझे मार्ग दर्शन दो अब मैं श्रागे बढ़ जाऊं । प्रणुव्रत धार महाव्रत धारूं गुण स्थान भी चढ़ जाऊ ॥ परम पंच कल्याण विभूषित जिन प्रभु की महिमा गाऊँ । घाति अवाति कर्म सब क्षय कर शाश्वत सिद्ध स्वपद पाऊं ॥ ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र पंच कल्याणकेभ्यो पूर्णार्घम् नि० ।
तीर्थङ्कर जिन देव के पूज्य पंच कल्याण | भाव सहित जो पूजते पाते शांति महान || Xxइत्याशीर्वादः
जाप्य
ॐ ह्रीं श्री जिन पच कल्याणकेभ्यो नमः ।
¤¤¤
श्री त्रिकाल चौबीसी
पूजन
श्री निर्वाण श्रादि तीर्थङ्कर भूतकाल के तुम्हें
तुम्हें
श्री वृषभादिक वीर जिनेश्वर वर्तमान के महापद्म अनंत वीर्यं तीर्थंङ्कर भावी भूत भविष्यत् वर्तमान की चौबीसी को करूं
[१८७
तुम्हें
नमन ।
नमन ॥
नमन ।
नमन ॥
ॐ ह्रीं भरत क्ष ेत्र संबंधी, भूत भविष्य वर्त्तमान जिन तीर्थङ्कर समूह अत्रअवतर अवतर संवौषट, ।
ॐ ह्री भूत भविष्य वर्त्तमान जिन तीर्थङ्कर समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं भूत भविष्य, वर्त्तमान जिन तीर्थङ्कर समूह अत्र मम् सन्निहितो
भव भव वषट ।
सात तत्त्व श्रद्धा के जल से मिथ्या मल को दूर करूँ । जन्म जरा भय मरण नाश हित पर विभाव चकचूर करूं ॥
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१८८]
जैन पूजांजलि
उषा काल में प्रात समय निज का चितन करलो चेतन ।
घड़ी दो घड़ी जितना भी हो तत्व मनन करलो चेतन ॥ भूत भविष्यत् वर्तमान को चौबीसी को नमन करूं। क्रोध लोभ मद माया हरकर मोह क्षोभ को शमन करू । __ॐ ह्रीं भूत, भविष्य वर्तमान जिन तीर्थकरेभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा । नव पदार्थ को ज्यों का त्यों लख वस्तु तत्त्व पहचान करूं। भव आताप नशाऊँ मैं निज गुण चंदन बहुमान करूं ॥ भूत० ॐ ह्रीं भूत, भविष्य, वर्तमान जिन तीर्थङ्करेभ्यो संसार ताप विनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा। षट् द्रव्यों से पूर्ण विश्व में आत्म द्रव्य का ज्ञान करूं । अक्षय पद पाने को प्रक्षत गुण से निज कल्याण करूं ॥ भूत० ___ ॐ ह्रीं भूत, भविष्य, वर्तमान जिन तीर्थङ्करेभ्यो अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् निर्वपामोति स्वाहा । जानूं मैं पंचास्ति काय को पंच महावत शील धरू । काम व्याधि का नाश करू निज प्रात्म पुष्प को सुरभि वरूं ॥भूत० ॐ ह्रीं भूत, भविष्य, वर्तमान जिन तीर्थङ्करेभ्यो कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् निर्वपामीति स्वाहा । शुद्ध भाव नैवेद्य ग्रहण कर क्षुधा रोग को विजय करूं । तीन लोक चौदह राजू ऊँचे में मोहित अब न फिरू ॥भूत. ॐ ह्रीं भूत, भविष्य, वर्तमान जिन तीर्थङ्करेभ्यो अधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति स्वाहा । ज्ञान वोप की विमल ज्योति से मोह तिमिर क्षय कर मानूं । त्रिकालवर्ती सर्व द्रव्य गण पर्याय युगपत जानूं ॥ मूत. ॐ ह्रीं भूत, भविष्य, वर्तमान तीर्थङ्करेभ्यो मोहान्धकारविनाशनायदीपनि। षट् लेश्या के भाव जानकर षट कायक रक्षा पालू । शुक्ल ध्यान की शुद्ध धूप से प्रष्ट कर्म क्षय कर डालूं ॥ ॐ ह्रीं भूत, भविष्य, वर्तमान तीर्थङ्करेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपम नि०।
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जैन पूजजिलि
तू अनंत धर्मों का पिंड अखंडपूर्ण परमातम है । स्वयं सिद्ध भगवान आत्मा सदा शुद्ध सिद्धातम है ॥
[ १८९
पंचाचार |
पंच समिति त्रय गुप्ति पंच इन्द्रिय निरोध व्रत अट्ठाईस मूल गुण पालूं पंच लब्धि फल मोक्ष अपार ॥ भूत० ॐ ह्रीं भूत, भविष्य, वर्तमान तीर्थङ्करेभ्यो मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् नि० । छयालीस गुण सहित दोष अष्टावश रहित बनूं अरहंत । गुरण अनंत सिद्धों के पाकर लूं अनर्घ पद हे भगवंत ॥ भूत० ॐ ह्रीं भूत, भविष्य, वर्त्त मान तीर्थङ्करेभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय अर्धम् नि० । भूत भविष्यत् वर्त्तमान की चौबीसी को नमन करू । क्रोध लोभ मद माया हरकर मोह क्षोभ को शमन करूं ॥
ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूतकाल चतुविशति जिनेन्द्राय अर्धम् नि० । श्री भूतकाल चौबीसी
1
संयम ।
जय निर्वाण, जयति सागर, जय महासाधु, जय विमल, प्रभो । जय शुद्धाभ, देव जय श्रीधर, श्री दत्त, सिद्धाभ, विभो ॥ जयति अमल प्रभ, जय उद्धार, देव जय अग्नि देव जय शिवगण, पुष्पांजलि, जय उत्साह, जयति परमेश्वर नम ॥ जय ज्ञानेश्वर, जय विमलेश्वर, जयति यशोधर, प्रभु जय जय । जयति कृष्णमति, जयति ज्ञानमति, जयति शुद्धपति जय जय जय ।। जय श्रीभद्र, अनंतवीयं जय भूतकाल चौबीसी जय । जंबूद्वीप सुभरत क्षेत्र के जिन तीर्थङ्कर की जय जय ॥
ॐ ह्रीं भरत क्ष ेत्र संबंधी भूतकाल चतुर्विंशति जिनेन्द्राय अर्धम् नि० श्री वर्तमान काल चौबीसी
ऋषभदेव, जय अजितनाथ, प्रभु संभव स्वामी, अभिनंदन । सुमतिनाथ, जय जयति पद्मप्रभ, जय सुपार्श्व, चंदा प्रभु जिन ।। पुष्पदंत, शीतल, जिन स्वामी जय श्रेयांस नाथ भगवान । वासुपूज्य, प्रभु विमल, अनंत, सु धर्मनाथ, जिन शांति महान ।।
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१९.]
