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जैन पूजांजलि
समति रूपी जल प्रवाह जब वहता है अभ्यंतर में । कर्मधूल आवरण नहीं रहता है लेश मात्र उर
में ॥
जय जय पंच परम परमेष्ठी जिनवारणी. जिन धर्म महान । जिन मंदिर जिन प्रतिमा नवदेवों को नित वन्दू घर ध्यान ॥ श्री अरहंत देव मङ्गलमय मोक्ष मार्ग के नेता हैं । सकल ज्ञ ेय के ज्ञातादृष्टा कर्म शिखर के भेत्ता हैं ॥ हैं लोकाग्र शिखर पर सुस्थित सिद्ध शिला पर सिद्ध अनंत । अष्ट कर्म रज से विहीन प्रभु सकल सिद्धि दाता भगवंत ॥ हैं छत्तीस गुरणों से शोभित श्री आचार्य देव भगवान । चार संघ के नायक ऋषिवर करते सबको शाँति प्रदान ॥ ग्यारह अङ्ग पूर्व चौदह के ज्ञाता उपाध्याय गुणवंत । जिन ग्रागम का पठन और पाठन करते हैं महिमा वंत ॥ अट्ठाईस मूल गुण पालक ऋषि मुनि साधु परम गुणवान । मोक्ष मार्ग के पथिक श्रमण करते जीवों को करुणादान ॥ स्यादवादमय द्वादशांग जिनवाणी है जग कल्याणी । जो भी शरण प्राप्त करना है हो जाता केवल ज्ञानी ॥ जिन मंदिर जिन समवशरणसम इसकी महिमा अपरम्पार । गंध कुटी में नाथ विराजे हैं अरहंत देव साकार ॥ जिन प्रतिमा अरहंतों की नासाग्र दृष्टि निज ध्यानमयी । जिन दर्शन से निज दर्शन हो जाता तत्क्षण ज्ञानमयी ॥ श्री जिन धर्म महा मङ्गलमय जीव मात्र को सुखदाता | इसकी छाया में जो श्राता हो जाता दृष्टा ज्ञाता ॥ ये नवदेव परम उपकारी वीतरागता के सागर । सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित से भर देते सबकी गागर ॥ मुकको भी रत्नत्रय निधि दो मैं कर्मों का भार क्षीण मोह जितराग जितेन्द्रिय हो भव सागर पार करूं ॥
हरु ।