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________________ जैन पूजाँजलि [१७ ज्ञानी भक्त संसार के सुखों की कामना नहीं करता है। देव सौरिप्रभ चरणाम्बुज दर्शन कर पांचों बन्ध हरू। परम विशाल कोति को जय हो निज को पूर्ण अबंध करू॥ श्री वज्रधर सर्व दोष हर सब संकल्प विकल्प हरू। चन्द्रानन के चरण चित्त धर निविकल्पता प्राप्त करूं। चन्द्रबाहु को नमस्कार कर पाप पुण्य सब नाश करू । श्री भुजङ्ग पद मस्तक धरकर निज चिद्रूप प्रकाश करूं ॥ ईश्वर प्रभु की महिमा गाऊँ प्रात्म द्रव्य का भान करूं। श्री नेमि प्रभु के चरणों में चिदानन्द का ध्यान करूं॥ वीरसेन के पद कमलों में उर चंचलता दूर करूं। महाभद्र को भव्य सुछवि लख कर्म घातिया चूर करूं। श्री देवयश सुयश गान कर शुद्ध भावना हृदय धरूं। अजितवीर्य का ध्यान लगाकर गुण अनंत निज प्रगट करूं। बीस जिनेश्वर समवशरण लख मोहमयो संसार हरू। निज स्वभाव साधन के द्वारा शीघ्र भवार्णव पार करू। स्वगुण अनन्त चतुष्टय धारी वीतराग को नमन करूं। सकल सिद्धि मङ्गल के दाता पूर्ण अर्घ के सुमन धरू ॥ ॐ ह्रीं श्री विद्यमान विशति तीर्थकरेभ्यो पूर्णाय॑म् नि । दोहा जो विदेह के बोस जिनेश्वर की महिमा उर में धरते। भाव सहित प्रभु पूजन करते मोक्ष लक्ष्मी को वरते ॥ 8 इत्याशीर्वादः ४ ॐ ह्रीं श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्यो नमः जाप्य
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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