जैन पूजांजलि
दृष्टि विकार याकि भेद को कभी नहीं करती स्वीकार।
किन्तु अभेद अखांड द्रव्य निज ध्रुव को ही करती स्वीकार । कुन्थनाथ, अरनाय, मल्लि, प्रभु मुनिसुव्रत, नमिनाथ, जिनेश । नेमिनाथ, प्रभु पार्श्वनाथ, प्रभु महावीर, प्रभु महा महेश । पूज्य पंच कल्याण विभूषित वर्तमान चौबीसी जय । जंबूद्वीप सुभरत क्षेत्र के तीर्थर प्रभु को जय जय ॥ ॐ ह्री भरत क्षेत्र संबंधी वर्तमान चतुविशति जिनेन्द्राय अर्घम् नि।
श्री भविष्यकाल चौबीसी जय प्रभु महापद्म सुरप्रभ, जय सुप्रभ, जयति स्वयंप्रभ, नाय । सर्वायुध, जयदेव, उदयप्रभ, प्रभादेव, जय उदंक नाथ ॥ प्रश्नकोत्ति, जयकत्ति जयति जय पूर्णबुद्धि, नि:कषाय, जिनेश । जयति विमल प्रम, जयति बहुल प्रम,निर्मल, चित्र गुप्ति, परमेश ।। जयति समाधि गुप्ति, जय स्वयंभू, जय कर्दप, देव जयनाथ । जयति विमल, जय दिव्यवाद, जय जयति अनंतवीर्य, जगनाथ । जयति भविष्यकाल की श्री जिन चौबीसी को जय जय जय । जंबूद्वीप सु भरत क्षेत्र के तीर्थङ्कर प्रभु की जय जय ॥ ॐ ह्री भरत क्षेत्र संबंधी भविष्यकाल चतुविशति जिनेन्द्राय अर्घम् नि.
जयमाला तीन काल त्रय चौबीसी के नमूं बहात्तर तीर्थङ्कर । विनय भक्ति से श्रद्धापूर्वक पाऊँ निज पद प्रभु सत्वर । मैंने काल प्रनादि गंवाया पर पदार्थ में रच पचकर । पर भावों में मग्न रहा मैं निज भावों से बच बचकर ॥ इसीलिए चारों गतियों के कष्ट अनंत सहे मैंने । धर्म मार्ग पर दृष्टि न डाली कर्म कपंथ गहे मैंने ॥ प्राच पुण्य संयोग मिला प्रभु शरण आपको मैं आया । भव भव के अघ नष्ट हो गए मानों चितामणि पाया।
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जन पूजांजलि
[१९१ जो वीत गई सो बीत गई जो शेष रही उसको संभाल ।
भव भोग देह से हो उदास पाले सम्यक्त्व पग्म विशाल ॥ हे प्रभु मुझको विमल ज्ञान दो सम्यक् पथ पर आ जाऊँ । रत्नत्रय की धर्मनाव चढ़ भव सागर से तर जाऊं ॥ सम्यक् दर्शन प्रष्ट अंगसह अष्ट भेद सह सम्यक् ज्ञान । तेरह विध चारित्र धारलं द्वादश तप भावना प्रधान । हे जिनवर आशीर्वाद दो निज स्वरूप में रमजाऊँ । निज स्वभाव अवलंबन द्वारा शाश्वत निज पद प्रगटाऊं ॥
ॐ ह्री भूत, भविष्य, वर्तमान जिन तीर्थङ्कुरेभ्यो पूर्णाय॑म् नि । तीन काल को त्रय चौबीसी की महिमा है अपरम्पार । मन वच तन जो ध्यान लगाते वे हो जाते भव से पार ।।
इत्याशीर्वादः जाप्य- ॐ ह्रीं श्री भूत भविष्य वर्तमान कालीन तीर्थङ्करेभ्यो नमः।
- x
श्री इन्द्र ध्वज पूजन मध्य लोक में चार शतक अट्ठावन जिन चैत्यालय हैं। तेरह द्वीपों में अकीर्तम पावन पूज्य जिनालय हैं। सर्व इन्द्र, इन्द्रध्वज पूजन करते बहु वैभव के साथ । हर मंदिर पर ध्वजा चढ़ाते झुका त्रियोग पूर्वक माथ ॥ मै भी अष्ट द्रव्य ले स्वामी भक्ति सहित करता पूजन । निज भावों को ध्वजा चढ़ाऊं, मिटे पंच प्रत्यावर्तन ॥
ॐ ह्रीं मध्य लोक तेरहद्वीप संबधी चार सौ अट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनविम्ब समह अत्र अवतर अवतर संवोपट ।
ॐ ह्रीं मध्यलोक तेरह द्वीप सबंधीं चार सो अट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्ब समूह अत्र तिष्ठ तिप्ठ ठः ठः स्थापनम् । ___ॐ ह्री मध्यलोक तेरह दीप संबंधी चार सौ अट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्ब समूह अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् ।
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१९२]
जैन पूजांजलि
पर परिणति का बहिष्कार कर निज परिणति का स्वागतकर।
ज्ञान मियाँ जगा हृदय में निश्चय पंच महाव्रत घर ॥ रत्न जड़ित कंचन झारी में क्षीरोदधि का जल लाऊँ। जन्म मरण भव रोग नशाऊं निज स्वभाव में रम जाऊं ॥ तेरह द्वीप चार सौ अगवन जिन चैत्यालय वंदू । इन्द्रध्वज पूजन करके प्रभु शुद्धातम को अभिनंदूं ॥ ___ॐ ह्रीं मध्यलोक तेरह द्वीप संबंधी चार सौ अट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्वेभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् नि. स्वाहा । मलयागिरि का बावन चंदन रजत कटोरी में लाऊं। भव बाधा प्राताप नाश हित निज स्वभाव में रमजाऊं ॥तेरह०
ॐ ह्रीं मध्यलोक तेरहद्वीप संवधी चार सौ अट ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिन बिम्बेभ्यो ससारताप विनाशनाय चन्दनम् नि० स्वाहा । उत्तम उज्वल धवल अखंडित तंदुल चरणों में लाऊ । अक्षय पद की प्राप्ति हेतु मैं निज स्वभाव में रमजाऊं ॥ तेरह०
