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________________ २००] जैन पूजांजलि धर्मात्मा को जग में अपना केवल शुद्धातम प्रिय है। निज स्वभाव हो उपादेय है और सभी कुछ अप्रिय है । पटना से श्री सेठ सुदर्शन मुक्त हुए उनको वन्दू। कुन्डलपुर से मोक्ष गए श्रीधर स्वामी के पद वन्यूँ ॥ पोदनपुर से सिद्ध हुए श्री बाहुबली स्वामी बन्द। भरत आदि चक्रेश्वर मुनियों को निर्वाण धरा वन्दू ॥ श्रवण, द्रोण, वैभार, बलाहक, विध्य, सह, पर्वत बन्दू। प्रवर कुन्डली, विपुलाचल, हिमवान क्षेत्रों को बन्दू॥ तोर्पङ्कर के समो गणधरों को निर्वाण भूमि वन्दू। वृषमतेन मादिक गौतम, चौदह सौ उन्सठ ऋषि वन्डू। कामदेव बलभद्र चक्रि जो मुक्त हुए उनको धन्। जल थल नम पे सिद्ध हुए उपसर्ग केवली सब बन् ज्ञात और अज्ञात सभी निर्वाण भूमियों को वन्द । भूत भविष्यत् वर्तमान को सिद्ध भूमियों को वन्दू॥ मन वच काय त्रियोग पूर्वक सर्व सिद्ध भगवन बन्द। सिद्ध स्वपद की प्राप्ति हेतु मैं पांचों परमेष्ठी बन्द ॥ सिद्ध क्षेत्रों के दर्शन कर निज स्वरूप दर्शन करलू। शुद्ध चेतना सिंधु नीर पी मोक्ष लक्ष्मी को वरलू॥ सब तीर्थों की यात्रा करके प्रात्म तीर्य को ओर चलू। अजर अमर अविकल अविनाशी सिद्ध स्वपद की प्रोर ढलू॥ भाव शुभाशुभ का प्रभाव कर शुद्ध प्रात्म का ध्यान करू। रागद्वेष का सर्वनाश कर मङ्गलमय निर्वाण वरू॥ ॐ ह्रीं | ममस्त सिद्ध क्षेत्र भ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय पूर्णार्धम् नि० । श्री निर्वाण क्षेत्र का पूजन वंदन जो जन करते हैं। समकित का पावन वैभव पा मुक्ति वधू को वरते हैं। इत्यार्शीर्वादः जाप्य- ॐ ह्रीं श्री सर्व सिद्ध क्षेत्रेभ्यो नमः ।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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