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जैन पूजांजलि सह अस्तित्व समन्वय होंगा, संयममय अनुशासन से ।
सत्य अहिंसा अपरिग्रह, अस्तेय शील के शासन से । अष्ट द्रव्य का अर्घ चढ़ाऊँ प्रष्ट कर्म का हो संहार । निज अन पद पाऊँ भगवन् सादि अनन्त परम सुखकार ॥अजर. ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि ।
जयमाला 8 मुक्तिकन्त भगवन्त सिद्ध को मन वच काया सहित प्रणाम । अर्ध चन्द्रसम सिद्ध शिला पर प्राप विराजे आठों याम ॥ ज्ञानावरण दर्शनावरणी, मोहनीय अन्तराय मिटा । चार घातिया नष्ट हुए तो फिर अरहन्त रूप प्रगटा ॥ वेदनीय अरु आयु नाम अरु गोत्र कर्म का नाश किया । चऊ अघातिया नाश किये तो स्वयं स्वरूप प्रकाश किया । प्रष्ट कर्म पर विजय प्राप्त कर प्रष्ट स्वगुण तुमने पाये। जन्म मृत्यु का नाश किया निज सिद्ध स्वरूप स्वगुण भाये ।। निज स्वभाव में लोन विमल चैतन्य स्वरूप अस्पो हो। पूर्ण ज्ञान हो पूर्ण सुखी हो पूर्ण बली चिद्रूपी हो ॥ वीतराग हो सर्व हितैषी राग द्वेष का नाम नहीं। चिदानन्द चैतन्य स्वभावी कृतकृत्य कुछ काम नहीं ॥ स्वयं सिद्ध हो स्वयं बुद्ध हो स्वयं श्रेष्ठ समकित प्रागार । गुरण अनन्त दर्शन के स्वामी तुम अनन्त गुण के भण्डार ॥ तुम अनन्त बल के हो धारी ज्ञान अनन्तानन्त अपार । बाधा रहित सूक्ष्म हो भगवन् अगुरुलघु अवगाह उदार ॥ सिद्ध स्वगुण के वर्णन तक की मुझ में प्रभुवर शक्ति नहीं। चलूँ तुम्हारे पथ पर स्वामी ऐसी भी तो भक्ति नहीं ॥ देव तुम्हारा पूजन करके हृदय कमल मुसकाया है । भक्ति भाव उर में जागा है मेरा मन हर्षाया है ॥