ॐ ह्रीं मध्यलोक तेरहद्वीप संबंधी चारसी अटावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनविम्बेभ्यो अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि० स्वाहा। महा सुगंधित शोभनीय बहु पीत पुष्प लेकर आऊँ। काम भाव पर जय पाने को निज स्वभाव में रमजाऊ ॥ तेरह०
ॐ ह्रीं मध्यलोक तेरहद्वीप सबंधी चार सौ अट ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिन बिम्बेभ्यो कामवाण विध्वंसनाय पप्पम् नि० स्वाहा। विविध भांति के भाव पूर्ण नैवेद्य रम्य लेकर आऊ । क्षुधा रोग का दोष मिटाने निज स्वभाव में रम जाऊं ॥ तेरह० ___ॐ ह्रीं मध्यलोक तेरहद्वीप संबंधी चार सौ अट ठावन जिनालयस्थ
शाश्वत जिनबिम्वेभ्यो क्षधारोग विनाशनाय नवेद्यम नि० स्वाहा। मोह तिमिर प्रज्ञान नाश करने को ज्ञान द्वीप लाऊ । मैं मनादि मिथ्यात्व नष्ट कर निज स्वभाव में रम जाऊं ॥तेरह०
ॐ ह्री मध्य लोक तेरहद्वीप संबंधी चार सौ अट ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनविम्बेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि• स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि
[१९३
क्षण क्षण क्यों भाव मरण करता मिथ्यात्व मोह के चक्कर में। दिनरात भयंकर दुख पाता फिर भी रहता है पर घर में ।
प्रकृति एक सौ अड़तालीस कर्म की धूप बना लाऊँ । प्रष्ट कर्म अरि क्षय करने को निज स्वभाव में रम जाऊँ।तेरह. ___ॐ ह्रीं मध्यलोक तेरहद्वीप संबधी चार सौ अट ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिन बिम्बेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपम् नि० स्वाहा । राग द्वेष परिणति अभाव कर निज परिणति के फल पाऊं। भव्य मोक्ष कल्याणक पाने निज स्वभाव में रमजाऊँ ॥ तेरह.
ॐ ह्रीं मध्यलोक तेरहद्वीप संबंधी चार सौ अट ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिन बिम्बेभ्यो मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् नि० स्वाहा। द्रव्य कर्म नो कर्म भाव कर्मों को जीत अर्घ लाऊं। देह मुक्त निज पद अनर्घ हित निज स्वभाव में रम जाऊं ॥ तेरह टीप चार सौ अट्ठावन जिन चैत्यालय वंदूं। इन्द्रध्वज पूजन करके मैं शुद्धातम को अभिनंदूं ॥
ॐ ह्रीं मध्यलोक नेरहद्वीप संबंधी चार सौ अट ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनविम्बेभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घम् नि० स्वाहा ।
(जयमाला) तेरहद्वीप महान के श्री जिन बिम्ब महान ।
इन्द्रध्वज पूजन करूं पाऊँ सुख निर्वाण ॥ • मेरु सुदर्शन, विजय, अचल, मंदिर, विद्युन्माली अभिराम ।
भद्रशाल, सौमनस, पांडक, नंदनवन शोभित सुललाम ॥ ढाइद्वीप में पंचमेरु के वंदू अस्सी चैत्यालय । विजयारध के एक शतक सत्तर वंदू मैं जिन आलय ॥ जंबू वृक्ष पांच मैं वंदू शाल्मलि तरु के पांच महान । मानुषोत्तर चार बार इष्वाकारों के चार प्रधान ॥
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१६४]
जैन पूजांजलि
निज का अभिनन्दन करते ही मिथ्यात्व मूल से हिलता है । निज प्रभु का वंदन करते ही आनंद अतीन्द्रिय मिलता है ।
वक्षारों के अस्सी वंदं गजदंतों के वंदूं बोस । तीस कुलाचल के मैं वंदू श्रद्धा भाव सहित जगदोश ॥ मनुज लोक के चार शतक मैं दो कम चंत्यालय बंदू । ढाई द्वीप से आगे के द्वीपों में साठ भवन वदूं । इकशत वेशठ कोटिलाख चौरासी योजन नंदीश्वर । अष्टम द्वीप दिशा चारों में हैं कुल बावन जिन मंदिर ॥ चारों दिशि में अंजनगिरि, दधिमुख, रतिकर, पर्वत सुन्दर। देव सुरेन्द्र सदा पूजन वंदन करने आते सुखकर ॥ कुन्डल गिरि है द्वीप ग्यारवां चार चैत्यालय बन्दूं। द्वीप रुचकवर तेरहवें के चार जिनालय में वन्दू ॥ मध्यलोक तेरहद्वीपों में चार शतक अट्ठावन गृह । एक एक में एक शतक अरु आठ पाठ प्रतिमा विग्रह ॥ प्रष्ट प्रतिहार्यों से शोभित रत्नमयो जिन विम्ब प्रवर । प्रष्ट अष्ट मंगल द्रव्यों से हैं शोभायमान मनहर ॥ उनन्चास सहस्र चार सौ चौंसठ चिन प्रतिमा पावन । सभी अकीर्तम हैं अनादि हैं परम पूज्य अति मन भावन । एक शतक प्ररु अर्धशतक योजन लंबे चौड़े जिनधाम । पौन शतक योजन ऊंचे हैं भव्य गगनचुंबी सुललाम ।। उत्तम से प्राधे मध्यम इनसे प्राधे जघन्य विस्तार । इन्द्र चढ़ाते ध्वजा सुपूजन इन्द्रध्वज करते सुखकार ॥ उच्च शिखर पर दश चिन्हों के ध्वज फहराते हैं हषित । प्रष्ट द्रव्य देवोपम चरण चढ़ाते हैं कर मस्तक नत ॥ माला,सिंह,कमल,गज, कुश,गरुड़,मयूर,वृषभ के चित्र । चकवा चकवी, हंस चिन्ह शोभित बहुरंगी ध्वजा पवित्र॥
