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________________ जैन पूजांजलि पुण्याश्रव के द्वारा स्वर्गों के मला जब मुरझाई तो कितने भोगे । सुख दुख भोगे ॥ समयसार वैभव का निर्मल भाव श्रर्घ उर में लाऊ । १० " अहमिक्को खलु सुद्धो" चिन्तन कर अनर्घ पद को पाऊँ ॥ कुन्दकुन्द श्राचार्य देव के चरण पूज निज को ध्याऊँ । सब सिद्धों को वन्दन कर ध्रुव प्रचल सु अनुपम गति गाऊं ॥ ॐ ह्रीं श्री कुन्दकुन्द आचार्य देवाय अनघं पद प्राप्ताय अर्घ्यम् नि० । (जयमाला) [१३१ मङ्गलमय भगवान् वीर प्रभु मङ्गलमय गौतम गणधर । मङ्गलमय श्री कुन्द कुन्द मुनि, मङ्गल जैन धर्म सुखकर ॥ कन्नड़ प्रान्त बड़ा दक्षिरण में कोण्डकुण्ड था ग्राम अपूर्व । वर्षों के पूर्व ॥ लिया । कुन्द कुन्द ने जन्म लिया था दो सहस्र ग्यारह वर्ष प्रायु थी जब तुमने स्वामी वैराग्य श्रेष्ठ महाव्रत धारण करके मुनि पद का सौभाग्य लिया ॥ एक दिवस जङ्गल में बैठे घोर तपस्या में थे लीन । कंचन सी काया तपती थी आत्म ध्यान में थे उसी समय इक पूर्व जन्म का मित्र देव व्यंतर तल्लीन ॥ आया । नाया ॥ खोली । देख तपस्या रत भू पर श्रा श्रद्धा से ध्यान पूर्ण होने पर मुनि ने जब अपनी देखा देव पास बैठा है बोले तब हित मित बोली ॥ धर्मं वृद्धि हो, धर्मं वृद्धि हो, धर्म वृद्धि हो, तुम हो कौन । हर्षित पुलकित गद्गद् होकर तोड़ा तब व्यन्तर ने मौन ॥ मस्तक आँखें नमस्कार कर भक्ति भाव से पूर्व जन्म का दे पिछले भव में परम मित्र थे क्षमा करें मेरी (१०) स. सा. ३८, ७३ - मैं निश्चय से एक हूं शुद्ध हूं । परिचय | अविनय ॥
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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