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जैन पूजांजलि
समकित का सावन आया समरस की लगी झडी रे ।
अंतरस की रोती सरिता भर आई उमड़ पड़ी रे॥ समकित जल को धारा से तो मिथ्या भ्रम धुल जाता है। तत्त्वों का श्रद्धान स्वयं को शाश्वत मङ्गल दाता है । नेमिनाथ स्वामी तुम पद पंकज को करता हूँ पूजन । वीतराग तीर्थङ्कर तुमको कोटि कोटि मेरा वन्दन ।। ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय मिथ्यात्व विनाशनाय जलम्
निर्वपामोति स्वाहा। सम्यक् श्रद्धा का पावन चन्दन भव ताप मिटाता है । क्रोध कषाय नष्ट होती है निज की अरुचि हटाता है। नेमि०
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय क्रोध कपाय विनाशनाय चन्दम् नि । माव शुभाशुभ का अभिमानी मान कषाय बढ़ाता है। वस्तु स्वभाव जान जाता तो मान कषाय मिटाता है ।। नेमि०
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय मान कषाय विनाशनाय अक्षतम् नि । चेतन छल से पर भावों का माया जाल बिछाता है। भव भव की माया कषाय को समकित पुष्प मिटाता है। नेमि०
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय माया कपाय विनाशनाय पुष्पम् नि । तृष्णा को ज्वाला से लोभी कभी नहीं सुख पाता है । सम्यक् चरु से लोभ नाश कर यह शुचिमय हो जाता है। नेमि०
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय लोभ कषाय विनाशनाय नैवेद्यम् नि । अन्धकार प्रज्ञान जगत में भव भव भ्रमण कराता है। समकित दीप प्रकाशित हो तो ज्ञान नेत्र खुल जाता है ।।, नेमि०
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकार विनाशनाय दीपम् नि० । पर विभाव परिणति में फंसकर निज का धुवाँ उड़ाता है । निज स्वरूप की गन्ध मिले तो पर को गन्ध जलाता है। नेमि०
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय विभाव परणित विनाशनायधूपम् नि ।