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जैन पूजाँजलि
निज निराकार से जुड़ जाओ साकार रूप का छोड़ ध्यान । आनंद अतीन्द्रिय सागर में बहते जाओ ले भेद ज्ञान ॥
[१९५
मेरु मंदिरों पर माला का चिन्ह ध्वजाओं में होता । विजयार की सर्वध्वजानों में तो वृषभ चिन्ह होता ॥ जंबूशाल्मलितरु के ध्वज पर अंकुश चिन्ह सरल होते । मानुषोत्तर इष्वाकारों के ध्वज गज शोभित होते ॥ वक्षारों के जिनमंदिर पर गरुड़ चिन्ह के ध्वज होते । गजदंतों के चैत्यालय पर सिंह विभूषित ध्वज होतें ॥ सर्व कुलाचल के जिनगृह पर कमल चिन्ह के ध्वज होते । नंदीश्वर में चकवा चकवी चिन्ह सुशोभित ध्वज होते ॥ कुन्डलवर गिरि में मयूर के चिन्ह विभूषित ध्वज होते । द्वीप रुचकवर गिरि मंदिर पर हंस चिन्ह के ध्वज होते ॥ महाध्वजा प्ररु क्षुद्र ध्वजाएं पंचवर्ण की होती हैं । जिन पूजन करने वालों के सर्व पाप मल धोती हैं ॥ सुर सुरांगना इन्द्र शची प्रभुगुण गाते हर्षाते हैं । नाच नाच कर परिहंतों के यश की गाथा गाते हैं । गीत नृत्य वाद्यों से झंकृत हो जाते हैं तीनों लोक । जय जयकार गूंजता नभ में पुलकित हो जाता सुरलोक ॥ इसीलिए इसको इन्द्रध्वज पूजन कहता है श्रागम । पुण्य उदय जिनका हो वे ही प्रभु पूजन करते अनुपम ॥ इन्द्र महा पूजा रचता है मध्यलोक में हितकारी । अब मिथ्यात्व तिमिर हरने की मेरी है प्रभु तैयारी ॥ प्रभु दर्शन से निज प्रातम का जब दर्शन इस पूजन का सम्यक् फल तब मुझको भी एक दिवस ऐसा आएगा शुद्ध भाव ही पाप पुण्य पर भाव का नाश कर सिद्ध लोक में होगा वास ॥
होगा पास ।
होगा स्वामी । होगा स्वामी ॥
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१९६]
जन पूजांजलि आत्म भूत लक्षण सम्यक् दर्शन का स्वपर भेद दिज्ञान । समकित होते ही होती है निर्विकल्प अनुभूति महान ॥ ॐ ह्रीं मध्यलोक तेरहद्वीप सवंधी चार सौ अट ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्यो पूर्णाध्यम् नि स्वाहा।।
भाव सहित जो इन्द्रध्वज की पूजन कर हर्षाते हैं। निमिष मात्र में उनके संकट सारे ही मिट जाते हैं ।
x इत्यार्शीवाद: ४ जाप्य- ॐह्रीं श्री अर्हज्जाताय नमः ।
श्री समस्त सिद्ध क्षेत्र पूजन मध्य लोक में ढाइ द्वीप के सिद्ध क्षेत्रों को वंदन । जंबूद्वीप सु भरत क्षेत्र के तीर्थ क्षेत्रों को वंदन ॥ श्री कैलाश आदि निर्वाण भूमियों को मैं कई नमन । श्रद्धा भक्ति विनय पूर्वक हर्षित हो करता हूं पूजन ॥ शुद्ध भावना यही हृदय में मैं भी सिद्ध बनूं भगवन । रत्नत्रय पथ पर चलकर मैं नाचूं चहुँ गति का क्रन्दन ।
ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्र अत्र मम् सन्निहितो भवभव वषट् । ज्ञान स्वभावी निर्मल जल का सागर उर में लहराता। फिर भी भव सागर भंवरों में जन्म मरण के दुख पाता । श्री सिद्ध क्षेत्रों का दर्शन पूजन गंदन सुखकारी । जो स्वभाव का आश्रय लेता उसको है भव दुखहारी॥ ___ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रोभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि
[१९७
शाश्वत भगवान विराजित है आनंद कंद तेरे भीतर । पुद्गल तन में आनत्व मान देखा न कभी निज रूप प्रखर ॥
जान स्वमावी शीतलता मय चंदन निज में भरा अपार । फिर भी भव दावा नल में जल जल दुख पाया बारंबार ॥ श्री. ___ ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रेभ्यो संसारताप विनाशनाय चन्दनम् नि।। जान स्वभावी उज्वल प्रक्षत पुंज हृदय में भरे अटूट । फिर भी अविनाशी अखांड होकर भी पा न सका निज कूट ॥श्री. __ॐ ह्रीं श्री समस्त मिद्ध क्षेत्रेभ्यो अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतम् नि । ज्ञान स्वभावी दिव्य सुगंधित पुष्पों का निज में उपवन । फिर भी भव माया में पड़ निष्काम न बन पाया भगवन ॥श्री. __ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रेभ्यो कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि० । ज्ञान स्वभावी सरस मनोरम तृप्ति पूर्ण नैवेद्य स्वयम् । फिर भी सुधा रोग से व्याकुल तृष्णा हुई न तिल भर कम ॥श्री० __ ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रेभ्यो क्षुधा रोग विनाशनायनैवेद्यम् नि । ज्ञान स्वभावी स्वपर प्रकाशी केवल रवि निज में अनुपम । फिर भी अघ मय अंधियारे में भटका मिटा न मिथ्यातम ॥श्री.
ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि । ज्ञान स्वभावी सहजा नंदी विमल धूप से हूं परिपूर्ण । फिर भी प्रभो नहीं कर पाया अब तक अष्ट कर्म अरि चूर्ण ॥श्री०
ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रेभ्यो अष्ट वर्म दहनाय धूपम् नि० । ज्ञान स्वभावी शिवफल धारी अविकारी हूँ सिद्ध स्वरूप। ' फिर भी भव अटवी में अटका होकर मैं प्रभु त्रिभुगन का भूपा॥श्री. ___ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्र ध्या मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् नि० । : ज्ञान स्वभावी चिदानंद चैतन्य अनंत गुणों से पूर। . फिर भी पद अनर्घ ना पाया रहकर निज परिणति से दूर ॥ श्री सिद्ध क्षेत्रों का दर्शन पूजन चंदन सुखकारी। जो स्वभाव का प्राश्रय लेता उसको है भव दुखहारी ॥
ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रेभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्यम नि० ।
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१९८]
जैन पूजांजलि
विपरीत मान्यताओ में रह मैने अपार भव दुख पाया । मोहो के बंधन में बंदी रहकर न कभी कुछ सुख पाया ।
8 जयपाला तीर्थङ्कर ऋषि आदिमुनि गए जहां निर्वाण ।
उन क्षेत्रों को वंद्यकर करूं प्रात्म कल्याण ॥ जंबू द्वीप घात को खंड अरु पुरकरार्ध में क्षेत्र विदेह । पंच भरत अरु पंच ऐरावत तीर्थ क्षेत्र वंदू धरनेह ॥ तीनलोक के सकल तीर्थ निर्वाण क्षेत्र सविनय बंदू । सिद्ध अनंतानंत विराजित सिद्ध शिला नित प्रतिवंदू ॥ प्रष्टापद कैलाश शिखर पर ऋषभदेव के पद वंदू । बालि महा बालि मुनि नाग कुमार आदि मुनिवर वंदू॥ श्री सम्मेद शिखर पर्वत पर बीस तीर्थङ्कर वंदूं। प्रजितनाथ संभव, अनिनंदन, सुमति, पद्म प्रभु को वंदू॥ जो सुपार्श्व, चंदा प्रभु स्वामी, पुष्पदंत, शोतलवंदू। भु श्रेयांस, विमल, अनंत जिन, धम,शांति, कुन्थु वंदूं। रह, महिल, मुनिसुव्रत, नमिजिन, पश्र्वनाथ प्रभाको वंदू। नि अनंत निर्वाण गए जो, उनके चरणाम्बुज गई। पापुर में वासु पूज्य तीर्थङ्कर को सादर गई। ॥ मंदार गिरी से मुक्त हुए मुनियों के पद चंदू ॥ तो गिरनार नेमि प्रभु शंबु प्रदुम्न अनिरुद्ध आदिवंदू । कोटि बहात्तर सात शतक मुनि मुक्त हुए उनको बंदूं। वापुर में महावीर अंतिम तीर्थङ्कर को गं। त्र गुणावा गौतम स्वामी के पद कमलों को गंद॥ गोगिरि श्री रामचन्द्र,हनुमान गवय, गवाम गंदूं । हानील, सुग्रीव, नील मुनि निन्यानवे कोटि नंदू ॥
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जैन पूांजलि
[१९६
सिंह विचरता है जिस पथ में उस पर हिरण नहीं जाते ।
सिंह वृत्ति से शरवोर मुनि मोक्ष मार्ग को अपन ते ।। शत्रुन्जय पर पाठ कोटि मुनियों के चरणाम्बुज नंदू । भोम युधिष्ठर अर्जुन पांडव और द्रविड़ राजा नंद ॥ श्री गजपंथ शैल पर मैं बलभद्र सप्त के पद जदू। पाठ कोटि मुनि मुक्तिगए हैं भाव सहित उनको नंद। सोनागिरि पर नंग अनंग कुमार आदि मुनि को नं। साढ़े पांच कोटि ऋषियों को यह निर्वाण भूमि नंदू॥ रेवातट पर गवण के सुत आदि मुनिश्वर को नंदू । साढ़े पाँच कोटि मुनियों को सादर सविनय अभिनंदू ॥ पावागढ़ पर साढ़े पांच कोटि मुनियों के पद नंदू। रामचन्द्रसुत लव, मदनांकुश, लाड़देव के नृप नंदू ॥ तारंगा गिरि साढ़े तीन कोटि मुनियों को मैं नंद। श्री वरदत्तराय मनिसागर दत्त आदि पद अभिनंदू॥ श्री सिद्धवर कूट सनत, मघवा चको दोनों बंदू । कामदेव दस प्रादि ऋषीश्वर साढ़े तीन कोटि नंदू ॥ मुक्तागिरि से साढ़े तीन कोटि मुनि मोक्ष गए नंद। पावागिरि पर सुवर्ण भद्र आदिक चारों मुनि को नंद ॥ कोटि शिला से एक कोटि मुनि सिद्ध हुये उनको वंदं । देश कलिंग यशोधर नृप के पाँच शतक सुत मुनि वंदू ॥ श्री चूलगिरि इन्द्रजीत अरु कुम्भकरण ऋषिबर वन्दं । कुन्थलगिरि पर श्री देश भूषण कुलभूषण मुनि वन्दूँ ॥ रेशंदोगिरि वरदत्तादि पंच ऋषियों को मैं वन्दूं । द्रोणागिरि पर गुरुदत्तादिक मुनियों को सविनय वन्दूँ ॥ पंच पहाड़ी राजगृही से मुक्त हुए मुनिवर वन्दूँ। चरम केवली जम्बू स्वामी मथुरा मुक्ति भूमि वन्दूँ ॥
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२००]
जैन पूजांजलि धर्मात्मा को जग में अपना केवल शुद्धातम प्रिय है।
