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जैन पूजांजलि
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वस्तु त्रिकाली निवारण निर्दोष सिद्ध सम शद्ध है।
द्रव्य दृष्टि बनने वाला ही होता परम बिशुद्ध है ।। मनोगुप्ति है सब विभाव भावों का हो मन से परिहार । वचन गुप्ति है आत्म चितवन ध्यान अध्ययन मौन संवार ।। काय गुप्ति है काय चेष्टा रहित भाव मय कायोत्सर्ग। तीन गुप्ति धर साधु मुनीश्वर पाते हैं शिवमय अपवर्ग ॥ षट आवश्यक द्वादश तप पंचेन्द्रिय का निरोध अनुपम । पंचाचार विनय पाराधन द्वादश व्रत प्रादिक सुखतम ॥ अट्ठाईस मूल गुण धारण सप्त भयों से रहना दूर । निज स्वभाव प्राश्रय से करना पर विभाव को चकनाचूर ॥ निरतिचार तेरह प्रकार का है चारित्र महान् प्रधान । इसके पालन से होता है सिद्ध स्वपद पावन निर्वाण ॥ श्रेष्ठ धर्म है श्रेष्ठ मार्ग है श्रीष्ठ साधु पद शिव सुखकार। सम्बक चारित बिना न कोई हो सकता भव सागर पार ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदश विधि सम्यक् चारित्राय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि० ।
जयमाला प्रष्ट अङ्गयुत निर्मल सम्यक् दर्शन मैं धारण करलूँ । आठ अङ्गयुत निर्मल सम्यक् ज्ञान आत्मा में वरलूं ॥ तेरह विधि सम्यक् चारित के मुक्ति भवन में पग धरलूँ। श्री अरहंत सिद्ध पद पाऊँ सादि अनन्त सौख्य भरलं ॥ निज स्वभाव का साधन लेकर मोक्ष मार्ग पर प्रा जाऊं। शुद्ध भाव धर भाव शुभाशुभ परिणामों पर जय पाऊं ॥ एक शुद्ध निज चेतन शाश्वत दर्शन ज्ञान स्वरूपी जान । ध्रुब टंकोत्कीर्ण चिन्मय चित्चमत्कार चिद्रूपी मान ॥ इसका ही प्राश्रय लेकर मैं सदा इसी के गुण गाऊँ। द्रव्य दृष्टि बन निज स्वरूप को महिमा से शिव सुख पाऊँ।