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जैन पूजांजलि
मैं निर्वकल्प हूँ शुद्ध बुद्ध, इतना तो अंगीकार करो।
शद्धपयोग मय परम पारिणामिक स्वभाव स्वीकार करो। बैरी कमठ जीव ने तुमको नौ भव तक दुख पहुंचाया। इस भव में भी संवर सुर हो महा विघ्न करने प्राया ॥ किया अग्निमय घोर उपद्रव भीषण झंझावात चला। जल प्लावित हो गयी धरा पर ध्यान प्रापका नहीं हिला॥ यक्षी पद्मावती यक्ष धरणेन्द्र विघ्न हरने पाये । पूर्व जन्म के उपकारों से हो कृतज्ञ तत्क्षण प्राये ॥ प्रभु उपसर्ग निवारण के हित शुभ परिणाम हृदय छाये। फण मण्डप अरु सिंहासन रच जय जय जय प्रभु गुण गाये ॥ देव आपने साम्य भाव धर निज स्वरूप को प्रगटाया। उपसर्गों पर जय पाकर प्रभु निज कैवल्य स्वपद पाया। कमठ जीव को भाया विनशी वह भी चरणों में आया । समवशरण रचकर देवों ने प्रभु का गौरव प्रगटाया ॥ जगत जनों को ओंकार ध्वनिमय प्रभु ने उपदेश दिया। शुद्ध बुद्ध भगवान् प्रात्मा सबको है सन्देश दिया । दश गणधर थे जिनमें पहले मुख्य स्वयंभू गणधर थे। मुख्य प्रायिका सुलोचना थीं श्रोता महासेन वर थे॥ जीव, अजीव, प्राश्रव, संवर, बन्ध निर्जरा मोक्ष महान । ज्यों का त्यों श्रद्धान तत्व का सम्यक् दर्शन श्रेष्ठ प्रधान ॥ जीव तत्व तो उपादेय है, अरु अजीव तो है सब ज्ञेय । आश्रव बन्ध हेय है साधन संवर निर्जर मोक्ष उपेय ॥ सात तत्व ही पाप पुण्य मिल नव पदार्थ हो जाते हैं। तत्व ज्ञान बिन जग के प्राणी भव भव में दुख पाते हैं । वस्तु तत्व को जान स्वयं के प्राश्रय में जो पाते हैं। प्रात्म चितवन करके वे ही श्रेष्ठ मोक्ष पद पाते हैं।