निज स्वभाव हो उपादेय है और सभी कुछ अप्रिय है । पटना से श्री सेठ सुदर्शन मुक्त हुए उनको वन्दू। कुन्डलपुर से मोक्ष गए श्रीधर स्वामी के पद वन्यूँ ॥ पोदनपुर से सिद्ध हुए श्री बाहुबली स्वामी बन्द। भरत आदि चक्रेश्वर मुनियों को निर्वाण धरा वन्दू ॥ श्रवण, द्रोण, वैभार, बलाहक, विध्य, सह, पर्वत बन्दू। प्रवर कुन्डली, विपुलाचल, हिमवान क्षेत्रों को बन्दू॥ तोर्पङ्कर के समो गणधरों को निर्वाण भूमि वन्दू। वृषमतेन मादिक गौतम, चौदह सौ उन्सठ ऋषि वन्डू। कामदेव बलभद्र चक्रि जो मुक्त हुए उनको धन्। जल थल नम पे सिद्ध हुए उपसर्ग केवली सब बन् ज्ञात और अज्ञात सभी निर्वाण भूमियों को वन्द । भूत भविष्यत् वर्तमान को सिद्ध भूमियों को वन्दू॥ मन वच काय त्रियोग पूर्वक सर्व सिद्ध भगवन बन्द। सिद्ध स्वपद की प्राप्ति हेतु मैं पांचों परमेष्ठी बन्द ॥ सिद्ध क्षेत्रों के दर्शन कर निज स्वरूप दर्शन करलू। शुद्ध चेतना सिंधु नीर पी मोक्ष लक्ष्मी को वरलू॥ सब तीर्थों की यात्रा करके प्रात्म तीर्य को ओर चलू। अजर अमर अविकल अविनाशी सिद्ध स्वपद की प्रोर ढलू॥ भाव शुभाशुभ का प्रभाव कर शुद्ध प्रात्म का ध्यान करू। रागद्वेष का सर्वनाश कर मङ्गलमय निर्वाण वरू॥ ॐ ह्रीं | ममस्त सिद्ध क्षेत्र भ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय पूर्णार्धम् नि० । श्री निर्वाण क्षेत्र का पूजन वंदन जो जन करते हैं। समकित का पावन वैभव पा मुक्ति वधू को वरते हैं।
इत्यार्शीर्वादः जाप्य- ॐ ह्रीं श्री सर्व सिद्ध क्षेत्रेभ्यो नमः ।
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जैन पूजांजलि
[२०१
इन्दिर गुस्त दुःलागी जानकर चलो अतीन्द्रिय सुख के देश । पूर्ण अनोच्य जुद्ध आत्मा के भीतर अब करो प्रदेश ।।
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महाअर्घ श्री अरहंत देव का पूजें श्री सिद्ध प्रभु को पूजू । प्राचारों के चरणाम्बुज, श्री उपाध्याय के पर पूज ॥ सर्व सायद पू, श्री जिन द्वादशांग दाली पूज। जोस की ब्रोम विदेही, जिनवर सोनार पजू ॥ कृत्रिम अकृत्रिः तीन तक के जिन गृह जिन प्रतिमा पूजें। पंचमेरु मनोश्वर पर तेरह दीप चत्य पूजू ॥ सोलह कारण शिक्षण रत्नत्रय धर्म सदा पज । भूत भविष्य : वर्तमान की त्रय जिन चौबीसी पज ॥ श्री वृष माटिक वीर जिनेश्वर षिगणधर स्वामी पूज। श्री जितराज सहल नाम श्री मोक्ष शास्त्र प्रादि पूजू॥ श्री पर कल्याणक पज विवि: विधान महा पूजू । ग.तम स्वामी कुन्द कुन्द प्राचार्य सु समयसार पू॥ चम्पार पसार गिरतारी कैलाश शिखर पूजू । श्री मम्मेद शिखर पर्वत जिन पर निर्वाण क्षेत्र पूज। तीर्थ को जन्म भूमि अतिशय अन मिद्ध क्षेत्र पूज। श्री जन धर्म श्रेष्ठ मङ्गलमय महा अर्घ दे मैं पूज।
ॐही या जगहत, मिड, आचार्य, आध्याय, सर्वसाधु पच परमेटो, द्वादशग जिनवानी, नीम चौवीनी, विद्यमान वान नीकर मीमन्धर
वाम अकृविग जिन मन्दिर, जिन प्रतिमा पंचमेक, नन्दीबर नेहवी निनालय, गोलह कारण भावना, दशलक्षण धर्म रत्नत्रय धर्म, नन् भदिप्यत वर्तमान चौबीमी, श्री कृपभादिक वीर जिनम्वर. परम ऋषि, मगधर देव, श्री मिन महस्र नाम, मोक्ष शास्त्र, थी जिन पंच कल्याणक गौतम स्वामी, कुन्द कृन्दाचार्य, ममयम २, कैलाश,
C
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२०२]
जैन पूजांजलि घर में तेरे आग लगी है शीघ्र बुझा अव तो मतिमंद ।
विषय कपायों की ज्वाला में अब तो जलना करदे बंद ।। चम्पापुर, गिरनार, पावापुर, सम्मेद शिखर, निर्वाण क्षेत्र, तीर्थङ्कर जन्म क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र, सिद्ध क्षेत्र आदिक श्री जिन धर्माय महा अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
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शान्ति पाठ इन्द्र नरेन्द्र सुरों से पूजित वृषभादिक श्री वीर महान । साधु मुनीश्वर ऋषियो द्वारा वन्दित तीर्थङ्कर विभुवान ॥ गणधर भी स्तुति कर हारे जिनवर महिमा महा महान । प्रष्ट प्रातिहार्यों से शोमित समवशरण में विराजमान॥ चौतीसों अतिशय से शोभित छयालीस गुण के धारी। दोष अठारह रहित निनेश्वर श्री प्ररहंत देव भारी ॥ तर अशोक सिंहासन भामण्डल सुर पुष्पवृष्टि प्रयक्षत्र । चौंसठ चमर दिव्य ध्वनि पावन दुन्दभि देवोपम सर्वत्र ॥ मति श्रुति अवधि ज्ञान के धारी जन्म समय से हे तीर्थेश । निज स्वभाव साधन के द्वारा प्राप हुए सर्वज्ञ जिनेश । केवल ज्ञान लब्धि के धारी परम पूज्य सुख के सागर । महा पंच कल्याण विभूषित गुरग अनन्त के हो आगर ।। सकल जगत में पूर्ण शांति हो, शासन हो धार्मिक बलवान् । देश राष्ट्र पुर ग्राम लोक में सतत् शान्ति हो हे भगवान् । उचित समय पर वर्षा हो दुभिक्ष न चोरी जारी हों। सर्व जगत के जीव सुखी हों सभी धर्म के धारी हों। रोग शोक भय व्याधि न होवे ईति भौति का नाम नहीं। परम अहिंसा सत्य धर्म हो लेश पाप का काम नहीं ।
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जैन पूजांजलि
[२०३ टाल अरे तू पंचाश्रव को पाल अरे तू पंचाचार । परम अहिंसा तप संयम धारी बन कर तज विषय विकार ॥
प्रात्म ज्ञान को महा शक्ति से परम शान्ति सुखकारी हो। ज्ञानी ध्यानी महा तपस्वी स्वामी मङ्गलकारी हो॥ धर्म ध्यान में लीन रहूँ मैं प्रभु के पावन चरण गहूं। जब तक सिद्ध स्वपद ना पाऊं सदा आपकी शरण लहूं ॥ श्री जिनेन्द्र के धर्म चक्र से प्राणि मात्र का हो कल्याण । परम शांति हो परम शांति हो परम शांति हो हे भगवान् ॥
