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जैन पूजांजलि
अंतरंग बहिरंग आश्रव से विरक्ति ही संयम है । सम्यक्दर्शन ज्ञान पूर्वक जो संवर है संयम है ||
आना ॥
किया ॥
हर्षाये ।
सीमंधर स्वामी के दर्शन को विदेह यही प्रार्थना चलें आप भी नम्र विनय मन चिर इच्छा साकार हुई मुनिवर ने स्वर्ण बोले श्री जिनवारणी सुनकर मुझे लौट भारत मुनि को साथ लिया उसने आकाश मार्ग से गमन किया । तोर्थङ्कर सर्वज्ञ देव को जा विदेह में नमन सीमंधर के समवशरण को देखा मन में जन्म जन्म के पातक क्षय कर अनुपम ज्ञान रत्न पाये ॥ सीमंधर प्रभु के चरणों में झुककर किया विनय वन्दन । प्रभु की शाँत मधुर छवि लखकर धन्य हुए भारत नन्दन ॥ प्रभु से प्रश्न हुआ लघु मुनिवर कौन कहाँ से आये हैं । खिरी दिव्य ध्वनि कुन्द कुन्द मुनि भरत क्षेत्र से आये हैं । सीमंधर ने दिव्य ध्वनि में कुन्द कुन्द का नाम लिया । भव भव के प्रघ नष्ट हो गये मुनि ने विनय प्रणाम किया ॥ विनयी होकर कुन्द कुन्द ने जिन वारणी का पान किया । भ्रष्ट दिवस रह समवशरण में द्वादशांग का ज्ञान लिया ॥ प्रक्षय ज्ञान उदधि मन में भर और हृदय में प्रभु का नाम । सीमंधर तीथंङ्कर प्रभु को करके बारम्बार प्रणाम ॥ फिर विदेह से चले और नम पथ से भारत में प्राये । तीर्थङ्कर वाणी का सागर मन मन्दिर में लहराये ॥ जो सुनकर श्राये जिनवाणी फिर उसको लिपि रूप दिया । जगत जीव कल्यारण करें निज ऐसा शास्त्र स्वरूप दिया ॥ राग मात्र को हेय बताया उपादेय निज शुद्धातम । भाव शुभाशुभ का प्रभाव कर होता चेतन परमातम ॥
मू जाता हूं । लाता हूं ॥
समय जाना ।