शांति धारा नौ बार णमोकार मन्त्र का जाप्य
विसर्जन पाठ जो भी भूल हुई प्रभु मुझसे उसकी क्षमा याचना है। द्रव्य भाव को भूल न हो अब ऐसी सदा कामना है। तुम प्रसाद से परम सौख्य हो ऐसी विनय भावना है । जिन गुण सम्पत्ति का स्वामी हो जाऊँ यही साधना है ।। शुद्धातम का प्राश्रय लेकर तुम समान प्रभु बन जाऊं। सिद्ध स्वपद पाकर हे स्वामी फिर न लौट भव में पाऊँ॥ ज्ञान होन हूँ क्रिया होन हूं द्रव्य हीन हूं हे जिन देव । भाव सुमन अर्पित हैं हे प्रभु पाऊँ परम शान्ति स्वयमेव ॥ पूजन शान्ति विसर्जन करके निज आतम का ध्यान धरू। जिन पूजन का फल यह पाऊँ मैं शाश्वत कल्याण करू ॥ मङ्गलमय भगवान् वीर प्रभु मङ्गलमय गौतम गणधर । मङ्गलमय श्री कुन्द कुन्द मुनि मङ्गल जिनवाणी सुखकर ॥ सर्व मङ्गलों में उत्तम है णमोकार का मन्त्र महान । श्री जिन धर्म भेष्ठ मङ्गलमय अनुपम वीतराग विज्ञान ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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२०४]
जनपूजांगलि नरक और पशु गति के दुग्न की गही बेदना सदः अपार । म्वर्गो के. नववर मुम्ब कर भूला निज शिब मुग्व आगार ।।
करलो जिनवर की पूजन करलो जिनवर की पूजन, आई पावन घड़ी। प्राई पावन घड़ी - मन भावन पड़ी। दुर्लभ यह मानव तन पाकर, करलो जिन गुण गान । गुण अनंत सिद्धों का सुमिरण, करके बनो महान ॥ करलो० ज्ञानावरण, दर्शनावरणी, मोहनीय संतराय । आयु नाम अरु गोत्र वेदनीय, आठों कर्मनशाय ॥ करलो० धन्य धन्य सिद्धों की महिमा, नाश किया संपार। निज स्वभाव से शिव पद पाया, अनुपम अगम अपार । करलो. जड़ से भिन्न सदा तुम चेतन करो भेद विज्ञान । सम्यक् दर्शन अंगीकृत कर निज का लो पहचान ॥ करलो० रत्नत्रय की तरणी चढ़कर चलो मोक्ष के द्वार । शुद्धातम का ध्यान लगाओ हो जाओ भव पार ॥ करलो०
सिद्धों के दरबार में हमको भी बुलवालो, स्वामी, सिद्धों के दरबार में । जीवादिक सातों तत्त्वों की, सच्ची श्रद्धा हो जाए। भेद ज्ञान से हमको भी प्रभ, सम्यकदर्शन हो जाए। मिथ्यातम के कारण स्वामी, हम डूबे संसार में ।
हमको भी बुलवालो स्वामी... आत्म द्रव्य का ज्ञान करें हम, निज स्वभाव में प्राजाएँ। रत्नत्रय को नाव बैठकर, मोक्ष भवन को पा जाएँ। पर्यायों की चकाचौंध से, बहते हैं मझधार में ॥ .
हमको भी बुलवालो स्वामी...
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जैन पूजांजलि
शाश्वत भगवान विराजित है जानद कद तेरे भीतर | पदगल तन में अनत्व मान देखा न कभी निज रूप प्रखर ॥
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गगन मण्डल में उड़ जाऊं
। मदन...
तीन लोक के तीर्थ क्षेत्र तव वंदन कर प्रथम श्री सम्मेद शिखर पर्वत पर मै जाऊँ । बीस टोंक पर बीस जिनेघर चरण पूज ध्याॐ ॥ ... अजित आदि श्री पार्श्वनाथ प्रभु की महिमा गा
शाश्वत तीर्थराज के दर्शन करके हर्ष ॐ ॥...... फिर मंदारगिरि पावापुर वासुपूज्य ध्याऊँ ।
हुए पंचकल्याणक प्रभु के पूजन कर आऊँ || गगन... उर्जयंत गिरनार शिखर पर्वत पर फिर जाऊँ । नेमिनाथ निर्माण क्षेत्र को सुख पाऊँ ॥ गगन... फिर नवापुर महावीर निर्वाण परी जाऊँ ।
जल मंदिर में चरण पूजकर ना ह ॥ गगन... फिर कैलाश शिखर अप्टापद श्रादिनाथ प्याऊँ । ऋषभदेव निर्वाण धरा पद युद्ध भाव लाज ॥ गगन... पंच महानीर्थो की यात्रा करके हउ ।
सिंह क्षेत्र प्रतिराय क्षेत्रों पर भी मैं हो याऊ ॥ गगन... तीन लोक की तीर्थ वंदना कर निज घर आऊ । शुद्धातम से कर प्रतीति मैं समकित उपजाऊँ ।। एवन... फिर रत्नत्रय शरण करके जिन मुनि बन जाउं । निज स्वभाव साधन से स्वामी शिव पटाऊँ ॥ गगन...
मुनी जब मे जिनवाणी
मुनी०
भ्रम तम पटल चीर, दरसायो चेतच रवि ज्ञानी ॥ काम क्रोध गज शिथिल भए, पीवत समरम पानी । प्रगट्यो भेद विज्ञान निजंतर, निज प्रीतम जानी ॥ ध्रुवस्वभाव की रुचि अब जागो, छोड़ो मन मानी 1 निज परिणित की अनुपम छवि, अब मैंने पहचानी ॥ ०
सुनो
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२०६]
जन पूजांजलि आत्म भूत लक्षण सम्यक दर्शन का स्वपर भेद विज्ञान । ममकित होते ही होती है निर्विकल्प अनुभूति महान ॥
चलो रे भाई मोक्षपुरी गाड़ी खड़ी रे खड़ी रे तैयार चलो रे भाई मोक्षपुरी ॥ सम्यकदर्शन टिकट कटाओ, सम्यकज्ञान संवारो। सम्यक्चारित की महिमा से आठों कर्म निवारो॥ चलो रे... अगर बीच में अटके तो सर्वार्थसिद्धि जाओगे। तैतीस सागर एक कोटि पूरव वियोग पानोगे । चलो रे... फिर नर भव से ही यह गाड़ी तमको ले जाएगी। मुक्ति वधू से मिलन तुम्हारा निश्चित करवाएगी ॥ चलो रे... भव सागर का सेतु लांघकर यह गाड़ी जाती हैं। जिसने अपना ध्यान लगाया उसको पहुंचाती है । चलो रे... यदि चूके तो फिर अनंत भव धर धर पछताओगे। मोक्षपुरी के दर्शन से तुम वन्चित रह जानोगे । चलो रे...
चलो रे भाई सिद्धपुरी देखो खड़ा है विमान महान, चलो रे माई सिद्धपुरी ॥ वायुयान आया है सीट सुरक्षित अभी करालो। सम्यकदर्शन ज्ञान चरित के तीनों पास मंगालो ॥ देखो.... नरभव से ही यह विमान सीधा शिवपुर जाता है। जो चूका वह फिर अनन्त कालों तक पछताता है। देखो... रत्नत्रय की बर्थ संभालो शुद्धभाव में जीलो । निज स्वभाव का भोजन लेकर ज्ञानामृत जल पीलो॥ देखो... निज स्वरूप में जागरूक जो उनको पहुंचाएगा। सिद्ध शिला सिंहासन तक जा तुमको बिठलाएगा ॥ देखो... मुक्ति भवन में मोक्ष वधू वरमाला पहनाएगी । सादि अनंत समाधि मिलेगी जगती गुण गाएगी ॥ देखो...
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जैन पूजांजलि
[२०७
जैन पूजांजलि का मूल्य कम करने हेतु
सहयोगी दान दाताओं की सूची
नाम
राशि ३०१) ३०१)
२०१)
२०१) २०१)
१५१) १०१)
१०१)
१०१)
१०१)
१०१)
१०१)
१०१)
१०१)
१०१)
१०१) १०१) १०९) १०१)
श्रीमती तुलसाबाई ध. प. मिश्रीलाल जी खुशालचंद जी श्री मूलचन्द जी फूलचन्द जी श्रीमती रुक्मणी बाई ध. प नन्नूमल जी [अध्यक्ष] श्री मदनलाल जी [मदनमेडिको] श्री महेन्द्रकुमार जी नरेन्द्रकुमार जी [एन ब्रदर्म ] मारवाडी रोड श्रीमती सुहागबाई ध. प. बदामीलाल जी श्री पंडित राजमल जी वी. काम. श्रीमती स्व० सुन्दरबाई मातेश्वरी कमलकुमार जी एडवोकेट श्री एस. रतनलाल जी राजमल जी श्री जयकुमार जी बज, [जे० के० एन्टरप्राईजेज श्री श्रीचन्द जी [सुभाष कटपीस मेन्टर] श्री सौभाग्यमल जी वीरेन्द्रकुमार जी इतवारा श्री देवेन्द्रकुमार जी [अरविंद कटपीस सेन्टर] श्री राजमल जी मगनलाल जी थी कन्छेदीलाल जी मुन्नालाल जी श्री दीपचन्द जी निहालचन्द जी श्री हुकमचन्द जी सुमतकुमार जी श्रीमती प्रेमवाई [हाथरस वाली] श्री गुटूलाल जी नरेन्द्रकुमार जी श्रीमती कमलश्री बाई ध प. म्व० श्री डालचन्द जी श्रीमती रतनबाई ध. प. नन्नमल जी भारी श्रीमती मक्खनवाई ध. प. श्री पन्नालाल जी श्रीमती गजूबाई मातेश्वरी माणकचन्द जी गृड़वाले श्रीमती पार्वतीवाई मानेश्वरी दयाचन्द जी | गजहम लाज] श्री वागमल जी नीलकमल जी पवैया श्री शातिलाल जी [मूर्यप्रकाश फ्लोर मिल] श्रीमती कमलथा बाई ध. प. मोहनलाल जी [म. प्र. ट्रामपोर्ट] श्रीमती चम्पाबाई ध. प. रामलालजी मर्राफ [खिमलासा] श्री कस्तूरचन्द जी [सिलवानी] श्रीमती मुशी नावाई ध. प. विनयचन्द चौधरी [विनोद ब्रदर्म न्यू मार्केट]
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जैन पूजाँजलि
श्री निशीतलप्रसाद जी [ बेगमगंज ] जी चन्दनमन जी सर्राफ
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श्री श्रीकमल जी एडीकेट
श्रीमती सावित्रीबाई ध. प. स्व० श्री बागमन जी नंत
श्री गुरुपचन्द्र जी चौधरी [ पिपरई गाव ]
श्रीनना पुनरीबाई ध.प. स्व० श्री बाबूलाल जी नम्बरदार श्री बिहारीलाल जी [ वेरसिया ]
श्री
फोटो सेंट जहागीराबाद द्वारा नरेन्द्र कुमार गास्त्री जयपुर श्रीजी ! नंद व टपीस |
श्रीमती माई मार्तश्वरी उमेशचन्द जी
या गावचन्द जी
श्री
श्रीमती राजमनी बाई
श्रीकुमार जी
श्री बाला जी पीपला वाले
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श्री काल जी | एम०पी०कटपीस ]
श्री
श्री गोनाराम जी कुमार जी
जी महेन्द्रकुमार जी [ विदिशा ]
श्री राजरूप जी मुरीधर जी
श्री मिनन्दत् की बुधवारा
श्री
जी जमल जी नरपतिया
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गुदान
श्रीमलजीत
श्री लीधर जी राजमल जी
श्री अंन्द्र कुमार नगेन्द्र कुमार पर्वया (५१ मे मनी)
फूटकर
चन्द जी, मगलवारा
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प्रभु तुम हरो मेरो पौर
राग द्वेष विनाश कर दा. देहु समरस नीर ॥ प्रभु० ॥ लीन विषय कषाय होकर, सही जग को पीर । कर्म फल भोगत अकेलो कोऊ नाहीं सीर ॥ प्रभु० ॥ तत्त्व चिन्तन बिना पाई चार गति को भीर । शुद्ध बुद्ध स्वरूप विसरयो भूल आतम होर ॥ प्रभु ॥
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